साहित्य को समाज का दर्पण इसलिए कहा जाता है कि समाज की सही तसवीर साहित्य में देखने को मिलती है. एक दौर था जब हर छोटीबड़ी जगह लाइब्रेरी हुआ करती थी. हम अपने स्कूल के दिनों को याद करते हैं जब 10वीं क्लास तक आतेआते हम ने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मुंशी प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई की लिखी हुई क‌ई पुस्तकें पढ़ डाली थीं. कसबों के बसस्टैंड और शहरों में रेलवे स्टेशन के बुक स्टौल पर हमें पत्रिकाएं आसानी से मिल जाती थीं.

इंडियन रेलवे ने बुक स्टौल का खात्मा कर दिया है. रेलवे की गलत नीतियों और किराया अधिक वसूलने की वजह से बुक स्टौल चलाने वालों को अब उस में खाद्य सामग्री बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है. आज हालात अलग हैं. अब सरकारी खजाने से लाइब्रेरी के लिए फंड तो दिया जा रहा है मगर वह फंड अफसरों की जेबें भर रहा है. सरकारी स्कूल में बनी लाइब्रेरी में किताबें या तो आलमारियों में कैद हैं या फिर किसी कबाड़ की दुकान पर बेची जा रही हैं.

ताजा मामला उत्तर प्रदेश के बबेरू कोतवाली के हरदौली गांव से सामने आया है, जहां 9  फरवरी को पुलिस को पैट्रोल पंप के पास कबाड़ की दुकान में प्राइमरी स्कूल की सरकारी किताबें रखी होने की सूचना मिली. तत्काल पुलिस मौके पर पहुचीं और करीब 10 क्विंटल के आसपास किताबें ले कर कोतवाली आ गई. किताबों की कीमत बाजार में लाखों में है लेकिन ये महज हजारों में रद्दी में बेच दी गईं. पुलिस ने जब कबाड़ी को हिरासत में ले कर पूछताछ की तो जानकारी मिली कि संकुल प्रभारी विवेक यादव द्वारा ये किताबें बेची गई हैं जिस में खंड शिक्षा अधिकारी की मिलीभगत की भी बात सामने आई.

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