वोटबैंक की राजनीति का विरोध करने वाली भाजपा द्वारा देश के सर्वोच्च पद पर दलित या आदिवासी व्यक्ति को बिठाना वोटबैंक की राजनीति के तहत ही खेला गया मास्टर स्ट्रोक है, जिस ने न सिर्फ राष्ट्रपति पद का राजनीतिकरण किया है, बल्कि देश के एक बहुत बड़े समुदाय से भावनात्मक छल किया है.
दलित समाज से आने वाले वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई, 2022 को समाप्त हो रहा है. दलित समाज से आने वाले कोविंद के बाद एनडीए के नरेंद्र मोदी ने अब आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाली द्रौपदी मुर्मू के नाम को देश के सर्वोच्च पद के लिए नामित किया है.
ओडिशा के एक गांव में एक संथाल परिवार में जन्मीं द्रौपदी मुर्मू के कैरियर की शुरुआत एक अध्यापिका के रूप में हुई, मगर जल्दी ही वे राजनीति में आ गईं. 2000 और 2009 में भाजपा के टिकट पर वे 2 बार जीतीं और विधायक बनीं. 2000 और 2004 के बीच उन्हें राज्य सरकार में वाणिज्य, परिवहन और बाद में मत्स्य एवं पशु संसाधन विभाग में मंत्री बनाया गया था. मुर्मू 2015 में ?ारखंड की राज्यपाल बनीं. उन्होंने 24 जून, 2022 को राष्ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरा है.
देश को पहला दलित राष्ट्रपति कांग्रेस ने दिया था. केरल के राष्ट्रपति कोचेरिल रमण नारायणन (के आर नारायणन) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति, चीन, तुर्की, थाईलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत के राजदूत रहे. बतौर ?1997 से 2002 तक देश के राष्ट्रपति रहे. नारायणन को 1992 में उपराष्ट्रपति और 1997 में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए कांग्रेस के साथ वामदलों का समर्थन मिला. राजीव गांधी सरकार में मंत्री भी बने.
के आर नारायणन के बाद 2017 में भाजपा की अगुआई वाले राजग की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनाए गए रामनाथ कोविंद भी दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले साधारण परिवार से आते हैं. लगभग एक दशक तक वकालत करने के बाद साल 1980 और 1993 में उन्हें उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार का अधिवक्ता बनाया गया. कोविंद को भाजपा में संगठन के स्तर पर भूमिकाएं मिलती रहीं. कोविंद ने 2 बार चुनाव भी लड़ा लेकिन कामयाब नहीं हुए. भाजपा ने साल 1994 और साल 2000 में राज्यसभा में भेजा. इस के बाद वे बिहार के राज्यपाल बने. 25 जुलाई, 2017 को वे राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए.
आइडैंटिटी पौलिटिक्स के माने
देश में काफी समय से दलित और आदिवासी की ‘आइडैंटिटी पौलिटिक्स’ चल रही है. जाति और वर्ग का पौलिटिकल गेम इतना बड़ा है कि राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद को भी एक वर्ग विशेष के व्यक्ति को सौंप कर यह प्रोपगंडा किया जाता है कि उस विशेष वर्ग के नेता को भारत के सर्वोच्च पद पर आसीन करने से उस विशेष वर्ग को सम्मान दिया जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी 2019 के आम चुनावों से पहले दलितों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे थे. इस की वजह एक यह भी थी कि उस समय दलितों और दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों के वोटों ने मोदी को 2014 में व्यापक जीत हासिल करने में मदद की थी.
रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना उस समय दलितों को सम्मान देना कहा गया. इसे भारतीय जनता पार्टी ने प्रोपगंडा के जरिए बड़े स्तर पर प्रचारित भी किया. अब की बार भाजपा ने आदिवासी समाज पर डोरे डालने के लिए द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित किया है.
एक तो महिला और फिर आदिवासी, इस बात को बढ़ाचढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है कि आदिवासी समाज से पहली बार किसी महिला को प्रथम नागरिक होने का सम्मान प्राप्त होगा. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि दलित वर्ग या आदिवासी समाज के किसी नेता के राष्ट्रपति पद पर बैठने से क्या वाकई देश के दलितों और आदिवासियों को सम्मान व अधिकार हासिल होता है? उन्हें कोई फायदा होता है?
आखिर क्या मिला
भारत में जाति और वर्ग आधारित राजनीति आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी. पहले कांग्रेस और अब भारतीय जनता पार्टी सभी इसी फर्मूले पर अपना वोटबैंक बनाते हैं. दलित, आदिवासी या मुसलिम समाज के एक व्यक्ति को शीर्ष स्थान पर स्थापित कर के इमोशनल कार्ड खेला जाता है और संबंधित समाज के विकास का ढोल पीटा जाता है.
के आर नारायणन या रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति रहते दलित समाज का कितना फायदा हुआ? इस समाज को देश में कितना सम्मान मिला? कितना अधिकार मिला? क्या उन का शोषण बंद हो गया? क्या उन की औरतों से बलात्कार बंद हो गए? क्या उन की जमीनों पर दबंगों के कब्जे रुक गए? क्या उन के साथ हिंसा होनी बंद हो गई? क्या विवाह के वक्त दलितों के घोड़ी पर चढ़ने से सवर्णों को कष्ट नहीं होता? ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब सिर्फ न में हैं तो क्या हुआ जो देश के सर्वोच्च पद पर कोई दलित या आदिवासी बैठा दिया गया हो?
केंद्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2009 और 2015 के बीच दलितों के खिलाफ अपराध (अत्याचार के मामलों सहित) के लगभग 2,27,000 मामले दर्ज किए गए. 2009-2013 के दौरान दलित हत्याओं की 3,194 घटनाएं हुईं, 7,849 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हुए. इस अवधि के दौरान आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश यानी इन 7 राज्यों में कुल अपराधों व अत्याचारों का 80 प्रतिशत हिस्सा दलितों के नाम था.
अकेले यूपी में लगभग 25 प्रतिशत अपराध दलितों के प्रति हुए तो वहीं, केंद्र सरकार ने खुद संसद में बताया कि 2018 और 2020 के बीच विभिन्न राज्यों में दलितों के खिलाफ अपराध के लगभग 1,39,045 मामले दर्ज किए गए हैं. बीते साल यह आंकड़ा 50,291 का था. देशभर में बहुत बड़ी तादाद में दलित समाज हिंसा और प्रताड़ना का शिकार है तो क्या हुआ अगर देश का राष्ट्रपति एक दलित है?
रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति एक प्रतीक के रूप में अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा कर रहे हैं और उन के बाद पूरी उम्मीद है कि आदिवासी समाज से द्रौपदी मुर्मू देश की प्रथम नागरिक बनेंगी, लेकिन भारत का दलित और आदिवासी समाज वैसे ही हाशिए पर रहेगा जैसे था और है.
बीते 5 सालों में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की विशेष चुनौती दलितों की पीड़ा को कम करना था, क्योंकि उन्हें बतौर एक दलित राष्ट्रपति के रूप में भारत के सर्वोच्च पद पर सुशोभित किया गया था, मगर दलितों के उत्थान के लिए उन्होंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जो इतिहास याद रखे.
अपमान है कि रूक नहीं रहा
पिछले वर्षों में दलितों को बहिष्कार और दमन का सामना करना पड़ा है, वह चाहे गांवदेहात का दलित हो या विश्वविद्यालय में अपनी मेहनत के दम पर पहुंचने वाला रोहित वेमुला जैसा कोई दलित छात्र.
ु क्या कोई भूल सकता है हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे छात्र रोहित वेमुला को? वेमुला ने आत्महत्या कर ली. उस के आखिरी शब्द थे- ‘मेरा जन्म एक भयंकर हादसा था…’ रोहित वेमुला अपने दलित होने की त्रासदी और अपमान से गुजरता हुआ पलपल टूटता चला गया. अपने सुसाइड नोट में उस ने लिखा, ‘मैं चाहूंगा कि मेरी शवयात्रा शांति से और चुपचाप हो. लोग ऐसा व्यवहार करें कि मैं आया था और चला गया. मेरे लिए आंसू न बहाए जाएं. आप जान जाएं कि मैं मर कर खुश हूं जीने से अधिक.’
ु उसे छात्रवृत्ति मिलती थी. यूनिवर्सिटी में वह अंबेडकर स्टूडैंट्स एसोसिएशन का सदस्य था और कैंपस में दलित छात्रों के अधिकार व न्याय के लिए लड़ता था. उस ने बड़ी हिम्मत दिखाई मगर सवर्णों की संकुचित मानसिकता के आगे वह हार गया.
ु 11 जुलाई, 2016 को गुजरात के उना में कुछ दलित युवकों को मृत गाय की चमड़ी निकालने की वजह से गौ रक्षक समिति के लोगों ने सड़क पर बुरी तरह पीटा. गुजरात सरकार ने इस घटना का तब संज्ञान लिया जब खबर सोशल मीडिया पर वायरल हुई. लेकिन पीडि़तों को न्याय आज तक नहीं मिला.
ु उत्तर प्रदेश में भाजपा के उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह खुलेआम दलित नेत्री मायावती के लिए आपत्तिजनक और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते रहे. बसपा कार्यकर्ताओं के साथसाथ मायावती ने खुद राज्यसभा में उन का विरोध किया. जिस के बाद दयाशंकर सिंह को प्रतीकात्मक रूप से बाहर का दरवाजा दिखाया गया, लेकिन उस के बाद उन की पत्नी स्वाति सिंह को विधानसभा का टिकट मिला, वे चुनाव लड़ीं, जीतीं और कैबिनेट मंत्री बनीं.
राजस्थान में डेल्टा मेघवाल और हरियाणा के भड़ाना में दलित महिलाओं से बलात्कार की घटनाओं को कौन भूल सकता है? यहां भी दोषियों को आज तक सजा नहीं मिली.
इस सूची में यूपी के सहारनपुर को भी जोड़ा जा सकता है जहां तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा दलितों को पीटा गया और उन की ?ांपडि़यों को जला दिया गया.
नवनिर्वाचित भाजपा सरकार तो दलित युवाओं के नेतृत्व वाली भीम आर्मी को भी खलनायक के रूप में ही चित्रित करती है.
दलितों को अपमानित करने की पराकाष्ठा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कुशीनगर के मैनपुर कोट गांव में दौरे के दौरान मुसहर बस्ती के निरीक्षण से पहले प्रशासन के लोगों ने वहां के दलित निवासियों को शैंपू और साबुन बांटे कि वे खुद को इन से पवित्र कर के ही मुख्यमंत्री के निकट जाएं. कितना अपमान! आह!
अनुसूचित जातिजनजाति कानून को और मजबूत करने की मांग के लिए बने दलित संगठनों के एक राष्ट्रीय गठबंधन का कहना है कि देश में औसतन हर
15 मिनट में 4 दलितों और आदिवासियों के साथ ज्यादती होती है. रोजाना 3 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है. 11 दलितों की पिटाई होती है. हर हफ्ते 13 दलितों की हत्या हो जाती है.
5 दलित घरों को आग लगा दी जाती है. 6 दलितों का अपहरण कर लिया जाता है. इस संगठन के मुताबिक, पिछले 15 वर्षों में दलितों के खिलाफ ज्यादती के साढ़े
5 लाख से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं.
जमीन के लिए लड़ाई
आदिवासी समाज दशकों से जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ रहा है. अब तो उन के सामने अस्मिता का संकट भी खड़ा हो गया है. आदिवासियों से उन के पठार, पर्वत, जंगल, जमीन, नदियां लगातार छीनी जा रही हैं. जब वे विरोध करते हैं, आंदोलन करते हैं तो उन को नक्सली करार दे कर मार दिया जाता है. इस से देश में नए संघर्ष खड़े हो रहे हैं. सिंगूर, नंदीग्राम, नगडी, पोस्को, नियमगिरि आदि प्राकृतिक संसाधनों की लूट की लंबी शृंखला है.
नए खदान और खनिज विकास अधिनियम (2015) के माध्यम से आदिवासियों की जमीनों में हजारों हेक्टेयर क्षेत्र में खदान खोद दिए गए हैं. जन सुरक्षा अधिनियमों के अंतर्गत विकास का विरोध करने वाले सैकड़ों आदिवासी जेल की सलाखों में कैद हैं. वनाधिकार कानून (2006) के सुरक्षात्मक प्रावधानों के बावजूद आदिवासियों के लाखों दावे निरस्त किए जा चुके हैं.
मालूम नहीं कि सरकारों के इन कदमों से ‘सुशासन’ स्थापित हुआ अथवा नहीं लेकिन इन कार्रवाइयों पर आदिवासी हितों के लिए नियुक्त और जवाबदेह महामहिम राज्यपालों द्वारा कभी कोई निषेधाज्ञा जारी नहीं की गई. भारत की स्वाधीनता के 7 दशकों के पश्चात विविध जनजातीय विकास योजनाओं के कागजी लक्ष्य और जमीनी उपलब्धियों के बीच बढ़ते फासले के बीच खड़ा आदिवासी समाज भौचक है. वह ठगे जाने के गहरे एहसास से भरा हुआ है.
मोदी सरकार का विकास का ऐसा मौडल है जिस में पहला शिकार आदिवासी है. आदिवासी समाज आज अपनी सामूहिक तथा ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत खोता जा रहा है. मोदी के विकास मौडल ने उस के अस्तित्व को ही नकार दिया है. इस विकास के मौडल में आदिवासी अनफिट हैं तो क्या हुआ जो आने वाले समय में देश के सर्वोच्च पद पर एक आदिवासी महिला को बिठा दिया जाएगा? क्या इस से कुछ बदल जाएगा?
ु 3 जुलाई, 2022 की एक दिल दहलाने वाली खबर मध्य प्रदेश के गुना से आई है. गुना के बमोरी थानाक्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में अपने खेत में काम करने गई एक आदिवासी महिला रामप्यारी बाई पर 8-10 लोगों ने डीजल डाल कर आग लगा दी. इस का वीडियो भी बना कर वायरल किया गया. कुछ ही दिनों पहले उस को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद अपनी 6 बीघा जमीन पर कब्जा मिला था. लेकिन एक आदिवासी जमीन का मालिक हो जाए, यह ऊंची जाति के दबंग कैसे बरदाश्त करते. उस को भोपाल के एक अस्पताल में भरती कराया गया है. उस के बचने की उम्मीद कम है. एक आदिवासी महिला के साथ यह दिल दहला देने वाली घटना तब हुई है जब देश के सर्वोच्च पद पर एक आदिवासी महिला को बिठाने की बात हो रही है.
उम्मीद रखना बेमानी
दरअसल संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को कोई खास अधिकार नहीं होते हैं. कुछेक मामलों को छोड़ दिया जाए तो जो सरकार चाहती है, उन्हें वह करना होता है. भारतीय राष्ट्रपति की कमोबेश वही स्थिति होती है जो इंग्लैंड में महारानी की होती है. कहने को वह मोनार्क हैं लेकिन उन्हें भी कोई अधिकार नहीं होते.
इंदिरा गांधी ने जो कहा, वही माना गया. संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति सरकार को मशवरा दे सकते हैं, सरकार से पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं, लेकिन अगर सरकार इनकार कर दे तो उन्हें हस्ताक्षर करने ही होंगे. राष्ट्रपति को वही करना है जो सरकार कहेगी. राष्ट्रपति का बाद में क्या होना है, वह भी तो सरकार को ही डिसाइड करना होता है. ऐसे में राष्ट्रपति के लिए आसान नहीं होता सरकार से लड़ाई मोल लेना. भारत के पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन अपने कार्यकाल में काफी प्रभावी माने जाते थे, मगर उन्होंने भी सरकार की इच्छानुरूप ही कार्य किया, दलित समाज के लिए कुछ नहीं किया. ज्ञानी जैल सिंह को देखें, जो इंदिरा गांधी की हर बात पर हां करते थे.
ऐसे में रामनाथ कोविंद या द्रौपदी मुर्मू से उन के समाज को कोई उम्मीद रखना बेमानी है. फिर ये दोनों लंबे समय से भाजपा की विचारधारा में रचेबसे रहे हैं. तो जो व्यक्ति आज आधी रात तक भाजपा का सक्रिय सदस्य है और उस की हर बात का समर्थन करता है, कल राष्ट्रपति बनते ही उन की सोच कैसे बदल जाएगी? वे कैसे न्यूट्रल हो जाएंगे?