सुजीत कुमार वाजपेयी, राजीव सक्सेना, सुमन प्रसाद सिंह, अंबर दुबे ये कुछ नाम उन भाग्यशाली लोगों के हैं जिनकी योग्यताएं और अनुभव एक दफा शक के दायरे में खड़े किएजा सकते हैं लेकिन उनके जन्मना श्रेष्ठ यानी ऊंची जाति के होने पर कोई शक नहीं किया जा सकता. इन और इन जैसे कई अधेड़ों को सरकार पिछले 5वर्षों से सीधे आईएएस अधिकारी बना रही है. अंदाजा है कि अब तक कोई डेढ़ सौ के लगभग आईएएस एक नई स्कीम ‘लेटरल एंट्री’ के तहत बनाए जा चुके हैं और 2023 की भरती प्रक्रिया अभी चल रही है.

देश को आईएएस देने वाली संस्था यूपीएससी यानी संघ लोक सेवा आयोग ने एक बार फिर रिक्तियां (विज्ञापन क्रमांक 52/2023) निकालकर प्रतिभाशाली उम्रदराज लोगों से आवेदन मांगे थे जिसकी आखिरी तारीख 19 जून, 2023 थी. ये पद बड़े, मलाईदार और अहम थे, मसलन विभिन्न मंत्रालयों में जौइंट सैक्रेटरी, डिप्टी सैक्रेटरी और डायरैक्टर, जो पद से ज्यादा सरकारी ताकतों के नाम होते हैं.इन पदों के लिए अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता अपने विषय में स्नातक मांगी गई थी और 15 साल का अनुभव अपने क्षेत्र का चाहा गया था. उम्र 40से लेकर 55 सालतक रखी गई थी.वेतन विभिन्न भत्तों सहित लगभग 2 लाख 18 हजार रुपए एक बड़ा आकर्षण साफसाफ दिख रहा था. यह नियुक्ति 3 साल के लिए होती है जिसे 2 साल और बढ़ाया जा सकता है.

इस इश्तिहार के मसौदे में इकलौती अच्छी बात जातपांत यानी जातिगत आरक्षण का झंझट या जिक्र न होना थी कि इतनी पोस्ट एससी, एसटी, ईडब्लूएस के लिए और इतनी ओबीसी के लिए आरक्षित हैं. लेटरल एंट्री का यह 6ठा साल है, इसलिए समझने वाले समझ गए कि हमारे उच्च कुल में जन्म लेने के पुण्य अब फलीभूत हो रहे हैं और बहती गंगा में हाथ धो लिए जाएं.पिछले 3बैचों में जिन भाग्यशाली अधेड़ों को आईएएस अफसर बनाया गया है, उम्मीद और मंशा के मुताबिक उन में से 95 फीसदी सवर्ण थे. भूषण कुमार जैसे 5 फीसदी पिछड़े वर्ग से थे.

क्या है यह लेटरल एंट्री और इसके पीछे छिपी मंशा, इसे समझने से पहले एक नजर 2021 के चयनित 31 उम्मीदवारों, जो आईएएस बने, की लिस्ट पर डालें तो 29 उच्च कुलीन सरनेम थे. एकएक नाम मुसलिम और इसाई समुदाय का था. मुमकिन है एकाध कोई पिछड़े वर्ग का हो हालांकि इस इम्तिहान (प्रतियोगिता परीक्षा कहने की तो कोई वजह ही नहीं) में कास्ट कैटेगरी बताना मना था लेकिन जाहिर है सभी उच्च कुलीन अनारक्षित या सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार माने जाएंगे.

इन होनहारों को भाग्यशाली कहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि इन्हें आईएएस बनने के लिए दिनरात हाड़तोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ी, महंगी कोचिंग क्लासेस में वक्त और पैसा खर्च नहीं करना पड़ा, घरपरिवार का, खानेपीने और सोने का सुख नहीं छोड़ना पड़ा. पढ़ने के लिए महंगा साहित्य नहीं खरीदना पड़ा, साथियों और दोस्तों से करंट और परंपरागत विषयों व मुद्दों पर बहस नहीं करनी पड़ी. और तो और, उन 3 कड़े स्टैप्स से भी होकर नहीं गुजरना पड़ा जहां इंटरव्यू लेने वाले आकाश पाताल से भी सवाल खोद लाते हैं. किस्मत के धनी इन लोगों का चयन सिर्फ मौखिक साक्षात्कार की बिना पर हुआ. चयन के बाद भी कोई कड़ी मैदानी ट्रेनिंग नहीं, जो नए आईएएस अधिकारियों को देशविदेश में दी जाती है.

केबीसी की तर्ज पर

ये नियुक्तियां या खैरात, कुछ भी समझ लें, रेवड़ी की तरह अपनों को बांटी जाती हैं. जो कुछेक घोषित तौर पर अपने नहीं होते उन में भी मलाई खाने के बाद अपनापन आ जाता है. ये भरतियां ठीक वैसी ही हैं जैसी लोकप्रिय गेम शो कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन हर किसी को करोड़पति बनाते हैं. इस खेल में तो फिर भी थोड़ेबहुत सामान्य ज्ञान की जरूरत प्रतिभागियों को पड़ती है और हौट सीट तक पहुंचने के लिए लाखों लोगों को पार करना पड़ता है.

लेटरल एंट्री में यह जरूरी नहीं. सरकार अगर सहकारिता और किसान कल्याण विभाग में अधिकारी नियुक्त करना चाह रही है तो उम्मीदवार की जनरल नौलेज किस स्तर की है, यह नहीं देखा जाता. देखा यह भी नहीं जाता कि उसे देश में पाई जाने वाली विभिन्न मिट्टियों के बारे में कुछ पता है या नहीं. सहकारी खेती क्या होती है, यह मामूली बात सीखने के लिए उसके पास 3 से 5 साल होते हैं और इस मियाद में भी वह ये बुनियादी बातें न सीखे और जाने तो भी कोई बात नहीं क्योंकि सरकार की मंशा उसे कम से कम एक करोड़ रुपए देने की रहती है.

लेटरल एंट्री के बारे में प्रचार यह किया गया है कि यह निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों का फायदा उठाने के लिए है क्योंकि वे अनुभवी होते हैं.यह एक मूर्खतापूर्ण बात है. मिसाल सहकारिता और किसान कल्याण की ही लें तो यह जमीन से जुड़ा अहम विषय है जिसमें उम्मीदवार का एमएससी एग्रीकल्चर से होना जरूरी होना चाहिए. नियमित परीक्षाओं के जरिए जो फ्रैशर्स आते हैं वे कृषि स्नातक हों यह भी अनिवार्यता नहीं. लेकिन कुछ साल विभिन्न पदों और जिलों में काम करने के बाद वे जमीन और किसान की कई समस्याओं व परेशानियों से अवगत हो जाते हैं.

प्राइवेट सैक्टर के किसी तजारबेकार अधिकारी, जो विलासी जिंदगी और एयर कंडीशंसवगैरह का आदी हो चुका होता है, से यह उम्मीद करना दिल बहलाने जैसी बात होगी कि वह किसानों की जरूरत के मुताबिक उनके हित में कृषि नीतियों में बदलाव की बात कर सके. प्राइवेट सैक्टर सिर्फ बेचना और मुनाफा कमाना जानते हैं. लिहाजा, उनका बंदा सिर्फ इसी दिशा में सोचेगा जिसका खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ेगा.

कौर्पोरेट कल्चर का देश या जनता के हितों से कोई वास्ता नहीं होता. इसलिए उनसे एक अच्छे ब्यूरोक्रेट होने की अपेक्षा पालना नादानी ही है. आईएएस की रोजमर्राई जिंदगी बेहद सार्वजनिक होती है जबकि प्राइवेट सैक्टर के अधिकारी कूपमंडूक से होते हैं जो अपनी कंपनी के कुएं में कैद रहते हैं.

3 साल पहले ही आईएएस बनी मध्यप्रदेश की एक अधिकारी का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि,‘हम चौबीसों घंटे ड्यूटी पर रहते हैं जिस में जिम्मेदारियां और जवाबदेहियां बहुत हैं. इन लोगों (लेटरल एंट्री वालों) के साथ ऐसा कुछ नहीं है. वे अपनी जिंदगी जी चुके होते हैं, खासा पैसा भी उनके पास जमा हो चुका होता है. हमें तो अभी उनसे आधी सैलरी भी नहीं मिल रही. लिहाजा, उन्हें किसी बात का डर नहीं रहता.’ यह स्मार्ट अधिकारी रामचरितमानस का भय बिन होत न प्रीत वाला दोहा सुनाकर काफीकुछ इशारों में कह देती है.

बात इस लिहाज से भी दमदार है कि आईएएस के इम्तिहान में कामयाबी की औसत दर 0.2 फीसदी है जबकि लेटरल एंट्री में यह 20 फीसदी से भी ज्यादा होती है. इस पर भी चयन न हो तो इन कुलीनों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. अभी तक आईएएस बने विशेषज्ञों ने क्या कारनामा ऐसा कर दिखाया जिसकी मिसाल दी जा सके. इसका जवाब तो मिलने से रहा क्योंकि यूपीएससी की नोडल एजेंसी डीओपीटी यानी कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के पास तो इस सवाल का भी जबाब नहीं कि 2018 में कितने विशेषज्ञों की भरती की गई थी.

आरटीआई के तहत दायर एक याचिका में जब एक प्रश्नकर्ता ने यह सवाल किया तो दो टूक जवाब यह मिला कि इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं. एक तरह से यह लौटरी लग जाने जैसी बात है कि आप बैठेबिठाए आईएएस अधिकारी बन जाएं. जो ओहदा और रुतबा आप उम्र और वक्त रहते इस दौड़ में पिछड़ जाने के चलते या काबिल न होने के कारण हासिल नहीं कर पाए थे वह जिंदगी के उत्तरार्ध में तोहफे में मिल रहा है. सो, इसमें हर्ज क्या.

आरक्षण का भक्षण

लेटरल एंट्री का इतिहास महज 5 साल पुराना है हालांकि इसके पहले भी सरकार ऐसी भरतियां करती रही है लेकिन इन दोनों में बहुत अंतर है. भक्त लोग किसी भी आरोप से बचने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रघुराम राजन जैसे आधाएक दर्जन नाम गिनाते यह साबित करने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं कि इसमें नया क्या है, यह रिवाज भी तो कांग्रेस ने शुरू किया था. ये लोग इस बात और तथ्य से कोई वास्ता नहीं रखते कि वे नियुक्तियां अपवाद और छिटपुट थीं और वाकई सरकार को ऐसे विषय विशेषज्ञों की जरूरत थी जो किसी इम्तिहान के जरिएनहीं मिलते.

आज की नियुक्तियां थोक में बाकायदा वैकेंसी निकाल कर की जा रही हैं, इसलिए उन्हें नियुक्ति की जगह भरती कहना ज्यादा बेहतर होगा.सरकार अगर एकाधदो नामी विशेषज्ञों को सीधे नियुक्ति देदे तो उस में कोई सवाल नहीं करेगा खासतौर से आरक्षण के बाबत जो लेटरल एंट्री की थोक भरतियों के बाद इस शक को यकीन में बदलता हुआ है कि भगवा गैंग धीरेधीरे जातिगत आरक्षण खत्म नहीं, तो कमजोर तो कर ही रहा है. और लेटरल एंट्री आधुनिक भारत केएकलव्यों के अंगूठे काटने का नया तरीका है.

लेटरल एंट्री से पिछड़ी और दलित जातियों की युवतियों को ज्यादा हानि हो रही है क्योंकि अब इन जातियों की युवतियों की बड़ी संख्या नौकरियों की प्रतियोगिता में सफल हो रही है. आरक्षणप्राप्त जातियों के युवाओं को तो खेतों, कारखानों में जगह मिल जाती है या फिर हिंदू धर्म के रक्षक बन कर कांवड़ ढोने जैसे काम कर जिंदगी बरबाद कर रहे हैं.

इन जातियों की युवतियों को घरों में रहना होता है और वे अपना समय पढ़ने में लगाती हैं. कम पैसे के बावजूद बिना महंगी कोचिंग के ये युवतियां परीक्षाओं में लड़कों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं और ऊंची जातियों के लड़कों व लड़कियों को पीछे छोड़ रही हैं. भाजपा सरकारों ने इन्हें योजनाबद्ध तरीके से हतोत्साहित करने का फैसला किया है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण साक्षी मलिक जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैडल जीतकर आई पहलवान लड़कियों की मांग को अनदेखा करना है.

इस प्रक्रिया में आरक्षण नियमों की बाध्यता नहीं है. इससे बड़ा नुकसान आरक्षित वर्ग के युवाओं का हो रहा है. अगर सरकार ने अब तक 200 आईएएस अधिकारी बैकडोर से बनाए हैं तो उनमें से आधे के लगभग पिछड़े, दलित और आदिवासी होने चाहिए जैसी कि आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है.

लेटरल एंट्री की सिफारिश कांग्रेस के शासनकाल में भी कई एजेंसियों ने की थी लेकिन सरकार ने साफ मना कर दिया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद जो नए प्रयोग नरेंद्र मोदी ने किए उनमें से एक लेटरल एंट्री के जरिए कुलीनों को आईएएस अधिकारी बना देना है.

साल 2018 में जब सरकार ने यह फैसला लिया था तब सबसे ज्यादा विरोध उत्तरपश्चिम दिल्ली से भाजपा सांसद उदित राज ने यह कहते किया था कि इसमें आरक्षण का पालन नहींहो रहा है. इस गुस्ताखी के एवज में बाद में उन्हें भाजपा छोड़नी पड़ी थी. बाकी बातें जो उदित राज तब भाजपाई होने के नाते नहीं कर पाए थे. उन्हें कांग्रेसी सांसद पीएल पुनिया ने यह आरोप लगाते पूरा किया था कि इस फैसले के जरिए सरकार आरएसएस और भाजपा से जुड़े लोगों को पिछले दरवाजे से एंट्री दे रही है. उसने यूपीएससी की कड़ी चयन प्रक्रिया को हाशिए पर रख दिया है. इसमें आरक्षण नीति का पालन न करना सरकार की बदनीयती को दर्शाता है.

जाहिर है यह एक बड़ी चालाकी है जिसमें हल्ला मचने की गुंजाइश न के बराबर है. बहुत सीमित विरोध के साथ जितना हल्ला मचना था वह मच चुका है क्योंकि इससे आरक्षित वर्गों का सीधे और बड़ा नुकसान नहीं हो रहालेकिन इन वर्गों के सोचने वाले यानी हितचिंतकों की राय या चिंता कुछ और है कि सरकार आरक्षण पूरी तरह खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकती लेकिन वह आरक्षण को कमजोर तो कर ही सकती है. छोटे पदों पर आउटसोर्सिंग इसकी बेहतर मिसाल है.

इस प्रतिनिधि ने जब इस बाबत कुछ सरकारी विभागों को टटोला तो हैरतअंगेज बात यह उजागर हुई कि 80 फीसदी कंप्यूटर औपरेटर अनारक्षित वर्ग से हैं यानी सवर्ण हैं, बाकी 20 फीसदी में दलित, पिछड़े वर्ग के युवा हैं. आदिवासी तो न के बराबर हैं. भोपाल नगर निगम सहित मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी में छोटे अनियमित पदों पर काम कर रहे 80 फीसदी युवा सवर्ण हैं. इनकी जानकारी रखना और रखी भी हो तो सार्वजनिक करना या मीडिया को देना विभागों के लिए जरूरी नहीं है क्योंकि ये अस्थायी हैं और ठेका पद्धति से आए हैं.

हैरत की बात यह है कि सड़कों पर सुबहशाम झाड़ू लगा रही महिलाएं और पुरुष दलित जातियों के ही हैं. उनकी संख्या 90 फीसदी के लगभग है.यह इस डिजिटल दौर का मनुवाद और वर्णव्यवस्था है.

भाजपा शासित राज्यों सहित केंद्र सरकार भी नियमित रिक्तियां नहीं निकाल रही क्योंकि इसमें उन्हें आरक्षण रोस्टर का पालन करना पड़ेगा. ओडिशा के भीषण रेल हादसे के बाद पता चला था कि रेलवे में हजारों छोटेबड़े पद सालों से खाली पड़े हैं.इससे सरकार के पैसे तो बच ही रहे हैं, साथ ही, आरक्षितों को नौकरी देने की झंझट से भी वह बची हुई है. जानमाल के नुकसान पर दुख जता देने व खजाने से मुआवजा दे देने से सरकार अपनी जवाबदेही से बच जाती है.

सवर्णवाद आरक्षण पर एक साजिश के तहत भारी पड़ रहा है और दलित, पिछड़े, आदिवासी व अब गरीब भी इस ज्यादती पर खुलकर नहीं बोल पा रहे या विरोध कर पा रहे तो इसकी वजह उनके समुदाय का कमजोर नेतृत्व और एकजुटता का न होना ही है. उसे भी भगवा गैंग ने 9 साल में इतना कमजोर कर दिया है कि अब उसका अपने पैरों पर मजबूती से उठ खड़े होना एक कठिन चुनौती दिख रहा है.

सरकार की मंशा का हलका विरोध सोशल मीडिया पर हुआ था. एक यूजर सौम्या स्वीटी का यह ट्वीट जमकर वायरल हुआ था जिसमें उन्होंने कमैंट किया था कि ‘बिना परीक्षा दिए सवर्णों को आईएएस बना दिया और एससी, एसटी, ओबीसी वालों को भी निराश नहीं किया, उन्हें कांवड़ यात्रा के दौरान डीजे बजाने की छूट दी है.’

जब सरकार ने लेटरल एंट्री का फैसला लिया था तब दिग्गज दलित भाजपाई नेता खामोश रहे थे. इन में सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत सहित 2 और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और रामदास अठावले के नाम प्रमुख हैं.सरकार की गोद में बैठे इन दलित नेताओं को अपने ही तबके के युवाओं का भविष्य और अधिकार नहीं दिखे थे लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने जरूर तुक की एक बात यह कही थी कि यूपीएससी द्वारा आयोजित इम्तिहान पास नहीं करने वालों को नियुक्त करने का फैसला मोदी सरकार की प्रशासनिक विफलता का संकेत है. यह नीति निर्माण के जरिए बड़े व्यवसायों को फायदा पहुंचाने की साजिश है.

तकनीकी तौर पर इस फैसले के चिथड़े आरजेडी सांसद मनोज झा ने यह बताते उड़ाए थे कि अनुच्छेद 15 (4) और अनुच्छेद 16 (4) के माध्यम से सार्वजानिक रोजगार में आरक्षण/प्रतिनिधित्व विचार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के पदों को कम करके व्यवस्थित रूप से कमजोर किया जा रहा है.

मुखर दलित इंडियन चैंबरऔफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री के संस्थापक अध्यक्ष मिलिंद काम्बले और एक वरिष्ठ दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद भी रहे थे जिन्होंने यह तो कहा कि सरकार को आनुपातिक आरक्षण पर विचार करना चाहिए और यह एक संकेत है कि सरकार आरक्षण को खत्म करने की कोशिश कर रही है. लेकिन अब जबकि 2023 की भरतियां हो रही हैं तब इन लोगों के कहीं अतेपते नहीं हैं जिससे लगता है कि इन लोगों ने भी मोदी सरकार के सामने घुटने टेक दिए हैं.

भाजपा सरकारों का संदेश है कि आरक्षण समाप्त ही किया जाएगा और जो विरोध करेगा उन्हें उन्हीं की जातियों की पुलिस से पिटवाया जाएगा. लेटरल एंट्री सुबूत है कि अधिकतर अफसर तो ऊंची जातियों के ही रहेंगे और पिछड़े, दलित युवा, खासतौर पर युवतियां, भूल जाएं कि उन्हें कभी आरक्षण का लाभ मिलेगा या साष्टांग प्रणाम करने के बावजूद कोई हक मिलेगा.

और सच भी है क्योंकिसरकार बिना किसी लिहाज के छोटीबड़ी सभी सरकारी नौकरियों में  नीचे से ऊपर तक कुलीनों व सवर्णों के लिए अलग रास्ता बना रही है. ऐसे में कोई क्या कर लेगा. रहे कल के शूद्र रहे आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी, तो वे बागेश्वर जैसे बाबाओं के दिव्य दरबारों में इफरात से हाजिरी देते खुद को सवर्णों जैसा समझ रहे हैं और इसके लिए वे अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई भी बतौर दक्षिणा चढ़ा रहे हैं.अब कौन उन्हें बताएव समझाए कि इसी साजिश ने उन्हें सदियों से पिछड़ा रखा है और आज सरकारी नौकरी से वंचित किया जा रहा है.

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