साहित्य को समाज का दर्पण इसलिए कहा जाता है कि समाज की सही तसवीर साहित्य में देखने को मिलती है. एक दौर था जब हर छोटीबड़ी जगह लाइब्रेरी हुआ करती थी. हम अपने स्कूल के दिनों को याद करते हैं जब 10वीं क्लास तक आतेआते हम ने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मुंशी प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई की लिखी हुई कई पुस्तकें पढ़ डाली थीं. कसबों के बसस्टैंड और शहरों में रेलवे स्टेशन के बुक स्टौल पर हमें पत्रिकाएं आसानी से मिल जाती थीं.
इंडियन रेलवे ने बुक स्टौल का खात्मा कर दिया है. रेलवे की गलत नीतियों और किराया अधिक वसूलने की वजह से बुक स्टौल चलाने वालों को अब उस में खाद्य सामग्री बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है. आज हालात अलग हैं. अब सरकारी खजाने से लाइब्रेरी के लिए फंड तो दिया जा रहा है मगर वह फंड अफसरों की जेबें भर रहा है. सरकारी स्कूल में बनी लाइब्रेरी में किताबें या तो आलमारियों में कैद हैं या फिर किसी कबाड़ की दुकान पर बेची जा रही हैं.
ताजा मामला उत्तर प्रदेश के बबेरू कोतवाली के हरदौली गांव से सामने आया है, जहां 9 फरवरी को पुलिस को पैट्रोल पंप के पास कबाड़ की दुकान में प्राइमरी स्कूल की सरकारी किताबें रखी होने की सूचना मिली. तत्काल पुलिस मौके पर पहुचीं और करीब 10 क्विंटल के आसपास किताबें ले कर कोतवाली आ गई. किताबों की कीमत बाजार में लाखों में है लेकिन ये महज हजारों में रद्दी में बेच दी गईं. पुलिस ने जब कबाड़ी को हिरासत में ले कर पूछताछ की तो जानकारी मिली कि संकुल प्रभारी विवेक यादव द्वारा ये किताबें बेची गई हैं जिस में खंड शिक्षा अधिकारी की मिलीभगत की भी बात सामने आई.
6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए चल रहे सर्व शिक्षा अभियान में धांधली कोई नई बात नहीं है. सरकारी किताबों को छात्रों के बस्ते में होना चाहिए, वे रद्दी में बेची जा रही हैं. अवकाश के दिन स्कूल का ताला खोल कर हजारों किताबें रिकशे पर लाद कर कबाड़ी के यहां पहुंचाई गईं.
सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर साल जनपदों में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों में किताबों का वितरण कराया जाता है. अमूमन जुलाई और अगस्त के महीने में शासन से किताबें आती हैं और इसी दौरान बच्चों को किताबें दे दी जाती हैं. पिछले कई सालों से जनपद के तमाम बच्चे किताबों से महरूम रह जाते हैं. अधिकारी किताबों की कमी होने की बात कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं. लेकिन, हकीकत कुछ और होती है.
6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए पूरे देश में चल रहे सर्व शिक्षा अभियान में करोड़ों रुपए की बंदरबांट हर साल होती है. यही कारण है कि सरकारी स्कूलों से अभिभावकों का मोह भंग होने लगा है.
आज से 10 साल पहले उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में चौंकाने वाला मामला सामने आया था, जहां सरकारी किताबों को मासूम बच्चों को देने के बजाय रद्दी में बेच दिया गया था. दरअसल, स्कूल की छुट्टी के दिन स्कूल का ताला खोल कर हजारों किताबें रिकशे पर लाद कर कबाड़ी के यहां पहुंचाई जा रही थीं.
संदेह होने पर कुछ लोगों ने रिकशाचालक और एक अन्य आरोपी को पकड़ लिया और जम कर धुनाई कर दी. बाद में पता चला कि इस काम को अंजाम देने वाले स्कूल के टीचर ही थे. शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने इस लापरवाही के आरोप में स्कूल की प्रधान अध्यापिका और एक सहायक अध्यापक को सस्पैंड कर दिया.
शासकीय स्कूलों में बच्चों को पढ़ने के लिए आने वाली किताबें रद्दी के भाव बेचने का एक मामला मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के अंबाह से सितंबर 2022 में सामने आया था. जहां एक हजार से अधिक किताबों को स्कूल प्रबंधन ने रद्दी में बेच दिया.
अंबाह कसबे के बिचौला रोड पर एक ईरिकशा में भर कर किताबों को एक व्यापारी खरीद कर ले जा रहा था. स्थानीय लोगों की सूचना पर शिक्षा विभाग के बीआरसी ने इन किताबों से भरे हुए ईरिकशा को पकड़ लिया. इस ईरिकशा में लगभग एक हजार से अधिक किताबें भरी हुई थीं जो कक्षा 6, 7 व 8 की थीं. ये 2 साल की किताबें थीं.
बीआरसी ने ईरिकशा चालक से किताबों को लाने की जगह पूछी, जिस पर उस ने बताया कि इन किताबों को वह शासकीय मिडिल स्कूल, रूंध का पुरा, से लाया था. बीआरसी ने इन किताबों के संबंध में मिडिल स्कूल के हैडमास्टर रामलाल कतरोलिया से पूछताछ की जिस पर कतरोलिया ने बीआरसी को बताया कि स्कूल की पानी की टंकी खराब हो गई है जिसे ठीक कराने के लिए स्कूल में रखी इन किताबों को बेचा गया था.
सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताबों को रद्दी में बेचने के ये मामले बताते हैं कि किस तरह सरकारी फंड का जम कर दुरुपयोग किया जा रहा है. सरकार बच्चों को मुफ्त में किताबें देने की योजनाएं तैयार तो करती है मगर जमीनी हकीकत यह है कि बच्चों को सही समय पर पूरी किताबें नहीं मिल पातीं. बुक डिपो से ले कर स्कूलों में भेजने तक के सिस्टम में फर्जीवाड़ा किया जाता है. सरकारी लाइब्रेरी से किताबें बेचने के कितने ही मामले तो सामने ही नहीं आ पाते.
सरकारी कोशिश नाकाम
केंद्र सरकार बड़ेबड़े मंदिर और ऊंचीऊंची मूर्तियां स्थापित कर लोगों को हिंदूमुसलिम के नाम पर बांटने में लगी पड़ी है. देश में लंबे समय से राज कर रही भाजपा सरकार का एजेंडा बस यही है कि लोगों का ध्यान जनता की समस्यायों से हटा कर उन्हें धार्मिक पाखंड में उलझाए रखा जाए, क्योंकि यदि लोग पुस्तकें पढ़ कर जागरूक हो गए तो उन के झूठे जुमले कौन सुनेगा.
यही वजह है कि भाजपा के शासनकाल में रेलवे बुक स्टौल लगभग खत्म हो गए. सरकार के रेल मंत्रालय ने बुक स्टौल का किराया मनमाने ढंग से बढ़ा दिया, जिस से इन का संचालन करने वालों ने हाथ खड़े कर दिए.
कभी हर छोटेबड़े रेलवे स्टेशन पर एक बुक स्टौल हुआ करता था, जिस में तमाम तरह की पत्रिकाएं आसानी से उपलब्ध रहती थीं. लेकिन आज बुक स्टौल की जगह जंक फूड और तंबाकूगुटखा के पाउच बेचे जा रहे हैं. सरकार की जीहुजूरी करने वाले मीडिया घराने आंखों पर पट्टी बांध कर सरकार का गुणगान कर रहे हैं. सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले अखबार और पत्रिकाओं को सरकारी विज्ञापन देना बंद कर दिया गया, जिस से वे आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं और कुछ पत्रिकाओं का तो प्रकाशन ही बंद हो गया है.
मध्य प्रदेश में शिक्षा विभाग लाइब्रेरी के लिए करोड़ों रुपए का फंड देता है. यहां के सरकारी हाईस्कूल और हायर सैकंडरी स्कूलों को हर साल राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत 10 से 15 हजार रुपए लाइब्रेरी के लिए पुस्तकें खरीदने के लिए दिए जाते हैं. मगर अधिकतर स्कूलों में पढ़ने के लिए पर्याप्त कमरे ही नहीं हैं.
ऐसे में लाइब्रेरी की पुस्तकें एक अलमारी में कैद हो कर रह गई हैं. लाइब्रेरी के लिए अलग से न तो कोई लाइब्रेरियन है और न ही कोई जानकार शिक्षक. तूमड़ा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य कीर्ति वर्धन बताते हैं कि जब स्कूलों में लाइब्रेरी के लिए अलग कमरा, फर्नीचर और लाइब्रेरियन न हो तो इस का संचालन मुश्किल होता है. टीचर दिनभर अपने पीरियड पढ़ाने में व्यस्त रहते हैं. इसी वजह से लाइब्रेरी की पुस्तकों का सही उपयोग नहीं हो पा रहा.
लाइब्रेरी के लिए खरीदी जाने वाली किताबों के चयन में पुस्तकों की उपयोगिता का खयाल रखने के बजाय कमीशन पर ज्यादा फोकस रहता है. लाइब्रेरी के लिए पुस्तकें सप्लाई करने वाले प्रकाशक और दलाल विभाग के अधिकारियों से कमीशन तय कर सरकारी स्कूलों को जो पुस्तकें सप्लाई करते हैं, वो स्कूली बच्चों के किसी काम नहीं आतीं.
साल 2013-14 में मध्य प्रदेश के प्राइमरी और मिडिल स्कूलों के लिए लाइब्रेरी फंड के लिए 5 हजार रुपए दिए गए थे. पुस्तकें खरीदने के लिए हर जिले में पुस्तक मेला का आयोजन किया गया था, जिस में विभाग के अधिकारियों ने मोटी रकम कमीशन के तौर पर पुस्तक विक्रेताओं से वसूल की थी.
कला और खेल अकादमियों का भी यही हाल
सरकारी फंड का दुरुपयोग अकेले शिक्षा विभाग में ही नहीं हो रहा. सरकार के दूसरे विभागों में भी कमोबेश यही हालात हैं. मध्य प्रदेश में कला और संस्कृति संरक्षण के लिए राज्य सरकार द्वारा हर साल करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं. बजट का यह आंकड़ा साल 2011-12 के 10.5 करोड़ रुपए के मुकाबले 2022-23 में 191.47 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है.
कला और संस्कृति विभाग आयोजनों पर पहले की तुलना में बहुत अधिक खर्च कर रहा है. भोपाल में काम करने वाले संस्कृति संचालनालय के एक कर्मचारी ने बताया, ‘तानसेन समारोह का बजट पहले 25 लाख रुपए हुआ करता था, जो अब बढ़ कर 3.5 करोड़ रुपए हो गया है.’
हालांकि, वेतन और छात्रवृत्ति पर बमुश्किल ही कोई खर्च बढ़ाया गया है. मसलन, कथक को पुनर्जीवित करने के लिए 1981 में स्थापित चक्रधर नृत्य अकादमी का उदाहरण ही लेते हैं. अकादमी से परिचित एक व्यक्ति ने बताया कि इस के गुरु (अकादमिक प्रमुख) का वेतन 35 हजार रुपए प्रतिमाह है.
उन्होंने कहा, ‘छात्रों की मासिक छात्रवृत्ति 3 हजार रुपए है. रियाज़ के दौरान वाद्ययंत्र बजाने वाले संगीतकारों को हर महीने 6 हजार रुपए मिलते हैं. इतनी रकम से कैसे कोई अपना परिवार चला सकता है?
‘कला अकादमी की लाइब्रेरी से शिक्षण की सहायक सामग्री गायब है. लाइब्रेरी भी खत्म हो चली है. अगर कोई शोधार्थी यहां आता है, तो उसे कोई किताब भी नहीं मिलती. सारे साज चले गए. अकादमी का समृद्ध इतिहास था. अलबम, तसवीरें…अब कुछ भी नहीं है. संगीत संबंधी मामलों की बदहाली इतने तक ही सीमित नहीं है. खयाल केंद्र बंद है. सारंगी केंद्र का भी यही हाल है.
‘ऐसे ही हालात संगीत विद्यालय के भी हैं. ध्रुपद केंद्र खुला तो है लेकिन उस में कोई छात्र नहीं है. चक्रधर के पास छात्र हैं लेकिन पिछले 2 सालों से उन की मामूली सी छात्रवृत्ति का भी भुगतान नहीं किया गया है. इन समारोहों में कलाकारों की एक छोटी संख्या को ही ज्यादातर स्लौट्स मिलने के कारण स्थापित संगीतकारों तक को भी अपना गुजारा करने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है. भोपाल के एक ध्रुपद गायक का कहना है कि उन के करीबी लोगों को लाखों मिलते हैं जबकि मेरे जैसे लोग चटनीरोटी खा कर गुजारा करते हैं.’
अप्रैल 2021 में भोपाल से प्रकाशित ‘स्वदेश’ अखबार में एक खबर छपी थी- ‘उस्ताद अलाउद्दीन खान संगीत एवं कला अकादमी का कारनामा’. इस खबर में बताया गया था कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 1979 में स्थापित इस अकादमी ने डिजिटलीकरण के लिए कई बेशकीमती रिकौर्डिंग्स को बगैर किसी कागजी कार्रवाई या टैंडर प्रक्रिया के भोपाल की एक फर्म को सौंप दिया है. इन में से कुछ साल 1962 तक पुरानी हैं जिन में तानसेन और मैहर समारोह जैसी राज्य के बेहद मशहूर सांस्कृतिक समारोहों की प्रस्तुतियां भी शामिल हैं.
पीपी वर्ल्ड (भोपाल में इसे झावक बंधु के नाम से भी जाना जाता है) नाम की इस फर्म ने साल 2012 से ही ये रिकौर्डिंग्स लेनी शुरू कर दी थीं और तब से ले कर 2021 तक (स्वदेश में यह खबर छपने तक) इस ने एक भी रिकौर्डिंग अकादमी को नहीं लौटाई. कागजी कार्रवाई के अभाव को मद्देनजर रखते हुए अखबार ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को जोड़ा कि अकादमी के पास उन रिकौर्डिंग्स की पूरी फेहरिस्त भी नहीं है जो वह पीपी वर्ल्ड को सौंप चुकी है.
अकादमी की इन रिकौर्डिंग्स में पंडित जसराज, रविशंकर, शिवकुमार शर्मा, जितेंद्र अभिषेकी, गिरिजा देवी और किशोरी अमोणकर जैसे दिगज्जों की प्रस्तुतियां हैं. इसलिए ये रिकौर्डिंग्स हिंदुस्तानी संस्कृति और सभ्यता के इतिहास का हिस्सा भी हैं.
मिसाल बन गए पुस्तकालय
तमाम विसंगतियों के बावजूद देश में अभी भी कुछ पुस्तकालय मिसाल बन रहे हैं. मध्य प्रदेश के गाडरवारा का सार्वजनिक पुस्तकालय उन में से एक है. इस पुस्तकालय की स्थापना 1914 में हुई थी, जहां पर वर्षों पुरानी 6 हजार से अधिक पुस्तकों को सहेज कर रखा गया है.
पुस्तकालय के सचिव डा सुनील शर्मा बताते हैं कि यहां हर रोज शाम के वक्त पुस्तकालय 2 घंटे के लिए खुलता है, जहां पर लोग अखबार और पत्रिकाओं को पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में पहुंचते हैं. पुस्तकें घर ले जा कर पढ़ने के लिए पाठकों से 50 रुपए का वार्षिक शुल्क ले कर एक कार्ड बना दिया जाता है. इस कार्ड में पुस्तकों का लेखाजोखा रखा जाता है. आज भी इस पुस्तकालय में दुर्लभ पुस्तकों का अनूठा संग्रह है.
इसी तरह सीएम राइज स्कूल, साईं खेड़ा, में प्राचार्य चंद्रकांत विश्वकर्मा की पहल पर अभी हाल ही में एक अलग कमरे में लाइब्रेरी बनाई गई है, जिस में लाइब्रेरियन रीतेश अवस्थी इस का बेहतर रखरखाव करते हैं. इस लाइब्रेरी में पहली क्लास से 12वीं क्लास तक के बच्चों के उपयोग आने वाली पुस्तकों का कलैक्शन रखा गया है.
खाली समय में यहां बच्चे बैठ कर पुस्तकें पढ़ते हैं. इस पुस्तकालय को साहित्यकार के चित्रों और जीवन परिचय के साथ सजायासंवारा गया है. शिक्षिका पूनम बसेड़िया और भानु प्रताप राजपूत इस लाइब्रेरी में नियमित रूप से बच्चों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.
मैसूर की निजी लाइब्रेरी
कर्नाटक के मैसूर में रहने वाले सैयद इशहाक ने अपने खर्चे पर लाइब्रेरी की स्थापना की थी. 62 साल के सैयद इशहाक ने मैसूर शहर में अम्मार मसजिद के पास राजीव नगर के दूसरे स्टेज में एक लाइब्रेरी की स्थापना की थी. इस लाइब्रेरी में तकरीबन 11 हजार पुस्तकों का संग्रह था और यहां किसी को भी आनेजाने की इजाजत थी. पुस्तकालय के मालिक अंडर ग्राउंड ड्रेनेज क्लीनर बनने से पहले एक बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते थे.
वे बताते हैं, “मैं बचपन में सिर्फ 15 दिनों के लिए स्कूल गया और घर से भाग गया. घर छोड़ने के बाद से मुझे कुछ घरों में काम करने का मौका मिला, जहां किताबों को ले कर मेरा शौक विकसित हुआ. इसी शौक की वजह से धीरेधीरे यह पुस्तकालय शुरू किया.”
उन्होंने आगे कहा, ““मैं ने यह पुस्तकालय इसलिए शुरू किया था कि लोगों में पुस्तकें पढ़ने की रुचि पैदा हो. पुस्तकालय शेड जैसी संरचना के अंदर स्थित था. इस लाइब्रेरी में रोज लगभग 100 से 150 लोग आते थे.” पुस्तकालय के रखरखाव के लिए इशहाक ने 6 हजार रुपए से अधिक खर्च किए थे. इस के अतिरिक्त उन की लाइब्रेरी में हिंदी, इंग्लिश, उर्दू और कन्नड़ सहित विभिन्न भाषाओं में 17 से अधिक समाचारपत्र मौजूद होते थे. वहीं, इस लाइब्रेरी की लगभग 85 प्रतिशत पुस्तकें कन्नड़ में थीं. इन पुस्तकों को डोनरों से प्राप्त किया गया था. हालांकि, इस पुस्तकालय में 9 अप्रैल, 2021 को आग लगने से सारी पुस्तकें खाक हो गईं. बाद में लोगों के सहयोग से मिले लाखों रुपयों की मदद से पुस्तकालय को फिर से शुरू किया गया है.
डा. रंगनाथन थे लाइब्रेरी साइंस के जनक
भारत में डा. एस आर रंगनाथन को एक गणितज्ञ और लाइब्रेरी साइंस के जनक के रूप में याद किया जाता है. डा. रंगनाथन का जन्म 12 अगस्त, 1892 को हुआ था. उन के जन्मदिन 12 अगस्त को पूरे भारत में राष्ट्रीय पुस्तकालयाध्यक्ष दिवस के रूप में मनाया जाता है. लाइब्रेरी मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए सैद्धांतिक आधार प्रदान करने का श्रेय उन को ही दिया जाता है. उन्होंने अपने अनुभवों, विचारों व सिद्धांतों को एक किताब ‘न्यू एजुकेशन एंड स्कूल लाइब्रेरी’ में बखूबी लिखा है.
इस किताब में एस आर रंगनाथन ने स्कूल लाइब्रेरी की जरूरत क्यों जैसे सवाल का जवाब अलगअलग नजरिए से देने की कोशिश की है. डा रंगनाथन ने स्कूल के पाठ्यक्रम के नजरिए से भी स्कूल लाइब्रेरी की उपयोगिता बताई है. पुस्तक में टैक्नोलौजी औफ एजुकेशन, बदलाव के लिए शिक्षा, विचारों की दुनिया में शीघ्रता के साथ बदलाव के लिए शिक्षा, पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ाने वाले फैक्टर, मौखिक संचार से किताबों की संस्कृति व समाजीकरण को भी समझने की कोशिश की गई है.
उन्होंने स्कूल लाइब्रेरी की शुरुआत की संकल्पना को अपनी पुस्तक में शामिल करते हुए लिखा है कि, “जब हम पुस्तकालय शब्द के बेहद शुरुआती इस्तेमाल को समझने के लिए इतिहास की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो हमारा सामना सब से पहले एक ऐसे अर्थ से होता है जहां किताबें लिखी जाती हैं. लाइब्रेरी की यह अवधारणा स्कूलों में लागू होने के संदर्भ में कोई आधार प्रदान नहीं करती है. इस के बाद लाइब्रेरी को ऐसे स्थान के रूप में देखने की बात आती है जो किताबों के संग्रह से जुड़ी है. लाइब्रेरी की यह अवधारणा केवल संग्रह को महत्त्व देती है, इस में इस के उपयोगकर्ता यानी पाठक को अनिवार्य हिस्से के रूप में नहीं देखा जाता है.””
साल 1901 में प्रकाशित न्यू इंग्लिश डिक्शनरी के संस्करण में पहली बार उपयोगकर्ता का अप्रत्यक्ष रूप से जिक्र एक परिभाषा में मिलता है. इस परिभाषा के अनुसार, “लाइब्रेरी या पुस्तकालय एक सार्वजनिक संस्था है जिस के ऊपर किताबों के संग्रह की देखभाल की जिम्मेदारी होती है और इस का उपयोग करने वालों तक किताबों की पहुंच सुनिश्चित करना उस का प्रमुख उत्तरदायित्व होता है.””
चिंताजनक है पत्रपत्रिकाओं का बंद होना
जिस तरह नोटबंदी और जीएसटी ने व्यापार, व्यवसाय की कमर तोड़ कर अर्थव्यवस्था को बेपटरी किया है, उसी तरह कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सरकार द्वारा लगाए गए लौकडाउन ने पत्रपत्रिकाओं के व्यवसाय को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है. आज हालात ये हैं कि समाचारपत्र, पत्रिकाओं से जुड़े लाखों लोगों की आजीविका पर संकट है, लेकिन जुमलों के दम पर चल रही सरकार की आंखों पर जैसे पट्टी बंधी हुई है.
प्रिंट मीडिया को सब से ज्यादा प्रभावित किया है इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने. टैलीविजन और मोबाइल की पहुंच घरघर होने से लोगों का बहुत सारा समय इन में ही बीतता है. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर आती आधीअधूरी सूचनाएं समाज में भ्रम और भय फैलाने का काम भी कर रही हैं.
आज इंटरनैट और औनलाइन रीडिंग के दौर में जब समाचारपत्रों का ही भविष्य संकट में है तो पत्रिकाओं के लिए तो बहुत ही कम स्पेस बचा है. पत्रिकाओं के बंद होने में सरकारी विज्ञापनों की कमी भी एक कारण है. विज्ञापनों के अभाव में लागत बढ़ती है और प्रबंधन घाटे का शिकार होता है.
पत्रिकाओं के बंद होने का एक कारण आम पाठकों के लिए उन के सरोकारों से जुड़ी सामग्री का न होना भी है. अधिकतर पत्रिकाओं में स्थापित लेखकों और कवियों के आर्टिकल, कविताओं, कहानियों को छापा जाता है. मैटर के सेलैक्शन में इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि पाठकवर्ग को क्या पसंद है. जिस तरह कवि गोष्ठी में श्रोताओं से ज्यादा संख्या कवियों की होती है, ठीक उसी तरह का हाल साहित्यिक पत्रिकाओं का है, जिन के पाठक उन से जुड़े लेखक और रचनाकार ही होते हैं.
तमाम विसंगतियों के बाद भी दिल्ली प्रैस की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित होने वाली 32 पत्रिकाओं का पाठकवर्ग समाज का बड़ा हिस्सा है. ‘सरस सलिल’ निम्नमध्यवर्गीय परिवारों के सरोकारों से जुड़ी पाक्षिक पत्रिका है जो बुक स्टौल पर प्रमुखता से मांगी जाती है. सैक्स और माहवारी से जुड़ी समस्याओं को जहां समाज में टैबू माना जाता है, वहीं सरस सलिल में छपने वाले लेख समाज में बने मिथक को तोड़ कर उस से जुड़ी वास्तविक और तथ्यपरक जानकारी देती है.
इसी तरह ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ और ‘गृहशोभा’ उच्च व मध्यवर्गीय परिवारों के पुरुष, महिलाओं और किशोरकिशोरियों की चहेती पत्रिकाएं हैं, जिन के हर अंक में प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन लेखकों के नाम से नहीं, पाठकों की अभिरुचि के लिहाज से किया जाता है. पाठकों को जो पसंद है, वह रिपोर्ट भले ही गुमनाम लेखक ने लिखी हो, उसे प्रमुखता दी जाती है. इन पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियां कपोल कल्पित न हो कर समाज में व्याप्त समस्याओं का निदान खोजती नजर आती हैं.
किसानों, सब्जी, फल, फूल उत्पादकों के लिए ‘फार्म एन फूड’ का जवाब नहीं है. कम कीमत में इतनी सारी जानकारियों का खजाना और कहीं मुमकिन नहीं है. बच्चों के लिए निकलने वाली लोकप्रिय पत्रिका ‘चंपक’ काफी लोकप्रिय है, जिस की वजह पत्रिका में भूतप्रेत, परी और राजामहाराजाओं की अंधविश्वास फैलाने वाली कहानियां नहीं होतीं. चंपक में पर्यावरण, शिक्षा, मनोरंजन से जुड़ी वैज्ञानिक सोचसमझ विकसित करने वाली बालोपयोगी कहानियां छपती हैं. देश के अलगअलग इलाकों के स्कूलों में चंपक द्वारा बच्चों की पेंटिंग और लेखन के कंपीटिशन करा कर उन्हें पुरस्कार दिए जाते हैं.
आपराधिक घटनाओं से संबंधित सत्य कथाएं ‘मनोहर कहानियां’ और ‘सत्यकथा’ में प्रकाशित की जाती हैं. इन पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों का चयन भी इसी ढंग से किया जाता है कि इन अपराध कथाओं से पाठकवर्ग को अपराधी बनने के गुण नहीं, बल्कि अपराध से बचने की सीख मिलती है.
कुल मिला कर दिल्ली प्रैस की रीतिनीति पंडेपुजारियों की तरह नहीं है जो अपने फायदे के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहने का प्रवचन तो देते हैं लेकिन खुद उस का अनुसरण नहीं करते. दिल्ली प्रैस की पत्रिकाओं में नशामुक्ति, धार्मिक पाखंडों और दकियानूसी परंपराओं का जम कर विरोध किया जाता है तो वहीं इस प्रकार के विज्ञापन भी नहीं छापे जाते हैं.