हिंदी को अकसर गंवारों व गरीबों की भाषा मान कर दुतकारा जाता है. इस के दोषी खुद हिंदी वाले भी हैं क्योंकि 2021 में भी वे आमतौर पर सूरदास, कबीरदास या रामचंद्र शुक्ल से चिपके रहते है जबकि आधुनिक चुनौतियों को दरी के नीचे छिपा देते हैं. इस के विपरीत, हिंदी में युवाओं की सोच कम नहीं है. इस बाबत दिल्ली विश्वविद्यालय के 2021 के प्रवेश के आंकड़े कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हैं.

कैंपस के कोने में भव्य बिल्डिंग में शिक्षा का प्रसार कर रहे रामजस कालेज को इंग्लिश और इकोनौमिक्स की पहली कटऔफ लिस्ट के तहत 99.75 प्रतिशत  अंक चाहिए थे तो हिंदी के लिए 94 प्रतिशत अंक चाहिए थे. और हिंदी विषय में इतने प्रतिशत अंक लाना आसान नहीं है.

हिंदी पिछड़ी जातियों की भाषा रह गई है, यह भ्रांति गलत है. इस कालेज में जनरल कैटेगरी में हिंदी के लिए 94 प्रतिशत अंक जरूरी थे. ओबीसी को मात्र 2 प्रतिशत की छूट मिल पाई और शिड्यूल कास्ट को 5 प्रतिशत की.

किरोड़ीमल कालेज में तीसरी कटऔफ लिस्ट के तहत जनरल कैटेगरी में हिंदी में प्रवेश 93.5 प्रतिशत अंक वालों को मिला, ओबीसी कैटेगरी में 92.5 प्रतिशत वालों और शिड्यूल कास्ट कैटेगरी में 90 प्रतिशत वालों को. वहीं, हिंदू कालेज, जो देश के अग्रणी 2-3 कालेजों में है, हिंदी औनर्स में जनरल कैटेगरी के तहत 95.50 प्रतिशत वालों, ओबीसी कैटेगरी के 94 प्रतिशत वालों और शिड्यूल कैटेगरी के 83 प्रतिशत अंक वालों को प्रवेश मिला.

इस से यह साफ होता है कि अपने प्रति दुर्भावना के बावजूद हिंदी भाषा वाले छात्र काफी मेहनत कर अच्छे अंक ला रहे हैं और उन का भविष्य इस माहौल में भी सुरक्षित है.

यह नहीं भूलना चाहिए कि इंग्लिश मीडियम के लाखों निजी स्कूल खुल जाने के बाद भी इंग्लिश में न तो कुछ नया खास लिखा जा रहा है, न पढ़ा जहा रहा है. मनोरंजन के क्षेत्र में भारतीय अंग्रेजी मौलिक कुछ नहीं बन पा रहा, न फिल्में, न टीवी धारावाहिक, न संगीत. जो उपन्यास लिखे भी जा रहे हैं उन में से अधिकांश हिंदू संस्कृति का प्रचार करने के लिए लिखे जा रहे हैं जिन में जातिवाद व अंधविश्वासों को बढ़ावा देने के साथसाथ इतिहास व वर्तमान को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है. मौलिक चिंतन वे इंग्लिश वाले भी नहीं कर पा रहे जो साधन संपन्न हैं और हर समय सिर पर ‘हम इंग्लिश वाले हैं’ का अदृश्य मुकुट लगाए घूमते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों की कहानी निश्चित तौर पर पूरे देश में दोहराई जा रही है. कहींकहीं हिंदी की जगह कोई और भारतीय भाषा होगी. यह पक्का है कि जब तक देश के नीतिनिर्धारक भारत की भाषा में नहीं बोलेंगे व नहीं लिखेंगे तब तक वे पिछले दरवाजे से भी इंग्लिश को नहीं ला सकते. भाषा अपनेआप में ज्ञान नहीं है. भाषा तो माध्यम है जिस से ज्ञान बांटा जाता है. इंग्लिश निश्चित रूप से वह भाषा नहीं है जिस से, भारत में, ज्ञान बांटा जा सके.

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