अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में सैनडिएगो के पास तिरपाल के टैंटों में इधरउधर से कागज-लकड़ी बटोर कर रह रहे कुछ हजार एक एशियाई देश के लोग अमेरिका की बौर्डर अथौरिटी से बुलावे का इंतजार कर रहे थे. उन सब का सपना है कि वे अपना देश छोड़ कर आए हैं और अमेरिका में उन्हें पनाह मिलेगी. उन  के देश से पिछले 11 महीनों में अवैध रूप से घुसने पर 31 हजार लोगों को अमेरिका की पुलिस ने पकड़ा था.

न, न, ये एशियाई न भारत के हैं, न पाकिस्तान के, न बंगलादेश के, न फिलीपींस, अफगानिस्तान, वियतनाम या इंडोनेशिया के. ये हैं चीन के, उस चीन के जिस के महाबली शी जिनपिंग हैं, जो दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था पर एकछत्र राज कर रहे हैं और जहां न भुखमरी है, न जातिव्यवस्था का कहर.

मगर ये चीनी चीन से भाग कर इसलिए आ रहे हैं क्योंकि ये वहां की कम्युनिस्ट पार्टी और शासक शी जिनपिंग की तानाशाही से त्रस्त हैं. ये चीन में व्यक्तिगत आजादी न होने से, अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ जाने से और गांवों में नौकरियां न होने से परेशान हैं. चीन में बढ़ती आर्थिक असमानता इन्हें खा रही है और ये अपने सरकारी टूटेफूटे घर छोड़ कर थोड़ीबहुत जमापूंजी को खर्च कर के अमेरिका में बसने का सपना ले कर ‘महान’ चीन को छोड़ आए हैं.

ये चीनी याचक उतने नहीं हैं जितने पूरे दक्षिण अमेरिका से आने को इच्छुक हैं. ये भारतीयों से भी बहुत कम हैं. पर ये चीन के दावों की पोल खोलने को काफी हैं. ये दर्शा रहे हैं कि आदमी को सिर्फ सरकार का खाना ही नहीं चाहिए होता, उसे नारे नहीं चाहिए, वह अपना अहं भी साथ ले कर पैदा होता है और वह वहां मरना चाहता है जहां उसे सरकार की बड़ी मशीनरी का छोटा-बेकार का हिस्सा न माना जाए. वह मजबूरी में ही अपने संगेसंबंधियों को छोड़ कर अनजान देश में, दूसरी भाषा के लोगों के बीच, दोयम दर्जे का नागरिक बन कर रहना स्वीकार कर रहा है.

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