मौसी मजबूरी में अंतरा के पास रहने तो आ गईं पर इस अनजान घर में उन्हें बड़ा अजीब व अटपटा सा लग रहा था. वे चारपाई पर लेटी हुई रातभर करवटें बदलती रहीं, पता नहीं कब सुबह होगी.
रोज की तरह सुबह अंतरा जल्दी उठ गई और किचन में जा कर चाय बनाने लगी. वह सोच रही थी, अब तो मौसी भी घर में हैं, उन का पहला दिन है, नाश्ता भी ढंग का होना चाहिए. उस ने आलू उबलने रख दिए. सोचा, पूरी के साथ आलू की सब्जी और अचार ठीक रहेगा, बाकी फिर माहौल के हिसाब से देखा जाएगा.
खटरपटर सुन कर मौसी उठ कर किचन में आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या कर रही हो, बहू.’’
‘‘आप के लिए चाय बना रही हूं, आप नाश्ते में क्या लेंगी? आप तो शाकाहारी हैं न?’’ अंतरा ने हंस कर पूछा.
‘‘हूं तो पूरी शाकाहारी लेकिन मेरे लिए कुछ खास बनाने की जरूरत नहीं है. जो सब खाते हैं वही खा लूंगी,’’ मौसी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘अगर तुम लोग मांसमछली खाते हो तो मेरी चिंता मत करना, मैं छूआछूत नहीं मानती.’’
‘‘यह बड़ी अच्छी बात है, मौसी. हमारी तो जब बूआजी आती हैं तो सारे बरतन अलग रखवा देती हैं. नए बरतन निकालने पड़ते हैं,’’ अंतरा ने सिर हिलाते हुए कहा.
‘‘अब मौसी, आप की तरह तो हर आदमी समझदार नहीं होता,’’ अंतरा ने थोड़ा मुंह बना कर मौसी को चाय पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अब हमारे पिताजी को ही लो, बड़े तुनकमिजाज हैं. कभी कुछ चाहिए तो कभी कुछ. यह भी नहीं देखते कि मुझे दफ्तर जाने में देरी हो रही है. कभीकभी तो मैं बड़ी परेशान हो जाती हूं.’’