सुप्रीम कोर्ट ने यह तो कह दिया कि किसान सडक़ों को रोक कर अपना आंदोलन नहीं कर सकते पर उन्हें यह नहीं बताया कि सारे देश में आखिर जिसे भी सरकार से नाराजगी हो जाए कहां? सारे देश में पुलिस और प्रशासन ने इस तरह से मैदानों, चौराहों, खाली सडक़ों की नाकाबंदी कर रखी है कि कहीं भी सरकारी कुर्सी की जगह धरने प्रदर्शन की जगह बची नहीं है.
सारी दुनिया में सडक़ों पर ही आंदोलन होते रहे हैं. हमेशा सत्ता का बदलाव सडक़ों से हुआ है. जिन सडक़ों के बारे में सत्ता के पाखंडिय़ों का प्यार आजकल उमड़ रहा है वे ही इन पर कांवड यात्रा, महा यात्रा, रथ यात्रा, रात्रि जागरण, कथा कराते रहे हैं. सडक़ों पर बने मंदिर सारे देश में आफत हैं जो हर रोज फैलते हैं, खिसकते नहीं है. सरकार और सुप्रीम कोर्ट को नहीं देख रहे, किसान दिख रहे हैं.
किसानों से सरकार को चिढ़ यह है कि आज का किसान हमारे पुराणों के हिसाब से शूद्र है और वह किसी भी हक को नहीं रख सकता. उस का काम तो पैरों के पास बैठ कर सेवा करना है या उस गुरू के कहने पर अंगूठा काट देना है जिसने शिक्षा भी नहीं दी. वह शूद्र आज पांडित्य के भरोसे बनी सरकार को आंखें दिखाए यह किसी को मंजूर नहीं. न सरकारे थे, न मीडिया को न सुप्रीम कोर्ट को क्योंकि इन सब में तो ऊंची जातियों के लोग बैठे हैं जिनकी आत्मा ने पिछले जन्मों में ऋ षियों-मुनियों की सेवा करके आज ऊंची जातियों में जन्म लिया है.
सरकार और सुप्रीम कोर्ट तो कहती है कि हर जने (जिसका अर्थ हर काम करने वाले को) क्या करते रहना चाहिए, फल की ङ्क्षचता नहीं करनी चाहिए अब कर्म होगा तो फल किसी के हाथ तो लगेगा. पूरी गीता छान मारो कहीं नहीं मिलेेगा कि कर्म का फल जाएगा किसे और क्यों. कर्म का फल तो कर्म करने वाले को मिलना चाहिए, अनाज का दाम किसान को मिलना चाहिए, साहूकार को नहीं. गीता के पाठ को नए कृषि कानूनों में पिरोने की चाल को समझ कर किसान अगर आंदोलन कर रहे हैं तो गलत न नहीं है.
प्रोटेस्ट का हक ही लोकतंत्र की जान है पर प्रोटेस्ट की सोचने वालों को गिरफ्तार कर लेना, प्लाङ्क्षनग करने वाले पर मुकदमा चला देना, उसे मैदान, सडक़ न देना आज सरकार का हथियार बन गया है जिसे किसान तोडऩे में लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट बिलकुल सही है जब कहती है कि प्रोटेस्ट का हक है पर बिलकुल गलत है जब कहती है कि सडक़ों पर प्रोटेस्ट नहीं हो सकती. प्रोटेस्ट तो वहीं होगा जहां से सरकार को दिखे, जहां सरकार की कुर्सी हो. किसान विरान रण के कच्छ में जाकर तो अपना धरना प्रदर्शन नहीं कर सकते जहां मीलों तक न पेड़ है, न मकान न सरकारी नेता, न सरकारी की कुर्सी.