मौसी मजबूरी में अंतरा के पास रहने तो आ गईं पर इस अनजान घर में उन्हें बड़ा अजीब व अटपटा सा लग रहा था. वे चारपाई पर लेटी हुई रातभर करवटें बदलती रहीं, पता नहीं कब सुबह होगी.
रोज की तरह सुबह अंतरा जल्दी उठ गई और किचन में जा कर चाय बनाने लगी. वह सोच रही थी, अब तो मौसी भी घर में हैं, उन का पहला दिन है, नाश्ता भी ढंग का होना चाहिए. उस ने आलू उबलने रख दिए. सोचा, पूरी के साथ आलू की सब्जी और अचार ठीक रहेगा, बाकी फिर माहौल के हिसाब से देखा जाएगा.
खटरपटर सुन कर मौसी उठ कर किचन में आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या कर रही हो, बहू.’’
‘‘आप के लिए चाय बना रही हूं, आप नाश्ते में क्या लेंगी? आप तो शाकाहारी हैं न?’’ अंतरा ने हंस कर पूछा.
‘‘हूं तो पूरी शाकाहारी लेकिन मेरे लिए कुछ खास बनाने की जरूरत नहीं है. जो सब खाते हैं वही खा लूंगी,’’ मौसी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘अगर तुम लोग मांसमछली खाते हो तो मेरी चिंता मत करना, मैं छूआछूत नहीं मानती.’’
‘‘यह बड़ी अच्छी बात है, मौसी. हमारी तो जब बूआजी आती हैं तो सारे बरतन अलग रखवा देती हैं. नए बरतन निकालने पड़ते हैं,’’ अंतरा ने सिर हिलाते हुए कहा.
‘‘अब मौसी, आप की तरह तो हर आदमी समझदार नहीं होता,’’ अंतरा ने थोड़ा मुंह बना कर मौसी को चाय पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अब हमारे पिताजी को ही लो, बड़े तुनकमिजाज हैं. कभी कुछ चाहिए तो कभी कुछ. यह भी नहीं देखते कि मुझे दफ्तर जाने में देरी हो रही है. कभीकभी तो मैं बड़ी परेशान हो जाती हूं.’’
‘‘अब बुजुर्ग हैं,’’ मौसी ने समझते हुए कहा, ‘‘समझने में तो समय लगता ही है. अब पत्नी के जाने के बाद उन का तुम लोग खयाल नहीं रखोगे तो कौन रखेगा.’’
अंतरा को हंसी आ गई. मौसी के सारे नखरे रानी ने पहले ही बता दिए थे.
‘‘आप का कहना सच है, मौसी. अपनी तरफ से तो हम कोई कसर नहीं छोड़ते,’’ अंतरा बोली, ‘‘बस, कभीकभी सहना मुश्किल हो जाता है. तनावभरा जीवन है न.’’
‘‘सो तो है, मैं क्या जानती नहीं,’’ मौसी ने कहा, ‘‘मेरे लिए कोई काम हो तो जरूर बता देना. दिनभर बैठीबैठी करूंगी भी क्या.’’
‘‘जरूर बता दूंगी, मौसी. अभी तो जा कर आप आराम करिए,’’ अंतरा ने मुसकरा कर कहा.
मौसी को सुन कर अच्छा लगा.
नाश्ते के समय मौसी की मौजूदगी का खयाल कर के अंतरा के ससुर निहालचंद ने खुद पर काबू रखा और जो कुछ सामने रखा था, चुपचाप खा लिया.
अंतरा तो डर रही थी कि पिताजी कुछ कह कर बदमजगी न पैदा कर दें. मौसी क्या सोचेंगी.
औफिस जाते समय अंतरा ने रोज की तरह कहा, ‘‘पिताजी, आप का और मौसी का खाना बना कर हौटकेस में रख दिया है. आज मैं ने सूजी का हलवा भी बना दिया है. फ्रिज में रखा है. हां, दही भी है. जाऊं.’’
अंतरा के ससुर निहालचंद आदत के अनुसार ताना देतेदेते रुक गए. कहना चाहते थे जैसे हलवा रोज बना खिलाती है. क्या दिखावा कर रही है पर मौसी को देख कर चुप हो गए. अंतरा ने गहरी सांस ली.
जब 11 बजे तो निहालचंद को चाय की तलब लगी. यह उन की रोज की आदत थी. थोड़ा ?िझके पर कुछ सोच कर उठे और चाय बनाने लगे. किचन में आवाज सुन मौसी आ गईं.
‘‘अरे हटिए, मैं चाय बना देती हूं.’’ मौसी ने अधिकार से कहा.
‘‘नहींनहीं, मौसी,’’ निहालचंद के मुंह से निकला, ‘‘मैं तो रोज ही बनाता हूं और अच्छी भी.’’
‘‘देखिए, भाईसाहब,’’ मौसी ने मुंह सिकोड़ कर कहा, ‘‘मैं आप की मौसी नहीं हूं.’’
‘‘यह तो सच है, शतप्रतिशत सच है,’’ निहालचंद ने चिढ़ कर कहा, ‘‘लेकिन मैं भी आप का भाईसाहब नहीं हूं.’’
मौसी को हंसी आ गई, ‘‘चलिए, दोनों का हिसाब बराबर हो गया. अगर मैं बच्चों की मौसी हूं तो आप इस रिश्ते से मेरे जीजा हो गए.’’
‘‘और आप मेरी साली,’’ निहालचंद खुल कर हंस पड़े, ‘‘लीजिए, इसी बात पर मेरे हाथ की स्वादिष्ठ चाय
हाजिर है. दार्जिलिंग की शुद्ध पत्ती मंगवाता हूं.’’
‘‘दार्जिलिंग तो बहुत दूर है, मैं तो अपने आंगन की तुलसी की चाय बनाती हूं, खुशबूदार और गुणसंपन्न,’’ मौसी ने चाय का घूंट ले कर कहा, ‘‘सचमुच, बहुत अच्छी है. क्या कहूं, इस घर में न तो बहू इस समय चाय बनाती है और
न ही बनाने देती है. मन मार कर रह जाती हूं.’’
‘‘अब जब तक आप यहां पर हमारी मेहमान हैं, रोज मैं आप को चाय पिलाऊंगा. मन मान कर नहीं मन भर कर पीजिए,’’ हंसते हुए निहालचंद उठे और जूठे प्याले उठाने लगे.
‘‘अरेअरे,’’ मौसी ने प्याला पकड़ते हुए कहा, ‘‘अब कुछ मेरे लिए भी तो छोडि़ए.’’
निहालचंद मुसकरा कर रह गए. दरअसल वे जूठे बरतन रोजाना ऐसे ही छोड़ देते थे. जब अंतरा आती थी तो उठाती थी और उसे उन की इस आदत से बेहद चिढ़ होती थी. वह सोचती थी कि पिताजी जानबूझ कर उसे चिढ़ाने के लिए ऐसा करते हैं.
2 दिनों बाद मौसी ने कहा, ‘‘बहू, तुम्हें सुबह बहुत काम रहते हैं. तुम अपना नाश्तापानी कर लिया करो. मैं खाली बैठी रहती हूं. बाकी का काम मैं संभाल लूंगी. ऐसे मेहमानों की तरह कब तक बैठी रहूंगी.’’
‘‘नहीं, मौसी,’’ अंतरा ने विरोध किया, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. आप थोड़े दिनों के लिए तो आई हैं. आप चिंता मत करिए. मुझे काम करने की आदत है.’’
‘‘बहू, मुझे अच्छा नहीं लगता. बस, मैं ने कह दिया, अब मुझे कुछ न कुछ तो करना ही है,’’ मौसी ने लगभग डांटते हुए कहा.
अंतरा को मालूम था कि अपने घर में अगर उन से कोई काम करने को कह दे तो मौसी अपनी बहू रानी की मुसीबत कर देती थीं. यहां तक कि मां भी दुखी हो जाती थीं.
‘‘ओह, नहीं न मौसी, आप को कुछ नहीं करना है. रानी मुझ से झगड़ा करेगी,’’ अंतरा ने हठ किया.
‘‘कौन होती है, रानी,’’ मौसी ने गुस्से से कहा, ‘‘मैं जानती हूं, उस ने मेरी बड़ी बुराई की होगी. दरअसल वह मेरी लाचारी का फायदा उठाती है. कभीकभी तो सोचती हूं, मेरे सोनूमोनू की बहुएं ही क्या बुरी थीं.’’
‘‘अरे, क्या आप की अपनी बहुएं आप की सेवा नहीं करतीं,’’ अंतरा ने ऊपरी सहानुभूति जताते हुए कहा, ‘‘सच, कितने अरमानों से लोग बहू घर में लाते हैं.’’
मौसी की अपनी बहुओं से बिलकुल नहीं बनती थी, यह सब जानते थे लेकिन दूसरे के मुंह से उन की बुराई सुनना मौसी को अच्छा नहीं लगा.
‘‘अरे नहीं, बहू, आजकल की हवा ही खराब है. वे इतनी बुरी भी नहीं हैं,’’ मौसी ने मक्खी उड़ाते हुए कहा, ‘‘अब तुम भी तो काम करती हो. इस बुढ़ापे में ससुर की पूरी सेवा करती हो. देख कर अच्छा लगता है. अगले जनम में अच्छा ही फल मिलेगा.’’
‘‘मौसी, अगला जनम किस ने देखा है. मैं तो पूरी स्वार्थी हूं. सारे फल इसी जनम में चाहती हूं,’’ अंतरा ने मुसकरा कर कहा.
मौसी को भी हंसी आ गई, ‘‘तू कितनी अच्छी बातें करती है. खैर, असल मुद्दा यह है कि जब तक मैं यहां हूं, तू घर की चिंता मत कर, मैं सब संभाल लूंगी. तेरे दफ्तर जाने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’
अंतरा को डर लगा कि कहीं उस के ज्यादा मना करने से मौसी बुरा न मान जाएं. जल्दी से उन की बात मान ली. संतोष की गहरी और ठंडी सांस ली. इस चक्कर में अपने ससुर के चेहरे पर ढीली पड़ती शिकन दिखाई नहीं दी.
रसोई का काम हाथ में आते ही मौसी के ढीले शरीर में चुस्ती आ गई. अब वे बेरोकटोक मनपसंद खाना बना सकती थीं और निहालचंद के मुंह से अपनी तारीफ भी सुन सकती थीं. वे कभीकभी निहालचंद की पसंद के नएनए व्यंजन बनातीं. निहालचंद भी बस उन पर निहाल हो गए. उन का चिड़चिड़ापन छूमंतर हो गया. खुशमिजाजी लौट आई. सब से बड़ी बात यह थी कि उन का साथ देने वाला कोई मिल गया था जो उन की बातें पूरी सहानुभूति से सुनता भी था.
अकसर वे दोनों अपने सुखदुख की बातें कर लेते थे. उन्हें बहुत शांति मिलती थी. नजदीकी बढ़ने से एकदूसरे को जीजासाली कह कर थोड़ी छेड़खानी भी कर लेते थे. जीवन सुखमय हो रहा था.
दोपहर का समय काटने के लिए निहालचंद ने टांड़ पर से कैरम बोर्ड उतार लिया था. ताश भी ले आए थे. खेलना तो खास आता नहीं था. एकदूसरे के अनाड़ीपन पर हंस भी लेते थे.
देखतेदेखते एक महीना कैसे गुजर गया, पता ही नहीं लगा. मौसी के जाने का समय आ गया.
पड़ोसियों को भी मसाला मिल गया था. कानाफूसी करते थे कि बुड्ढेबुढि़या का कोई चक्कर चल रहा है. चलतेफिरते कभीकभी हलकेफुलके ताने भी कानों में पड़ जाते थे. नजरअंदाज करने के अलावा कोई चारा नहीं था.
दरअसल मौसी किसी की भी सगी मौसी नहीं थीं. बस, सब के लिए मुसीबत बनी हुई थीं. अंतरा और मनु के घर रहने आने के पीछे एक लंबी कहानी थी. यह एक निष्कपट प्रयोग था.
सपन अंतरा के पति मनु का सहयोगी, सहकर्मी व मित्र सबकुछ था. एक दिन सपन को बहुत दुखी देख मनु ने पूछ लिया कि आखिर बात क्या है.
‘यार, मेरी दूर के रिश्ते की एक मौसी है. मौसाजी की मृत्यु के बाद उसे कुछ ऐसा लगने लगा कि उस के दोनों बेटे और बहुएं उस की उपेक्षा करते हैं. मौसाजी ने एक गलती यह की थी कि मकान अपनी पत्नी के नाम नहीं किया था. एक दिन रोधो कर मां के पास अपनी कहानी सुनाने आ गई,’ यह कह कर सपन गिलास उठा कर जैसे ही पानी पीने लगा, मनु बोला, ‘मैं समझ रहा हूं, तू आगे क्या कहने वाला है.’
‘क्या.’
‘पहले तू अपनी बात पूरी कर ले, फिर मेरी सुनना,’ मनु बोला.
‘तरस खा कर मां ने उसे कुछ समय अपने पास आने व रहने का निमंत्रण दे दिया. वह तो मानो आने को तैयार बैठी थी, सो, कुछ दिनों बाद ही अपनी गठरी ले कर आ गई,’ सपन ने सिर हिलाते हुए गहरी सांस ली.
‘तो इस में बुरा क्या हुआ?’ मनु ने पूछा.
‘अरे, अब वह जाने का नाम नहीं लेती. मां ने कहा भी कि जाओ बेटों के पास, तो कहती है, ‘मुझे जहर ला कर दे दो. किसी घर में भी नौकरानी की तरह रह लूंगी, पर वहां नहीं जाऊंगी,’ सपन ने दुखी हो कर कहा.
‘यार, तू कुछ समझ नहीं. इतनी सी बात होती तो दुखड़ा क्यों रोता,’ सपन ने कहा, ‘दरअसल मौसी बड़े टेढ़े स्वभाव की है. मां से तो कुछ कहती नहीं, रानी से झगड़ती रहती है कि यह ऐसे क्यों कर दिया, तुझे सलीका नहीं है, तुझे ढंग का खाना बनाना नहीं आता और न जाने क्याक्या. अब हम समझ गए हैं कि क्यों मौसी की अपनी बहुओं से नहीं बनती थी. सब रानी झेल रही है.’
‘है तो यह विकट समस्या,’ मनु ने स्वीकारा, ‘पर यार, हम भी कम नहीं झेल रहे हैं. मेरी समस्या कुछ हट कर है. लेकिन है कुछ तेरी जैसी ही.’
‘तू भी अपनी कहानी कह डाल,’
सपन ने मुसकरा कर कहा,
‘कहते हैं न कि बांटने से दुख कम होता है और सुख बढ़ता है.’
मनु के पिता निहालचंद अच्छे इंसान थे. अंतरा से कभी कोई शिकायत नहीं थी. उस के नौकरी करने पर भी कोई आपत्ति नहीं थी. अपनी पत्नी के देहांत के बाद अकेलापन खलने लगा था. उदास भी रहते थे. धीरेधीरे उन की आदतें बदलने लगीं. जो कुछ घर के कामों में हाथ बंटाते थे, अब हाथ खींच लिया. खाली दिमाग तो होता ही शैतान का घर है. अंतरा के काम पर जाने से उन्हें बुरा लगने लगा. सुनासुना कर कहते थे, घर में अकेले रहते हैं, कोई उन का खयाल नहीं रखता. अगर सुबह का नाश्ता जल्दी बना दिया तो शिकायत, नहीं बना पाई तो वह भी मुसीबत. चाय बना कर सामने रख दी तो अखबार पढ़ने लगे और फिर चाय ठंडी हो गई तो डांट लगा दी. एक दिन तो हद ही कर दी.
अंतरा ने अंडाटोस्ट बना कर व गरम दूध सामने रखते हुए कहा था, ‘पिताजी, नाश्ता रख दिया है. मैं दफ्तर के लिए तैयार होने जा रही हूं.’
निहालचंद ने सुन तो लिया पर अखबर सामने से नहीं हटाया.
काफी देर बाद ऊंची आवाज में बोले, ‘बहू, यह ठंडा नाश्ता क्या मेरे लिए था.’
‘पर पिताजी, मैं ने तो गरम बना कर रखा था और आप को बोल कर भी आई थी,’ अंतरा ने शालीनता से ही कहा था.
तभी मनु सामने आ कर बोला, ‘मैं ने खुद सुना था. अंतरा ने आप को बता कर गरम नाश्ता रखा था. अब
आप देर तक न खाएं तो उस का क्या कुसूर है.’
‘तू चुप रह,’ निहालचंद ने डांट कर कहा, ‘क्या मैं झठ बोल रहा हूं.’
अंतरा से न रहा गया. वह बोली, ‘आप क्यों झठ बोलेंगे, हम ही झठ कह रहे हैं.’
‘कुछ कहा तुम ने?’ निहालचंद ने अखबार नीचे फेंकते हुए कहा.
‘जी नहीं, मैं ने कुछ नहीं बोला,’ अंतरा दूध का गिलास उठाती हुई बोली, ‘अभी गरम कर के लाती हूं. टोस्ट भी और बना देती हूं.’
‘रहने दो बहू, तुम्हें दफ्तर पहुंचने में देर हो जाएगी. देर होगी तो तुम्हारा बौस तुम्हें डांटेगा. तुम्हारा बौस तुम्हें डांटेगा तो तुम रोतेरोते मेरी बुराई करोगी,’ निहालचंद ने कटुता से पूछा, ‘मैं ने ठीक कहा न?’
मनु ने अंतरा को खींचते हुए कहा, ‘हम जा रहे हैं, पिताजी. देर हो रही है. जब काली आए तो उसी से गरम करवा लेना. वैसे, आप भी इतना तो कर ही सकते हैं.’
दुखी हो कर मनु अंतरा से कह रहा था. ‘क्या करूं समझ नहीं आता. अचानक पिताजी को क्या हो जाता
है. सारी झंझलाहट तुम्हारे ऊपर ही उतारते हैं.’
‘चिंता मत करो,’ अंतरा ने मुसकरा कर कहा, ‘झेलने के मामले में मैं इतनी कमजोर नहीं हूं.’
‘ऐसा क्यों नहीं करतीं,’ मनु ने सुझव दिया, ‘कुछ दिनों की छुट्टी ले कर घर पर पिताजी की सेवा करो. शायद खुश हो जाएं.’
‘न बाबा,’ अंतरा ने सिहर कर कहा, ‘यह तो मेरे लिए बड़ी सजा होती. मैं नौकरी नहीं छोड़ूंगी.’
मनु और सपन बहुत देर तक अपनीअपनी समस्याओं का विश्लेषण करते रहे और एकदूसरे के प्रति सहानुभूति भी दिखाते रहे. बहुत दूर तक कोई हल नहीं सूझ रहा था.
‘‘तो पिताजी की समस्या है अकेलापन,’’ सपन ने बहुत सोच कर कहा, ‘‘अगर कोई साथी उन्हें मिल जाए तो शायद बात बन जाए.’’
‘‘पर साथी कहां से लाऊं?’’ मनु ने निरुत्साह से कहा, ‘‘क्या सौतेली मां ले आऊं?’’
‘‘अरे नहीं, इतनी दूर सोचने की जरूरत नहीं है,’’ सपन ने कुटिल मुसकान से कहा, ‘‘मुझे एक प्रयोग सूझ है. एक तीर से दो निशाने. बस, तीर निशाने पर बैठना चाहिए.’’
‘‘अब कुछ बक भी,’’ मनु ने झंझला कर कहा.
‘‘ध्यान से सुन. तू हमारी मौसी को एक महीने के लिए अपने घर में रख ले. मौसी की आबोहवा बदल जाएगी और तेरे पिताजी को संगसाथ मिल जाएगा,’’ सपन ने कहा, ‘‘हां, अगर तू भी परेशान हो जाए तो मेरा सिक्का पहले भी वापस कर सकता है.’’
मनु बहुत देर तक सोचता रहा और फिर गहरी सांस ले कर बोला, ‘‘बात में दम तो है पर अंतरा से पूछना पड़ेगा.’’
‘‘ठीक है, हम चारों मिल कर कल एक मीटिंग रख लेते हैं.’’
चारों ने मिल कर यह प्रयोग करने का निर्णय किया. मौसी को बस इतना बताना था कि सपन, रानी और मां को ले कर एक महीने के लिए छुट्टी ले कर बाहर जा रहा है. तब तक मौसी का अपने एक मित्र के यहां रहने का बंदोबस्त कर दिया है.
यह सुन कर पहले तो मौसी बहुत उखड़ीं पर उन के पास कोई चारा न था. अकेले घर में रह नहीं सकती थीं और बेटों के पास जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था.
योजना के अनुसार एक महीना पूरा हो गया था. मनु व सपन सोचसोच कर घबरा रहे थे कि मौसी और पिताजी की क्या प्रतिक्रिया होगी. रानी डर रही थी कि कहीं मौसी पुराने ढर्रे पर न आ जाएं. अब की तो वह उन का पूरा विरोध करेगी. अंतरा सोच रही थी कि मौसी के जाने के बाद अगर पिताजी फिर से नखरे दिखाने लगे तो वह क्या करेगी.
‘‘चलो मौसी,’’ सपन ने कहा, ‘‘हम आप को लेने आए हैं. जल्दी से तैयार हो जाइए. हां, सोनूमोनू भी आप को याद कर रहे थे. वे आप को ले जाना चाहते हैं.’’
‘‘सच,’’ मौसी की आंखों में चमक आ गई, वे बोलीं, ‘‘नहीं, तू झठ कह रहा है. मैं बहुओं को जानती हूं.’’
‘‘मैं क्यों झठ बोलूंगा,’’ सपन ने हंस कर कहा, ‘‘वे तो शिकायत कर रहे थे कि मैं ने आप को अगवा कर लिया है.’’
निहालचंद हंस पड़े, ‘‘दरअसल तुम्हारी मौसी को तो मैं अगवा करना चाहता हूं. बहुत अच्छी हैं. बड़ा मन लग गया है इन से.’’
यह सुनते ही सब हंस पड़े. निहालचंद और मौसी झेंप गए.
‘‘क्या बात है, पिताजी, चलाएं कुछ चक्कर,’’ मनु ने छेड़ा.
‘‘तुम लोग बड़े शरारती हो,’’ मौसी के गाल सुर्ख हो गए.
‘‘मौसी, आप चली जाएंगी तो पिताजी आप को बहुत याद करेंगे,’’ अंतरा बोली, ‘‘आप के बनाए कढ़ी, बैगन का भुरता, लौकी के कोफ्ते, मूंग की दाल का हलवा और सभी चीजों की इतनी तारीफ करते हैं कि बस, पूछो ही मत. काश, मैं आप से सीख पाती.’’
अपनी तारीफ सुन कर मौसी का चेहरा खिल गया, ‘‘अरे, बस. ऐसे ही थोड़ाबहुत बना लेती हूं. वैसे, तुम नौकरी पर जाती हो, इतनी फुरसत कहां.’’
रानी ने मौसी के कमरे में झंकते हुए कहा, ‘‘अरे मौसी, आप का सामान सब वैसा का वैसा ही पड़ा है. क्या अभी चलने का इरादा नहीं है.’’
‘‘चलना तो है पर सोच रही हूं कि चलूं या नहीं,’’ मौसी ने हिचकते हुए कहा.
‘‘क्यों?’’ रानी और सपन चौंक पड़े.
‘‘बात यह है बहू कि अंतरा के पैर भारी हैं. अब उस की देखभाल करने वाला भी तो कोई घर में होना चाहिए न,’’ मौसी ने गंभीरता से कहा.
‘‘अरे, और हमें पता भी नहीं,’’ सब एकसाथ बोल पड़े.
रानी ने अंतरा का हाथ अपने हाथों में ले कर बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘‘तुम तो बड़ी छिपी रुस्तम निकलीं. मुबारक हो और मनु भैया आप को भी,’’ तो मनु मुसकरा कर रह गया.
रात में मनु अंतरा के पैर उठाउठा कर देख रहा था.
‘‘यह क्या कर रहे हो?’’ अंतरा ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘देख रहा हूं कितने भारी हैं,’’ मनु ने शरारत से कहा.
‘‘छि : बेशर्म कहीं के,’’ अंतरा ने पैर खींच लिए.
‘‘सुनो,’’ मनु ने गंभीरता से कहा, ‘‘अब मौसी को दुनिया के सामने झठला तो नहीं सकते. उन की बात
का मान तो रखना ही पड़ेगा. क्या
कहती हो?’’
बाहर किसी बात पर मौसी और निहालचंद खिलखिला कर हंस रहे थे, बिलकुल बच्चों की तरह.
शायद यह एक नए जीवन की शुरुआत थी. द्य
आप का कमैंट :
क्या जीवनसंध्या में जीवनसाथी की
जरूरत होती है?
हां.
न.
किसी का साथ जरूरी है.
जीवनसाथी हर उम्र में जरूरी है.
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