अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों में कोई चमत्कार होने वाला है, इस की उम्मीद विपक्षी दलों को नहीं है. वे अपनी पहचान व महत्ता बनाए रखने के लिए सीट शेयरिंग की जो बात कर रहे हैं वह यह जताती है कि देश की राजनीति 2 हिस्सों में बंट चुकी है. एक ओर वे ताकतें हैं जो पौराणिक व्यवस्था को वोट के जरिए फिर से स्थापित कर देश के संस्थानों को, पुराणों के युग की तरह, कुछ हाथों में रखना चाहती हैं जबकि दूसरी ओर वे लोग हैं जो 1947 में आजादी मिलने के बाद लागू की गई गैरधार्मिक संवैधानिक प्रणाली को यथावत रखना चाहते हैं.

आज केंद्रीय सत्ता पर ऐसी पार्टी काबिज है जो धर्म विशेष की कट्टरता को लगातार बढ़ावा दे रही है, जिस के चलते देश में हर तरफ धार्मिक ताकतों का बोलबाला है. हालांकि यह ज्यादा दिन नहीं चल सकता क्योंकि हिंदू धर्म जन्म से ही भेद करता है कि कौन क्या पा सकता है. कुछ अपवाद हैं पर हिंदू धर्म का सामाजिक गठन इस तरह का है कि राजनीति, प्रशासन, व्यापार, व्यवहार आदि में जन्म से तय हुई कुछ जातियों का बोलबाला है.

भारतीय जनता पार्टी की राममंदिर मुहिम से पहले यह काम कांग्रेस चुपचाप बिना ढोल पीटे कर रही थी. आज यह काम भाजपा नगाड़े पीट कर कर रही है. यह शोर इतना है कि जो जन्म से तय वर्णव्यवस्था के शिकार हैं और देश की जनसंख्या के 90 फीसदी के आसपास होंगे, वे सोचते हैं कि जो शोर मचा रहे हैं वही ही ठीक होंगे. सो, काफी संख्या में वे भी शोर मचाने वालों में शामिल हो गए हैं.

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