किसी मैडिकल, मैनेजमैंट या इंजीनियरिंग कालेज में सीटें पाने के लिए बिचौलियों को अगर मोटी रकम दी गई हो और काम न बनने पर उन से पैसा वापस मांगा जाए तो कम से कम देश का कानून तो साथ न देगा. दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ कर दिया कि औल इंडिया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेस में सीट दिलवाने के लिए दिए गए पैसों के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता क्योंकि ये सीटें बिकाऊ नहीं हैं और देने वाले ने खुद गैरकानूनी काम किया है.

कानून की बारीक दृष्टि से देखें तो यह फैसला सही है पर इस फैसले का मतलब यह भी है कि सपने दिखा कर लूटने वालों की हिम्मत और आगे बढ़ जाएगी. देशभर में पैसा ले कर काम करने की संस्कृति हमारी ‘शान’ है और इस को लोग इतना ज्यादा मानते हैं कि जब तक कोई बिचौलिया न हो जो पैसा मांगे, उन्हें लगता है कि जो काम हुआ है उस में कहीं कुछ गढ़बढ़ रह गई है शायद.

सरकारों ने कानूनों का जाल बुन रखा है और अच्छी चीज का अभाव पैदा कर रखा है. इस के चलते ही लोगों की मानसिकता यह हो गई है कि ‘पैसा दो, काम कराओ’ की संस्कृति धर्म और संविधान की दी हुई है. इस के बिना पत्ता तक नहीं हिलेगा. विधानसभा, लोकसभा के चुनावों में टिकट से ले कर पानी के कनैक्शन तक सब जगह ऊपरी पैसों का लेनदेन होता है.

उच्च न्यायालय ने अगर फैसला दूसरी तरफ दिया होता कि, बेईमान द्वारा पैसा ले कर सीट न दिलवा पाने पर उसे पैसा वापस करना चाहिए, तो इस फैसले का सहारा ले कर दूसरे भुक्तभोगी सैकड़ों रिश्वतखोरों के खिलाफ ऐक्शन ले पाते. रिश्वतखोरों को भी मालूम होता कि काम न होने पर उन्हें कोर्ट में घसीटा जा सकता है और कहीं मामला साबित हो गया तो वही दुर्दशा होगी जो भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों के अंतर्गत होती है.

जनता की इस चाहत में कोई बुराई नहीं है कि उस का काम हो जाए चाहे प्राइमरी स्कूल में एडमिशन हो या ठेका दिलवाना. इसे रोकना असंभव है. इसे तो अब ढीलेढाले कानूनी फंदे में फंसा कर ही रोका जा सकता है. उच्च न्यायालय ने अगर 30 लाख रुपए ले कर की एम्स की सीट न दिलवाने पर पैसे दिलवा दिए होते तो आगे से बेईमानों का धंधा कम हो सकता था.

यह सोचना तो बेकार है कि इस देश में भ्रष्टाचार पर कभी रोक लगेगी. हमारी संस्कृति ही मुक्त का खाने की है. हर पूजापाठ में दानदक्षिणा देना अनिवार्य है और पूजापाठ करने वालों को हम सिर पर बैठा कर रखते हैं. प्रधानमंत्री से ले कर बेघर तक सब पूजापाठ करते दिख जाएंगे जिन में बिना काम की गारंटी के दानदक्षिणा देना अनिवार्य है. जैसे मंदिरों में अब तख्तियां लग गई हैं कि कितने पैसों में कौन सी पूजा होगी वैसे ही हर जगह रिश्वत दरें तय हैं. बस, तख्ती नहीं लगी. उच्च न्यायालय इस मौके को इस्तेमाल कर के रिश्वत को मंदिरों की तरह विधिक रूप दे सकता था.

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