सुषमा और वैभव का वैवाहिक जीवन  शुरू से ही तनावों से भरा था. धीरेधीरे दोनों के बीच वैचारिक मतभेद इतने बढ़ गए कि उन्होंने तलाक के लिए अदालत में आवेदन कर दिया. लगभग 7-8 माह तक अदालती काररवाई चलने के बाद अदालत ने तलाक की डिगरी पारित कर दी. वैभव को अपने बेटे अभिनव से बड़ा लगाव था. तलाक के समय अभिनव 2 साल का था. सुषमा किसी भी कीमत पर अभिनव को छोड़ना नहीं चाहती थी, जबकि वैभव बेटे को अपने पास रखना चाहता था.

तलाक के 1 साल बाद तक अभिनव अपनी मां सुषमा के साथ रहा. इस दौरान वैभव ने बच्चे को हासिल करने के लिए सामाजिक स्तर पर कई प्रयास किए लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. बच्चे की संरक्षता हासिल करने के लिए वैभव ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. अदालत ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद फैसला दिया कि 5 साल की उम्र तक अभिनव अपनी मां सुषमा के पास ही रहेगा. अब 5 साल तक वैभव के पास इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. उधर सुषमा पर तलाकशुदा होने का ठप्पा लग चुका था. वह हाई सोसाइटी की औरतों के बीच में इस की वजह से अपमानित होने लगी थी. उस के धनी पिता का दोबारा विवाह करने का दबाव भी उस पर बढ़ता जा रहा था. बेचारा अभिनव, निर्दोष होने के बावजूद पिता के प्यार और माता की असमंजस स्थिति के बीच पिस रहा था. अब अभिनव के सामने समस्या यह आएगी कि जब 5 साल की आयु को पूरा करने के बाद वह पिता की संरक्षता में जाएगा तब उस के लिए एक नए जीवन की शुरुआत होगी. नानानानी के साथ पीछे बिताए गए समय में जो स्नेह उस परिवार से बन गया था, उस से अलग होना उस के दिमाग पर गलत असर डालेगा. पिता के परिवार में दादादादी, चाचाचाची के साथ रिश्तों की नई शुरुआत भी अभिनव को करनी होगी.

कानून में तलाक की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि पक्षकारों के बच्चे होने पर उन का भविष्य प्रभावित होता है. तलाक के बाद यदि बच्चा मां के साथ रहता है और मां के पास उस के भरणपोषण के लिए आय नहीं है तो वह अपने पूर्व पति से स्वयं और संतान के जीवन निर्वाह के लिए भरणपोषण की मांग कर सकती है. 500 रुपए की यह रकम महंगाई को देखते हुए अब 2,500 रुपए तक बढ़ा दी गई है. जब अक्षय और सुधा का तलाक हुआ तब मोना 3 साल की थी. सुधा और अक्षय ने तलाक के समय ही यह तय कर लिया था कि मोना सुधा के पास रहेगी. सुधा उस समय एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती थी. उस के वेतन से मोना की पढ़ाई और घर का खर्च आसानी से चल जाता था. 1 साल बाद वह कंपनी बंद हो गई, जिस में सुधा काम करती थी. भागदौड़ के बाद दूसरी कंपनी में सुधा को नौकरी तो मिल गई पर वेतन बहुत कम था. अब मोना को स्कूल में दाखिल कराने के लिए सुधा को पैसे की जरूरत पड़ी तो उस ने अक्षय से संपर्क कर अपनी परेशानी बताई. अक्षय ने यह कहते हुए उस की किसी भी तरह की आर्थिक मदद करने से मना कर दिया कि मोना को अपने पास रखने का फैसला तुम ने खुद लिया था और फिर तलाक हो जाने के बाद तुम्हारे और मोना के प्रति मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है.

सुधा यह मामला अदालत में ले गई और वहां यह तथ्य सामने आया कि सुधा ने अभी तक दोबारा विवाह नहीं किया है. अदालत ने सुधा की तत्कालीन आय को जीवन निर्वाह के लिए अपर्याप्त मानते हुए उसे बच्चे के लिए अक्षय से 700 रुपए मासिक प्राप्त करने का हकदार माना. तलाक के बाद आय का जो जरिया पत्नी और संतान के पास मौजूद है यदि वह जीवन जीने के लिए  पर्याप्त न हो तो पत्नी अपने पति से गुजाराभत्ता प्राप्त कर सकती है. यह रकम कितनी होगी, इस के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है लेकिन मामले के तथ्यों, परिस्थितियों और वैवाहिक जीवन स्तर के आधार पर यह रकम तय की जा सकती है.

ऐसा ही एक मामला सतीश और प्रज्ञा का था. प्रज्ञा की कोई स्थायी आय नहीं थी. वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी जबकि सतीश का अपना व्यापार था और उन का बेटा विजय उस समय नर्सरी में पढ़ता था. तलाक के बाद विजय अपनी मां प्रज्ञा के साथ रहने लगा. चूंकि विजय छोटी कक्षा में पढ़ता था इसलिए प्रज्ञा की आय से उस का स्कूल खर्च पूरा हो जाता था. विजय जब छठी कक्षा में आया और उसे दूसरे स्कूल में प्रवेश दिलवाया गया तो स्कूल की फीस और विजय की पढ़ाई के साथ जुटे दूसरे खर्चे पूरे कराने के बाद प्रभा के पास कुछ बचता ही नहीं था. उस ने एक वकील से राय ली और फिर सतीश को नोटिस दिया. नोटिस का सतीश पर कोई असर नहीं हुआ. मजबूर हो कर प्रभा ने अदालत की शरण ली. अदालत में सतीश की आमदनी 1 लाख रुपए सालाना प्रमाणित हुई. अदालत ने यह भी पाया कि वैवाहिक जीवन में वे उच्चस्तरीय रहनसहन के आदी हो गए थे. स्कूल के बढ़ते खर्च और प्रभा की अस्थायी आय स्रोत को देखते हुए सतीश को आदेश दिया गया कि वह अपनी तलाकशुदा पत्नी व बेटे के खर्च के लिए 2 हजार रुपए मासिक भुगतान करे. यह कानूनी स्थिति है कि यदि पत्नी की आय से उस का तथा संतान का गुजारा होना संभव नहीं है तो वह अदालत के जरिए भरणपोषण की रकम पूर्व पति से प्राप्त कर सकती है और जैसे ही औलाद बड़ी हो कर आय का स्रोत प्राप्त करती है, इस मासिक रकम को अदालत के जरिए बंद कराया जा सकता है.

जहां पर पिता संतान को अपने साथ रख कर उस का भरणपोषण करने के लिए तैयार हो वहां तलाकशुदा महिला केवल खुद के लिए ही भरणपोषण प्राप्त करने की हकदार रह जाती है. इस प्रकार तलाक के बाद संतान की परवरिश तथा खर्च तय करने में उन के भविष्य को ध्यान में रखा जाता है.

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