इंडिया ब्लौक ने फीनिक्स पक्षी की तरह अपने पंख दोबारा खोले तो हैं लेकिन उड़ान वह कहां तक कर पाएगा, यह कहना मुश्किल है. जिस पौराणिक माहौल में भाजपा 400 पार का दम भर रही है, लोकतांत्रिक माहौल के तहत विपक्ष उसे कितनी चुनौती दे पाएगा, यह भी अगर मुट्ठीभर सवर्णों को ही तय करना है तो यह चुनाव कतई दूसरे मुद्दों के इर्दगिर्द नहीं होने वाला.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की न्याय यात्रा का उत्तर प्रदेश में आखिरी पड़ाव आगरा था जहां की टेढ़ी बगिया में सुबह से ही समाजवादी पार्टी के और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के आने का सिलसिला शुरू हो गया था. दोपहर होतेहोते इलाके में पांव रखने की भी जगह नहीं बची थी. चारों तरफ ?ांडे ही ?ांडे नजर आ रहे थे जिन से 22 जनवरी के अयोध्या इवैंट के दौरान लगाए भगवा ?ांडे एक हद तक छिपने लगे थे. सपा और कांग्रेस के ?ांडों के साथसाथ दलितों वाले नीले ?ांडे एक नई जुगलबंदी की चुगली कर रहे थे जो अब बसपा के साथ भाजपा के लिए चिंता की बात हो सकती है.

सपा प्रमुख अखिलेश यादव के सभा में पहुंचते ही नारेबाजी शुरू हो गई और सपा कार्यकर्ताओं की अखिलेश तक पहुंचने की होड़ में मंच की रेलिंग टूट गई जो ऐसे आयोजनों में सफलता की निशानी मानी जाती है. आधा घंटे बाद राहुल और प्रियंका गांधी भी पहुंचे. राहुल और अखिलेश के गले मिलते ही यह साफ हो गया कि टूटने के बाद अब एक बार फिर इंडिया गठबंधन आकार ले रहा है. राहुल और अखिलेश के जयजयकार के नारों के दौरान भीमराव अंबेडकर की जय के भी नारे लगे जिस से जाहिर है कि बड़ी तादाद में दलित भी इस सभा में आए थे.

अखिलेश यादव ने माहौल देखते कहा, बाबासाहेब के जिन सपनों को भाजपा ने बरबाद किया है उन्हें पूरा करने के लिए हमें एक कसम खानी होगी कि बीजेपी हटाओ, देश बचाओ, संकट मिटाओ. भाजपा ने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को वह सम्मान नहीं दिया जिस के वे हकदार हैं. गौरतलब है कि अखिलेश यादव का पूरा फोकस पीडीए यानी पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों पर है जिस का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के पास है. इसलिए दोनों के बीच सहमति इस बात पर बनी है कि उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 17 पर कांग्रेस लड़ेगी और बाकी 63 पर सपा और इंडिया ब्लौक के दूसरे सहयोगी भाजपा को टक्कर देंगे.

वोट शेयरिंग होगी क्या

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एक बार फिर पलटी मारने के बाद इंडिया गठबंधन बिखरता दिखाई दे रहा था. उत्तर प्रदेश के रालोद मुखिया जयंत चौधरी जो चरण सिंह के पोते और अजित सिंह के बेटे हैं, के भी भगवा गैंग जौइन कर लेने के बाद हर कोई विपक्षी एकता की तरफ से निराश हो चला था लेकिन जिस तेजी से इंडिया गठबंधन में सीट शेयरिंग पर सहमति बनी वह बताती है कि जो होना था वह हो चुका है और गठबंधन छोड़ कर जो दल और नेता भाजपा के साथ गए हैं वे न केवल अपनी जमीन खो चुके हैं बल्कि उन का आत्मविश्वास और पौराणिकवादियों से जू?ाने का जज्बा भी ध्वस्त हो चुका है. इन नेताओं को लगता नहीं कि समाज से कोई सरोकार बचा है. बहुसंख्यकवाद के आगे घुटने टेकना कोई हताशा नहीं है बल्कि एक किस्म की धूर्तता है यह.

नीतीश कुमार की लोकप्रियता और स्वीकार्यता समाजवादी राजनीति के चलते ही रही है. एक दौर में वे प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष इतिहास की आर्थिक व्याख्या किया करते थे. यानी वे आर्थिक सुधारों व समानता के लिए सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के हिमायती थे, इसलिए पिछड़े, दलित और मुसलमान उन में भरोसा जताया करते थे. यह भरोसा इस चुनाव में कायम रहेगा, इस सवाल का जवाब हां में तो कतई नहीं मिलने वाला.

अतिआत्मविश्वास और संभावित जीत के अहंकार में डूबी भाजपा ने उन्हें साथ ले कर घाटे का ही सौदा किया है क्योंकि जातिवादी राजनीति के सिर चढ़ कर बोलने के इस दौर में लगता नहीं कि भाजपा का सवर्ण वोट जदयू को मिलेगा या नीतीश का पिछड़ा वोट भाजपा को जाएगा ही.

इन राजनीतिक और चुनावी बातों से हट कर देखें तो नीतीश कुमार 2 मार्च को बहुत बेचारे लगे थे जब वे नरेंद्र मोदी से माफी मांगने के अंदाज में यह कह रहे थे कि अब कहीं नहीं जाऊंगा. ये वही नीतीश हैं जो 2013-14 में नरेंद्र मोदी को हड़काते व धमकाते रहते थे. यही सख्त तेवर और उसूल देख पिछड़ों को लगता रहा था कि उन का सम्मान और स्वाभिमान नीतीश के हाथों में सुरक्षित है. अब यह तबका हताश है. इस से इंडिया ब्लौक को फायदा ही होगा क्योंकि मुसलिम समुदाय के पास भी अब कोई विकल्प नहीं बचा है कि अगर सुकून से रहना है तो सीधी टक्कर वाले राज्यों में वोट कांग्रेस को दिया जाए और जहां उस का गठबंधन क्षेत्रीय दलों से है वहां उन्हें चुना जाए, मसलन उत्तर प्रदेश में सपा, दिल्ली में आप और बिहार में आरजेडी.

उत्तर प्रदेश के साथसाथ दिल्ली और महाराष्ट्र में भी सीटों का फार्मूला तय हो चुका है जिस के तहत आप 4 और कांग्रेस 3 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. तीनों ही जगह कांग्रेस को उस की राष्ट्रीय कदकाठी के लिहाज से सम्मानजनक सीटें मिली हैं. बिहार में कचरा छंटने के बाद राजद और कांग्रेस खुद को ज्यादा कंफर्ट महसूस कर रहे हैं. अब लोगों और भाजपा की निगाहें खासतौर से पश्चिम बंगाल पर हैं जहां सीटों का पेंच अभी भी फंसा है.

सक्रिय हुईं पार्टियां

बावजूद कुछ सियासी अड़चनों के, इंडिया ब्लौक की पार्टियां एक बार गिरने के बाद फिर ह्यूमन पिरामिड की तरह सक्रिय हो गई हैं जिन का वजन सब से नीचे पीठ के बल बैठी कांग्रेस ने अपने ऊपर ले रखा है. सत्ता की हांडी से मक्खन ये लूट पाएंगे या नहीं, यह नतीजे बताएंगे लेकिन पहली बार ऐसा लग रहा है कि अब ये सभी सीटों की गिनती का मोह और लालच छोड़ देश की सोचने लगे हैं, जनता की सोचने लगे हैं और एक हद तक वे मानसिक रूप से खुद को इस बाबत तैयार करने में लगे हैं कि इस बार चुनावी राजनीति के जरिए समाज और उस के विभिन्न वर्गों के हकों व हितों की लड़ाई लड़नी है.

राहुल गांधी अपनी न्याय यात्रा के दौरान देश की जनता को यह हकीकत बताते रहे हैं जो सवर्ण वोटों के लिहाज से बहुत बड़ा रिस्क है. भाजपा नफरत, डर और हिंसा फैला रही है, राहुल की यह बात अब इंडिया ब्लौक के सभी घटक दल दोहरा रहे हैं और जो इसे दोहराने की हिम्मत नहीं जुटा पाए वे भगवा गैंग की शरण में चले गए. वे दरअसल पौराणिक मानसिकता के हैं. इन में कांग्रेसियों की तादाद भी खासी है. कितने हेमंत बिस्वा शर्मा, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मिलिंद देवड़ा वगैरह कांग्रेस का साथ छोड़ गए, इस की गिनती करना बेकार की बात है.

इन के जाने से यह सोचना गलत है कि कांग्रेस कमजोर हुई है. उलटे, उसे मजबूती मिलती है. ये लोग कांग्रेस के ही कट्टर हिंदूवादी बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले से तो कहीं बेहतर हैं जिन्होंने कभी कांग्रेस में रहते हुए हिंदूवादी हितों के लिए वोटों की जमीन तैयार की थी और जातियों की खाई पर ?ांकियों व कर्मकांडों का कुदाल चलाया था. जो बबूल सवर्ण और पौराणिक मानसिकता वाले कांग्रेसी वक्तवक्त पर बोते रहे थे वे पूरे नहीं तो आधे से ज्यादा देश में अब इफरात से खिल रहे हैं और लोगों को बरगलाया जा रहा है कि ये बबूल नहीं, बल्कि गुलाब हैं.

ईमान बेच कर बचाया धर्म

हिमाचल प्रदेश में यह यानी बबूल खिलने का काम दूसरे लेकिन जानेपहचाने तरीके से हुआ. राज्यसभा चुनाव में उस के 6 विधायकों ने क्रौस वोटिंग कर अभिषेक मनु सिंघवी को हरवा दिया. इन 6 में से

5 विधायक ऊंची जाति वाले थे जिन्होंने भाजपा को मजबूत किया. इसी तरह उत्तर प्रदेश में सपा के जिन 8 विधायकों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया उन में से 6 ब्राह्मण, ठाकुर या दूसरी किसी ऊंची जाति वाला कोई था.

यह सोचना बेमानी है कि इन विधायकों ने 2, 5 या 10 करोड़ में अपना ईमान बेच दिया बल्कि सच तो यह है कि इन्होंने अपना धर्म बचा लिया और यह भी जता दिया कि अगर वोटर सपा या कांग्रेस या किसी भी दूसरे दल के सवर्ण को चुनता है तो वह 50 फीसदी मामलों में दरअसल भाजपा को ही चुन रहा होता है. यह बात मुनासिब वक्त पर साबित भी हो जाती है.

अहम है पश्चिम बंगाल

टीएमसी मुखिया ममता बनर्जी बेहतर सम?ा रही हैं कि अब वक्त कम बचा है. भाजपा लगातार आक्रामक हो रही है और तरहतरह से दबाव भी बना रही है. अगर उस से बचना है तो सीटों की जिद तो उन्हें छोड़नी पड़ेगी जिस से फायदे की तो कोई गारंटी नहीं लेकिन जो तयशुदा नुकसान दिख रहे हैं उन की भरपाई फिर किसी टोटके से नहीं होने वाली.

सीट शेयरिंग के मामले में अब कांग्रेस भी उदारता से काम ले रही है. यही मजबूरी क्षेत्रीय दलों की हो चली है. अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव ने नफेनुकसान का हिसाबकिताब वक्त पर लगा लिया, इसलिए अब बेफिक्री से चुनाव प्रचार कर रहे हैं ताकि सीट की तरह वोट शेयरिंग पर भी काम किया जा सके. इसी तरह ममता बनर्जी जल्द कोई फार्मूला निकाल लें तो बात किसी हैरानी की नहीं होगी.

ममता बनर्जी की सब से बड़ी दिक्कत वह भाजपा है जो 2019 के आम चुनाव में चौंकाते पश्चिम बंगाल की 42 में से 18 लोकसभा सीटें 40.25 फीसदी वोटों के साथ ले गई थी जबकि 2014 के चुनाव में उसे महज 2 सीटें 17 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. ममता भाजपा के बढ़ते प्रभाव से सकते में थीं क्योंकि भगवा गैंग के बढ़ते प्रभाव ने राज्य में हिंदूमुसलिम बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया था. विधानसभा चुनाव आतेआते वे संभल भी गईं थीं लेकिन खतरा अब फिर मुंहबाए खड़ा है.

भाजपा को अगर 18 से 8 पर लाना है तो उन्हें कांग्रेस और वामदलों का साथ लेना ही पड़ेगा नहीं तो वोट फिर बंटेगा और घाटे में टीएमसी ही रहेगी क्योंकि 2014 के चुनाव में कांग्रेस और वामदलों को सीटें भले ही 6 मिली हों लेकिन उन का वोट शेयर 12 फीसदी था. साफ है कि वामदलों का वोट बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ गया था.

सीटों के लिहाज से पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए ज्यादा अहम हो चला है जहां वह पिछले प्रदर्शन को दोहराना चाहेगी उलट इस के, ममता कभी नहीं चाहेंगी कि भाजपा और बढ़े लेकिन उसे रोकने के लिए वे क्या करती हैं, यह देखना दिलचस्प होगा. पंचायत चुनावों में कांग्रेस और कम्यूनिस्टों का प्रदर्शन सुधरा है, उन्होंने भाजपा और टीएमसी दोनों के ही वोट काटे हैं. यही ट्रैंड इस चुनाव में भी कायम रहा तो फायदे में भाजपा ही रहेगी.

लाख टके का सवाल गठबंधन नेताओं के सामने यह मुंह बाए खड़ा है कि वोट शेयरिंग का फार्मूला कहां मिलेगा. जाहिर है अब लोकतंत्र की लड़ाई धर्म से है और सीधेतौर पर कहें तो सवर्ण बनाम गैरसवर्ण है जिस के बारे में आगरा में ही अखिलेश यादव की बातों को विस्तार देते राहुल गांधी ने कहा था कि देश में पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की आबादी 88 फीसदी है लेकिन देश की बड़ीबड़ी कंपनियों के मैनेजमैंट में इन वर्गों के लोग आप को नहीं मिलेंगे. ये लोग आप को मनरेगा कौन्ट्रैक्ट लेबर की लिस्ट में मिलेंगे. हमें यही बदलना है और यही सामाजिक न्याय का मतलब है. पौराणिक सोच वाले सवर्णों की औरतों की स्थिति उन्हीं के घरों में रहते हुए भी कोई अच्छी नहीं है क्योंकि उन के पास कानूनों के बावजूद न अधिकार हैं, न तन कर खड़े होने के अवसर.

धर्मांधता का इलाज क्या

पौराणिक और अब लोकतांत्रिक वर्णव्यवस्था की इस से आसान व्याख्या कोई और हो भी नहीं सकती लेकिन इस बात को लोगों के गले उतारना या उन्हें वोट देने की हद तक सहमत करना भी आसान काम नहीं है. भाजपा कोई 15 फीसदी सवर्ण वोटों के भरोसे ही नहीं इतरा रही बल्कि धर्म के नाम पर और मुसलमानों के खौफ के नाम पर उसे पिछले 2 लोकसभा चुनावों में इफरात से दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के भी वोट मिले हैं. इसलिए वह इन दोनों मुद्दों को नहीं छोड़ रही. वह लगातार मंदिरों की ताबड़तोड़ राजनीति कर रही है.

जब अखिलेश और राहुल लोकतंत्र व सामाजिक न्याय की दुहाई आगरा में दे रहे थे ठीक उसी वक्त नरेंद्र मोदी द्वारका के समुद्र में डुबकी लगाते एक दिव्य अनुभव ले रहे थे. उन के हाथ में मोरपंख और साथ में कैमरामैन और सिक्योरटी गार्ड भी थे. ईश्वर में अनास्था और अविश्वास का इस से बड़ा उदाहरण कोई और हो भी नहीं सकता कि आप सुरक्षा के लिए बजाय ऊपर वाले के, नीचे वालों की मदद लें.

आज धर्मांधता देशभर में फैली है. संपन्न, शक्तिशाली सवर्ण तो इस से कोई सम?ाता करने को तैयार नहीं जिन्हें न महंगाई सताती, न बेरोजगारी और न

ही भ्रष्टाचार से ही कोई सरोकार है. मुख्यधारा पर काबिज यह वर्ग एक जनून के तहत जी रहा है जो आगे चल कर उसी के लिए घातक साबित होगा लेकिन वह धर्म और उस की राजनीति ही क्या जो लोगों को उन के भविष्य के बारे में सोचने दे. वह तो एक पूरे वर्ग का वर्तमान नष्ट करती है जिस से भविष्य तो एडवांस में चौपट हो ही जाता है.

भाजपा की मंदिर नीति के चलते सब से बड़ा नुकसान सवर्णों और उन में भी युवाओं का ज्यादा हो रहा है. ये युवा बेरोजगारी के सब से बड़े शिकार हैं जो न तो डिलीवरी बौय बन सकते हैं न अग्निवीर और न ही ये चायपकौड़े का ठेला लगा सकते हैं. लेकिन अफसोस और हैरत की बात यह कि ये बेचारे बेरोजगारी का विरोध भी नहीं कर पाते, बात आखिर भाजपा के प्रति निष्ठा की जो है.

भोपाल के एक ऐसे ही युवा अक्षत दुबे (बदला नाम) की मानें तो दिक्कत यह है कि अधिकतर ऊंची जाति वाले नरेंद्र मोदी की आलोचना न सुनना चाहते हैं न करने देना चाहते हैं. ये लोग एक ?ाठी आस लिए महाकाल, काशी और अब अयोध्या के भी चक्कर काटने लगे हैं जबकि पिछड़ों और दलितों में ऐसा न के बराबर है.

अक्षत की मां भोपाल के ही एक सरकारी कालेज में प्राध्यापक हैं. वे कहती हैं कि जैसेजैसे समाज में ऊंची जाति वाले हिंदुओं का दबाव बढ़ रहा है वैसेवैसे मुसलिम, पिछड़ा और दलित युवा तेजी से पढ़ रहा है. पीएससी सहित दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं में ड्यूटी के दौरान यह देख हैरानी होती है कि इन में शामिल उम्मीदवार अधिकतर मुसलिम और दलित व पिछड़े हैं और उन में भी युवतियों की संख्या युवकों के लगभग बराबर ही है. इन प्रोफैसर के मुताबिक, मोदीराज में सवर्ण दोहरीतिहरी मार ?ोल रहा है. उस के धार्मिक खर्च बेहद बढ़े हैं और आमदनी में इजाफा नहीं हो रहा है. अब अधिकतर सवर्ण जमापूंजी खर्च कर रहे हैं जो अभी, न दिख रही है न किसी की सम?ा आ रही है. इस के बाद भी वे भाजपा का विरोध नहीं करना चाहते.

जातियों का एक बड़ा गड़बड़?ाला देश में है जिस की तरफ इंडिया ब्लौक का भी ध्यान नहीं जा रहा. वह यह हकीकत वोटर को नहीं सम?ा पा रहा कि महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से बड़ी समस्या धर्म की राजनीति कैसे है जिस ने सवर्णों के साथ पिछड़ों और दलितों को भी अपनी ग्रिप में ले लिया है. भाजपा किनकिन नए तरीकों व हथकंडों से धर्म और जाति की राजनीति करते खुद के व देश के भविष्य की परवा नहीं कर रही, इसे सम?ाने के लिए राज्यसभा चुनाव की क्रौस वोटिंग के अलावा किसान आंदोलन और दक्षिण के साथ भेदभाव भी साक्षात उदाहरण हैं.

सरकार लाचार नहीं, चालाक है

किसान आंदोलन के दौरान मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रचार यह किया गया कि प्रदर्शन कर रहे किसान खालिस्तानी और ऐयाश हैं. उन के पास महंगीमहंगी कारें हैं. वे विदेशी एजेंट हैं, देश के दुश्मन हैं वगैरहवगैरह. बात में दम लाने के लिए कई वीडियो वायरल किए गए जिस से किसानों की इमेज बिगड़े. ऐसे ही कुछ वायरल वीडियोज में बताया गया कि आंदोलनकारी किसान शराब पी रहे हैं, शराब बांट रहे हैं और तवायफों के साथ रंगरलियां मना रहे हैं. यह और बात है कि मीडिया के ही फैक्ट चैकरों ने पाया कि तमाम वीडियो ?ाठे और फर्जी हैं.

यह प्रचार एक अभियान के तहत कौन करता है, यह बात किसी सबूत की मुहताज नहीं रह गई है कि दक्षिणपंथी और दक्षिणापंथियों की नजर में किसानों की हैसियत शूद्रों सरीखी ही रही है. सरकार चूंकि किसानों से घबराई हुई है, इसलिए उन के आंदोलन को दुष्प्रचार कर कुचलना चाहती है. राहुल गांधी और इंडिया ब्लौक किसानों की मांगें पूरी करने का आश्वासन दे रहे हैं लेकिन उन के सम्मान और स्वाभिमान पर सरकार को नहीं घेर पा रहे जिस से किसान आंदोलन पूरी तरह चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा.

यही हाल दक्षिणी राज्यों का है जहां कहीं भाजपा सत्ता में नहीं है और न ही उसे इन राज्यों से ज्यादा उम्मीदें हैं. इन राज्यों की सरकारें आएदिन केंद्र पर भेदभाव के आरोप लगाती रहती हैं. हालात तो तब और विस्फोटक व चिंतनीय हो जाते हैं जब डी के सुरेश जैसा दक्षिणी नेता अलग देश की बात कहने लगता है. इस कांग्रेसी सांसद ने बेहद व्यथित होते कहा था कि ‘केंद्र सरकार कर्नाटक को पर्याप्त पैसा नहीं दे रही है. दक्षिणी राज्यों को जीएसटी और प्रत्यक्ष करों के हिस्से का सही अधिकार नहीं दिया जा रहा है. केंद्र को हम से 4 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा मिल रहा है और बदले में हमें जो मिल रहा है वह न के बराबर है.’

इस सिलसिले में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 7 फरवरी को दिल्ली के जंतरमंतर पर अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ धरना देते उन तमाम तथ्यों को उजागर किया था जिन के चलते उन्हें लावलश्कर के साथ दिल्ली जा कर धरना देना पड़ा था. यह इत्तफाक की बात नहीं थी कि इस के दूसरे ही दिन केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन को भी उन का अनुसरण करना पड़ा. उन की व्यथा भी वही थी जो सिद्धारमैया की थी. कमोबेश तेलंगाना सरकार के आरोप भी बहुत अलग नहीं हैं.

इस विरोध ने उस वक्त और जोर पकड़ा था जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने पी विजयन को पत्र लिखते कहा था कि इस लड़ाई में तमिलनाडु न केवल केरल के साथ है बल्कि इस बारे में वाम लोकतांत्रिक मोरचा सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के साथ खुद को भी संबोधित करेगा.

इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी तथ्य और आंकड़े पेश किए थे कि कैसे केंद्र सरकार उन के राज्यों के साथ वित्तीय भेदभाव कर रही है. ऐसे में यह सोचना और चिंता करना वाजिब है कि कहीं देश उस विभाजन या विभाजन के उन धार्मिक क्षेत्रीय और जातीय कारणों की तरफ तो नहीं बढ़ रहा जो कभी यूगोस्लाविया में हुआ था.

यह हुआ था यूगोस्लाविया में यूगोस्लाविया में लगातार धार्मिक, क्षेत्रीय और जातीय विवाद एक समूचे महासंघ के पतन और विभाजन की वजह बने. बहुत संक्षेप में देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कई देशों को मिला कर यूगोस्लाविया बना था.

यूगोस्लाविया के डैमोक्रेटिक फैडरल यूगोस्लाविया बनने और कुछ समय बाद सोशलिस्ट फैडरल रिपब्लिक औफ यूगोस्लाविया में तबदील हो जाने से ले कर 1990 में विघटन तक की दिलचस्प लेकिन घातक दास्तां बयां करती है कि दरअसल यूगोस्लाविया के अंदर गणराज्यों और खासतौर से जातीय समूहों के विस्तार से पहले सवर्ण और दूसरी जातियों के बीच महत्त्वपूर्ण असमानता थी जो इस के जन्म से ही एक बुनियादी कमजोरी थी. इसे भारत में किसान आंदोलन, राज्यसभा में हुई क्रौस वोटिंग और दक्षिणी राज्यों के आरोपों के मद्देनजर देखते हुए देश को अभी से सचेत हो जाना जरूरी ही नहीं बल्कि वक्त की मांग हो चली है.

जो लोग यह जानते हैं कि यूगोस्लाविया के स्थायी राष्ट्रपति मार्शल टीटो का असली नाम जोसिप ब्रोज टीटो था, वे यह भी जानते हैं कि मार्शल टीटो एकता और भाईचारे के हिमायती थे और उन्होंने इस महासंघ के भीतर पनपते खतरनाक राष्ट्रवाद पर अंकुश लगाए रखा. इस बाबत उन्होंने स्वायत्त प्रांतों के 8 नेताओं में से एक की रोटेशन के आधार पर सालभर के राष्ट्रपति पद की प्रणाली बनाई थी. मार्शल टीटो के अंतर्गत सोवियत संघ का हिस्सा न होते हुए भी यूगोस्लाविया कम्युनिस्ट रहा था पर एक इंडस्ट्रियल ताकत बन गया था जहां बहुत सी चीजें हर नागरिक को मुफ्त मिल रही थीं.

टीटो सोवियत संघ के प्रधानमंत्री जोसेफ स्टालिन के अनुयायी थे और उन की इमेज एक अर्ध-तानाशाह की थी पर फिर भी उन के शासन के दौरान यूगोस्लाविया एक ताकतवर औद्योगिक देश बन गया था और उस की अर्थव्यवस्था भी प्रभावी थी. इस की प्रमुख वजह टीटो का खुद को स्टालिन से अलग कर समाजवाद को एक नया आकार देना था. स्टालिन चाहते थे कि यूगोस्लाविया सोवियत संघ के नियंत्रण में रहे लेकिन टीटो को यह गवारा नहीं हुआ.

टीटो का मंत्र

एकता और भाईचारे का टीटो का मंत्र कारगर रहा. द्वितीय विश्व युद्ध में इस क्षेत्र के 10 से 15 लाख लोग मारे गए और यह दोहराया न जाए इसलिए जीत के बाद यूगोस्लाविया को 6 गणराज्यों बोस्निया और हर्जेगोविना, क्रोएशिया, मैसेडोनिया, मोटेनेग्रो, सर्बिया और स्लोवानिया के एक संघ के रूप में स्थापित किया गया था. क्षेत्रीय, धार्मिक और  जातीय या नस्लीय कुछ भी कह लें विवादों को हल करने के लिए यूगोस्लाविया पार्टी की कम्युनिस्ट लीग की शाखा और अभिजात्य वर्ग का एक शासक गणराज्य में था जो संघीय स्तर पर विवादों को हल करता था. इसे युगोस्लाव मौडल के नाम से जाना जाता था जो अघोषित तौर पर बुद्ध के मध्यमार्ग के सिद्धांत पर काम करता था.

टीटो का यह नया प्रयोग कमोबेश कामयाब रहा. पूरी दुनिया चमत्कृत थी क्योंकि टीटो ने वह कर दिखाया था जिस की उम्मीद किसी को नहीं थी. उस दौर में यूगोस्लाविया को कम्युनिस्टों का स्वर्ग कहा जाने लगा था. कुछ सालों बाद ही टीटो ने ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन की भी नींव रखी जिस में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी बराबर का योगदान था. इस का मकसद उन देशों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक सम्मानजनक स्थान दिलाना था जो दुनिया की दोनों महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के पिछलग्गू नहीं बने रहना चाहते थे. भारत उन में से एक था. जवाहरलाल नेहरू और मार्शल टीटो की दोस्ती एक मिसाल या उदाहरण कुछ भी कह लें, बन गई थी.

लेकिन 1980 में टीटो की मौत के बाद जो हुआ वह भी हर किसी की उम्मीद के बाहर था. साम्यवाद कहने भर की बात रह गई और यूगोस्लाविया हाहाकार कर उठा. जातीय संघर्ष ने जो सिर उठाया तो यूगोस्लाविया के 6 टुकड़े हुए. नागरिक शास्त्र की भाषा में कहें तो गणराज्यों की सरकारों ने उन शक्तियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया जो संविधान ने उन्हें दी थीं. लेकिन असल लड़ाई दरअसल धर्मों और जातियों के वर्चस्व की थी जिस के तहत सर्बो, क्रोएट्स, स्लोवेनियों और अल्बानियों सहित मुसलमानों और रूढि़वादी ईसाईयों ने अलग देश और आजादी की मांग शुरू कर दी. देखते ही देखते रोजरोज की हिंसा यूगोस्लाविया की नियति बन गई और जातीय हिंसा में लाखों लोग, जिन में सभी जातियों के लोग शामिल थे, मारे गए.

यह गृहयुद्ध लंबा चला और तभी थमा जब एकएक कर 6 देश बोस्निया और हर्जेगोविना, क्रोएशिया, मैसेडेनिया, मोटेनेग्रो, सर्बिया और स्लोवेनिया नहीं बन गए. जातियों का जो वीभत्स और हिंसक रूप 90 के दशक की शुरुआत में यूगोस्लाविया में दिखा वह सत्ता के जरिए अपनीअपनी बादशाहत स्थापित करने का ऐसा टोटका था जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ और जो हुआ वह सिर्फ महाभारत सरीखा खूनखराबा था जिस में सब अपनों के ही खून के प्यासे हो गए थे. यह खेल अब भारत में भी खेला जा रहा है जो बहुत साफतौर पर दिख नहीं रहा लेकिन इसे मौजूदा आम चुनाव के मद्देनजर साफसाफ महसूस किया जा सकता है.

अनुमान है कि 20 लाख से ज्यादा लोग घरों को छोड़ कर भागे, 6-7 लाख लोग बुरी तरह उन के हाथों मारे गए जो 30 साल साथसाथ रहे, औरतोंलड़कियों को उठाया गया  और उन का बलात्कार किया गया. संयुक्त राष्ट्र संघ ने लड़ाई रोकने के लिए सेना गठित की और हवाई जहाजों ने बमबारी की. भारत व पाकिस्तान विभाजन जैसे हालात के बाद 6 देश बने. यह विश्व में कहीं और नहीं दोहराया जाएगा, इस की कोई गारंटी नहीं है.

अत्याचार की शासनकला

जहां भी शासकों ने एक खास वर्ग के लोगों को साथ ले कर दूसरे वर्गों के साथ अत्याचारों को शासनकला के रूप में अपनाया है, वहां उसी खास वर्ग में अपने भेद भी पैदा हुए. यह कहानी अफ्रीका के कितने ही देशों में दोहराई गई, कंबोडिया भी नरसंहारों की कहानी आज भी हर पर्यटक को दिखाता है. हर समझदार शासक को उन विभाजक ताकतों के जहरीले फनों के लिए तैयार रहना चाहिए, ये 2 वर्षों बाद भी सिर उठा सकते हैं, 2 दशकों बाद भी.

विभिन्न धर्मों, जातियों और भाषाई व अन्य संस्कृतियों की धरोहर सिर पर ढोने वाले कैसे एकदूसरे के खून के प्यासे हो सकते हैं, यह यूगोस्लाविया के उदाहरण से साफ है. 1945 के बाद विश्व युद्ध खत्म होने पर 6 इलाके एकसाथ जनरल मार्शल टीटो के शासन के दौरान खासी तरक्की कर पाए थे. जोसिप ब्रोज टीटो ने अलगअलग लोगों को कम्युनिस्ट ?ांडे के नीचे एक रखा लेकिन 1980 में उस की मृत्यु के बाद गृहयुद्ध शुरू हो गया.

एक इलाके बोस्निया में 20 लाख लोगों को घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा और एक लाख लोग मारे गए. बोस्निया और हरजेगोविना में मुसलिम ठिकानों को नष्ट करने के चक्कर में बेरहमी से कत्लेआम हुए. सदियों से साथ रहने वाले एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए. यूगोस्लाविया आज देशों में विभाजित है तो इसलिए कि मार्शल टीटो की सब को एक सूत्र में बांधने की कोशिश धर्म, जाति, भाषा व संस्कृति के ठेकेदारों को पसंद नहीं आई.

यह अफ्रीका के कई देशों में हुआ है. दक्षिणी अमेरिका में हुआ. अफगानिस्तान अछूता नहीं है. जो देश जितना कट्टर है, उतनी ज्यादा वहां इलाकाई ताकतें बढ़ जाती हैं. श्रीलंका के सिंहली और तमिलों के संघर्ष में हजारों मारे गए थे.

होश में आएगी जनता

इस खेल में भाजपा इतनी अंधी हो चुकी है कि नीतीश कुमार और जयंत चौधरियों जैसों को भी वह हाथोंहाथ ले रही है जिन का अपना कोई ईमानधर्म नहीं. भगवा गैंग इस हकीकत को भी सम?ाता है कि नीतीश या जयंत का जो थोड़ाबहुत वोटबैंक है उस का पूरा हिस्सा उसे नहीं मिलने वाला लेकिन जो भी मिले वह उस से भी नहीं चूक रही.

हैरानी या अफसोस की बात यह है कि भाजपा का कोर वोटर भी इन भगोड़ों से परहेज नहीं करता क्योंकि उसे मालूम है कि किस छलकपट से महाभारत का युद्ध पांडवों ने जीता था. कर्ण, भीष्म, अश्वथामा और अभिमन्यु जैसे महारथी उन्होंने साजिश रच कर ही मारे थे. अगर यही धर्म और मौजूदा चुनावी नीति है तो इस की हकीकत आम लोगों तक पहुंचाना और सम?ाना न राहुल गांधी के बस की बात है, न अखिलेश यादव के और न ही ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल के. गुनाहगार ये भी कम नहीं जो जानेअनजाने में भाजपा की तर्ज पर ही राजनीति कर रहे हैं. अच्छा तो यह है कि अब वे एकदूसरे का सहारा बन भी रहे हैं और सहारा दे भी रहे हैं.

लेकिन यह लोकतंत्र है जिस में आज नहीं तो कल जनता होश में आती ही है पर तब तक उस का और देश का जो नुकसान हो चुका होता है उस की भरपाई में सालों लग जाते हैं क्योंकि इस दौरान सामाजिक तानाबाना भी तहसनहस हो चुका होता है, ठीक वैसे ही जैसे मुगलों के आने के बाद और उन से पहले भी हुआ करता था.

मौजूदा समाज के एक बड़े वर्ग की पौराणिक मानसिकता लाइलाज नहीं है लेकिन यह मर्ज अकसर एडवांस स्टेज पर आ कर ही ठीक होता है. यह अनुभव या सबक भी इतिहास से ही मिलता है. ऐसे में यह देश के लिए हितकारी होगा कि लोग वक्त रहते संभल और सम?ा जाएं.

रही बात इंडिया गठबंधन की, तो उसे इस हकीकत से लोगों को रूबरू कराना होगा. लेकिन यह जिम्मेदारी जिस मीडिया और बुद्धिजीवियों की भी है उन में से अधिकतर नीलाम हो चुके हैं या अपने को गिरवी रख चुके हैं, सो, तो कोई क्या कर लेगा. यह लोकसभा चुनाव सीटों से ज्यादा वोट फीसदी के लिहाज से ज्यादा अहम साबित होगा जो यह भी साबित करेगा कि देश के कुल कितने फीसदी लोग वर्णव्यवस्था की वापसी चाहते हैं और कितने फीसदी खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं लेकिन चुनाव और राजनीति से परे यह जरूर सब की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम ही यूगोस्लाविया से सबक लें.

अमेरिका में यूरोप के हर देश के लोग गए, काले गुलाम आए, चीनी मजदूर आए, मूल  रेड इंडियन हैं पर वहां आज सब को मौके मिल रहे हैं, कुछ कम, कुछ ज्यादा. कोई नाराज नहीं है. इसीलिए वहां मतभेदों के बावजूद लोकतंत्र की मूल भावना सिरफिरे डोनाल्ड ट्रंप के बावजूद जिंदा है. वहां आर्थिक स्तर 8,000 डौलर प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष है जबकि मंदिरों से भरे देश भारत में घिसटघिसट कर हम 2,500 डौलर के आसपास हैं.

हमारे पास विभाजक मुद्दों का समय नहीं होना चाहिए. जिस देश में 80-85 करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन गरीबी के कारण देना पड़ रहा हो, उस देश के पास भव्य मंदिरों के निर्माण करने या जनता से वसूले टैक्स या मुनाफे से नाचगानों के आयोजन करने की फुरसत नहीं होनी चाहिए.

 

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