Best Hindi Story : ‘ट्रिनट्रिन…’
अतुल औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि तभी मोबाइल की घंटी बज गई. एक पल को वह झुंझला सा गया. औफिस में आज वैसे भी बहुत काम था, ऊपर से ये फोन… उस ने एक उड़ती हुई नजर कलाई में बंधी घड़ी पर डाली, “पौने 10 बज चुके हैं…”
चिंता और परेशानी की लकीरें अतुल के माथे पर उभर आईं. उस ने जल्दी से दूसरे पैर को भी जूते में घुसाया और शर्ट की ऊपर की जेब में रखे मोबाइल को टटोला. सुशीला भाभी… इस वक्त… वह भी इतने दिनों बाद…? न जाने क्यों अचानक से दिल की धौंकनी की रफ्तार बढ़ गई थी. जब से भैया इस दुनिया से गए हैं तब से एक अजीब सा डर उस के मन में बैठ गया था. अतुल वहीं पास पड़े सोफे में धंस गया.
‘हैलो अतुल भइया, मैं बोल रही हूं…’
“प्रणाम भाभी, कैसी हो आप? घर में सब ठीक तो है न?”
‘वैसे तो सब ठीक है, पर दिनेश…’
“क्या हुआ दिनेश को…? सब ठीक तो है न भाभी?”
भाभी का गला दिनेश का नाम लेते ही न जाने क्यों रुंध गया.
सुशीला भाभी नकुल भैया की पत्नी थी. आज से लगभग 7 साल पहले एक सड़क दुर्घटना में भइया की मृत्यु हो गई थी. घर भर में खुशियों का दीप जलाने वाले भैया की तसवीर के आगे दीपक जलता देख न जाने क्यों कलेजा कट कर रह जाता था. भइया अपने पीछे भाभी और 3 बच्चों को छोड़ कर गए थे.
भइया की अचानक हुई मृत्यु से भाभी की तो मानो दुनिया ही उजड़ गई. 2 बच्चे स्कूल जाते थे और दिनेश ने अभी पिछले साल ही कालेज में प्रवेश लिया था. भइया अपनी छोटी सी दुनिया में बहुत खुश थे. भइया एक सरकारी महकमे में प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे. घर में सुखसुविधा की सारी चीजें उपलब्ध थीं. भाभी पहननेओढ़ने और घूमने की बहुत शौकीन थी. जब भी वे कहीं से घूम कर आती तो वहां से की गई खरीदारी और बातों का पुलिंदा ले कर निशा के पास बैठ जाती.
अतुल एक सरकारी विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर रहा था. वैसे तो किसी भी चीज की कोई कमी न थी, पर भइया जैसे ठाठबाट भी नहीं थे. भइया की शानोशौकत और लाल बत्ती गाड़ी देख कर निशा अकसर मुझ से लड़ने बैठ जाती, पर…
‘हैलो, हैलो… भइया, आप मेरी बात सुन रहे हैं न.’
अतुल जैसे सोते से जागा, “जी भाभी…”
‘पता नहीं भइया, दिनेश को क्या हो गया है? दिनभर गुमसुम सा बैठा रहता है, कुछ पूछो तो फूटफूट कर रोने लगता है. मैं ने सोचा कि औफिस की कोई परेशानी होगी, पर ऐसा कुछ भी नहीं है. आज इस बात को 15-20 दिन हो गए, पर कुछ भी सुधार नहीं है. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कहां जाऊं… रातरात भर न जाने क्या सोचता रहता है.’
‘‘भाभी, धीरज रखिए. आप ने पहले क्यों नहीं बताया? मैं भी इधर बोर्ड के इम्तिहानों में ड्यूटी लग जाने से बिजी था. आप को फोन भी नहीं कर पाया, पर आप को तोे करना चाहिए था.’’
अतुल ने कुछ शिकायती लहजे में कहा. अतुल की आवाज सुन कर निशा भी कमरे में आ गई.
भाभी का स्वर मद्धिम पड़ गया, ‘अतुल भइया, दिनेश की हालत सुन कर मेरे मम्मीपापा से रहा नहीं गया, वे तो एक हफ्ते से यहीं पड़े हैं और परसों घबरा कर मेरा भाई भी आ गया.’
भाभी की बात सुन कर अतुल के दिल को बड़ा धक्का लगा. भाभी उसे 5 किलोमीटर की दूरी पर सूचित नहीं कर
सकी और वहां उन के मांबाप और भाई 300 किलोमीटर की दूरी से आ गए. क्रोध का बुलबुला जितनी तेजी से उभरा, उतनी ही तेजी से न जाने कहां लुप्त हो गया.
“ठीक है भाभी, मैं शाम को आता हूं,” कह कर अतुल ने फोन रख दिया.
निशा की तीर सी निगाहें उस के ऊपर ही थीं. कुछ देर तक वह अतुल को ही देखती रही. अभी कुछ दिन पहले ही तो वो भाभी के प्रति नाराजगी जाहिर कर रहा था.
बच्चे तो उस वक्त छोटे थे, पर भाभी वो कैसे सब भूल गई. कभी भूल से भी वे फोन भी नहीं करती.
“…तो कब जा रहे हैं?” उस के कथन में एक व्यंग्यात्मक चुभन थी.
अतुल शायद उस की सवालिया आंखों से बचना चाहता था. उस ने सिर
झुकाए हुए ही उस के सवाल का जवाब दिया, “निशा, दिनेश की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, भाभी काफी परेशान हैं. मुझे जाना…”
“क्यों? मायके वाले कहां हैं…? हम से पहले तो उन को खबर की जाती है, आज क्या हुआ?”
“निशा, तुम औरतों को कुछ समझ नहीं आता. न समय देखती हो और न मौका. जब देखो तब शुरू हो जाती हो. दिक्कत होगी तभी फोन किया है.”
निशा अतुल की बातों को सुन तिलमिला सी गई, “तुम मर्दों के भी समझ में कुछ नहीं आता. कल तक भाभी ऐसी हैं, वैसी हैं… आज वही बात मैं ने कह दी तो गलत हो गई. 20 साल गुजार दिए आप के साथ, पर जब खुद के परिवार की बात आती है, तो मैं बाहर वाली ही बन कर रह जाती हूं.”
निशा लगातार बड़बड़ा रही थी, पर अतुल ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया. अतुल ने मोटरसाइकिल की चाबी उठाई और औफिस की ओर चल दिया.
आज औफिस में काम करने में मन नहीं लग रहा था. भाभी की आवाज कानों में गूंज रही थी, ‘भैया, दिनेश की तबीयत ठीक नहीं है.’
अतुल की आंखों के सामने साढ़े 7 साल पहले का वह मंजर एक बार फिर घूम गया, जब भइया की मृत देह पर पछाड़े खाती हुई भाभी और बच्चों ने उस से पूछा था कि अब उन का क्या होगा? भइया की इंश्योरैंस पौलिसी दिलाने के लिए अतुल को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े थे. दफ्तर के चक्कर लगातेलगाते उस के जूते घिस गए थे. अफसरों के हाथपैर जोड़जोड़ कर किसी तरह दिनेश की मर्सी ग्राउंड’ पर नौकरी लगवाई थी, पर आज…
तबीयत ठीक न होने का बहाना कर के अतुल औफिस से जल्दी ही निकल गया था. अतुल ने मोटरसाइकिल भाभी की तरफ मोड़ ली.
अतुल भाभी के घर पहुंचा, तो घर के गेट पर से ही लोहबान और अगरबत्ती की महक आ रही थी. घर में पूजा है और भाभी ने हमें बुलाया तक नहीं… एक विचार ने उस के दिमाग में जन्म लिया ही था, उस ने सिर झटक कर उसे वही गेट के बाहर छोड़ दिया और अतुल धड़धड़ाते हुए घर में घुस गया.
घर का मंजर कुछ और ही था. दिनेश आंखें बंद किए बैठा था और पंडितजी जोरशोर से मंत्रोच्चार कर आहुतियां हवनकुंड में डाल रहे थे. यह मंजर देख अतुल कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया. तभी भाभी की नजर अतुल पर पड़ी और वह उसे दूसरे कमरे में ले कर चली गई.
नकुल भैया फोटोफ्रेम में मुसकरा रहे थे. अतुल कुछ पूछता, उस से पहले हाथ में पानी का गिलास पकड़ाते हुए भाभी ने कहा, ‘‘मेरी मम्मी ने पंडितजी को दिखाया था, तो उन्होंने बताया कि किसी बाहरी हवा के प्रभाव से दिनेश की यह हालत हो गई है. शायद किसी ने कुछ कर दिया है.’’
भाभी की निगाह में एक अजीब सा संदेह था, जैसे वह अतुल से ही कुछ पूछना चाह रही हो.
अतुल ने वितृष्णा से मुंह फेर लिया. अतुल सोच रहा था कि अच्छा हुआ निशा को साथ नहीं लाया, वरना वह तो…
तभी पंडितजी ने आरती के लिए पुकार लगाई, उन की पुकार सुन कर अतुल भी सभी के साथ आरती में शामिल होने के लिए उठ गया. प्रसाद वितरण के साथ सभी अपनेअपने कामों में लग गए.
अतुल ने भइया के सासससुर के पैर छुए और उन के पास ही बैठ गया. भाभी चाय बनाने चली गई और भाभी के मातापिता बुढ़ापे का रोना रो कर कमरे में आराम करने चले गए. अतुल बैठक में अकेला ही रह गया. कितना बदल गया था सबकुछ… जिस घर में हंसी के ठहाके लगते थे, आज एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.
एक अजीब सी अजनबियत का अहसास हो रहा था. निशा और वह भैया के जीवित रहते हमेशा आते रहते थे, पर वक्त के साथ कितना कुछ बदल गया था. भैया की तसवीर अचानक से उसे धुंधली सी दिखाई देने लगी थी. तभी किसी के पैर की आहट के आभास से वो सतर्क हो गया और पैंट की बाईं जेब से रूमाल निकाल कर आंखें पोछ लीं.
यह तो दिनेश था, फूल सा चेहरा कुम्हला कर छोटा सा हो गया था. अभी कुछ ही दिन पहले तो वह बाजार में मिला था. अतुल जब भी उसे देखता था, तो उसे भइया की याद आ जाती. भइया ने न जाने क्याक्या सपने देखे थे उस के लिए, पर आज वह उन की जगह पर क्लर्की कर रहा था. यह सोच कर अतुल का मन न जाने कैसा हो गया.
“कैसे हो दिनेश?”
न जाने क्या सोच कर उस की आंखें भर आईं. अतुल ने बड़े प्यार से उस के कंधे पर हाथ रखा, बहुत दिनों से दिल में घुमड़ता हुआ दर्द का सैलाब आज सारे बंधन को तोड़ कर निकलने को बेताब था. दिनेश फूटफूट कर रो पड़ा. कुछ देर तक वह वैसा ही रोता रहा. अतुल ने भी उसे चुप कराने का प्रयास नहीं किया. उस की हिचकी बंध गई थी. अचानक से वह उठा और कमरे के बाहर चला गया.
अतुल बड़ी देर तक असमंजस की स्थिति में बैठा रहा, तभी दिनेश हाथ में कागज का एक टुकड़ा ले कर अतुल के पास आया और बोला, ‘‘चाचाजी, ये औफिस से 20 दिन पहले एक पत्र आया था. पापा की मृत्यु के साढ़े 7 साल हो गए हैं. अजेश और बृजेश भी अब बालिग हो गए हैं, पापा की पैंशन अब आधी हो जाएगी. इस महंगाई के दौर में आधी पैंशन और मेरी नाममात्र की तनख्वाह के साथ 2 बेरोजगार भाइयों और एक विधवा मां का गुजारा भला कैसे होगा?”
अतुल निःशब्द उसे देखता रह गया. शायद उस के सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था.