लेखिका- पूनम पांडे

मीनू ने लंबी सांस ली और खिड़की से बाहर झांका. पता लगा कि अब सुबह हो गई थी. ड्राइवर को कहीं चाय के लिए रुकने को कह कर वह हवा के ताजा झोंकों का मजा लेने लगी. मीनू सुबहसुबह 4 बजे पूना से चली थी. अब बस मुंबई आने को ही था. यह जगह गांव जैसी लग रही थी. खैर, मीनू को तो चाय की तलब लग रही थी. गाड़ी एक छोटे से बाजार आ गई. वहां लाइन से चाय के ठेले लगे थे. मीनू की आवाज पर ड्राइवर ने गाड़ी के पहियों को रोक दिया. एक औरत चाय का और्डर लेने आई. उस की सूरत देख कर मीनू तो जैसे आसमान से गिरी. उस ने चाय मंगवाई और ड्राइवर को दूर नजर आ रहे मंदिर मे रुपए चढ़ाने भेज दिया. वह फटाफट चला भी गया. दरअसल, उस को भी बीड़ी पीने की तलब लग रही थी.

मीनू को पक्का यकीन था कि यह औरत वही है और दो पल की बातचीत में यह साबित भी हो गया. वह उस की सगी भाभी प्रभा थी, जो पिछले 5 सालों से गुमशुदा थी. मीनू ने उन से खैरियत पूछी और प्रभा ने उस को खुल कर बता दिया कि यह सबकुछ कैसे हुआ. ससुराल में खेतों का मैनेजर ही उस का आशिक था और जायदाद के लालच में उसी ने ही प्रभा का यह हाल कर दिया था. मीनू को प्रभा ने बताया, ‘‘लड़कपन से ही मैं बहुत आजाद किस्म की थी. शायद 3 भाइयों में अकेली होने के चलते ऐसा था. शादी हुई तो ससुराल में सारी आबोहवा और माजरा बहुत जल्द समझ आ गया. बड़ेबड़े खेत थे. बागबगीचे थे. खूब दौलत थी और पति अकेले थे. तुम एक बहन थीं, मगर तुम भी मस्तमौला टाइप ही थीं. ‘‘तो यहां मेरी एक तरह से लौटरी खुल गई.

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मगर अपनी हवस में अंधी मैं यह नहीं समझ सकी कि यह क्या कर रही हूं. यह दौलत कोई मैं ने तो नहीं कमाई है. ‘‘इस की रखवाली तक तो ठीक है, पर सब की आंखों मे धूल झोंक कर इतनी रंगीनियां, सब को खुलेआम धोखा. ‘‘मैं यह सब कैसे कर सकती हूं? मगर, जवाब भी मैं अपने हिसाब से बना लिया करती. बचपन से कोई अंकुश रहा ही नहीं. सारे सहीगलत तो मैं ने अपने तरीके और अपनी सहूलियत से जो बना कर रखे थे. जैसी मेरी फितरत हो रही थी, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि आगे इतने बुरे दिन देखने थे, मगर यह जाजम तो मैं ने ही तो खुद अपने लिए बिछा रखी थी. ‘‘हां तो मीनू, तुम सब से कमजोर थीं. मैं तुम को फुसलाने लगी, उल्लू बनाने लगी. ‘‘देखो मीनू, मैं कभी नहीं कहती थी कि तुम से बात किए बिना मेरा काम नहीं चल पाता. मगर सिर्फ तुम्हारे ही लक्षण, सोचविचार, चालचलन थे ही ऐसे कि मेरा काम आसान हो गया. मैं तो आशिकमिजाज थी, लेकिन तुम्हारे ये अंदाज मेरे बाकी के अवगुण भी बहुत आसानी से छिपाते चले गए.

‘‘तुम्हारे पति को तो अपने हर मिनट को डौलर में बदलने का जुनून सवार था और तुम्हारे होने न होने से उस को कभी कोई फर्क नहीं पड़ा. वैसे भी वह अच्छी तरह समझ गया था कि तुम्हारे पर्स मे नोट भरे हों और वार्डरोब में फैशनेबल कपड़े हों तो तुम को यह भी याद नहीं रहता कि तुम्हारा कोई पति भी है. ‘‘वह इस बात का फायदा उठा कर तुम को आजादी देने के नाम पर नजरअंदाज करता रहा. ‘‘मीनू, वह खुद एक नंबर का ऐयाश भी है. 2-3 बार उस ने मुझ से भी लिपटने की कोशिश की, मगर उस के बदन का पसीना… मुझे उलटी सी आती थी. ‘‘पर, तुम तो बेफिक्र सी अपने रंग में रहीं. तुम आएदिन मायके आ कर पड़ी रहतीं और तुम्हारे मातापिता यानी मेरे सासससुर तुम्हारी संगत में मिठास से सराबोर रहते. वे बस खातेपीते, आराम करते और तुम से ही गपियाते रहते. उन को, तुम्हारे पति को और तुम्हारे भाई तक को अपने जुआताश वगैरह के नशेपत्ते में यह कभी पता तक नहीं रहता था कि मैं क्या कर रही हूं, खेत में जाने के बहाने वहां कौनकौन से गुल खिला रही हूं.

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‘‘मैं बस तुम को दिखावे के चलते लाड़प्यार करती और सासससुर ही नहीं, मेरे पति भी भावुक हो कर बहुत खुश हो जाते कि मैं कितनी व्यावहारिक हूं ननद के साथ. इतनी सरल, सहज हूं. ‘‘फिर उन को कभी बुरा नहीं लगता था कि मैं अपनी चला रही हूं, उन की मरजी कहीं है ही नहीं. खाना रोज बाहर से आ रहा है. कितनी चीजें बरबाद भी हो रही थीं. ‘‘और मैं… मैं तो अपनी रवानी में उस के साथ कभी यहां कभी वहां, बस आवारागर्दी करती फिरती, तुम सब यही सोचते कि मैं कितनी जिम्मेदार हूं, बागबगीचे, अनाज, मवेशी देख रही हूं. इस घर के लिए तनमनधन से जुटी हुई हूं. ‘‘तुम तो अपने भाई की तरह हद दर्जे की निकम्मी थीं, लेकिन मेरा काम तो आसान कर रही थीं. हौलेहौले मैं ने तुम्हें उपन्यास मे डूबे रहने और हर दूसरे दिन सिनेमाघर जा कर फिल्म देखने का ऐसा आदी बना दिया कि तुम उस लत से बाहर आ ही नहीं सकीं. आती भी कैसे, मैं जो तुम्हारी हर बुरी आदत को खादपानी दे रही थी. और मुझे मुश्किल हुई भी नहीं, तुम जब मन होता पसर कर सोती ही रहती थीं.

‘‘तुम भी अजीब थीं. जब जो मन होता वह करती, रात को बाहर बैठ कर नूडल्स खाती, सुबह से दोपहर तक खर्राटे भर पलंग तोड़ती. ‘‘मैं ने तो बस तुम को हवा दी. मैं तुम को हमेशा राजकुमारी कहती रहती थी, जबकि सच यह था कि तुम तो इनसान कहलाने लायक भी नहीं थीं. ‘‘तुम्हारे दिलोदिमाग में बस आरामतलबी के कीटाणु भरे पड़े थे. बस खाना और सोना, बाकी समय खयालीपुलावों में मगन रहना. अपने सुकून में मस्तमगन रहना. मैं तुम्हारे भाई और तुम को इतना आराम दे रही थी कि तुम इस के आदी बनते चले गए. मातापिता तो खैर 65-70 साल की उम्र को छू रहे थे, उन का सुस्ताना लाजिमी था. ‘‘मेरा हर नाजायज काम तुम्हारे आलस के परदे में तसल्ली से परवान चढ़ रहा था कि एक दिन वह धोखेबाज मुझे अपनी चाल मे फंसाने आया. मैं उस के जाल में ऐसी अटकी कि वह मुझे उल्लू बना कर चला गया. मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझ से 3 साल छोटा मेरा दीवाना खेल खेल जाएगा.

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‘‘और मैं बिलकुल अकेली पड़ गई. याद है न, उन दिनों तुम अपने मातापिता और भाई के साथ शिमला गई थीं. गरमी बहुत थी और तुम लोग 2-3 हफ्ते तक वहां से वापस नहीं लौटना चाहते थे. ‘‘मुझे कुछ पिलाया गया था और फिर हलकी सी बेहोशी में मुझे याद है कि मुझे कस कर बांध दिया गया था. ‘‘मैं हिल कर जितनी भी ताकत थी, जूझती रही. मैं बहुत चीखी, जितना दम बचा था उतना चीखी. ‘‘पर, वह सब को अपने साथ मिला चुका था. बंगले का रसोइया, माली और चौकीदार, सब ने हाथपैर बांध कर मुझे ट्रक में पटक दिया और यहां इतनी दूर गांव में फेंक दिया. ‘‘यहां पर पूरे 2 साल मजदूरों की तरह दिहाड़ी कर के मैं बच सकी. पत्थर तोड़ कर, झाड़ू लगा कर, नाली साफ कर के रोटी खाई. ‘‘न जाने कैसा चमत्कार हुआ कि मैं निराश नहीं हुई. अब यह चाय का ठेला है. इस से मेरा बहुत ही मजे में गुजारा हो जाता है. ‘‘तुम लोग बेहद याद आते थे, पर अब तक तो मेरी हर काली करतूत पता लग गई होगी, इस शर्म से मैं यहीं रही. कहीं नहीं गई. कितने दिन तो मुंह छिपाती रहती कि कोई मेरी पहचान न कर ले…’’ ‘‘मगर, वह एकदम से ही इतनी नफरत क्यों करने लगा? इतना नाराज हुआ कैसे?’’ बीच मेें मीनू ने पूछ लिया. ‘‘बस जलन हो गई थी उस को. उस ने मुझे रंगे हाथ पकड़ लिया था. ‘‘हां, वह सहन नहीं कर सका. तुम जानती हो न मेरी तलब. मुझ को मवेशी संभालने वाला एक नया लड़का बहुत ही भा गया था और मेरा काफी समय उस के साथ गुजरने लगा था.

वह मेरे बालों को सहलाता था, पैर दबाता था, बहुत सेवा करता था,’’ इतना कह कर प्रभा ने एकदम चुप्पी साध ली. उस के आगे और कुछ भी नहीं बता कर वह जरा ठहर कर आगे बोली, ‘‘कैसे हैं सब? जायदाद तो वह डकैत लूट ले गया होगा. मैं बहुत शर्मिंदा हूं,’’ प्रभा सिसकने लगी. ‘‘नहीं, ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. हम लोग लौटे और तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी. तुम अपनी मरजी से चली गई थी. फिर भी हम लोगों ने तुम्हारे अचानक गायब होने की रिपोर्ट लिखवाई थी.’’ ‘‘चिट्ठी भी लिख दी मेरे नाम से, मेरे ही लेख को कौपी कर लिया. उफ,’’ तड़प कर रह गई प्रभा. ‘‘हम ने तुम्हारे भाइयों को खबर की, पर वे आए ही नहीं.’’ ‘‘यह बहुत अजीब हुआ.’’ ‘‘हां, उस के तकरीबन एक महीने बाद वह मैनेजर भी अफीम के नशे में कुएं में छलांग लगा बैठा. उस की पत्नी और बच्चों को हम लोगों ने सहारा दिया. अब वे ही मेरी नई भाभी हैं. सब संभाल रही हैं. मेरा पूरा खयाल रखती हैं. ‘‘बच्चों को हम ने अपने परिवार में शामिल कर लिया है.

वे बहुत मेहनत करती हैं. रुपयापैसा हर रोज बढ़ता जा रहा है. ‘‘मैं तो कल शाम पूना आ गई थी. मेरे पति वहां पर एक आश्रम के संचालक हो गए हैं. लगता ही नहीं कि वे 40 साल के हो गए हैं. मुझ से भी छोटे लगते हैं,’’ मीनू ने हंस कर कहा. प्रभा बड़ी हैरत से सुन रही थी और बहुत मुश्किल से यकीन कर पा रही थी. ‘‘मुश्किल से 3-4 घंटे लगते हैं यहां पहुंचने में,’’ मीनू बोली. ‘‘अच्छा,’’ कह कर प्रभा चुप हो गई. अब वह कहीं भी नहीं जाना चाहती थी. मीनू ने उस को बताया, ‘‘मुझे दोपहर 12 बजे तक फिजियोथैरैपी के लिए अस्पताल पहुंचना है. मेरी कलाई में दिक्कत है. ‘‘मुझे तुम्हारे लिए बहुत अफसोस है. तुम अपना खयाल रखना,’’ कह कर मीनू अपनी कार की ओर लौट गई. प्रभा उस को जाते हुए देर तक देखती रही और फिर जूठे गिलास मांजने लगी.

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