अमेरिकी जनता ने खुद को एक ऐसा राष्ट्रपति दिया है जो देश को ही नहीं, दुनिया की हालत भी पतली करने पर उतारू है. अमेरिका के गोरे कट्टरपंथी लोगों ने ऐसा प्रयोग किया है जिस का असर सभी देशों पर पड़ेगा.
जो सोचते थे कि कट्टरपन, संकुचित विचारधारा, अपनेपराए को मानना केवल कुछ मुसलिम देशों में है, अब हर जगह पनपने लगेगा. अमेरिका अपनेआप में 2 खेमों में बंटने लगा है. वहां गैरहथियारी या हथियारबंद गृहयुद्ध की हालत भी हो जाए, यह संभव है.
इस की भभक अब फ्रांस में दिख रही है जहां कट्टरवादी मेरीन ली पेन को नैशनल फ्रंट की भीड़ मिलने लगी है. ब्रिटेन में यह ब्रैक्सिट से स्पष्ट हो चुका है. भारत के राज्यों के चुनावों में केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने मुसलमानों को चुनावी बलि का बकरा बनाने की कोशिश है ताकि कट्टरवादी भगवाइयों के वोटों के बल पर चुनाव जीता जा सके.
डोनाल्ड ट्रंप जो कुछ कर रहे हैं उसे बहुत से अमेरिकी चाहते हैं. कुछ, जिन्होंने ट्रंप को वोट दिया था, इस हद तक ट्रंप को समर्थन नहीं देते पर अब उन के पास लंबाचौड़ा नारा नहीं बचा है.
ट्रंप अपनी मनमानी पर उतारू हैं. उन्हें न देश की चिंता है, न अपनी पार्टी की ही. भारत से गए लगभग 3 लाख लोग, जो वहां बिना वैध पत्रों के काम कर रहे हैं, अब हो सकता है लौट आएं.
वे यहां आ कर उत्पात मचाएंगे, इस में शक नहीं, क्योंकि भारतीय वातावरण में काम करना उन का स्वभाव ही नहीं रह गया है. ऐसा ही दूसरे देशों के आव्रजकों के साथ होगा, जिन्हें फिलहाल अमेरिकी जेलों में ठूंसने की तैयारी हो रही है और फिर बाद में उन्हें अमेरिका से बाहर कर दिया जाएगा.
ट्रंप को यह चिंता नहीं है कि उस के बाद अमेरिका का क्या होगा. भारत में जैसे सोचा जाता है कि आरक्षण के कारण कम योग्य व्यक्ति शासन में आ गए हैं और वे देश का बेड़ा गर्क कर रहे हैं, वैसे ही अमेरिका में सोचा जा रहा है कि काले, पीले, भूरे कम पैसों में काम कर के गोरों की नौकरियां छीन रहे हैं.
यह गलत है क्योंकि अगर अमेरिका दूसरे देशों के लोगों को आने नहीं देगा तो दूसरे देश अमेरिकी सामान को खरीदना बंद कर देंगे. ऐसे में अमेरिका निर्यात न कर पाएगा तो वहां बेकारी बढ़ेगी.
दुनिया के बाकी देश अगर इस कैंसर से बचे रहे तो वे आपस में लेनदेन कर के अपने उत्पादन स्तर बनाए रख सकेंगे और अमेरिका से निकलों को नौकरियां भी दे सकेंगे. अमेरिका की समृद्धि ऐसे ही नहीं हुई है. इस में बाहरी लोगों का योगदान है जो कम वेतन पर ही ज्यादा काम कर रहे थे.
हां, अगर दुनिया के दूसरे संपन्न देशों में भी यह बीमारी हो गई तो न जाने क्या होगा. जैसे भारत में अछूतों और पिछड़ों को अलगथलग व गरीब रख कर देश की विशेष उन्नति नहीं हुई, वैसे इन संपन्न देशों का विनाश संभव है.