हे अपनों से असंतुष्टों को होटलहोटल छिपालिटा संतुष्टि का अमरत्व पिलाने वालो, हे अपनों से असंतुष्टों को एक से एक रिजौर्टों में घुमातेघुमाते सत्तावालों को सत्ता में होते हुए भी चक्करघिन्नी की तरह घुमाने वालो, आप जी सचमुच महान हो. असंतुष्टों की असंतुष्टि का पलक झपकते इस्तेमाल करने में आप महाप्राण हो. जहां भी हम असंतुष्ट आप को जरा सा भी रोतेबिलखते दिखते हैं, वहीं आप हमारा उद्धार करने के लिए नंगेपांव दौड़े आते हो और हमें चार्टर यान में उठा छू मंतर हो जाते हो. आप की कृपामयी नजरों से किसी भी पार्टी का कोई भी असंतुष्ट आज तक बच नहीं पाया. कहीं भी, जो भी जरा सा भी आप को असंतुष्ट दिखा,  उस को आप ने चूहे की तरह बाज हो उठाया. आप हर पार्टी के असंतुष्टों के मोक्षद्वार हो. आप हम असंतुष्टों के गले का कागजी फूलों के हार हो. आप जो हम असंतुष्टों को संतुष्ट करने का पुण्य कार्य कर रहे हो, वह स्वर्गिक है, हम स्वर्गीय हैं.

मुझे भी आप को यह सूचित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि आप ने उन के तो सारे असंतुष्टों को संतुष्ट करने का सौभाग्य प्राप्त कर पुण्य प्राप्त कर लिया पर एक असंतुष्ट अभी भी आप की पैनी नजरों में नहीं आया है. उस पर हर कोण से असंतुष्टि की काली छाया है. और वह घरजला असंतुष्ट और कोई नहीं, मैं हूं सर जी.

प्लीज, इस असंतुष्ट पर भी अपनी कृपादृष्टि डाल इस का जीवन भी धन्य कीजिए, प्रभु. मैं आप के पास बिकने, आप से लिपटने को अपना बोरियाबिस्तर बांध तैयार बैठा हूं यह जानते हुए भी आदमी चाहे कितने का भी बिके, बिकने के बाद उस की इज्जत दो कौड़ी की भी नहीं रहती. सर जी, इज्जत को मारो गोली. इज्जत से संतुष्टि नहीं मिला करती. मैं संतुष्ट होना चाहता हूं वह भी फुल्ली का फुल्ली.  इज्जत का अचार डालतेडालते बहुत थक गया हूं. अब मैं भी आप के चरण में लोट रिजौर्टरिजौर्ट मस्ती कर संतुष्टि का परम सुरापान करना चाहता हूं. घर की हैसियत मुताबिक मिलने पर भी घर के दुखिया को जीभर कोस आप का गुणगान करना चाहता हूं. मैं भी अपने घर से बागी होना चाहता हूं. अपनी संतुष्टि के लिए बुढ़ापे में दागी होना चाहता हूं. अपने घर के प्रति वफादार हो कर आखिर मुझे भी क्या मिला? ठेंगा. जिस घर में रहते हुए जीव को उस का मनवांछित पद न मिले उस घर और पार्टी को तुरंत त्याग देना चाहिए. ऐसा जनता को समर्पित जनसेवकों को करते बहुत देखा है.

जिस तरह आप ने उन के असंतुष्टों पर अपनी फुल कृपा बरसाई है, उसी तरह मुझ पर भी अपनी कृपा बरसाइए, प्लीज, ताकि मैं भी असंतुष्ट से संतुष्ट हो सकूं. चातक से भाटक हो सकूं. अपने घर के लिए आप से अधिक घातक हो सकूं. यह दीगर है कि 2 टांगाधारी जीव कभी संतुष्ट नहीं होता. उसे चाहे संतुष्टि के समुद्र में ही सारी उम्र डुबो कर क्यों न रखो. समुद्र से बाहर निकलते ही वह फिर असंतुष्ट हो जाता है.

हे असंतुष्टों को संतुष्टि प्रदान करने वाले दाताजी-प्रदाताजी, मैं भी जनाबों की तरह अपने घर की रूखीसूखी रोटियां खातेखाते बोर हो गया हूं. घर में किसी रोज जो मुरगा परोसा जाता है तो लगता है ज्यों केवल मुझे आलू खिलाए जा रहे हों. मुझे खिलाए जाने वाले मुरगे से अब सड़े आलू की बास आती है. घर में रात को सोते हुए जब मुझे दूध पिलाया जाता है तो लगता है, मुझे दूध नहीं, विष पिलाया जा रहा हो जैसे.

घर की रोटियां खाने से अब मेरा पेट भी खराब रहने लगा है. अपने घर में रहते मेरी सेहत दिनोंदिन बिगड़ती जा है. मत पूछो इस घर में रहते मुझ में कितनी वीकनैस आ गई है? आई फील कि घर का सदस्य होने के बाद भी जैसे घर में मेरी कोई पूछ नहीं. भाईसाहब, हम घर से ले कर सभा तक राजनीति किसलिए करते हैं? घर और जनता की सेवा के लिए? न भाईसाहब न, हम तो अपनी संतुष्टि के लिए घरसेवा-जनसेवा के अखाड़े में उतरते हैं. हमारे लिए अपनी संतुष्टि जरूरी है. घर जाए भाड़ में. भाईसाहब, हम तो चौबीसों घंटे एकदूसरे के वो गले लगने वाले हैं जो अपने अहं की तुष्टि के लिए दिल्ली तक ढहा सकते हैं. फिर ये तो…

अब आप को कैसे बताऊं, आह, मेरा मेरे घर में कितना दम घुट रहा है? आप कहोगे कि यह नहीं हो सकता. घर तो घर होता है. मैं झूठ बोल रहा हूं. अच्छा तो एक बात बताओ, आदमी अपनों के साथ क्यों रहता है? टन्न रहने के लिए, टुन्न रहने के लिए. जहां टन्नता नहीं, टुन्नता नहीं, वहां दूसरा घर चुनना सोलह आने सही.

बंधुवर, मुझे अब मेरे ही घर में सांस लेने में ठीक उन जैसी ही कठिनाई हो रही है. मुझे भी अब लगने लगा है ज्यों मेरे घर में मेरे हिस्से की औक्सीजन खत्म हो रही हो. या कि मेरे हिस्से की औक्सीजन कोई और अपने नाक में घुसाए बैठा हो.

अब मैं अपने घरवालों से कैसे पूछूं कि भाईसाहब, हम भी तो तुम्हारी तरह इसी घर के सदस्य हैं कि नहीं? इसलिए हमें भी मनमाफिक खानेनहाने के मौके दो. यह तो काई बात नहीं होती कि खुद हमाम में सारा दिन नहाते रहो और हमें नहाने को लोटा भी नहीं. ऐसे में मुझे लगता है जब मेरे घर में मेरी कोई इज्जत नहीं तो दूसरों के घर का झंडा अपनी छाती पर सजाने में शर्म कैसी?

साहबजी, मुझे लगता है कि जैसे मेरी आवाज को मेरे ही घर में मेरे ही घरवालों द्वारा दबाया जा रहा है. मुझे लगता है जैसे मेरे ही घर में मेरी हर बात को अनसुना किया जा रहा है. मेरे ही घर में न कोई मुझे अपने ढंग से खाने देता है, न पीने. मुझे लगता है जैसे बातबात पर मुझे रील किया जाता है. इस सब से तंग आ कर सच कहूं तो अब मेरा मन किसी और की मुंडेर पर इतराने को फड़फड़ा रहा है. आप बहुत नेक बंदे हो, जी. आप ने असंतुष्टों को संतुष्टि का मार्ग दिखाया है. उन्हें अपने गले लगाया है. आप ने असंतुष्टों को संतुष्टि का गजब का घोटा पिलाया है. यह जनता क्या कह रही है? जो अपने ही घर में संतुष्ट नहीं हुए वे दूसरे के घर में क्या खाक संतुष्ट होंगे. यह जनता भी न, पता नहीं, समझदार क्यों हो रही है?

अहा, आप का असंतुष्टों के प्रति सेवाभाव देख मेरा ग्रीडी मन आप के चरणों में गिड़गिड़ाने को लचक रहा है. तो मैं आप से मिलने कहां आऊं? या आप मुझ से जितनी जल्दी हो सके, संपर्क कीजिए, प्लीज. इस घर की असंतुष्टि अब मुझ से और सहन नहीं हो रही है, प्रभु. मैं अपना बोरियाबिस्तर बांध आप के चार्टर यान की राह में पलकें बिछाए तैयार बैठा हूं. तो मुझ असंतुष्ट को लेने कब आ रहे हो, हे असंतुष्टों के नाथ, मैं आप के करकमलों द्वारा अपने गले में इज्जत का पट्टा डलवाने को, मत पूछो कितना, बेकरार हूं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...