जो लोग यह तय कर मंदिर में जाते हैं कि आज 2 रुपए ही चढ़ाएंगे, वे अंदर जा कर चकरा जाते हैं. दिल के अंदर से आस्था हिलोरें मारने लगती है और बाहर से परेशानियां उकसाने लगती हैं. मंदिर में दस तरह के देवीदेवताओं की मूर्तियां रखी हुई हों तो भक्त चढ़ावे में भेदभाव कर किसी को नाराज करने की जुर्रत नहीं कर सकता और न ही इन देवीदेवताओं का प्रकोप अफोर्ड कर सकता. लिहाजा, वह सब को 2-2 रुपए चढ़ाता है और घर आ कर अपनेआप पर खीझता फिर तय करता है कि अब सप्ताह में एकाधदो दिन ही पैसे चढ़ाऊंगा.

यही थ्योरी या मानसिकता मौल की शौपिंग पर दूसरे ढंग से लागू होती है. ग्राहक जाता तो यह कसम खा कर है कि कुछ भी हो जाए, आज सिर्फ काम के आयटम ही खरीदूंगा लेकिन दस कदम चलते ही उस की बुद्धि को ग्रहण लग जाता है और वह एक सम्मोहन की गिरफ्त में आते कई गैरजरूरी चीजों पर पैसा बरबाद कर आता है.

इस सम्मोहन का हाल तो यह है कि जिस युवती की एंगेजमैंट हो चुकी होती है वह भी नवजातों के डायपर खरीद लेती है क्योंकि 2 पैकेट खरीदने पर एक मुफ्त में मिल रहा होता है. इतना आशावान होना हर्ज की बात नहीं लेकिन इतना नादान होना बुद्धिमानी की बात कहीं से नहीं कि जब शादी होगी तो बच्चे भी होंगे तो क्यों न फ्री के डायपर अभी से ले लिए जाएं.

फ्लोरिडा और केरोलिना यूनिवर्सिटीज की एक ताजी व दिलचस्प रिसर्च में यह गड़बड़झाला बताया गया है कि ग्राहक कैसे मौल में लुटता है. रिसर्च के मुताबिक, मौल में सामान कुछ इस तरह रखा जाता है कि जरूरी आयटम तक पहुंचतेपहुंचते ग्राहक दोचार गैरजरूरी आयटम भी ले ही लेता है. ये आयटम मौसम के हिसाब से भी सजाए जाते हैं, मसलन गरमी के दिनों में आकर्षक बौट्ल्स, शरबत-कुल्फी के सांचे, आइसक्रीम पाउडर और ठंडक देने वाले टेलकम वगैरह. अब वह सचमुच का इंद्रजीत होगा या होगी जो इन्हें गैरजरूरी मानते न खरीदे.

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