अक्तूबर से जनवरी तक सर्दी और बर्फबारी का लुत्फ उठाने के लिए मैदानी इलाके के लोग कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों का रुख करते हैं. नईनई शादी हुई हो तो कपल हनीमून मनाने के लिए कश्मीर की सुंदर वादियों के ही सपने देखता है. बर्फ से ढके पहाड़ों पर अठखेलियां करते युवा हाथों में बर्फ के गोले लिए एकदूसरे पर फेंकते जिस आनंद में ओतप्रोत होते हैं उस की यादें हमेशा के लिए उन के दिलों पर नक्श हो जाती हैं. शाम के धुंधलके में एकदूसरे की बांहों में लिपटे युगल वादी की सुंदरता को निहारते हुए भविष्य के सपनों में खो जाते हैं.
गरम फर वाले कोट पहने बच्चे बर्फ के गोलों से खेलते हुए, बर्फ के घरोंदे बनाते हुए मजे करते हैं. ठंडी, बर्फीली हवाओं के बीच गरम चाय की चुस्कियां लेना, चारों तरफ खिले पहाड़ी फूलों की खुशबू अपनी सांसों में भर लेना, रंगबिरंगे चहचहाते पंछियों को देखना, कलकल करती नदियों का शोर सुनना, घर के भीतर तक घुस आने वाले बादल और पहाड़ों की चोटियों पर सोना बिखेरता सुबह का सूरज, ऐसे कितने ही लमहे हम पर्वतारोहण के बाद अपनी यादों में समेट कर लौटते हैं.
पहाड़ों की यह प्राकृतिक सुंदरता हमें बारबार वहां आने का निमंत्रण देती हैं. दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, मेरठ में काम करने वाले या रहने वाले लोग तो दोतीन छुट्टियां आई नहीं कि आसपास के हिल स्टेशन पर घूमने निकल जाते हैं और प्रकृति की नजदीकियां प्राप्त कर दोगुनी ताजगी के साथ लौटते हैं.
भारत में 90 के दशक के बाद पहाड़ी पर्यटन में काफी तेजी आई है. पहले जहां गरमी की छुट्टियों में लोग बच्चों को ले कर उन के दादादादी या नानानानी के वहां जाते थे, अब वे शहर के शोरशराबे और रिश्तेदारों से दूर किसी हिल स्टेशन पर जाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. यही वजह है कि ज्यादातर हिल स्टेशन सीजन के वक्त सैलानियों से भरे रहते हैं. वहां के होटल, धर्मशालाएं, रिसोर्ट सब फुल रहते हैं. भीड़ का वह आलम होता है कि कई बार तो लोग दोगुना किराया देने को भी तैयार होते हैं फिर भी ठहरने के लिए उन्हें कोई अच्छा होटल नहीं मिल पाता.
सर्दी का इंतजार
मौसम गरमी का हो या जाड़ों का, पहाड़ों की आमदनी का मुख्य स्रोत पर्यटन ही है. राजधानी दिल्ली के नजदीक के हिल स्टेशन जहां गरमी में आगंतुकों की बाट जोहते हैं तो वहीं जम्मूकश्मीर, लेहलद्दाख के लोग बेसब्री से सर्दी का इंतजार करते हैं क्योंकि बर्फबारी का मजा लेने के लिए हजारों की संख्या में देशीविदेशी सैलानियों के जत्थे वहां पहुंचते हैं.
मगर इस बार शायद ऐसा न हो. बीते जुलाई, अगस्त और सितंबर माह, जोकि बारिश के महीने हैं, में बड़ी संख्या में पहाड़ों पर भूस्खलन हुआ है. दरकते पहाड़ों ने अनेक घरों, इमारतों, होटलों और व्यावसायिक स्थलों को जमींदोज कर दिया है. जिस तरह हिमाचल और उत्तराखंड में लैंडस्लाइड हुआ है और जानमाल का भारी नुकसान लोगों ने उठाया है उस ने पर्यटकों के मन में दहशत भर दी है. बहुतेरे लोगों ने अपनी बुकिंग कैंसिल करवा दी हैं.
इस भारी भूस्खलन और जानमाल के नुकसान के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए उस से लोगों में डर फैल गया है. यहां तक कि जो लोग दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम के प्रदूषण और शोर से तंग आ कर पहाड़ों पर जा बसने की प्लानिंग कर रहे थे उन्होंने भी अपना इरादा बदल दिया है.
लैंसडाउन के निवासी कर्नल रावत कहते हैं, ‘‘बारिशें पहले भी इतनी ही होती थीं मगर इस तरह पहाड़ों को नुकसान नहीं होता था. पानी पहाड़ों से बह कर नदियों में समा जाता था पर जिस तरह पिछले तीनचार सालों से पहाड़ टूटटूट कर गिर रहे हैं, ये भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा भीड़ हो रही है. बहुत बड़ेबड़े निर्माण कार्य हो रहे हैं. ये निर्माण कार्य पहाड़ों को खोखला कर रहे हैं. अगर इन्हें रोका नहीं गया तो आने वाले 10 सालों में पहाड़ों का सारा सौंदर्य समाप्त हो जाएगा और पहाड़ समतल मैदानों में तबदील हो जाएंगे.’’
दरअसल पहाड़ों के सौंदर्य ने बीते कुछ सालों में धनकुबेरों को खासा आकर्षित किया है. बड़ेबड़े व्यवसायियों ने पहाड़ों पर जारी सरकारी, गैरसरकारी प्रोजैक्ट्स में अपना पैसा निवेश कर रखा है. जिन के पास पैसा है उन्होंने पहाड़ों पर वहां के निवासियों से सस्ते दामों में बड़ीबड़ी जमीनें खरीद ली हैं. इन जमीनों पर बड़ेबड़े होटल, रिसोर्ट, क्लब, मल्टीस्टोरी अपार्टमैंट बनाए गए हैं और सारे नियमकानूनों को धता बता कर लगातार बनाए जा रहे हैं. ये कई मंजिला ऊंचीऊंची इमारतें सीजन में सैलानियों से खचाखच भर जाती हैं और उन के मालिकों को लाखोंकरोड़ों का मुनाफा देती हैं. धनाढ्य वर्ग ने इन इलाकों में होटल व मकान बनाने को स्टेटस सिंबल भी बना लिया है. मगर पहाड़ों के लिए यह बोझ बहुत भारी है.
धर्म का दिखावा
2014, जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, हर तरफ हिंदुत्व का बोलबाला भी जोरों पर है. संघ और भाजपा की देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की सोच और रणनीति के तहत जनता को पूजापाठ, चढ़ावाआरती की तरफ धकेला जा रहा है. धर्म का दिखावा बढ़ गया है. बड़ेबड़े आडंबरों में पैसा खर्च किया जा रहा है. अनेक कथावाचक मैदान में उतारे गए हैं जो लोगों को तीर्थयात्राओं के लिए प्रेरित कर रहे हैं. ऐसे में जो लोग पहले अपने घरों में पूजाआरती कर मन की शांति पाते थे, अब उन में तीर्थस्थलों पर जा कर दर्शन करने में ज्यादा पुण्यप्रताप पाने की आस जग गई है. पिछले 9 सालों से तमाम टीवी चैनलों, कथावाचकों, राजनेताओं, कारसेवकों द्वारा यह काम बहुत तेज गति से हो रहा है.
देशभर में पुराने मंदिरों और धर्मशालाओं का जीर्णोद्धार किया जा रहा है. हिमालय में भी बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश मानसरोवर, यमुनोत्री, गंगोत्री, पंच कैलाश, पंचबद्री, पशुपतिनाथ, जनकपुर, देवात्म हिमालय, अमरनाथ, कौसरनाग, वैष्णोदेवी, गोमुख, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, नंदादेवी, चौखंबा, संतोपथ, नीलकंठ, सुमेरु पर्वत, कुनाली, त्रिशूल, भारतखूंटा, कामेत, द्रोणागिरी, पंचप्रयाग, जोशीमठ जैसे अनेकानेक तीर्थस्थलों के दर्शनों के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने जाना शुरू कर दिया है.
इतनी बड़ी संख्या का बोझ पहाड़ कैसे ढो पाएंगे? इस भीड़ को संभालना न तो पहाड़ों के वश का है और न ही सरकार के. यही वजह है कि आएदिन किसी न किसी बड़ी दुर्घटना या भगदड़ के कारण बड़ी संख्या में लोगों के मरने की खबरें भी आती रहती हैं.
जब तीर्थस्थलों के दर्शनों के लिए लोगों को उकसाया जा रहा है तो उन के रहने, खाने, आनेजाने का इंतजाम भी उसी गति से हो रहा है. व्यापारी, उद्योगपति, रियल एस्टेट, बस वाले, टैक्सी वाले, टट्टू वाले, होटल वाले सभी बहती गंगा में हाथ धोना चाहते हैं. पूरे हिमालयी क्षेत्र में अफरातफरी मची हुई है. पहाड़ों की शांति और सुकून खत्म हो गया है. एक तरफ सरकार बहुत तेजी से निर्माण कार्य करवा रही है, वहीं धनकुबेरों ने बड़ीबड़ी जमीनें खरीद कर उन पर होटल, रिसोर्ट, मौल, मल्टीस्टोरी बिल्ंिडग्स खड़ी कर दी हैं.
खोखले होते पहाड़
सरकार ने विकास के नाम सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के लिए सैकड़ों पहाड़ समतल कर दिए हैं. जहां पहले मिलिट्री और स्थानीय लोगों के आनेजाने के लिए पतली और घुमावदार सड़कें होती थीं, वहां अब सीधी फोरलेन सड़कें बन रही हैं. इस निर्माण के लिए पहाड़ों और जंगलों को काटा जा रहा है.
पहाड़ों में सीढ़ीनुमा खेतों को समाप्त कर दिया गया है, जिन में बारिशों के बाद फसलें लहलहाती थीं. हिमाचल और उत्तराखंड में चारों तरफ पहाड़ खुदे पड़े हैं. पहाड़ों के अंदर हजारों सुरंगें खोद दी गई हैं. इन टनल्स को बनाने के लिए मजबूत पत्थर के पहाड़ों में विस्फोट किए जाते हैं जिस से पहाड़ अंदर ही अंदर खोखले हो गए हैं. जिन ऊंचेऊंचे मजबूत वृक्षों की जड़ें मिट्टी और पत्थर को जकड़े रखती थीं उन्हें काट डाला गया है. लिहाजा, पहाड़ इतने भुरभुरे हो गए हैं कि थोड़ी सी ज्यादा बारिश हो जाए तो लैंडस्लाइड होने लगता है. पहाड़ ऊपर से टूटटूट कर गिरते हैं तो रास्ते में आने वाले पेड़ों, घरों और इमारतों को भी अपने साथ धराशायी करते हैं.
कर्नल रावत कहते हैं, ‘‘जानमाल की तबाही के लिए पानी से ज्यादा मलबा जिम्मेदार है. पहाड़ों पर जिस तरह भारी कंस्ट्रक्शन हो रहा है उस से सारे नालेनालियां चोक हो गई हैं. बारिश का पानी अब नालों से न हो कर पहाड़ों पर सीधा बहता हुआ नीचे की ओर बह रहा है. बहुत सारा पानी पहाड़ों द्वारा सोख भी लिया जाता है, जिस से पहाड़ और कमजोर हो रहे हैं. बड़ी तादाद में लोगों ने पहाड़ों पर आना शुरू कर दिया है तो वे यहां बहुत ज्यादा कचरा भी फैला रहे हैं. यह सारा मलबा पहाड़ों पर जगहजगह जमा है. यह भी पानी एब्जौर्ब कर लेता है और जब थोड़ी सी ज्यादा बारिश होती है तो यह मलबा नीचे गिरता है, सड़कों को अवरुद्ध कर देता है, वाहनों को क्षति पहुंचाता है, घरों को तोड़ता है और फिर टीवी पर एंकर चीखते हैं कि बादल फटने से हादसा हो गया, जबकि ये सब साधारण बारिश में ही हो रहा है.
‘‘हाल ही में शिमला के समरहिल इलाके में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर भी इसी तरह बरबाद हुआ है. दरअसल यह मंदिर एक नाले के किनारे पर बना था. जब ऊपर से पानी आया तो वह अपने साथ भारी मात्रा में मलबा भी ले कर आया. उस मलबे के वेग ने मंदिर को उजाड़ दिया.’’
पेड़ों की कटाई से चिंता
कर्नल रावत आगे कहते हैं, ‘‘टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर सरकार सड़कें चौड़ी कर रही है. जहां 2 लेन हैं, वहां 4 लेन सड़क बनाई जा रही है. शिमलाकालका नैशनल हाईवे के निर्माण में बहुत ज्यादा पहाड़ काटे गए हैं. आमतौर पर जब पहाड़ पर कोई सड़क बनाई जाती है तो किनारेकिनारे रिटेनिंग वाल भी बनाई जाती है. यही दीवार सड़क को हादसे से बचाती है. यह रिटेनिंग वाल आमतौर पर कंक्रीट की बनती है, जो बहुत मजबूत होती है.
‘‘लैंडस्लाइड होने पर जब बड़ेबड़े पत्थर और मिट्टी तेजी से नीचे आती है तो सड़कों के किनारे बने ये कंक्रीट की वाल उस को रोक लेती है लेकिन शिमला कालका हाईवे पर कौन्ट्रैक्टर ने एक्सपैरिमैंट किया है और रिटेनिंग वाल पत्थर की बना दी है, जिस में सीमेंट से चुनाई की गई है और अंदर मिट्टी भरी हुई है. नतीजा यह कि यह सड़क थोड़ा भी पानी बरदाश्त नहीं कर पा रही और जगहजगह से धंस गई है. लैंडस्लाइड होने पर जो मलबा गिर रहा है वह सड़क पर आ कर रुकता नहीं है बल्कि रेलिंग तोड़ता हुआ नीचे के पहाड़ों पर बने घरों और इमारतों को भी अपनी चपेट में लेता हुआ चला जाता है.’’
सरकार जल्दीजल्दी सबकुछ हासिल करने के मोह में उन परंपरागत तौरतरीकों को नजरअंदाज करती जा रही है जो पहाड़ों में सड़क बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं. उन में ध्यान रखा जाता है कि पहाड़ के आधार को क्षति न पहुंचे. लेकिन अब फोरलेन हाईवे बनाने के प्रलोभन में ऐसे तमाम उपायों को नजरअंदाज कर दिया गया है. अपेक्षाकृत नए हिमालयी पहाड़ों पर बसे हिमाचल व उत्तराखंड के पहाड़ फोरलेन सड़कों का दबाव सहन करने को तैयार नहीं हैं.
पहले सड़कें लंबे घुमाव के साथ तैयार की जाती थीं ताकि पहाड़ के अस्तित्व को खतरा न पहुंचे लेकिन अब दावे किए जा रहे हैं कि शिमला से मनाली कुछ ही घंटों में पहुंच जाएंगे. मगर ये घंटे कम करने के उपक्रम की कीमत स्थानीय लोगों व पारिस्थितिकीय तंत्र को चुकानी पड़ रही है. पहाड़ों को काटने के साथ पेड़ों का कटान तेजी से हुआ है. ये पेड़ ही पहाड़ों की ऊपरी परत पर सुरक्षा कवच का काम कर के भूस्खलन को रोकते थे.
सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि अवैज्ञानिक तरीकों से सड़कों के लिए कटान ने पहाड़ों के भीतर के वाटर चैनलों का प्राकृतिक प्रवाह भी बाधित कर दिया है जो न केवल जमीन के कटाव को बढ़ा रहा है बल्कि नई आपदाओं की जमीन भी तैयार कर रहा है. इतना ही नहीं, सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर जगहजगह ब्लास्ट किए जा रहे हैं जो पहाड़ों का आधार कमजोर कर रहा है. पहाड़ों पर भारीभरकम व्यावसायिक विज्ञापनों के लिए होर्डिंग लगाने के लिए भी गहरी खुदाई चालू है. अतीत में हमारे पूर्वज मकानों का निर्माण पहाड़ों की तलहटी और समतल इलाकों में किया करते थे लेकिन हाल के वर्षों में खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों को काट कर बहुमंजिला इमारतों व होटलों का निर्माण अंधाधुंध तरीके से हुआ है. इस बेतरतीब काम और बोझ को सहन न कर सकने वाले पहाड़ों में भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं. हमें याद रखना चाहिए कि भवन निर्माण हो या सड़कों का निर्माण, पहाड़ों को कोई शौर्टकट रास्ता स्वीकार नहीं होता है. उस की कीमत हमें तबाही के रूप में ही चुकानी होगी.
सरकार जिम्मेदार
पहाड़ का मूल निवासी जिस ने अब तक प्रकृति के साथ बेहतर संतुलन बनाया हुआ था, जो प्रकृति के अनुसार चलता था, जिसे पहाड़ों से प्यार था और जो उस का सम्मान करता था, जिसे मालूम था कि पहाड़ों और जंगलों से उसे कितना लेना है और कैसे उन्हें सुरक्षित रखना है, वह आज गरीबी के चलते अपनी जमीनें धनकुबेरों के हवाले करता जा रहा है. विकास के नाम पर बहुत सारी जमीन सरकार ने भी अधिग्रहीत कर ली है.
अब न ही इन धनकुबेरों और न ही सरकार को तमीज है कि पहाड़ों के साथ कैसा बरताव करना है. सब अपनेअपने आर्थिक फायदों के लिए पहाड़ों को निर्ममता से तोड़नेकाटने में जुटे हैं जिस का नतीजा दिखना शुरू हो चुका है. धर्म इस में सब से ज्यादा बड़ा योगदान दे रहा है क्योंकि हर जगह छोटीमोटी देवियों, अनजाने देवताओं के मंदिर बनाने का धंधा चालू है. हर गोल पत्थर को प्राचीन शिव मंदिर कह दिया जाता है.
गत 2 महीने की बारिश में भयानक भूस्खलन और बाढ़ के चलते हिमाचल में 600 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. 3 हजार से अधिक घर और बिल्ंिडगें जमींदोज हो चुकी हैं. हजारों परिवार बेघर हो चुके हैं और इस प्राकृतिक आपदा के कारण हिमाचल प्रदेश को 12 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है. हिमाचल और उत्तराखंड में बड़ीबड़ी अट्टालिकाएं पानी में टूट कर ऐसे बह गईं मानो ताश के पत्तों के महल हों. भारी वाहन पानी पर तैरते नजर आए और बड़ी संख्या में इंसान और मवेशी मारे गए. अनेक सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग मलबे के ढेर से ब्लौक हो गए.
बारिश, लैंडस्लाइड और बादल फटने की घटनाओं ने त्राहित्राहि मचा दी. जोशीमठ की तबाही हमारे सामने है. आज पूरा जोशीमठ धंसने की कगार पर खड़ा है. वहां लगभग हर घर में दरारें पड़ चुकी हैं. जगहजगह सड़कें फटी पड़ी हैं. लोग अपने घर छोड़ कर इधरउधर शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. केंद्रीय बिल्ंिडग बायलौज और उत्तराखंड के 2011 व 2013 में जारी हुए बायलौज को देखें तो इस पर्वतीय क्षेत्र में 12 मीटर यानी
4 मंजिल से अधिक ऊंचाई के भवन का निर्माण नहीं किया जा सकता था. इतनी ऊंचाई भी तभी संभव है जबकि निर्माण वाले क्षेत्र का अध्ययन हुआ हो. जोशीमठ में इन कायदों को दरकिनार कर सातसात मंजिला भवन बनाने के लिए संबंधित निकाय ने अनुमति जारी कर दी. सवाल यह है कि इतने बेतहाशा और बेतरतीब निर्माण और नुकसान का जिम्मेदार यदि सरकार नहीं तो कौन है?
लैंडस्लाइड डरा रहा
अगस्त में राजधानी शिमला में लैंडस्लाइड का डरावना मंजर दिखाई दिया. समरहिल इलाके में शिमला नगरनिगम का स्लौटर हाउस जमींदोज हो गया. पहले एक बड़ा पेड़ गिरा, फिर ताश के पत्तों की तरह स्लौटर हाउस ढलान की तरफ सरकता चला गया और फिर शिमला के स्लौटर हाउस के साथ लगे
5 घर भी जमींदोज हो गए. चारों तरफ चीखपुकार मच गई. मात्र 3 दिनों की बारिश में अकेले मंडी शहर में 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और कई लोग लापता हो गए. लैंडस्लाइड के बाद कुल्लू, मनाली को जोड़ने वाला हाइवे बंद होने से सैकड़ों पर्यटक फंस गए.
15 अगस्त को शिमला में कृष्णा नगर इलाके में हुए लैंडस्लाइड में कई मकान ढह गए. आसपास दशकों से रह रहे लोगों के घर ढहते देख पड़ोसी अपनी चीखें नहीं रोक पाए. उन की आंखों के सामने पूरा इलाका जमींदोज हो गया. इस जगह से शाम तक 40-50 लोगों को रेस्क्यू किया गया. इस से एक दिन पहले ही
14 अगस्त को समरहिल इलाके का शिव मंदिर भी भूस्खलन की चपेट में आ गया. सोमवार का दिन होने के कारण वहां शिव भक्तों का भारी जमावड़ा था, तभी जमीन इतनी तेजी से धंसी कि किसी को कुछ सोचनेसमझने और बचने का मौका ही नहीं मिला.
आपदा गुजरने के बाद मंदिर के मलबे से 25 से ज्यादा शव निकाले गए. सैकड़ों घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया. कइयों का अभी तक कुछ पता नहीं चला. इलाके के शर्मा परिवार के तो 7 लोग मंदिर के भीतर थे जो अचानक आई तबाही की भेंट चढ़ गए. इस हादसे में हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी की प्रोफैसर मानसी वर्मा की जान भी चली गई जो 7 महीने की प्रैग्नैंट थीं और पति के साथ मंदिर में खीर चढ़ाने गई थीं. मानसी के साथ उन के पति और गर्भस्थ शिशु को भी मौत लील गई. 14 अगस्त को ही शिमला के फागली में भी भूस्खलन हुआ जिस में 5 लोग मारे गए. इसी दिन सोलन में 7 लोगों के मारे जाने की खबर आई.
उत्तराखंड के हालात भी काबू के बाहर थे. भारी बारिश की वजह से जहां नदियां उफान पर रहीं, वहीं भूस्खलन के चलते तमाम सड़कें बाधित हो गईं और कई जानें चली गईं. उत्तरकाशी, जोशीमठ और ऋषिकेश सब से ज्यादा प्रभावित हुए. लोगों के घरों में पानी घुस गया और दरारें पड़ गईं. यहां भी 15 अगस्त को रुद्रप्रयाग के मद्हेश्वर मंदिर के मार्ग पर एक पुल ढह जाने से 100 से ज्यादा तीर्थयात्री फंस गए, जिन्हें राज्य आपदा प्रतिवादन बल (एसडीआरएफ) के जवानों ने भारी मशक्कत के बाद बचाया. उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा ने 70 से ज्यादा लोगों की जानें ले लीं. कितने मवेशी मारे गए, इस की गिनती ही नहीं है. अनेक लोगों की लाशें कईकई दिनों बाद नदियों में तैरती मिलीं.
पहाड़ों पर अतिरिक्त बोझ
बारिश के मौसम में पहले भी पहाड़ों पर जम कर बारिश होती थी, मगर पहले इस भयावह तरीके से भूस्खलन नहीं होते थे. पेड़ पहाड़ों को अपनी जड़ों से जकड़े रहते थे. जंगल पानी के तेज बहाव को बाधित कर देते थे ताकि रास्ते में आने वाले घरों और खेतों को नुकसान न पहुंचे. सीढ़ीदार खेत आवश्यकतानुसार पानी सोख कर अतिरिक्त पानी को एक सलीके से नीचे की ओर जाने का रास्ता देते थे. मगर निर्माण कार्यों की वजह से जहां जंगल और खेत गायब हो चुके हैं वहीं खुदाई और लगातार जारी विस्फोटों ने पहाड़ों को कमजोर व भुरभुरा कर दिया है. अगस्त के महीने में हिमाचल और उत्तराखंड में हुए भूस्खलन के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए, उन्होंने सैलानियों के दिलों में ऐसी दहशत भर दी है कि इस बार सर्दी की छुट्टियां पहाड़ों पर मनाने का विचार अनेक लोगों ने त्याग दिया है.
पहले हिल स्टेशन पर जाना छुट्टियां बिताने, मौजमस्ती करने या हनीमून आदि के लिए होता था, मगर मोदी सरकार ने टूरिज्म को धर्म से जोड़ कर इसे धार्मिक टूरिज्म बना दिया है जिस से न सिर्फ पुराने मंदिरों और तीर्थस्थलों में भीड़ बढ़ रही है बल्कि नएनए मंदिरों का निर्माण भी बड़ी तेजी से और बड़ी संख्या में हो रहा है. सोलन जैसे दिल्ली के पास के हिल स्टेशन पर एक दशक पहले तक जहां कुछेक मंदिर ही थे, वहां अब हर दूसरेतीसरे घर के बाद एक नया मंदिर नजर आने लगा है. हर मंदिर पर भीड़ भी जुटने लगी है जो अपने पीछे गंदगी का अंबार छोड़ कर जाती है. चिप्सबिस्कुट के रैपर, पानी की खाली बोतलें, प्लास्टिक की थैलियों के ढेर जगहजगह दिखाई देते हैं.
हिमाचल प्रदेश के राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट कहती है कि 2017 और 2022 के बीच प्राकृतिक आपदाओं में 1900 से ज्यादा लोगों की जानें गई हैं. हिमाचल के लिए सब से खतरनाक साल था 2021 जब पहाड़ों के टूटने से 476 लोगों की मौत हुई और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए. जाहिर है, यह पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा बढ़ते बोझ और पहाड व जंगलों को काटते जाने की वजह से हुआ. रिपोर्ट कहती है कि इन 5 सालों में आपदाओं के कारण 300 से ज्यादा मवेशियों ने भी अपनी जानें गंवाईं और प्रदेश को 7 हजार 500 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ.
कुछ समय पहले ही हिमालय भूविज्ञान संस्थान के डा. सुशील कुमार ने पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘हिमालय शृंखला बहुत नई हैं. इस की ऊपरी सतह पर 30-50 फुट तक केवल मिट्टी है. जरा सी बारिश से ही भूस्खलन का खतरा पैदा हो जाता है. ऐसे में यहां जिस हिसाब से निर्माण कार्य हो रहे हैं, वे आने वाले समय में बहुत ज्यादा बुरी खबरें लाएंगे. आल वेदर रोड प्रोजैक्ट के निर्माण के लिए पहाडि़यों की जिस निर्ममता से कटाई हो रही है, चारधाम यात्रा के चलते तीर्थयात्रियों की जो भीड़ बढ़ी है और टिहरी बांध के जलग्रहण क्षेत्र में जो बढ़ोतरी हुई है, उस के कारण यह पूरा इलाका बेहद संवेदनशील हो चुका है.’
निर्माण कार्य से पहाड़ कमजोर
गौरतलब है कि 12,500 करोड़ रुपए का चारधाम प्रोजैक्ट मोदी सरकार का बहुउद्देशीय प्रोजैक्ट है, जिस का मकसद है 4 प्रमुख तीर्थस्थलों- यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ को सड़कमार्ग से जोड़ कर ज्यादा से ज्यादा तीर्थयात्रियों को वहां भेजा जाए. योजना में चारधाम के लिए 53 परियोजनाओं के तहत करीब 825 किलोमीटर तक 2 लेन सड़क का निर्माण चल रहा है.
यह परियोजना 2022 दिसंबर तक पूरी हो जानी थी, मगर इस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाओं के कारण इस में 3 साल का विलंब हुआ. याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट में कहा कि इस परियोजना से भारी भूस्खलन होगा, जंगलों की हानि होगी, हिमालय से निकली नदियों और वन्यजीवों के लिए बड़ा खतरा पैदा होगा. मगर सरकार ने नैशनल सिक्योरिटी का हवाला दे कर कहा कि इस से भारतचीन सीमा को देहरादून और मेरठ के सेना शिविरों से जोड़ा जाएगा, जहां मिसाइल बेस और भारी मशीनरी स्थित हैं. इस से सीमा सुरक्षा को मजबूती मिलेगी. सीमा सुरक्षा की बात पर कोर्ट ने इस परियोजना से होने वाले नुकसान का आकलन करने के लिए एक कमेटी गठित की, जिस के अध्यक्ष और 5 अन्य सदस्यों ने पर्यावरण को भारी नुकसान की चेतावनी दी मगर कमेटी के 21 सदस्यों ने राय रखी कि इस नुकसान को कम किया जा सकता है. आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के बाद इस योजना पर काम चालू करने की अनुमति दे दी है.
हिमाचल सड़क परिवहन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2014 तक हिमाचल प्रदेश में नैशनल हाईवे की लंबाई 2,196 किलोमीटर थी, मगर अब, यानी 2023 में हिमाचल प्रदेश में 6,954 किलोमीटर तक नैशनल हाईवे है. जैसेजैसे फोरलेन और सिक्सलेन नैशनल हाईवे बन रहे हैं, लैंडस्लाइड की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. हिमाचल प्रदेश की स्टेट डिजास्टर मैनेजमैंट अथौरिटी के आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में हिमाचल प्रदेश में लैंडस्लाइड के 16 बड़े मामले दर्ज किए गए थे लेकिन 2021 में 100 से ज्यादा बड़े स्तर की लैंडस्लाइड की घटनाएं हुईं. 2022 में पहाड़ दरकने के कम से कम 117 ऐसे मामले सामने आए जिन में जानमाल का भारी नुकसान हुआ. यहां पहाड़ों को सिर्फ सड़कों के लिए ही नहीं तोड़ा जा रहा, बल्कि पहाड़ों की चूलचूल हिलाने का काम वे टनल कर रही हैं, जो तेजी से पहाड़ी राज्यों में बनाई जा रही हैं.
अभी चारधाम रेलवे और टनल प्रोजैक्ट के तहत ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक 125 किलोमीटर की रेलवे लाइन बननी है. इस प्रोजैक्ट में 17 सुरंगें बननी तय हैं. इस के अलावा मुख्य मार्ग अलग होगा. सरकार यहां ब्लास्टलैस ट्रैक्स और 35 ब्रिज भी बनाएगी. इस का काम चालू है. यहां डीटी 821सी और डीटी 922आई एडवांस्ड औटोमैटिक जंबो ड्रिल्स के जरिए पहाड़ों के अंदर सुरंगें बनाई जा रही हैं.
सरकार का कहना है कि ये मशीनें पत्थरों में ड्रिलिंग कर के बड़ी सुरंगें बना रही हैं ताकि ब्लास्ट से बचा जा सके. मगर जानकारों का कहना है कि इन रेलवे सुरंगों का नुकसान भविष्य में यह होगा कि यहां पर भारी ट्रेनें चलेंगी, जिस से कंपन होगा. गौरतलब है कि उत्तराखंड में 66 नई बड़ी सुरंगें बनाने के प्रोजैक्ट चल रहे हैं. उत्तराखंड के पहाड़ ज्यादा देर तक और लंबे समय तक कंपन सहने की क्षमता नहीं रखते हैं. हलका सा भूकंप आया या भूधंसाव हुआ तो पूरा का पूरा रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर पलक झपकते तबाह हो जाएगा. अगर उस की चपेट में ट्रेनें आईं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि किस भारी तबाही का मंजर होगा.
ऋषि गंगा हाइडल प्रोजैक्ट के तहत ऋषि गंगा नदी पर पावर प्रोजैक्ट बनना है. इस के विरोध में 2019 में एक पीआईएल फाइल हुई थी, जिस में कहा गया था कि निर्माणकर्ता कंपनी नदी को खतरे में डाल रही हैं. साथ ही, रैणी गांव के लोगों की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर को भी नुकसान होगा. देवीचा सैंटर औफ क्लाइमेट चेंज की 2018 की पौलिसी रिपोर्ट भी कहती है कि जब कोई पावर प्रोजैक्ट बनता है, तब वह पहले इलाके को प्रभावित करता है, फिर वहां ताकतवर प्राकृतिक आपदाएं आती हैं.
किरकिरा हुआ मजा
गौरतलब है कि 1991 के बाद से उत्तरपश्चिम हिमालय का तापमान ग्लोबल औसत से ज्यादा बढ़ा है. बावजूद इस के, पहाड़ों पर पावर प्रोजैक्ट्स की संख्या बढ़ती ही जा रही है. आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटीबड़ी बिजली परियोजनाएं चालू हैं जिन की कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है. सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1,000 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट बिजली क्षमता की होंगी. इस के लिए सतलुज, व्यास, रावी और पार्वती समेत तमाम छोटीबड़ी नदियों पर बांधों की कतारें खड़ी कर दी गई हैं.
पहाड़ों ने ऐसी तबाही पहले कभी नहीं देखी थी. आज हिमाचल के 2 दर्जन से ज्यादा जिले लैंडस्लाइड, बाढ़, बारिश से कराह रहे हैं. पहाड़ का पोरपोर धंस रहा है. टूट रहा है. बिखर रहा है. जो रेल की पटरियां अंगरेजों के जमाने से अब तक मजबूती से बिछी हुई थीं, उन के नीचे की जमीन सैलाब बहा ले गया है. कई रेल पटरियां हवा में लटक रही हैं. कुदरत इंसान को संभलने, सुधरने और सावधान हो जाने का संकेत बारबार दे रही है, बारबार आगाह कर रही है कि प्रकृति से छेड़छाड़ विनाश का कारण बन सकता है.
2013 में केदारनाथ त्रासदी और 2021 में चमोली त्रासदी के रूप में उत्तराखंड प्रकृति के रौद्र रूप के दर्शन कर चुका है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में एक बार फिर यह चेतावनी देखने को मिली है. वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ पर बन रही सड़कें, पहाड़ तोड़ने में विस्फोट, नदियों में गिरने वाली सड़क और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण का मलबा, पहाड़ों की गलत तरीके से कटाई, पहाड़ के नीचे लंबे सुरंग प्रोजैक्ट, पहाड़ी शहरों पर बढ़ती आबादी, पहाड़ में घर निर्माण की नई शैली, बिजली कारखाने, धार्मिक पर्यटन और तीर्थयात्रियों का बोझ, क्लाइमेट चेंज, टूटते ग्लेशियर और ज्यादा बारिश का बड़ा कारण बन रहा है. विकास के नाम पर सरकार जिस तरह नियमों में बदलाव कर रही है वह प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के सिवा कुछ नहीं है. सार यही है कि विकास जरूरी है लेकिन इंसानी जीवन को दांव पर लगा कर अगर ऐसा किया जाएगा तो यह विनाश को न्योता देगा.
सर्दियों में पहाड़ की बर्फ और ठंड का आनंद लेना अब दूभर होता जा रहा है. पहले लोग अत्यधिक ठंड के कारण नहीं जाते थे पर अब बिजली के कारण ठंड से मुकाबला कर सकते हैं इसलिए सुकून में जाना चाहते हैं पर उसे नष्ट होते पहाड़ों के कारण लगभग बंद किया जा रहा है. सर्दियां मनाइए पर मैदानी इलाकों में फिलहाल.