श्रुति यादव अपने 9 साल के बेटे शुभम का हाथ पकड़े हुए स्कूल गेट से निकली और औटो में आ कर मेरी बगल में बैठ गई. बेटे को उस ने हम दोनों के बीच में बिठा दिया. श्रुति के चेहरे पर झुंझलाहट साफ़ नज़र आ रही थी. मैं ने पूछ लिया- ‘क्या हुआ? अंदर कोई बात हुई क्या?’
वह जैसे इंतज़ार कर रही थी कि मैं पूछूं और वह अपने मन की भड़ास निकाले, बोली, ‘आएदिन इस की क्लासटीचर कुछ न कुछ मंगाती रहती है. आएदिन कोई न कोई प्रोग्राम होता है इस स्कूल में और बच्चों को फरमाइशों की लिस्ट पकड़ा दी जाती है.’
‘अब क्या मांग रहे हैं?’ मैं ने पूछा.
‘एक किलो आटा.’
‘आटा?’
‘हां. अगले हफ्ते स्कूल के संस्थापक की पुण्यतिथि है तो स्कूल की तरफ से उस दिन भंडारा होगा. नर्सरी से 10वीं क्लास तक के बच्चों को भंडारे में लगने वाला सामान लाना है. किसी क्लास को आटा, किसी को तेल, किसी को घी, किसी को आलू, किसी को गोभी, किसी को मसाले लाने हैं. शुभम की क्लास के सभी बच्चों से एकएक किलो आटा मंगाया गया है. हर क्लास की क्लासटीचर पेरैंट्स पर कल तक सामान जमा करने का दबाव डाल रही है. मेरी तो लड़ाई हो गई इस की क्लास टीचर से. अरे, यह कोई तरीका है? भंडारा करना है, पुण्य कमाना है तो अपनी जेब से खर्च करो, हमारे कंधे पर रख कर बंदूक क्यों चला रही हैं? यहां अपने घर के खर्चे पूरे नहीं हो रहे हैं, अब इन को भंडारे के लिए आटा खरीद कर दो.’
‘यह तो नई चीज शुरू कर दी है स्कूल वालों ने. आज भंडारा तो कल भजनकीर्तन करवाएंगे और फूलप्रसाद बच्चों से मंगवाएंगे. मुझे भी श्रुति की बात सुन कर स्कूल प्रशासन पर बहुत गुस्सा आया.
श्रुति मेरी पड़ोसिन है. मेरे दोनों बच्चों ने इसी स्कूल से हाईस्कूल किया है. मेरे ही कहने पर श्रुति ने भी अपने बेटे का एडमिशन इस स्कूल में करवाया था. स्कूल का नाम है- क्राइस्ट चर्च. बहुत पुराना स्कूल है. मैं ने भी अपनी स्कूलिंग इसी स्कूल से की है. एक समय था जब इस इंग्लिश मीडियम स्कूल में बड़े घरों के ईसाई बच्चे ज़्यादा थे. दूसरे धर्म व जाति के बच्चों की संख्या कम थी. बच्चे धनाढ्य परिवारों के होते थे.
हमारे समय में पढ़ाई के अलावा एक्सट्रा एक्टिविटीज में स्पोर्ट्स डे होता था और क्रिसमस का त्योहार काफी धूमधाम से मनाया जाता था. इन दोनों कार्यक्रमों में भाग लेने वाले स्टूडैंट्स के पेरैंट्स को उन के कौस्ट्यूम के लिए कुछ पैसे खर्च करने पड़ते थे. धीरेधीरे इस स्कूल में ईसाई बच्चों की संख्या कम होती गई और अन्य धर्मसंप्रदायों के बच्चों की तादाद बढ़ने लगी. सरकारी नियमानुसार अब 20 फ़ीसदी निचली जाति के बच्चे भी इस स्कूल में पढ़ते हैं, जिन की फीस माफ़ है. इन बच्चों के परिवारों की आर्थिक स्थिति खराब है तो कोरोना महामारी के 2 साल में मध्यवर्गीय परिवारों की भी ऐसी हालत नहीं है कि ट्यूशन फीस और अन्य मदों में लिए जाने वाली धनराशि के अलावा भी आएदिन कुछ न कुछ खर्च करते रहें. ऐसे में स्कूल में होने वाले कल्चरल प्रोग्राम के लिए जब बच्चों से पैसे या कोई सामान लाने के लिए कहा जाता है तो वह पेरैंट्स को बड़ा बोझ महसूस होता है.
अभी तक मैं ने किसी स्कूल में भंडारा करवाए जाने की बात नहीं सुनी थी. बीजेपी के सत्ता में आने के बाद यह नई परिपाटी शुरू हो रही है. आने वाले समय में इसी तरह की और चीज़ें होने लगेंगी. कृष्ण जयंती, राम जयंती, आंबेडकर जयंती, बसंत पंचमी, शिवरात्रि और न जाने क्याक्या मनाया जाने लगेगा और खर्च का बोझ ढोएंगे बच्चों के मातापिता.
पहले स्कूलों में स्पोर्ट्स डे, बाल दिवस, टीचर्स डे मनाया जाता था और सैशन ख़त्म होने पर पेरैंटटीचर मीटिंग के साथ ऐनुअल डे होता था. इस दिन बच्चों के रिपोर्ट कार्ड्स बंटते थे और छोटे से रंगारंग कार्यक्रम के बीच पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले बच्चों को सब के सामने सम्मानित कर प्रशस्ति पत्र आदि दिए जाते थे.
स्कूल के स्पोर्ट्स डे या अन्य स्कूलों के बीच होने वाली खेल प्रतिस्पर्धाओं में वही बच्चे भाग लेते थे जिन की रुचि खेलों में होती थी.
बाल दिवस के दिन हाफ डे स्कूल लगता था और स्कूल की तरफ से बच्चों को कुछ फलमिठाई आदि बांटी जाती थी. उस दिन पढ़ाई की छुट्टी होती थी. सारे बच्चे क्लास में ही अनेक प्रकार के खेल खेलते थे या अपनीअपनी प्रतिभा जैसे गीत, नृत्य, मिमिक्री आदि का प्रदर्शन करते थे.
टीचर्स डे के अवसर पर बड़ी क्लास के बच्चे टीचर का रोल प्ले करते थे और निचली क्लास के बच्चों को पढ़ाते थे. सारे बच्चे घर से कुछ एक्सट्रा टिफ़िन लाते थे और ब्रेक टाइम में अपनीअपनी क्लास में सारे टिफ़िन सजा कर अपने अध्यापकों को भी साथ खाने के लिए इन्वाइट करते थे. स्कूलों में इस तरह गतिविधियां बड़ी रोचक होती थीं, मिलजुल कर की जाती थीं, सकारात्मकता से भरी होती थीं और इन से पेरैंट्स की जेब पर कोई बोझ नहीं पड़ता था. इन कार्यक्रमों के लिए पेरैंट्स से कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता था.
लेकिन अब दिखावा बढ़ गया है. स्कूलों में मीडिया का प्रवेश हो गया है. हर स्कूल अपने यहां होने वाले कार्यक्रमों की अखबारों और चैनलों में कवरेज चाहने लगे हैं. उन्हें जितना कवरेज मिलेगा उतनी ही स्कूल की पब्लिसिटी होगी. रंगारंग कार्यक्रमों, प्रतियोगिताओं, इंटर-स्कूल कंपीटिशन में बच्चों को भाग लेने के लिए कहा जाता है और फिर बच्चों से बढ़िया कौस्ट्यूम व पैसे मंगाए जाते हैं. मीडिया में अच्छी कवरेज हो, इसलिए हर बच्चा चकाचक दिखना चाहिए और कार्यक्रम स्थल भी पूरी साजसज्जा से युक्त होना चाहिए. बढ़िया माइक सिस्टम, बढ़िया लाइटिंग, बढ़िया म्यूजिक सिस्टम सब का पूरापूरा ध्यान रखा जाता है. प्रोग्राम में कोई बड़ा चीफ गेस्ट आया तो उस के और अनेक अतिथियों के लिए बढ़िया नाश्तेपानी का इंतज़ाम किया जाता है. किराए पर सोफे, कुरसियां, मेजें, बरतन आदि मंगवाए जाते हैं. ये सारा खर्चा अनेक मदों में बच्चों के पेरैंट्स से वसूला जाता है.
आज स्कूल शिक्षा के मंदिर नहीं, बल्कि कमाई के अड्डे बन चुके हैं. मांबाप के लिए अपने बच्चों को शिक्षित करना अपना सबकुछ दांव पर लगाने जैसा हो गया है. भारीभरकम ट्यूशन फीस के अलावा आज पेरैंट्स बिल्डिंग मेंटिनैंस चार्ज, बिजलीपानी चार्ज, वाटर कूलर चार्ज, हौर्स राइडिंग चार्ज, वाहन चार्ज, साइकिल स्टैंड फीस, एग्जामिनेशन फीस, औडियोविजुअल सुविधा फीस और न जाने किनकिन मदों में अपनी गाढ़ी कमाई लुटा रहे हैं.
स्कूलों में हर महीने कोई न कोई कार्यक्रम, जैसे वादविवाद प्रतियोगिता, खेल प्रतियोगिता, नृत्यगायन प्रतियोगिता, कहानीकविता प्रतियोगिता, निबंध या कला प्रतियोगिता या नाट्य संध्या का आयोजन आदि होता रहता है. कहने को ये कार्यक्रम इसलिए होते हैं ताकि बच्चों की पर्सनैलिटी डैवलप हो, लेकिन इन तमाम गतिविधियों में भाग लेने वाले बच्चों को प्रतियोगिता के अनुरूप अपनी ड्रैस का भी इंतज़ाम करना पड़ता है. जैसे, नृत्यनाटक आदि में भाग लेने वाले बच्चों को बढ़िया कौस्ट्यूम या तो बाजार से खरीदना पड़ता है या किराए पर लेना होता है, जो काफी मंहगे पड़ते हैं. साथ में, एसेसरीज भी लगती है और मेकअप पर भी भारी खर्च आता है.
स्पोर्ट्स में भाग लेने वाले बच्चों को स्पोर्ट्स के कपड़े और उपकरण खरीदने पड़ते हैं, जो मंहगे होते हैं. इसी तरह आर्ट कंपीटिशन में भाग लेने वाले बच्चों को मंहगे रंग, आर्टपेपर, कूची और अन्य जरूरी चीज़ों के लिए खर्च करना पड़ता है.
अब तो अनेक स्कूलों में स्कूल यूनिफौर्म, स्पोर्ट्स यूनिफौर्म, स्काउटगाइड यूनिफौर्म, एनसीसी यूनिफौर्म, जूतेमोज़े आदि स्कूल में ही खुली दुकानों से खरीदने का दबाव पेरैंट्स पर होता है. इस के पीछे वजह यह कि सभी बच्चे एक शेड के यूनिफौर्म में नज़र आएं. अगर बाहर की दुकानों से कपड़ा खरीदेंगे तो कोई बच्चा हलके और कोई गहरे रंग के यूनिफौर्म में दिखेगा जो स्कूल की शोभा को खराब करेगा. यहां तक कि अनेक स्कूल अब किताबें और स्टेशनरी भी बेचने लगे हैं. ये दुकानें स्कूल बिल्डिंग के भीतर ही खुली हैं.
अभिभावक रमन सूद का बेटा डीएवी में 9वीं का छात्र है. उसे अपनी सारी किताबें और स्टेशनरी स्कूल से खरीदनी पड़ीं. रमन सूद कहते हैं, ‘जो कौपी बाजार में 20 रुपए की मिल रही है, स्कूल वाले उस के कवर पेज पर अपने स्कूल का नाम लिख कर 60 रुपए में बेच रहे हैं. नए छात्र पुराने छात्रों से किताब ले कर पढ़ाई न कर सकें, इस के लिए पुरानी किताबों के एकदो पाठ्यक्रम को बदल दिया गया है या आगेपीछे कर दिया है. स्कूल संचालक लूटने का हर प्रकार का हथकंडा अपना रहे हैं.’
पश्चिमी दिल्ली की सतबीर कौर कहती हैं, ‘जब एडमिशन का समय होता है तो स्कूल प्रबंधक कहते हैं कि स्कूल के क्लासरूम स्मार्ट हैं. यहां स्मार्टवे से बच्चे को पढ़ाएंगे. कंप्यूटर की शिक्षा देंगे. औडियोविजुवल माध्यम से पढ़ाई होगी. इस के लिए तगड़ी फीस वसूलते हैं, लेकिन यदि अपने बच्चे को घर में कंप्यूटर औन करने के लिए कह दें तो उस का जवाब होता है कि स्कूल में पढ़ाया ही नहीं. जिस बच्चे को कंप्यूटर औन करना नहीं आता, उस का स्मार्ट स्कूल में पढ़ने का क्या फायदा और टीचर क्या सिखाते होंगे, आप खुद ही समझ सकते हैं. ऐसे स्मार्ट स्कूल्स का क्या फायदा? फिर भी प्राइवेट स्कूल स्मार्ट स्कूल के नाम पर लूट रहे हैं.