आज पूरे विश्व में हिटलर और उस की दहशत के बारे में कौन नहीं जानता होगा. ऐसा क्रूर शासक, जिस के बारे में प्रचलित किस्से कहानियां आज भी रूह कंपा देती हैं, सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या लोकतंत्र के दमन का ऐसा भी कोई शासन चलाया जा सकता था? इस प्रश्न का जवाब यदि हिटलर युग में ढूंढा जाता तो शायद नहीं मिलता, पर आज इस का जवाब जोसेफ गुएबल्स के रूप में मिलता है.
जोसेफ गोएबल्स नाजी जर्मनी का मिनिस्टर औफ प्रोपेगेंडा था. गोएबल्स का कहना था कि ‘एक झूठ को अगर बारबार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है और लोग उसी पर यकीन करने लगते हैं.’
बात बिलकुल सही थी, इसलिए पूरे विश्व में हिटलर के राज और जोसफ के काज को मानने वाले संकीर्ण लोगों ने इसे तहेदिल से स्वीकार किया. अब जोसफ तो नहीं रहा, पर उस की कही बातें कईयों के मनमस्तिष्क पर घर कर गई है और आधुनिक तकनीकी युग में यहां पुरे तंत्रयंत्र से हर साख पर जोसफ सरीखे खड़े हो गए है जिन का काम सिर्फ सरकार का प्रचारतंत्र बनना हो गया है.
इस का मौजूदा उदाहरण किसान आन्दोलन है. बीते लंबे समय से दिल्ली के बौर्डर पर चलने वाले किसान आंदोलन आज किसी से भी अछूता नहीं है. इस में कोई शक नहीं कि आंदोलन से ध्यान भटकाने के लिए तमाम मैनस्ट्रीम मीडिया चैनलों पर किसानों के मुद्दे पर अब बहस नहीं हुआ करती, वह लगातार किसान के मुद्दों से बच रही है. अगर वह किसानों के मुद्दों को थोड़ा बहुत कवर भी करती है तो वह महज खानापूर्ति और दिखावा मात्र ही है जिसे भी वह किसानों पर ही दोष मढ़ने के लिए दिखाया जाता है. आंदोलनरत किसान इस बात से अनजान नहीं है. वह जानते हैं कि उन के मुद्दों को आम लोगों से छिपाने के लिए टीवी चैनलों पर बेफिजूल के मुद्दों पर बहस चलती रहती है.
हाल ही में 28 अगस्त को भाजपा हरियाणा ने प्रदेश में होने वाले आगामी पंचायत चुनावों को लेकर बैठक का आयोजन किया था जिस की अध्यक्षता खुद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर करने वाले थे. इसी को ध्यान में रखते हुए किसानों ने 28 अगस्त के दिन ही करनाल हरियाणा में महापंचायत की घोषणा की. किसानों ने इस दिन किए जाने वाले महापंचायत और प्रदर्शन का फैसला ले कर अपने आन्दोलन को और गति दी.
क्योंकि किसानों का यह प्रदर्शन सभी 3 कृषि कानूनों की वापसी और भाजपा की होने वाली इस बैठक के खिलाफ था तो हरियाणा सरकार ने भी किसानों के इस प्रदर्शन को रोकने के लिए पूरी एड़ी चोटी का जोर लगा दिया. सरकार ने किसान महापंचायत को रोकने के लिए करनाल में अतिरिक्त बलों की लगभग 40 कंपनियां, पांच अधीक्षक स्तर के अधिकारी और 25 उपाधीक्षक स्तर के अधिकारियों के साथ हजारों पुलिस कर्मियों को तैनात कर दिया.
किसानों के इस महापंचायत को होने से रोकने के लिए करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हा ने पुलिस बलों को किसानों पर लाठीचार्ज की खुल्ली छुट दे दी. जिस के बाद लाठीचार्ज के दौरान कई किसान घायल हुए, कईयों के सर फूटे यहां तक की सुशील काजल नाम के एक किसान की मृत्यु भी हुई. इस महापंचायत के अगले ही दिन एसडीएम आयुष का विडियो वायरल हुआ जो कि बेहद हैरान करने वाला था.
वायरल विडियो में बैरिकेड की एक ओर करीब 7-8 पुलिसकर्मियों के सामने आयुष सिन्हा सफेद कमीज पहन कर अपने हाथ हवा में लहराते और इशारा करते हुए साफ शब्दों में यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि, “कोई भी हो, यहां से (बैरिकेड से) कोई भी (किसान) नहीं जाएगा वहां. इसी तरह मैं स्पष्ट कर देता हूं, सर फोड़ देना.” उस के बाद एक के बाद एक विडियो वायरल होते गए जिस में पुलिसकर्मी किसानों को बेरहमी से पीटते हुए, दौड़ा कर मारते हुए नजर आए.
लेकिन भारत के न्यूज चैनलों का मुद्दा यह नहीं था कि एक पब्लिक औफिसर प्रदर्शनकारी किसानों के लिए लोकतांत्रिक दायरे में रहते हुए ऐसी शब्दावली भला कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? उन का सवाल यह नहीं था कि सरकार क़ानून का पालन करने में असफल कैसे रही? बल्कि उल्टा वे किसानों को ही कटघरे में खड़ी करती रही.
इस घटना के कुछ दिनों बाद किसानों ने अपने आन्दोलन का रुख उत्तर प्रदेश के मुज्जफरनगर की ओर मोड़ा. 5 सितम्बर रविवार के दिन मुजफ्फरनगर में राजकीय इंटर कौलेज (जीआईसी) के मैदान पर किसानों ने महापंचायत का आयोजन किया. किसानों का यह महापंचायत इतना विशाल था की जहां तक नजर जाए वहां किसानों की भीड़ ही दिखाई दे रही थी. इतनी बड़ी संख्या में लोगों के इकट्ठे होने और प्रदर्शन करने की सुर्ख़ियों ने गोदी मीडिया के न्यूज चैनलों को भी आकर्षित किया. लेकिन अफसोस हर कोई उसे कवर करने के काबिल नहीं था.
मुज्जफरनगर के महापंचायत में किसानों ने आज तक चैनल की महिला एंकर चित्रा त्रिपाठी को अपना आन्दोलन कवर नहीं करने दिया. लेकिन वहीं उन्ही किसानों ने अजित अंजुम जैसे पत्रकारों का पसीना भी पोछा. ये दोहरा ट्रीटमेंट देने की मुख्य वजह यही थी कि एक तरफ तो जिन चैनलों को किसानों के मुद्दों को अपने चैनल में स्पेस देना चाहिए था वो अपने चैनलों पर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तालिबान इत्यादि जैसे मुद्दों को लेकर डिबेट में उलझे रहते हैं. वे ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिन से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं है.
किसान आन्दोलन की आज की स्थिति यह है कि करनाल में जिस एसडीएम (आयुष सिन्हा) ने किसानों के “सर फोड़ देने” की बात कही थी उसे बर्खास्त करने की मांग उठाई जा रही है. लेकिन शासन प्रशासन ने करनाल के इलाके में इन्टरनेट सेवाओं को बंद कर के रखा है, रेल सेवाओं को बंद कर दिया गया है, पूरे इलाके में धारा 144 लगाई गई है, सिर्फ इसीलिए की किसान अपनी मांगों को उठाते हुए नजर न आ जाए.
यह सीधे रूप में देखा जा सकता है कि मीडिया किसानों की बात जनता के सामने लाने में खास दिलचस्पी नहीं दिखा रही है. ज्यादातर न्यूज चैनल हमेशा की तरह सरकार की पीठ थपथपाने और उस की चाटुकारिता में लगे हैं. इसी बात की पड़ताल के लिए हमारी टीम ने प्राइम टाइम में कुछ हिंदी चैनल्स पर अपनी नजर बना कर रखी.
इंडिया टीवी
रात 8 बजे हकीकत क्या है के तहत कुछ विषयों को लिया गया जिस में सब से पहले 13 वें ब्रिक्स समिट की बात की गई. ब्रिक्स समिट की अध्यक्षता मोदी द्वारा की जा रही है और इस बहाने 15 – 20 मिनट तक मोदी का भरपूर गुणगान किया गया.
इस के बाद बाराबंकी यूपी में असदुद्दीन ओवैसी की रैली को ले कर रिपोर्ट दिखाई गई. इस में बताया गया कि कैसे ओवैसी का मुख्य एजेंडा, यूपी में मुसलमानों का नेता क्यों नहीं है्, सीएम की दावेदारी और सीएए पर सवाल उठाना है. इस रिपोर्ट को भी जरूरत से ज्यादा कवरेज दी गई.
इस के बाद कैमरा घूमने लगा दादर के भीड़ भरे बाजारों में. गणेश चतुर्थी के नाम पर लोगों के धार्मिक उन्माद और इस के पीछे बीजेपी विधायक नीतीश राणा और महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे की चूहे बिल्ली सी लड़ाई से जुड़ी एक रिपोर्ट भी दिखाई गई.
इस के बाद सुपर फास्ट 100 न्यूज़ दिखाए गए. इस में हर तरह के समाचार लिए गए थे मगर एंकर की आवाज राजधानी एक्सप्रेस से भी तेज थी. जिस की वजह से ज्यादातर समाचार जब तक समझने की कोशिश की जाती तब तक अगला समाचार आ जाता.
प्राइम टाइम यानी रात 9 बजे आज की बात रजत शर्मा के साथ की शुरुआत हुई. उन के बोलने का अंदाज ऐसा होता है जैसे कितनी बड़ी बात बता रहे हों मगर बात उतनी बड़ी होती नहीं है. बाड़मेर हाईवे पर यानी पाकिस्तान से 40 किलोमीटर दूर कैसे जैगुआर और हरक्यूलिस विमान उतारे गए इस विषय को बहुत लंबा खींचा गया और नितिन गडकरी का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू भी लिया गया जब कि ऐसे मुद्दों में जनता की खास दिलचस्पी नहीं होती.
इस के बाद एक रिपोर्ट पाकिस्तान के बाजार में अमेरिकी हथियार की खुलेआम बिक्री पर हुई और फिर तालिबानी फरमान से संबंधित वह रिपोर्ट दिखाई गई जिस में महिलाओं के खेलने कूदने पर प्रतिबंध लगाए गए हैं.
अंत में प्रियंका गांधी के यूपी जाने की बात और राहुल गांधी का वैष्णो देवी के दरबार में जाने के समाचार को विस्तार से बताया गया. ऐसे समाचारों का आम जनता से कोई सरोकार नहीं होता. इस के बजाए बढ़ती महंगाई, महिलाओं से जुड़ी हिंसाओं या देश की लचर अर्थ व्यवस्था से जुड़े हालातों पर चर्चा होती तो जनता ज्यादा दिलचस्पी लेती. दरअसल चैनल जनता को बहकाने के लिए फ़ालतू समाचारों में समय बर्बाद करते हैं और काम के मुद्दों पर बात करने की जहमत ही नहीं उठाते.
कुल मिला कर कहा जाए तो देश की जमीनी समस्याओं, देश के हलकान वर्ग और किसानों की मुश्किलों और आम जनता के कल्याण से जुड़े मुद्दों के बजाए कुर्सी पर बैठे नेताओं की तारीफों के पल बांधते ये न्यूज़ चैनल क्या सचमुच अपने मूल मकसद से भटक नहीं गए हैं?
एनडीटीवी
वामपंथी और सरकार विरोधी कहे जाने बाले चेनल एनडीटीवी के तेवर बरकरार हैं . जब रात 8 बजे इस चेनल ने ब्रिक्स पर बहस दिखाना शुरू की तो ऐसा लगा कि दूसरे और इस चेनल में बहुत ज्यादा फर्क नहीं क्योंकि सभी इस विषय पर दिखा रहे थे लेकिन फर्क यह था कि यहाँ मोदी की तारीफ नहीं बल्कि 5 देशों की अलग अलग भूमिकाओं पर फोकस किया जा रहा था और खामोखावाह अपनी पीठ नहीं थपथपाई जा रही थी
9 बजे एंकर रवीश कुमार के साथ दर्शकों को टेक्सटाइल इंडस्ट्री की बदहाली और इस सेक्टर में बढ़ती बेरोजगारी के कारण जानने मिले जो आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित होने से वजनदार थे इसमें स्मृति इरानी को घेरने काफी होम वर्क किया साफ़ साफ़ लगा ;लेकिन शायद यह पहला चेनल था जिसने प्राइम टाइम में किसानों को जगह देने अपनी जिम्मेदारी समझा . करनाल में किसान कैसे क्या कर रहे हैं यह विस्तार से दिखाया गया . हरियाणा सरकार द्वारा गन्ने के समर्थन मूल्य बढ़ाए जाने पर किसानों की राय भी दिखाई गई जिसका सार यह था कि इससे किसानों को कोई फायदा नहीं होने बाला .
घायल किसान महेंद्र पुनिया को किसान कैसे चंदा कर मदद दे रहे हैं यह भी उल्लेखनीय बात थी साथ ही यह भी कि कैसे प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना फिसड्डी और केवल बीमा कम्पनियों को मुनाफा देने बाली साबित हो रही है . इस बाबत भी आंकड़े और उदाहरण एंकर सहित किसानों ने दिए .
एनडीटीवी से भक्त कुढ़ते क्यों हैं यह बात इसके प्राइम टाइम से भी स्पष्ट होती है कि इसमें मोदी चालीसा नहीं पढ़ा जाता सरकार की उन उपलब्धियों जो दरसल में होती ही नहीं दिखाया नहीं जाता . हाँ सवा साल से आन्दोलनकारी अन्नदाता किसानों पर जरुर कवरेज दी जा रही है आम लोगों से ताल्लुक रखते मुद्दों मंहगाई बेरोजगारी बगैरह पर जरुर लगातार बात की जा रही है . सरकार से सवाल करना भी दर्शकों को सुकून देने बाली बात होती है.
न्यूज नेशन
पिछले कई महीनों से देश के उत्तरी भारत में 3 कृषि कानून को रद्द कराने के मद्देनजर किसान आंदोलनरत हैं. उन की मीडिया से भी शिकायत है कि मीडिया इस ज्वलंत मुद्दे पर उन की समस्याओं को जनता के सामने मजबूती से पेश नहीं करता है. जब लोग रात को टैलीविजन पर खबरें सुनते हैं तो उन्हें किसान कहीं नहीं दिखाई देते हैं. 9 सितंबर को इस की पड़ताल की गई.
खबरिया चैनल टीवी 9 पर रात के 8 बजे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के मुद्दे पर खास कार्यक्रम दिखाया गया. यह आधा घंटे का प्रोग्राम था. इस प्रोग्राम में ज्यादातर उन वीडियो के बारे में बातचीत की गई थी, जो जनता बहुत बार देख चुकी है. चीन पाकिस्तान, और भारत के नजरिए से रिपोर्ट पेश की गई थी, जिस में सटीक जानकारी के बजाय सनसनी ज्यादा थी. रिपोर्टर का ऊंची और तेज आवाज में बदहवास हो कर बोलना खल रहा था.
इसी तरह एक और न्यूज चैनल न्यूज नेशन पर रात के 8 बजे स्टेरौयड का इस्तेमाल पर खास रिपोर्ट दिखाई गई थी. टैलीविजन कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की मौत के बाद से यह सवाल उठाया जा रहा था कि 40 साल का एक हैंडसम और सेहतमंद इंसान कैसे दिल के दौरे से मर सकता है.
एक छोटी सी खबर को इतना बढ़ाचढ़ा कर बताना उसे बोर बना रहा था. इस से दिल के रोग की गंभीरता का दम सा घुट रहा था.
टीवी 9 पर रात के 8.30 बजे सुपर प्राइम टाइम कार्यक्रम था, जिस में आधे घंटे में कैसे फरार हुए 6 फिलिस्तीनी कैदी पर फोकस था. इस के बाद तालिबान पर 100 फटाफट खबरें दिखाई गईं, जिन का देश की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं था. ये खबरें जबरदस्ती की बनाई लग रही थीं मतलब खबर में से खबर निकाली मालूम हो रही थीं. पेश करने वाले एंकर चूंकि दूसरे बड़े चैनलों जैसे मशहूर तो नहीं थे, पर उन के चिल्लाने और जनता को बरगलाने का अंदाज वही था.
न्यूज नेशन पर तो हद हो गई थी. वहां 8.30 बजे ‘देश की बहस’ कार्यक्रम में कुछ लोगों के पैनल की बहस दिखाई गई. इस बहस में भारतपाकिस्तान के कुछ बुद्धिजीवियों की आपसी तूतूमैंमैं ही थी. उन लोगों में से बहुत से पैनलिस्ट को शायद ही कोई जानता होगा. कुछ दर्शक भी पकड़ रखे थे, जो उन लोगों से सवाल कर रहे थे. ज्यादातर लोगों को पहले ही सवाल पकड़ा दिए गए थे. इस बहस का कोई मतलब नहीं था. क्योंकि यह बहस कम आपसी झगड़ेबाजी ज्यादा थी. अपनी बात को तर्कसंगत तरीके से किसी ने पेश नहीं किया और लफ्फाजी करते नजर आए. यह कुल एक घंटे की बहस थी, जो समय की बरबादी से ज्यादा कुछ नहीं था.
उधर टीवी 9 चैनल पर रात के 9 बजे फिक्र आप की कार्यक्रम में पाकिस्तान की शामत आई, भारत की सामरिक ताकत में इजाफा, सड़क पर फाइटर जहाज की लैंडिंग में उस खबर को अहमियत दी गई, जिस में हाईवे पर फाइटर जहाज की लैंडिंग को दिखाया गया. कई बार तो मौडल जहाजों को ग्राफिक्स के जरीए ही हाईवे पर लैंड करते दिखाया गया. ऐसा माहौल पेश किया गया जैसे अब तो पाकिस्तान कभी भारत की तरफ आंख उठा कर नहीं देखेगा.
इस के साथ ही भारत में बुखार हुआ वायरल में कोरोना से अलग दूसरे बुखार का जिक्र किया था जो लोगों की जान ले रहा है. साथ ही, हरियाणा के वन विभाग का घपला, खोरी गांव, फरीदाबाद की रिपोर्ट में खोरी गांव से खदेड़े गए लोगों की आपबीती और प्रशासन के घालमेल का ब्योरा था. ये दोनों खबरें आम लोगों की समस्याओं से जुड़ी कही जा सकती हैं.
कुलमिला कर रात के 8 बजे से 10 बजे तक खबरों के नाम पर देश की जनता को ठगा गया था. किसान और उन से जुड़े मुद्दे तो सिरे से गायब थे. जो भी खबरें दिखाई गईं, वे भी लोगों को उकसाने वालीं, उन का ब्लड प्रैशर बढ़ाने वाली थीं. खबरें नहीं कोरा शोर था. सरकार की वाहवाही थी, तभी भन्नाए लोग ऐसे मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहते हैं.
जी हिन्दुस्तान
जी हिंदुस्तान चैनल पर पूरे दो घंटे 3 स्लौट हुए. एक शब्द किसान को लेकर नहीं थे. पूरे 2 घंटे अफगानिस्तान-पाकिस्तान-चीन को लेकर बात चली. तीनों शो में सिमिलर बातें अलग अलग अंदाज में कहीं गईं.
* पहला शो ‘वंदे मातरम’ चला जिस में चीन तालिबान और पाकिस्तान के संबंधों का जिक्र अधिक था. ज्यादा हिस्सा चीन पर था कि वह कैसे अफगानिस्तान को अपने जाल में फंसाएगा और तालिबान चीन के आगे भीख मांगेगा.
* रात 8.40 पर दूसरा शो ‘मेरा राज्य मेरा देश’ चला. इस में ना तो मेरे राज्य पर बात हुई ना मेरे देश पर. इसका भी अधिकतर हिस्सा चीन तालिबान और पाकिस्तान को लेकर थी. हां, बीच में एक हिस्सा ओवेसी को लेकर था,
* 9 बजे प्राइम टाइम में ‘राष्ट्रवाद’ नाम का शो आया. इस में अधिक चर्चा मोदी के मास्टरस्ट्रोक को लेकर थी. रूस अमेरिका और भारत की एनएसए लेवल मीटिंग और बाड़मेर में रणवे को लेकर बात. इसी हिस्से में पाकिस्तान में इमरान के महिलाओं पर कमेंट और औवेसी की रैली पर चर्चा हुई. इस के बाद 10 बजे ओवेसी की रैली को लेकर लम्बी चर्चा हुई.
कुल मिलाकर किसानों का न्यूज़ को लेकर कहना ठीक है. 3 घण्टे में किसान शब्द तक इस चैनल में सुनने को नहीं मिला.
आजतक के प्राइम टाइम पर टिप्पणी
आजतक खुद को देश के सब से सर्वश्रेष्ठ और तेज न्यूज़ चैनल होने का दावा करता है, लेकिन अगर देश के सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल का स्टैण्डर्ड ये है, जो वह दिखा रहा है तो लोकतंत्र और फ्रीडम औफ स्पीच के लिए इस से ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता.
बतौर उदाहरण अगर 9 सितंबर के प्राइम टाइम (रात 8-10 बजे) की बात करे तो आजतक के सर्वश्रेष्ठ होने की कलई खुल जाती है. क्योंकि इन दो घंटों में चैनल की सो कौल्ड पोपुलर (पोपुलर नहीं ग्लैमरस कहें तो बेहतर होगा) एंकर अंजना ओम कश्यप और श्वेता सिंह ने देश के हर गंभीर मुद्दे को प्राइम टाइम से ऐसे बाहर निकाल फेंका है, जैसे कोई दूध से मक्खी को बाहर निकाल फेंकता है.
पूरे प्राइम टाइम में न तो देश की गिरती जीडीपी की चर्चा हुई, न किसानों की दुर्दशा को लेकर कोई डिस्कशन हुआ, युवाओं में बढ़ती बेरोज़गारी के आंकड़े भी नदारत दिखे. इस प्राइम टाइम में इन 5-6 खबरों को ही कवर किया गया. आइए बारीबारी से पड़ताल करते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी का इंटरनेशनल प्रोपोगेंडा- इस पूरे सेगमेंट में मोदी की नीतियों को बढ़ाचढ़ा कर दिखाया गया. ऐसे प्रचार किया जा रहा है मानो मोदी ने इंडिया को अमेरिका बना दिया हो. जबकि सच्चाई क्या है ये हम सब जानते ही हैं. चैनल और एंकर सेगमेंट के दौरान मोदी की अंधभक्ति में पूरी तरह से डूबे नजर आते हैं. सरकार और उन की नीतियों की आवश्यक आलोचना करने के बजाय मोदी की प्रशंसा गीत गाती एंकर अंजना ओम कश्यप को देखकर ऐसा लगता है कि हम आजतक नहीं बल्कि कोई आस्था का चैनल देख रहे हो. न कोई संतुलित आंकड़े और न ही कोई स्पष्ट लौजिक. बस जैसे हमें तो मोदीमोदी ही करना है.
गणपति के नाम पर धर्म का वही पुराना तमाशा- गणपति विसर्जन के नाम पर पूरे देश में युवाओं के हुड़दंग को ऐसे बताया जाता है, जैसे इन के ढोल नगाड़ों से देश का जीडीपी बढ़ जाएगी और कोरोना भी भाग जाएगा. ऐसे ही त्योहारों में सामाजिक दूरी का घोर उल्लंघन होता है. सब धर्म का खेल है.
आंतकवाद और तालिबान के नाम पर मिसलीडिंग रिपोर्ट- रिपोर्ट में आतंकवाद के नाम पर वही तालिबान का घिसापिटा राग अलापते रहे और लोगों को एकतरफा तस्वीर दिखा कर गुमराह किया जाता है.
फिल्मी नोटंकी- फिल्म के नाम पर आमिर खान के भाई का वही पुराना रोनाधोना दिखाया, जो सालों से चल रहा है और एंकर को शायद याद नहीं है कि भारत का किसान भी रो रहा है.
क्रिकेट का फर्जी गुणगान- पब्लिक को एंटरटेनमेंट के नाम पर सट्टे का अड्डा बन चुके क्रिकेट की डोज दी जाती है. जिस में लोगों को अपना कीमती समय बर्बाद करने की जमकर सिफारिश की जाती है.
गैर जरूरी पब्लिसिटी- आजकल लोग कितना ज्यादा औनलाइन ठगी का शिकार हो रहे हैं. ऐसे में आजतक ई-कौमर्स की गैर जरूरी पब्लिसिटी को बढ़ावा देकर लोगों को लूटने पर जोर दे रहा है. अरे किसानों की खबरों को भी कवर कर लो.
हर न्यूज चैनल व उस के एंकर का सामाजिक उतरदादित्व होता है कि वो देश के सामने सभी गंभीर मुद्दों को न सिर्फ पेश करे बल्कि सरकार को आड़े हाथों लेकर इन मसलों को हल करवाने का भी दबाव डाले. क्योंकि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन आजतक को देखकर लगता है कि इस चैनल में काम करने वाले सभी एंकर, रिपोर्टर्स, रिसर्च टीम, आंकड़े व सर्वे जुटाने वाले लोग सिर्फ सरकार की अंधभक्ति का राग अलाप रहे हैं.
सवाल यह है कि अगर देश का सर्वश्रेष्ट न्यूज चैनल, सो कौल्ड लीडिंग एंकर, अगर देश के असल मुद्दो को उठाने की हिम्मत नहीं रखते हैं तो इनको न्यूज चैनल चलाने के बजाह चाय पकौड़ी की दुकान खोल लेनी चाहिए. जहां बेमतलब की फिजूल गपशप चलती है और लोगों को सिर्फ चाय की चुस्कियों से मतलब होता है और देश जाए भाड़ में.
वेलडन आजतक!
रिपब्लिक भारत
वैसे तो रिपब्लिक चैनल के बारे में सभी को पता ही है कि ये जनता के मुद्दे उठाने वाला चैनल नहीं बल्कि छुपाने वाला चैनल है. ये एक विशेष प्रोपगंडा के तहत ही काम करता है. किन्तु जिज्ञासा इस बात पर थी कि किसानों के इतने बड़े मुद्दे को छुपाने के लिए इस चैनल ने आज किन खबरों को दिखाया, इस की पड़ताल शुरू होती है रात 8 बजे की सुपरफास्ट 200 खबरों से, जिस में शुरुआती 1 से लेकर 40 खबरें सिर्फ तालिबान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से ही जुड़ी हुई थी. उस के बाद बंगाल में होने वाली राजनीतिक उथल पुथल, उत्तर प्रदेश में चुनाव को लेकर भाजपा की तैयारियां वगैरह वगैरह.
बीच में कहीं किसानों की खबरों को स्पेस मिला. वो भी मात्र 5 बुलेट्स में जिसे पढ़ने में दोनों महिला एंकरों ने मुश्किल से 35 सेकेंड्स का समय लगाया. किसानों से जुड़ी इन खबरों की सुर्खियों पर नजर घुमाएंगे तो ये मान बैठेंगे की कुछ भी हो दोष किसानों का ही है. आवाज में एक अजीब तरह का तीखापन जो कानों की चीर दे.
अंत में कुछ अन्य सुर्खियों के साथ, जिस में कुछ पौजिटिव खबरें थी तो कुछ कुत्ते बिल्ली शेर गीदड़ इत्यादि से जुड़ी खबरों के साथ प्रोग्राम का अंत हुआ.
रात 9 बजे ऐश्वर्य कपूर के साथ ‘पूछता है भारत’ प्राइम टाइम. टोपिक था तालिबानी क्रूरता की ‘क्राइम कुंडली’. टोपिक पर पेनलिस्टों की डिबेट शुरू करने से पहले एंकर का 10 मिनट शुरुआती चिखम चिल्ली. 20 सालों पहले हुए अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले को याद किया गया. उस के बाद डिबेट शुरू हुई. चैनल के सबसे नीचे चलने वाली सुर्खियों पर भी नजर बनाई हुई थी. लेकिन पूरे शो के दौरान किसानों को ले कर मात्र एक या दो खबरों के अलावा नहीं दिखाई दी.
रिपब्लिक चैनल पर खबरे हो चाहे न हों, लेकिन मसाले में किसी तरह की कोई कमी नहीं मिलेगी. रिपब्लिक भारत चैनल पर नजर बना कर रखना किसी टोर्चर से कम नहीं था.
किसान नहीं जाति और धर्म पर डिबेट
आजतक की महिला पत्रकार चित्रा त्रिपाठी जब किसान आंदोलन को कवर करने गई तो उन को किसानों ने घेर लिया और वापस जाने के नारे लगाए. चित्रा को किसी तरह से बच कर भागना पड़ा. इस के बाद भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में किसानों के मुद्दे को पूरी तरह से गायब करने की साजिश चल रही है. किसानों के मुद्दों की जगह चुनाव, धर्म और जातिवाद के मुद्दों को जगह दी जा रही. एक दिन के समाचार चैनलों में किसानों को किंतनी जगह मिली देखिये.
9 सितंबर को भारत समाचार में ‘द डिबेट’ शो में ‘मिशन उत्तर प्रदेश’ के नाम से पहली डिबेट हुई. इस के एंकर ब्रजेश मिश्रा थे. यह इन का फेसम शो है. ब्रजेश मिश्रा का नाम अभी चर्चा में आया था जब उन के यहां आयकर की टीम ने छापेमारी की थी. उस समय ब्रजेश मिश्रा ने कहा था कि वो सरकार के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे. अब उन की डिबेट में किसान की जगह यूपी चुनाव और जाति धर्म को प्रमुखता मिलने लगी है.
9 सितंबर की चर्चा का विषय था कि ‘यूपी चुनाव 2022 में भाजपा को कौन टक्कर दे पायेगा”. इस में प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव की तैयारियों पर बात हुई. इस डिबेट में सपा के मनोज पांडेय, आप से संजय सिंह, कांग्रेस के दीपक सिंह और भाजपा के स्वत्रंत देव सिंह के भाषण सुनवाए गए. जो पार्टियों की चुनावी तैयारियो से संबंधित थी.
मुद्दे नहीं जातिवाद हावी- ‘द डिबेट’ का दूसरा हिस्सा ‘ब्राह्मण राजनीति’ को लेकर था. इस डिबेट में हिस्सा लेने वालों में नावेद सिद्दीकी, हरिशंकर पांडेय, शिवम त्यागी, मनीष हिंदवी, असीम वकार, फैजान खान और संजय सिंह प्रमुख थे. ‘डिबेट’ का प्रस्तुतिकरण ऐसा था जैसे जातिवाद का विरोध हो पर चर्चा पूरी तरह से जातिवाद को बढ़ावा देती दिख रही थी. यह बताने की कोशिश हो रही थी कि भाजपा का मुकाबला किसी भी तरह से नहीं सकता है.
छोटे नेताओं को दबाने की कोशिश- ‘द डिबेट’ का तीसरा हिस्सा उत्तर प्रदेश में नेता संजय निषाद के स्टिंग औपरेशन को लेकर थी. स्ट्रिग औपरेशन सवालों के घेरे में है पर डिबेट के जरिये यह साबित करने का काम किया जा रहा था कि संजय निषाद विरोधी दलों से बातचीत करके गलत काम कर रहे है. डिबेट और न्यूज के जरिये भाजपा के मुद्दों को बढ़ाचढ़ा कर दिखाया जाता है.
चर्चा से बाहर किसान- इस तरह किसानों को इस डिबेट में कंही जगह नहीं मिली. जबकि किसानों की समस्या सब से अधिक थी. केंद्र सरकार ने एमएसपी भी बढ़ाई और पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन तेजी पकड़ रहा. उत्तर प्रदेश के किसानों ने हरियाणा के करनाल तक के किसानों का समर्थन भी दिया उन की ताकत बने पर यह चर्चा में शामिल नहीं हो पाए.
एंकर ही बन जाता है भाजपा प्रवक्ता- न्यूज 18 चैनल में ‘चुनावी चक्रव्यूह’ मुख्य विषय था. ‘मोदी योगी की काट किस के पास’ शीर्षक से यह चर्चा हुई. एंकर अजय वत्स ने कांग्रेस के उमा शंकर पांडेय और भाजपा के प्रशांत वशिष्ठ के साथ यह चर्चा की. यहां भी किसान चर्चा से बाहर थे. माफिया मुख्तार अंसारी तक को बहस में जगह मिलती रही पर किसान चर्चा से बाहर ही रहा.
मजेदार बात यह कि एंकर ही भाजपा का प्रवक्ता बन जाता है. वो विपक्ष के नेताओं को अपनी बात रखने का मौका नहीं देते. कई बार ऐसा लगता है जैसे कि वह अपने तर्कों और तथ्यों से भाजपा का बचाव कर रहा हो.
किसान आंदोलन से मीडिया को कोई सरोकार नहीं
किसान आंदोलन को कवर करने से गोदी मीडिया लगातार बच रहा है. उस के कुछ रिपोर्टर्स अगर कुछ कवर कर भी रहे हैं तो उन के सुर किसानों को ही कटघरे में खड़ा करने वाले हैं. एबीपी न्यूज, आज तक, जी न्यूज, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज जैसे तमाम बड़े चैनलों पर किसान आंदोलन कवर करने के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति भर है. आधे घंटे की खास खबर में किसानों, उन की मांगो और उन के उत्पीड़न पर एक मिनट से भी कम समय की खबरें दिखाई जा रही है.
मीडिया का किसानों के प्रति जो बर्ताव है, उस से किसान भड़के हुए हैं. मुजफ्फरनगर पंचायत में आज तक चैनल की तेज तर्रार कही जाने वाली रिपोर्टर चित्रा त्रिपाठी को घेर कर किसानों ने ऐसी हूटिंग की कि उन को अपने कैमरामैन के साथ वहां से निकल भागना पड़ा. किसानों की आवाज दबाने की कोशिश और सत्ताधीशों की पसंद की रिपोर्टिंग करके पत्रकारिता पर धब्बा बन चुके इन रिपोर्टर्स को समय रहते संभालने की जरुरत है.
ये पहली बार नहीं है जब भारत में सरकार के फैसलों के विरोध में खड़े हुए किसान आंदोलन के दौरान मीडिया के प्रति नाराजगी जाहिर की जा रही है. एनआरसी और सीएए के विरोध में जानलेवा ठण्ड के मौसम में खुले आसमान के नीचे शाहीन बाग में धरने पर बैठी बुजुर्ग महिलाओं को भी गोदी मीडिया ने अपनी रिपोर्ट्स में कोई ज़्यादा स्थान नहीं दिया था. उलटे उन की वजह से हो रही यतायात की दिक्कतों को खूब बढ़ा चढ़ा कर दिखाया था.
दिल्ली को हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाले राजमार्गों पर किसानों का जो आंदोलन चल रहा है उस में मीडिया के प्रति दिख रहा गुस्सा असाधारण है. मुख्यधारा की मीडिया के कई चैनलों के पत्रकारों को लोग खुलकर हूट कर रहे हैं. बकायदा पोस्टरों और बैनरों के जरिये उन का विरोध किया जा रहा है. मीडिया, जो अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है, वह आज अपनी विश्वसनीयता खोता दिखाई दे रहा है.
मुख्यधारा की मीडिया के प्रति कम हुए विश्वास ने पत्रकारिता में जो बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है. उसे छोटेछोटे चैनलों और सोशल मीडिया चैनलों के पत्रकार भर रहे हैं. आंदोलन स्थलों पर ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं जो स्वतंत्र रूप से अपने यूट्यूब चैनल चला रहे हैं और किसान आंदोलन से जुड़ी खबरें पोस्ट कर रहे हैं. वहीं कुछ क्षेत्रीय चैनल (पंजाब और हरियाणा) भी किसान आंदोलन को भरपूर कवरेज दे रहे हैं.
पंजाब यूथ क्लब आर्गेनाइजेशन से जुड़े जोगिंदर जोगी कहते हैं, ‘सोशल मीडिया और लोकल चैनलों ने ही किसान आंदोलन को जिंदा रखा है वरना ये अब तक मर गया होता. नेशनल मीडिया ने इसे कोई तवज्जो नहीं दी है. मीडिया की जिम्मेदारी समाज के साथ हो रहे अन्याय को सामने लाना है, लेकिन मीडिया बिक चुका है. वह किसानों की बात रखने के बजाए सरकार का पक्ष ही दिखा रहा है.’
बड़े मीडिया समूह किसान आंदोलन में ऐसे एंगल तलाश रहे हैं जो सरकार के एजेंडे को ही आगे बढ़ाए. किसानों का यही आंदोलन अगर 2014 के पहले हो रहा होता तो दर्जनों चैनलों के पचासों रिपोर्टर वहां खड़े होकर देश को ये बता रहे होते कि किसानों की मांगे कितनी जायज हैं. सत्ता में मोदी हैं, तो सत्ता के तलवे चाटने वाले मीडिया ग्रुप आंदोलन को उसी रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं जो सत्ता को सूट करता है. इसलिए किसानों को विदेशी फ़ंडिंग और खलिस्तान के एंगल तक से जोड़ने में उन्हें गुरेज नहीं है.
मीडिया की भूमिका आंदोलन में शामिल किसानों की मांगों को समझकर उसे सरकार और देश तक पहुंचाने की है. लेकिन आंदोलन में शामिल किसानों को लगने लगा है कि मीडिया ये काम करने के बजाए किसी भी तरह से आंदोलन की कोई कमी खोज लेना चाहता है और फिर राई का पहाड़ बना कर किसानों को बदनाम करने की उसकी साजिशें उछाल मारती हैं.
जहां लाखों किसान शान्ति से बैठे हैं. जिस में युवा, बुज़ुर्ग, महिलाएं सभी हैं मगर गोदी मीडिया के कैमरे इन लोगों की बात सुनने के बजाए उन दोचार लोगों को खोजते रहते हैं जो किसी तरह की हुल्लड़बाजी कर रहे हैं. ‘जो बोले सो निहाल’ का नारा लगाने वाले सिख किसानों को यह चैनल पर खालिस्तानी बताकर दिखा रहे हैं.
इसीलिए आज के समय यह जरुरी है कि टीवी चैनलों में परोसे जा रहे आधे अधूरे तथ्यों वाली खबरों से, दिखाए जाने वाले फेक न्यूज से, मसालेदार खबरों से खुद को बचाया जाए. ये टीवी चैनल समाज को और अधिक खोखला करने का काम कर रहे हैं. अपना रिश्ता पत्रिकाओं से जोड़ें जो खबर के हर पहलु को देखने का सही नजरिया देता है. दिल्ली प्रेस पत्रिकाओं से जुड़ें और स्वतंत्र रहे.