डर एक सामान्य मनोभाव है जिस के धर्म की गिरफ्त में जाते ही उस का व्यवसाय शुरू हो गया. लोगों को तरहतरह के धार्मिक डर दिखा कर उन से पैसा ?ाटका जाता है. जब युग तर्क, तथ्य और तकनीक का हो तो धर्म के नाम पर पैदा किया गया डर एक बड़ी रुकावट भी है और जेबों पर भारी डाका भी.

कोई और युग मसलन सतयुग, त्रेता या द्वापर होता तो उस बेचारे भक्त का बुत बन जाना तय था या फिर पुजारी के श्राप के मुताबिक वह कुत्ता, बिल्ली, मेंढक या चूहा योनि में भी शिफ्ट हो सकता था. लेकिन वह बच गया क्योंकि श्रापदाता ने सिर्फ श्राप देने की धमकी दी थी जिस से वह सम?ा गया कि यह कोई पौराणिक काल का दुर्वासा टाइप ऋषि नहीं है जिस का दिया श्राप सचमुच फलीभूत हो ही जाएगा. कलियुग का प्रभाव ही इसे कहा जाएगा कि भक्त ने श्राप की धौंस में न आते मंदिर में हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि देखो भाइयो, यह पुजारी मु?ो श्राप की धमकी दे रहा है.

वाकेआ उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल मंदिर का है, तारीख थी 25 जनवरी, 2022, जब इस मंदिर के पुरोहित दिनेश त्रिवेदी के एक असिस्टैंट राजेश शर्मा ने एक भक्त को धमकी दी कि दानदक्षिणा दो, नहीं तो श्राप दे दूंगा. भक्त पहले तो थोड़ा डरा, फिर उस के सिक्स्थ सैंस ने उसे चेताया कि ये पौराणिक भभकियां हैं, श्राप का रिवाज तो द्वापर के साथ ही खत्म हो गया है. आजकल जमाना बद्दुआओं का है और वे भी लग ही जाएं, इस की गारंटी नहीं, इतना ज्ञान जेहन में आते ही वह बिफर पड़ा.

पंडेपुजारियों की लूटमार और धौंसधपट से पीडि़त भक्तों ने देखते ही देखते एक टैंपरेरी यूनियन बना डाली जिस से मौका ए वारदात पर मंदिर प्रबंधन के साथसाथ कुछ पुलिस वाले भी आ पहुंचे. मीडियाकर्मियों ने भी तत्परता दिखाई. थोड़ी सी पंचायत यानी इंवैस्टिगेशन के बाद जो तथ्यनुमा बातें छन कर सामने आईं उन्होंने एक बार फिर मंदिरों व उन के अंदरबाहर घूमते दलालों की कलई खोल दी.

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पता चला कि देशभर के मंदिरों की तरह महाकाल मंदिर में भी इस तरह की घटनाएं रोजमर्रा की बातें हैं. आमजन से ले कर वीआईपी दर्शन, आरती और अभिषेक तक के मनमाने पैसे वसूले जाते हैं जिन में से कुछ की बाकायदा महाकाल थाने में एफआईआर भी दर्ज हुई हैं. दिनेश त्रिवेदी के ही एक और सहयोगी आनंद पांडे ने चंडीगढ़ से आए एक श्रद्धालु अमरदीप से नागनागिन का जोड़ा चढ़ाने के एवज में 500 रुपए मांगे थे.

इस से साबित यह होता है कि सरकारी दफ्तरों में पसरे घूसखोरी के रिवाज का मंदिरों व उन के पंडेपुजारियों की चालचलन से गहरा ताल्लुक है. संक्षेप में कह सकते हैं कि यह रिश्ता मौसेरे भाइयों जैसा है. लेकिन इस से साबित तो यह भी होता है कि देश में मूर्खों की कमी नहीं जो धातु के नागनागिन का जोड़ा चढ़ाने के लिए मंदिर पहुंच जाते हैं.

मंदिर प्रशासक गणेश कुमार धाकड़ ने सीसीटीवी फुटेज देखने के बाद भक्तों को सही जबकि पुजारियों अर्थात दलालों को दोषी पाया और उन के मंदिर में प्रवेश पर पाबंदी की घोषणा करते बात खत्म कर दी.

देशभर के मंदिरों में ऐसे नजारे आम हैं कि मूर्ति का पुजारी भक्तों से बदतमीजी करते उन्हें धकियाता है और अधिकांश भक्त इसे भी प्रभुइच्छा सम?ा प्रसाद की तरह ग्रहण कर लेते हैं. जिन में थोड़ीबहुत गैरत होती है वे पंडेपुजारियों को मन ही मन गाली बकते और कोसते मंदिर कैंपस के बाहर से ही दर्शनलाभ ले लेते हैं. लेकिन जिन का स्वाभिमान आस्था पर भारी पड़ता है, वे वैसा ही हल्ला मचाते विरोध दर्ज कराते हैं जैसा कि महाकाल के मंदिर में हुआ. लेकिन ये भक्त भी गजब के बेशरम होते हैं जो बेइज्जती होने के बाद भी मंदिर जाना नहीं छोड़ते.

कारोबार डर का

उज्जैन के मामले में दिलचस्प बात श्राप का डर दिखाना था जिस का रिवाज लुप्त सा हो चुका है. हालांकि, दूसरे हजारों तरीके सनातन काल से मौजूद हैं जिन से लोगों को पहले डराया जाता है, फिर डर दूर करने के नाम पर उन की जेबें ढीली की जाती हैं.

धर्म का धंधा दरअसल, टिका ही डर पर है जिस पर मशहूर कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचना ‘रंगभूमि’ में एक जगह कहा है-

‘धर्म का मुख्य स्तंभ भय है. अनिष्ट की शंका को दूर कर दीजिए, फिर तीर्थयात्रा, पूजापाठ, स्नानध्यान रोजानमाज किसी का निशान भी न रहेगा. मसजिदें खाली नजर आएंगी और मंदिर वीरान.’

बात सही है. धर्म कोई भी हो, उस का कारोबार सिर्फ डर से चलता है. लोग डरेंगे नहीं तो मंदिरमसजिद, चर्च और गुरुद्वारे क्यों जाएंगे जहां डर दूर करने का ‘तथाकथित’ शर्तिया इलाज किया जाता है. यह डर भी कोई कुदरती नहीं है बल्कि धर्म का पैदा किया हुआ ही है ठीक किसी गांव के बाहर के पीपल के पेड़ का जैसा जिस के बारे में गांव का निक्कमा और चालाक आदमी प्रचार करता है कि वहां मत जाना, वहां भूत, प्रेत और चुड़ैल रहते हैं जो राहगीरों को मार डालते हैं, उन का खून पीते हैं या उन से चिपक जाते हैं.

डर फैलाने की बाबत वह तरहतरह के प्रपंच और षड्यंत्र भी रचता है. जब गांव वाले डर की गिरफ्त में आ जाते हैं तो वह गंडा, तावीज, तंत्रमंत्र और ?ाड़फूंक की दुकान खोल कर बैठ जाता है.

यही हाल ब्रैंडेड मंदिरों व दूसरे धर्मस्थलों का है जहां लोग डर से मुक्ति के लिए ज्यादा जाते हैं. इन मंदिरों में बड़ेबड़े पंडेपुजारी और पुरोहित पैसा समेटने को बैठे होते हैं. उज्जैन के शर्माजी ने नए किस्म का डर फैलाने की कोशिश की थी जिस में वे कामयाब नहीं हो पाए यह और बात है, नहीं तो धार्मिक डर की कमी नहीं जिन से मुक्ति पाने को लोग अपनी मरजी से लुटतेपिटते हैं.

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धर्म के प्रमुख डर

बिना किसी शोध के कहा जा सकता है कि हमारेआप के इर्दगिर्द जितने भी डर हैं उन में से 95 फीसदी धर्म की उपज हैं. इन को सूचीबद्ध करना 19वें पुराण की रचना करने जैसा काम है जिसे भयपुराण कहा जा सकता है. पुराणों सहित तमाम धर्मग्रंथों में लोगों को कितनी तरह से डराया गया है, यह हर कभी सोशल मीडिया पर वायरल होती एक पोस्ट से पता चलता है. इस के मुताबिक, धर्म और उस के दुकानदारों द्वारा फैलाए गए प्रमुख डर ये हैं.-

धर्म के ठेकेदार कहते हैं कि सब से पहले तो हम से डरो, मतलब ऊंची जाति वालों से डरो. फिर भगवान से डरो.

फिर शैतान से डरो.

पिछले जन्म और अगले जन्म के कर्मों से डरो.

गृहतारोंनक्षत्रों से डरो.

हाथ की रेखाओं, जन्मकुंडली, आने वाले भविष्य से डरो.

उपवास में उपवास टूट जाए तो उस से डरो.

मांगी हुई मन्नत पूरी न कर पाए तो डरो.

जादूटोने से डरो.

नीबूमिर्ची के यंत्र से डरो.

चौराहों पर उतार कर रखे गए उतारे से डरो.

काली बिल्ली रास्ता काटे तो डरो.

कौवों की कांवकांव से डरो.

रात को उल्लू दिखे तो डरो.

कुत्ते के रोने से डरो.

रात को गूलर, पीपल के पेड़ों से डरो.

पुराने घरों से डरो.

रात को श्मशान से गुजरते वक्त डरो.

बाईं आंख फड़फड़ाए तो डरो.

खाने में बाल आ जाए तो डरो.

कोई छींके तो डरो.

डरो, डरो और डरो सिर्फ धर्म के नाम पर डरते रहो और भी बहुत सारे डर हैं जो सिर्फ भारत में बड़े गर्व से थोपे जाते हैं क्योंकि यहां लोग दिमाग को लौक कर के चाबी किसी और को दे देते हैं. वे खुद अपनी बुद्धि व तर्क से सोचते ही नहीं. जो सोचते हैं उन्हें नास्तिक, विधर्मी, वामपंथी, देशद्रोही और नक्सली करार दे कर उन का हर स्तर पर बहिष्कार किया जाने लगता है मानो जिंदा रहने और मानव योनि में रहने का हक उसी को है जो धर्म के डर और आतंक को स्वीकारता हो.

डर के मसले पर भगवान और शैतान दोनों में कोई खास फर्क नहीं किया गया है. पौराणिक साहित्य का आधार ही ये 2 तरह की कथित शक्तियां हैं. कहा यह जाता है कि भगवान हमें शैतान से बचाता है यानी कल को शैतान बचाने की जिम्मेदारी निभाने लगे तो लोग उसे भी पूजने लगेंगे जोकि धर्म के दुकानदार नहीं चाहते, इसलिए पूजापाठ की बीमारी कुछ इस तरह फैलाई गई है कि यह किसी नशे की लत से भी ज्यादा घातक हो गई है.

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जब लोग पूजापाठ के आदी हो गए तो इस पर भी डर की दुकान चमकाई जाने लगी कि पूजा अगर गलत तरीके से करोगे तो पाप लगेगा और अनिष्ट हो जाएगा. पूजापाठ को ले कर इतने नियमकानून बना दिए गए कि लोग उन से भी डरने लगे. प्रेमचंदजी ने इस मानसिकता को जड़ से पकड़ा कि अनिष्ट की शंका त्याग दो तो कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी पर धर्म का षड्यंत्र देखिए कि अनिष्ट का कारक भी भगवान की इच्छा को घोषित कर दिया गया.

बाईं आंख फड़कना, बिल्ली का रास्ता काटना, छींक आना जैसे उदाहरण अनिष्ट का संकेत माने जाते हैं जिन के पीछे वैज्ञानिक तो दूर, कोई अवैज्ञानिक वजहें भी नहीं हैं. इन से बड़े उदाहरण हैं पूजा का दीपक बु?ा जाना, कलश का अपनेआप लुढ़क जाना, जानवरों का रोना आदि जिन्हें इफरात से हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता है कि यहां निरूपा राय या कामिनी कौशल की पूजा का दीपक बु?ा नहीं कि वहां उन का बेटा अमिताभ बच्चन या मनोज कुमार मुसीबत में पड़ गया.

पूजापाठ से संबंधित डर पर गौर करें तो मान्यता है कि नीले या काले कपड़े पहन कर पूजा करने से पाप लगता है. अगर किसी लाश को छुआ है और बिना नहाए पूजा कर ली तो ऐसे व्यक्ति को पाप लगता है. लोग तब भी पाप के भागीदार माने जाते हैं जब वे सहवास के बाद बिना नहाए पूजापाठ कर लेते हैं. क्रोध में पूजन करने से भगवान गुस्सा हो जाता है और सजा देता है जैसी सैकड़ों बंदिशें बताती हैं कि भगवान और शैतान में कोई खास अंतर नहीं है. भगवान अगर वाकई भला करने वाला (जैसा कि माना जाता है) और रहम दिल होता तो इन बातों पर क्रुद्ध न होता.

दरअसल, ये और ऐसे सैकड़ों तरह के प्रपंच पैसा कमाने की गरज और मकसद से बनाए गए हैं जिस से लोग इन नियमों को बनाने वाले और उन का पालन करवाने वालों की गुलामी ढोते रहें. नहीं तो नर्क की सजा भुगतने तैयार रहें.

डर का मनोविज्ञान

गरुड़ पुराण में इन सजाओं का इतना वीभत्स चित्रण और वर्णन है कि अच्छेखासे लोग भी डरने लगें.

आम लोग सब से ज्यादा मौत से और पाप से डरते हैं. मृत्यु एक दिन आनी है, यह हर कोई जानता है लेकिन धर्म यह कहते डराता है कि मरने के बाद भी आप चैन से नहीं रह सकते. ऊपर कहीं आप को अपने किए कर्मों की सजा मिलती ही है. इस गरुड़ महापुराण के मुताबिक कुल 84 लाख नर्क हैं और उन में से भी

21 घोर नर्क हैं जहां पापियों को तरहतरह की सजाएं दी जाती हैं. महावीचि नाम का नर्क खून से सना हुआ है जिस में जीवों को कांटों से चुभो कर यातनाएं दी जाती हैं.

इसी तरह कुंभीपाक नाम के नर्क में पापियों को गरम बालू और जलते अंगारों पर नंगे बदन लिटाया जाता है. रौरव नर्क में लोहे के जलते हुए तीरों से लोगों को बींधा जाता है. अप्रतिष्ठ नर्क में खासतौर से उन लोगों को सजा दी जाती है जो ब्राह्मणों को सताते हैं. इस नर्क में मूत्र, मवाद और उलटियों में लोगों को डुबोया जाता है.

अब भला कौन भला आदमी इन नर्कों की यातनाएं भुगतना चाहेगा, इसलिए लोग डरते हैं और खूब दानदक्षिणा भी धर्म के ठेकेदारों के बताए मुताबिक देते हैं. कोई यह नहीं सोचता कि इन कपोलकल्पनाओं का आधार और प्रमाण क्या हैं. लोग ज्यादा ऐसा न सोचने लगें, इस बाबत इफरात से धार्मिक पाखंड आएदिन समारोहपूर्वक आयोजित किए जाते हैं. इन में पुराने, घिसेपिटे पौराणिक प्रसंगों को नएनए रोचक तरीकों से बांचा जाता है.

दिलचस्प बात यह है कि डर के इस कारोबार में मेहनत, लागत और पैसा भी छोटी जाति वालों का लगता है जबकि मुनाफा धर्मगुरुओं के हिस्से में जाता है. बात ‘शोले’ फिल्म के उस डायलौग जैसी है जिस में डाकू गब्बर सिंह रामगढ़ वालों से कहता है कि ‘गब्बर के ताप (कहर) से तुम्हें एक ही आदमी बचा सकता है… खुद गब्बर… और इस के एवज में अगर मेरे आदमी तुम से थोड़ा सा अनाज व पैसा लेते हैं तो कोई गुनाह नहीं करते.’

यही धर्मस्थलों की कहानी है जहां ऊपर वाले के कहर का डर दिखा कर नीचे वाले डर के हथियार से अनाज, पैसा, सोना चांदी, कपड़े, जमीन, दूधमलाई, मिठाईखटाई और जाने क्याक्या वसूला करते हैं. ये डाकू नहीं तो और क्या हैं.

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उज्जैन के महाकाल मंदिर में

3 पुजारियों राजेश शर्मा, अनिकेत शर्मा और अजय शर्मा ने यही किया था. लोचा इतना भर हुआ कि चंडीगढ़ के अमरदीप ठाकुर ‘शोले’ के अपाहिज ठाकुर बलदेव सिंह की तरह अड़ गए थे और ऐसा भी रोजरोज नहीं होता, कभीकभार होता है, इसलिए डर की दुकान पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह धर्म की तरह ही शाश्वत है.

अधिकतर मनोविज्ञानी यह मानते हैं कि डर निहायत ही प्राकृतिक मनोभाव है और आदमी की अधिकांश तकलीफों की वजह सैक्स और डर है. मशहूर मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड सैक्स को डर की वजह बताते रहे लेकिन उन के एक शिष्य और साथी कार्ल गुस्ताव जुंग के मुताबिक, मृत्यु का डर ही सभी मनोरोगों का कारण है. मृत्यु के डर को हिंदू धर्म ने दूर करने के बजाय जम कर किस तरह भुनाया, यह गरुड़ पुराण जैसे ग्रंथों को पढ़ कर सहज सम?ा जा सकता है.

बिना पढ़े अगर लाइफ आफ्टर डैथ की अजीबोगरीब, कपोलकाल्पनिक, हिंसक और वीभत्स थ्योरी किसी को मुफ्त में जाननीसम?ानी है तो उसे ऐसे किसी हिंदू घर में जा कर इस का श्रवण लाभ लेना चाहिए जहां किसी की मौत के बाद गरुड़ पुराण का 13 दिन वाला पाठ चल रहा हो.

मनोविज्ञान कभी किसी काल्पनिक संसार के अस्तित्व से सहमत नहीं हुआ, उलटे वह यह जरूर बताता रहता है कि दिमाग से कमजोर लोग अपने आसपास एक काल्पनिक दुनिया बुन लेते हैं और उस को ही सच मान बैठते हैं. ऐसे लोग सिजोफ्रेनिया के मरीज कहे जाते हैं. जो लोग पार्टटाइम या दिन में कुछ समय के लिए धर्म द्वारा बुनी गई काल्पनिक दुनिया में विचरते हैं उन्हें मानसिक रोगियों की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाना चाहिए, इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं.

महिलाएं डर की मुख्य शिकार

महिलाओं को सेविका, दासी और भोग्या करार देने वाले हिंदू धर्म में मासिकधर्म का डर भी विस्तार से बताया गया है जिसे बिना पढ़े 12-14 साल की वह किशोरी भी सम?ा जाती है जिस का पीरियड शुरू होने वाला होता है और जिस ने भागवत पुराण, भविष्य पुराण, मनु स्मृति और चरक संहिता जैसे दिशानिर्देश देने वाली किताबों के नाम भी नहीं सुने होते.

पहले मासिकधर्म में ही सनातन धर्म के ये फरमान और फतवे युवतियों की रगरग में नसीहतों के इंजैक्शनों के जरिए ठूंस दिए जाते हैं कि अब तुम 5 दिन अपवित्र रहोगी, तुम्हें पूजापाठ नहीं करना है, किचन में दाखिल नहीं होना है, किसी को छूना भी नहीं है और पलंग के नीचे सो सको तो और बेहतर है और साथ ही इन दिनों अचार को हाथ मत लगाना नहीं तो वह खराब हो जाएगा, गाय को छुओगी तो वह बां?ा हो जाएगी. तुम्हें मेकअप भी नहीं करना है और पौधों को पानी भी नहीं देना है नहीं तो वे सूख जाएंगे. वहीं, अगर शादीशुदा हो तो भूले से भी पति के नजदीक न जाना और छूना नहीं, वरना उस की उम्र कम हो जाएगी और तुम जल्द विधवा हो जाओगी.

पीरियड के दौरान महिला को पापिन, अछूत और शूद्रों से भी गईगुजरी माना जाता है जो अगर मंदिर चली जाए तो वह भी अपवित्र हो जाता है. डर का ऐसा रौद्र रूप शायद ही कहीं और देखने में आए कि 4-5 दिन महिला को नियमित बरतनों में खाना भी न दिया जाए. इस डर पर आएदिन हल्ला मचता रहता है लेकिन महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक हैसियत ज्यों की त्यों रहती है.

शिक्षित परिवारों में इतना जरूर बदलाव आया है कि महिलाओं को नीचे नहीं सोना पड़ता, खाने को ठीकठाक मिल जाता है और वे पूजाघर छोड़ कर पूरे घर में घूम सकती हैं यानी डर और हीनभावना दूर करने की कोई कोशिश नहीं की जाती. इन दिनों में उनके ?ाड़ूबुहारी और साफसफाई करने पर कोई पाबंदी नहीं है क्योंकि ये तो शूद्रकर्म होते हैं.

5 दिन महिलाओं की जान योनि से रिसते रक्त, जो निहायत ही प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है, में अटकी रहती है कि कब यह ?ां?ाट खत्म हो और वे सामान्य जिंदगी जिएं. इस दौरान वे डरती रहती हैं कि भूले से भी मुंह से रामश्याम न निकल जाए और पति या घर के अन्य पुरुषों को वे धोखे से टच न कर लें.

धर्म के उद्भव से ले कर आज तक महिलाएं उस की सौफ्ट टारगेट हैं तो हैं. इस पर थोड़ा सा हल्ला बताता है कि हम एक कायर समाज में रहते हैं और मजाक यह कि इसी आधार पर विश्वगुरु बनने का ढिंढोरा पीटा करते हैं.

इलाज क्या

हर किसी के अचेतन में गहरे तक पसरे धार्मिक डर लाइलाज हैं जिन से खुद को बचाए रखना ही कल्याण का इकलौता रास्ता है. इस के लिए जरूरी है दृढ़ इच्छाशक्ति, पाखंडों से लड़ने की क्षमता होना और इन से भी ज्यादा जरूरी है तर्क करना, डराने वालों को उन की हैसियत बताते उन की मंशा पूरी न होने देना जो सिर्फ डरा कर पैसा वसूलने की होती है.

यह लूट असल में एक उपरोक्त टैक्स की तरह है जो आम लोगों की आय का बड़ा हिस्सा खा जाती है. आज भी पौराणिक युगों की तरह हमें भरोसा दिया जा रहा है कि अगर पैसा दिया तो ही धर्म का डर नहीं रहेगा. यह कैसा डर का टैक्स है.

लालच और मुफ्तखोरी पर लगाम ऐसे नहीं कसेगी कि लुटेरों के खिलाफ कभीकभार, फौरीतौर पर अपनी तसल्ली के लिए उन का विरोध करते खुद की पीठ थपथपा ली जाए, बल्कि बहिष्कार धर्मस्थलों का करना पड़ेगा जो धार्मिक डर के डेरे और अड्डे हैं और ऐसा करने की हिम्मत न जुटा पाएं तो डरते रहिए, लुटते रहिए.

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