रिद्धिमा अकसर बीमार रहने लगी है. मनोज के साथ उसकी शादी को अभी सिर्फ 5 साल ही हुए हैंमगर ससुराल में शुरू के एक साल ठीकठाक रहने के बाद वह मुरझाने सी लगी. शादी से पहले रिद्धिमा एक सुंदर,खुशमिजाज और स्वस्थ लड़की थी. अनेक गुणों और कलाओं से भरी हुई लड़की. लेकिन शादी करके जब वह मनोज के परिवार में आई तो कुछ ही दिनों में उसको वहां गुलामी का एहसास होने लगा.

दरअसल, उसकी सास बड़ी तुनकमिजाज और ग़ुस्सेवाली है. वह उसके हर काम में नुक्स निकालती है. बातबात पर उसको टोकती है. घर के सारे काम उससे करवाती है और हर काम में तमाम तानेउलाहने देती है. तेरी मां ने तुझे यह नहीं सिखाया, तेरी मां ने तुझे वह नहीं सिखाया, तेरे घर में ऐसा होता होगा हमारे यहां ऐसा नहीं चलेगा, जैसे कटु वचनों से उसका दिल छलनी करती रहती है.

रिद्धिमा बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती है मगर उसकी सास और ननद को उसके हाथ का खाना कभी अच्छा नहीं लगा.वे उसमें कोई न कोई कमी ही निकालती रहती हैं. कभी नमक ज्यादा तो कभी मिर्च ज्यादा का राग अलापती हैं. शुरू में ससुर ने बहू के कामों की दबे सुरों में तारीफ की मगर पत्नी की चढ़ी हुई भृकुटि ने उनको चुप करा दिया. बाद में तो वे भी रिद्धिमा के कामों में मीनमेख निकालने लगे.

रिद्धिमा का पति मनोज सब देखता है कि उसकी पत्नी पर अत्याचार हो रहा है मगर मां, बाप और बहन के आगे उसकी जबान नहीं खुलती. मनोज के घर में रिद्धिमा खुद को एक नौकरानी से ज्यादा नहीं समझती है, वह भी बिना तनख्वाह की. इस घर में वह अपनी मरजी से कुछ नहीं कर सकती. यहां तक कि अपने कमरे को भी यदि वह अपनी सुरुचि के अनुसार सजाना चाहे तो उस पर भी उसकी सास नाराज हो जाती है, कहती है,‘इस घर को मैंने अपने खूनपसीने से बनाया है, इसलिए इसमें परिवर्तन की कोशिश भूल कर भी मत करना. जो चीज मैंने जहां सजाई है, वह वहीं रहेगी.’

रिद्धिमा की सास ने अपनी हरकतों और अपनी कड़वी बातों से यह जता दिया है कि घर उसका है और उसके मुताबिक चलेगा.यहां रिद्धिमा या मनोज की पसंद कोई मतलब नहीं रखती.5 साल लगातार गुस्सा, तनाव और अवसाद में ग्रस्त रिद्धिमा आखिरकार ब्लडप्रैशर की मरीज हो चुकी है. इस शहर में न तो उसका मायका है और न दोस्तों की टोली, जिनसे मिल कर वह अपने तनाव से थोड़ा मुक्त हो जाए.

उसकी तकलीफ दिनबदिन बढ़ रही है. सिर के बाल झड़ने लगे हैं. चेहरे पर झाइयां आ गई हैं. सजनेसंवरने का शौक तो पहले ही खत्म हो गया था. अब तो कईकई दिन वह कपड़े भी नहीं बदलती है. सच पूछो तो वह सचमुच नौकरानी सी दिखने लगी है. काम और तनाव के कारण 3 बार मिसकैरिज हो चुका है. बच्चा न होने के ताने सास से अलग सुनने पड़ते हैं. अब तो मनोज की भी उस में दिलचस्पी कम हो गई है. उसकी मां जब घर में टैंशन पैदा करती है तो उसकी खीझ वह रिद्धिमा पर निकालता है.

वहीं, रिद्धिमा की बड़ी बहन कामिनी, जो शादी के बाद से ही अपने सास, ससुर, देवर और ननद से दूर दूसरे शहर में अपने पति के साथ अपने घर में रहती है, बहुत सुखी, संपन्न और खुश है. चेहरे से नूर टपकता है. छोटीछोटी खुशियां एंजौय करती है. बातबात पर दिल खोल कर खिलखिला कर हंसती है.

कामिनी जिंदगी का भरपूर आनंद उठा रही है. अपने घर की और अपनी मरजी की मालकिन है. कोई उसके काम में हस्तक्षेप करने वाला नहीं है. अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार अपना घर सजाती है. घर को डैकोरेट करने के लिए अपनी पसंद की चीजें बाजार से लाती है. पति भी उसकी सुरुचि और कलात्मकता पर मुग्ध रहता है. बच्चों को वह अपने अनुसार बड़ा कर रही है. इस आजादी का ही परिणाम है कि कामिनी उम्र में बड़ी होते हुए भी रिद्धिमा से छोटी और ऊर्जावान दिखती है.

दरअसल, महिलाओं के स्वास्थ्य, सुंदरता, गुण और कला के विकास के लिए शादी के बाद पति के साथ अलग घर में रहना ही ठीक है. सास, ससुर, देवर, जेठ, ननदों से भरे परिवार में उनकी स्वतंत्रता छिन जाती है. हर वक्त एक अदृश्य डंडा सिर पर रहता है. उन पर घर के काम का भारी बोझ होता है. काम के बोझ के अलावा उनके ऊपर हर वक्त पहरा सा लगा रहता है. सासससुर की नजरें हर वक्त यही देखती रहती हैं कि बहू क्या कर रही है. घर में अगर ननद भी हो तो सास शेरनी बन कर बहू को फाड़ खाने के लिए तैयार रहती है. बेटी की तारीफ और बहू की बुराइयां करते उसकी जबान नहीं थकती.

ये हरकतें बहू को अवसादग्रस्त कर देती हैं. जबकि पति के साथ अलग रहने पर औरत का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभर कर आता है. वे अपने निर्णय स्वयं लेती हैं. अपनी रुचि से अपना घर सजाती हैं. अपने अनुसार अपने बच्चे पालती हैं और पति के साथ भी उनका रिश्ता अलग ही रंग लेकर आता है. पतिपत्नी अलग घर में रहें तो वहां काम का दबाव बहुत कम होता है. काम भी अपनी सुविधानुसार और पसंद के अनुरूप होता है. इसलिए कोई मानसिक तनाव और थकान नहीं होती.

बच्चों पर बुरा असर

घर में ढेर सारे सदस्य हों तो बढ़ते बच्चों पर ज्यादा टोकाटाकी की जाती है. उन्हें प्रत्येक व्यक्ति अपने तरीके से सहीगलत की राय देता है, जिससे वे कन्फ्यूज होकर रह जाते हैं. वे अपनी सोच के अनुसार सहीगलत का निर्णय नहीं ले पाते. एकल परिवार में सिर्फ मातापिता होते हैं जो बच्चे से प्यार भी करते हैं और उसको समझते भी हैं, तो बच्चा अपने फैसले लेने में कंफ्यूज नहीं होता और सहीगलत का निर्णय कर पाता है. लेकिन ससुराल में जहां सासबहू की आपस में नहीं बनती है तो वे बच्चों को एकदूसरे के खिलाफ भड़काती रहती हैं.

वे अपनी लड़ाई में बच्चों को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं. इससे बच्चों के कोमल मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. उनका विकास प्रभावित होता है. देखा गया है कि ऐसे घरों के बच्चे बहुत उग्र स्वभाव के, चिड़चिड़े, आक्रामक और ज़िद्दी हो जाते हैं. उनके अंदर अच्छे मानवीय गुणों जैसे मेलमिलाप, भाईचारा, प्रेम और सौहार्द की कमी होती है. वे अपने सहपाठियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते.

अपना घर तो खर्चा कम

पतिपत्नी स्वतंत्र रूप से अपने घर में रहें तो खर्च कम होने से परिवार आर्थिक रूप से मजबूत होता है. मनोज का ही उदाहरण लें तो यदि किसी दिन उसको मिठाई खाने का मन होता है तो सिर्फ अपने और पत्नी के लिए नहीं बल्कि उसको पूरे परिवार के लिए मिठाई खरीदनी पड़ती है. पत्नी के लिए साड़ी लाए तो उससे पहले मां और बहन के लिए भी खरीदनी पड़ती है. पतिपत्नी कभी अकेले होटल में खाना खाने या थियेटर में फिल्म देखने नहीं जातेक्योंकि पूरे परिवार को ले कर जाना पड़ेगा.

जबकि कामिनी अपने पति और दोनों बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाती है. वे रैस्तरां में मनचाहा खाना खाते हैं, फिल्म देखते हैं, शौपिंग करते हैं. उन्हें किसी बात के लिए सोचना नहीं पड़ता. ऐसे अनेक घर हैं जहां2 या 3 भाइयों की फैमिली एक ही छत के नीचे रहती है. वहां आएदिन झगड़े और मनमुटाव होते हैं. घर में कोई खाने की चीज आ रही है तो सिर्फ अपने बच्चों के लिए नहीं, बल्कि भाइयों के बच्चों के लिए भी लानी पड़ती है. सभी के हिसाब से खर्च करना पड़ता है. यदि परिवार में कोई कमजोर है तो दूसरा ज्यादा खर्च नहीं करता, ताकि उसे बुरा महसूस न हो.

मनोरंजन का अभाव

ससुराल में आमतौर पर बहुओं के मनोरंजन का कोई साधन नहीं होता है. उन को किचेन और बैडरूम तक सीमित कर दिया जाता है. घर का टीवी अगर ड्राइंगरूम में रखा है तो उस जगह सासससुर और बच्चों का कब्ज़ा रहता है. बहू अगर अपनी पसंद का कोई कार्यक्रम देखना चाहे तो नहीं देख सकती. पतिपत्नी कभी अकेले कहीं जाना चाहें तो सबकी निगाहों में सवाल होते हैं, कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कब तक आओगे?

इससे बाहर जाने का उत्साह ही ठंडा हो जाता है. ससुराल में बहुएं अपनी सहेलियों को घर नहीं बुलातीं, उनके साथ पार्टी नहीं करतीं, जबकि पतिपत्नी अलग घर में रहें तो दोनों ही अपने फ्रैंड्स को घर में इन्वाइट करते हैं, पार्टियां देते हैं और खुल कर एंजौय करते हैं.

जगह की कमी

एकल परिवारों में जगह की कमी नहीं रहती. वन बैडरूम फ्लैट में भी पर्याप्त जगह मिलती है. कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं होता है. बहू खाली वक्त में ड्राइंगरूम में बैठे या बालकनी में, सब जगह उसकी होती है, जबकि सासससुर की उपस्थिति में बहू अपने ही दायरे में सिमट जाती है. बच्चे भी दादादादी के कारण फंसाफंसा अनुभव करते हैं. खेलें या शोरगुल मचाएं तो डांट पड़ती है उन्हें.

स्वतंत्रता खुशी देती है

पतिपत्नी स्वतंत्र रूप से अलग घर ले कर रहें तो वहां हर चीज, हर काम की पूरी आजादी रहती है. किसी की कोई रोकटोक नहीं होती. जहां चाहा, वहां घूम आए. जो मन किया, वह बनाया और खाया. पकाने का मन नहीं है तो बाजार से और्डर कर दिया. जैसे चाहे वैसे कपड़े पहने. सासससुर के साथ रहने पर नौकरीपेशा महिलाएं उनकी इज्जत का खयाल रखते हुए साड़ी या चुन्नी वाला सूट ही पहनती हैं, जबकि स्वतंत्र रूप से अलग रहने वाली औरतें सुविधा और फैशन के अनुसार जींस-टौप, स्कर्ट, मिडी सब पहन सकती हैं. घर में पति के साथ अकेली हैं, तो वे नाइट सूट या सैक्सी नाइटी में रह सकती हैं.

रोमांस और सैक्स की छूट

पति के साथ अकेले हों तो रोमांस और सैक्स का आनंद कभी भी, और घर के किसी भी कोने में उठा सकते हैं. जबकि अन्य परिजनों के बीच रहते हुए ऐसा संभव ही नहीं है. वहां तो छुट्टी के दिन पतिपत्नी अगर दिन में कमरा बंद कर लें तो खुसुरफुसुर होने लगती है और सारा ठीकरा अकेले बहू के सिर पर फूटता है. सास के ताने, ननद के उलाहने और देवर का मजाक हद पार कर जाता है. एकल परिवार में जब पतिपत्नी हर वक्त एकदूसरे के करीब रहते हैं तो उनके बीच आपसी समझ बढ़ती है और बौन्डिंग मजबूत होती है. वे एकदूसरे की जरूरतों को इशारे में समझ जाते हैं.

फैसला लेने की स्वतंत्रता

पतिपत्नी स्वतंत्र घर में रहें तो अपने फैसले दोनों मिलजुल कर लेते हैं जबकि परिजनों के साथ रहने पर हर बात में उनसे राय लेना एक मजबूरी हो जाती है. देखा जाता है कि पतिपत्नी के नितांत निजी फैसलों में भी सास की घुसपैठ बनी रहती है.

अलग घर ले कर रहने पर आप अपने बच्चों को कहीं भी पढ़ा सकते हैं. स्कूल सस्ता हो या मंहगा, हिंदी मीडियम हो या इंग्लिश मीडियम, यह आपका डिसीजन होता है पर पूरे परिवार के साथ रहने पर आपको अपने बच्चे को भी वहीं पढ़ाना पड़ता है जहां बड़े भाई के बच्चे पढ़ रहे हैंभले आपकी आमदनी इतनी है कि आप अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में भेज सकते हैं, उसका अच्छा भविष्य बना सकते हैं.

हमें एक ही जीवन मिला है. उसका 25 फीसदी मातापिता के घर में उनकी सलाह और आज्ञा मानते हुए बीत जाता है. अगर शादी के बाद भी अपनी जिंदगी अपने तरीके और अपनी पसंद से न जी पाएं तो बुढ़ापे में सिवा अफसोस के और कुछ नहीं रहेगा. बहू के लिए ससुराल में सबके साथ तालमेल बैठाना किसी भी हालत में संभव नहीं है. बड़ों के आदर और छोटों से स्नेह के नाम पर वहां हिप्पोक्रेसी ही ज्यादा है. परिवार के सभी सदस्यों के बीच काम का बंटवारा भी ठीक तरीके से नहीं होता है.

आमतौर पर घर की बहू पर सारे काम लाद दिए जाते हैं.वह गधे की तरह दिनभर काम का बोझ ढोती है और लातें भी खाती है. आज लाखों पतिपत्नी ऐसे हैं जो परिजनों के साथ रहते हुए तनावग्रस्त हैं. तनाव के कारण अनेक गंभीर बीमारियों का शिकार भी हैं. कितनी महिलाएं इस तनाव के कारण आत्महत्या कर रही हैं. कितने ही पुरुष इस तनाव के कारण हृदय रोगों का शिकार बन गए हैं. इस तनाव से मुक्त होना जरूरी है और उसके लिए परंपरागत बेड़ियों को काटना आवश्यक है.

अलग घर ले कर रहना कोई जुर्म नहीं है. अगर आपके मातापिता का 4 बैडरूम वाला बड़ा घर है तो आप एक बैडरूम वाला घर लेकर रहें, जहां आप पूरी तरह स्वतंत्र और अपनी मरजी के मालिक हों. जहां सारे फैसले आपके अपने हों. इससे खुशी भी मिलेगी और आप में मैच्योरिटी भी आएगी. जरूरत पड़ने पर, किसी फंक्शन पर, तीजत्योहार में आप मिठाई का डब्बा ले कर मातापिता से मिलने भी जाएं, इससे उनका मानसम्मान भी बना रहेगा और आपकी कद्र भी रहेगी.

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