सच्चाई तो यह है कि अपने जन्म से लेकर के आज तक भारतीय जनता पार्टी के रवैया पर अगर शोध किया जाए तो यह देश जान जाएगा कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कभी भी आस्था नहीं रही है. चुनाव में भाग लेने के लिए और सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए भले ही भाजपा ने लोकतांत्रिक चोला पहन लिया हो मगर उसके के भीतर का सच बारंबार बाहर आते रहा है.
भाजपा नीत सरकार सरकार एक बार फिर उच्चतम न्यायालय के निशाने पर है. मामला है हाल ही में आनन-फानन में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण गोयल की नियुक्ति.
देश की सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर जो सुनवाई हो रही है और तथ्य सामने आ रहे हैं उसकी बिनाह पर यह कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग में नियुक्तियों के संदर्भ में नरेंद्र मोदी सरकार की गतिविधि संदेहास्पद है. आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एक ऐसा खेल खेले जाने की तैयारी है जिसके परिणाम स्वरूप लोकतंत्र की आवाज को दफ़न किए जाने की संभावना है.
हमें यह समझना चाहिए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है वही यहां की लोकतांत्रिक संस्थाओं की संरचना कुछ इस तरह की गई है कि लोकतंत्र जिंदा रहे हमारे देश में कार्यपालिका की अपनी ड्यूटी है तो न्यायपालिका अपने आप में स्वतंत्र रूप से अपनी भूमिका निभाती है इसी तरह देश के चौथे खंभे के रूप में प्रेस अपना महत्व है और दायित्व भी जिसे हम बखूबी निभाते हुए देख रहे हैं. इसी तरह संवैधानिक संस्था के रूप में चुनाव आयोग का अपना महत्व है सत्ता की चकाचौंध में ऐसा खेल खेला जा सकता है जिससे चुनाव प्रभावित हो सकते हैं. आज देश में कुछ कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है इसका एक बड़ा उदाहरण गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव के दरमियान प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा 71000 नियुक्ति पत्र दिया जाना. जबकि प्रधानमंत्री कार्यालय का यह काम नहीं है सच तो यह है कि इस गतिविधि पर अभी सुप्रीम कोर्ट की निगाह भी नहीं गई है और ना ही कोई जनहित याचिका प्रस्तुत हुई है. मगर गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव तो प्रश्न चिन्ह के साथ संपन्न हो रहे हैं.
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अरुण गोयल पर मेहरबां
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हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा खास तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण गोयल की नियुक्ति एक ऐसा मसला बन कर आज देश के सामने हैं जिसका जवाब देना नरेंद्र मोदी सरकार को भारी पड़ सकता है.
दरअसल, देश के उच्चतम न्यायालय ने “निर्वाचन आयुक्त” के तौर पर अरुण गोयल की नियुक्ति में “जल्दबाजी’ पर सवाल उठाए गए है. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र प्रणाली की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.अब उक्त पीठ ने सभी पक्षकारों को पांच दिन के भीतर छह पेज तक का संक्षिप्त नोट दाखिल का आदेश दे कर, फैसला सुरक्षित रख लिया है .
न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली इस संविधान पीठ में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, न्यायमूर्ति हृषिकेश राय और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार शामिल हैं.अब यह पीठ तय करेगी कि देश में मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र पैनल बनेगा या नहीं .
इस संदर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने पंजाब कैडर के पूर्व आइएएस अधिकारी अरुण गोयल की चुनाव आयुक्त पद पर नियुक्ति से जुड़ी फाइल पीठ के समक्ष पेश की है. संविधान पीठ ने फाइल पढ़ने के बाद अरुण गोयल की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए हैं .
पीठ ने केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे अटार्नी जनरल से कहा कि चुनाव आयोग ने पद की रिक्ति की घोषणा 15 मई को की थी. अरुण गोयल की चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति वाली फाइल को 24 घंटे के अंदर ‘विद्युत की गति’ से मंजूरी दे दी गई. यह कैसा मूल्यांकन है? हम चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की साख पर सवाल खड़े नहीं कर रहे .
बल्कि नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं.एक ही दिन में फाइल को हरी झंडी कैसे मिल गई . यह पद 15 मई से खाली था. आप बताएं कि 15 मई से 18 नवंबर के बीच क्या हुआ.
देश की उच्चतम न्यायालय में उठ खड़ा हुआ यह प्रश्न आज देश का सवाल बन गया है और नरेंद्र मोदी सरकार से जवाब वह भी एक ईमानदार जवाब की अपेक्षा देश कर रहा है.
देश के महान लोकतंत्र को अगर बचाना है तो यह सवाल उसका जवाब अपरिहार्य है.