हर दुख और आपत्ति में क्या करना चाहिए : धर्म कहता है कि प्रार्थना करनी चाहिए. कबीर दास को हिंदू संत मान लिया गया है और उन का दोहा ‘दुख में सुमरिन सब करें…’ हर मुंह पर चढ़ा दिया गया है. कथन साफ है कि दुख में हर कोईर् स्मरण करता है कि हे प्रभु, मु  झे विपत्ति, रोड़ा, नुकसान, रेप, हिंसा, प्राकृतिक प्रकोप, पुलिस, जेल आदि से बचाओ, बचाओ.

यह बात इतनी बार बोली जाती है कि जो सफल होते हैं वे तो अपने कामों में ही लगे रहते हैं पर जो असफल रहते हैं, पिछड़े रह जाते हैं. वे इस कथन का अक्षरश: पालन करने के लिए एक मंदिर से दूसरे मंदिर, एक बाबा से दूसरे बाबा, एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ जाने लगते हैं. हर धर्म यही सिखाता है कि आफत में प्रार्थना करो.

यहूदी सदियों तक पूजापाठ के कारण सताए गए. जब वे फिलिस्तीनी इलाकों में रोमनों, ईसाईयों और फिर अरब मुसलिमों से सताए गए तो यूरोप में जा बसे जहां उन्हें फिर सताया गया. उन का धर्म उन के साथ चला, वे फलेफूले भी पर विपत्तियों में मरे भी, जेलों में सड़े भी, परिवारों को छोड़ कर दूसरे धर्म अपनाए भी. लेकिन उन में से ज्यादातर ने पूजा के स्थान पर कर्मठता का रास्ता अपनाया.

कुछ यहूदियों ने पढ़नालिखना शुरू किया. वे साइंटिस्ट बने, विचारक बने, अन्वेषणकर्ता बने. उन की सफलताओं ने दूसरों को चिढ़ाया. उन पर फिर और अत्याचार हुए. लेकिन वे समाप्त नहीं हुए क्योंकि वे सिनेगौग (उपासना गृह) कम बना रहे थे, व्यापार-उद्योग ज्यादा चला रहे थे. वे अपने साथ अपनी जमीन पर रह रहे स्थानीय लोगों से ज्यादा संपन्न हो गए. यूरोपीय उन से चिढ़ने लगे. यूरोपियनों (ईसाईयों) के विशाल चर्च तो बनने लगे पर वे यहूदियों की तरह अमीर नहीं बन पा रहे थे क्योंकि वे अपनी जमीन पर मेहनत करने की जगह पूजापाठ कर रहे थे. पोप अमीर बन रहे थे, बिशप अमीर बन रहे थे, जबकि ईसाई जनता बेहाल थी.

आज यहूदियों ने एक जमीन को अपनी पुश्तैनी कह कर उस पर कब्जा कर लिया है. उन का इजराइल दुनिया के नए देशों में से सब से संपन्न है. वहीं के रहने वाले फिलिस्तीनी पूजापाठी हैं, हिंसक हैं, मरने से नहीं डरते और मारते हुए उन्हें दर्द नहीं होता. वे बेहद धर्मकट्टर हैं. आज वे बुरी तरह मार खा रहे हैं, इस बुरी तरह कि उन के पड़ोसी, उन के धर्म को मानने वाले देशों में हिम्मत नहीं है कि पैसा होते हुए भी वे इजराइल की गाजा में आज की जा रही अति का मुकाबला बहादुरी से कर सकें.

इधर, हमारे देश में लड़ाई गरीबी, गलत या अधूरी शिक्षा से है. हमारा दुश्मन हमारे अपने अंधविश्वास, अपने जातिगत भेदभाव हैं. हमारे पैरों में बेडि़यां हमारी नौकरशाही, हमारे नेताओं, हमारे अपने कौर्पोरेटों ने डाल रखी हैं. जबकि, अफसोस है कि इस का हल या इलाज हमें यह बताया जा रहा है- ‘‘दुख में सुमरिन सब करें, सुख में करे न कोय; जो सुख में सुमरिन करें, दुख काहे का होय.’’

जो दुखी है, बीमार है, गरीब है, वह पड़ोस के मंदिर में जा रहा है. जो अमीर है, सुखी है, संपन्न है वह कामधाम छोड़ कर स्मरण करने के लिए एक से दूसरे तीर्थ पर हवाईजहाजों में जा रहा है, फाइवस्टार होटलों में रह रहा है और वह गरीब से कह रहा है कि देखो, मैं पैसे वाला हूं, सफल हूं पर फिर भी तीर्थों में मारामारा फिर रहा हूं. तुम भी सफल होना चाहते हो तो कामधाम छोड़ो, भक्ति में लग जाओ.

अब तो सरकारें भी यही कह रही हैं- पूजापाठ करो, देश पर पैसा बरसेगा, तीर्थों में जाओ, गरीबी दूर होगी. दानदक्षिणा दो, बेरोजगारी दूर होगी. प्रार्थना करो, बीमारी दूर होगी.

कमोबेश सभी समाज ऐसा ही कह रहे हैं. लेकिन भारत में हम तो हर सीमा लांघ रहे हैं. हम वह जमीन तैयार कर रहे हैं कि जब 7वीं शताब्दी में बौद्ध विहारों को तोड़ना अकेला पुण्य का काम रह गया था. उस से देश के शासन में जो शून्यता आई थी उस ने विदेशियों को आमंत्रित किया जिन का शासन 1947 तक लगातार चलता रहा. आज लगता है, फिर उसी की शुरुआत हो गईर् है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...