80 के दशक के बाद से कांग्रेस का लगातार पतन हो रहा है. उसकी सीटें हर राज्य में कम हो रही हैं और वोट शेयर भी. 2022 में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और 2024 में लोकसभा के चुनाव हैं. दूसरी पार्टियों के नेता जहां इन चुनावों को ले कर अपनी रणनीतियां बनाने में जुट गए हैं वहीँ कांग्रेस खेमे में सन्नाटा पसरा है. उसके तमाम बड़े दिग्गज आराम फरमा रहे हैं. मुकुल वासनिक, जितिन प्रसाद, भूपेंद्र सिंह हुडा, राजेंद्र कौर भट्टल, एम वीरप्पा मोईली, पृथ्वीराज चव्हाण, पीजे कूरियन, अजय सिंह, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, राज बब्बर, अरविंदर सिंह लवली, कौल सिंह ठाकुर, अखिलेश प्रसाद सिंह, कुलदीप शर्मा, योगानंद शास्त्री, संदीप दीक्षित, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सभी खामोश हैं. वहीँ कुछ नेता कुर्सी की लालसा में अपनों से ही भिड़े हुए हैं.

चुनाव के मद्देनज़र कुछ हलचल है तो वो गाँधी परिवार में ही है. उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के वक़्त जनेऊ धारण करके खुद को हिन्दू साबित करने की कोशिश करने वाले कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी इस बार 14 किलोमीटर की पद यात्रा करके वैष्णव देवी के दर्शन करने पहुंचे हैं तो वहीँ लखनऊ में प्रियंका गाँधी वधऱा कार्यकर्ताओं को एकजुट करने में जुटी हैं. हाल ही में उन्होंने अपने बेटे रेहान वढरा के राजनितिक भविष्य को सिक्योर करने के इरादे से उसका का नाम बदल कर रेहान राजीव वढरा रख दिया है. कुछ समय पहले रेहान अपने मामा राहुल गाँधी के नक़्शे कदम पर चलते हुए उनकी लोकसभा सीट अमेठी के गोरेगांव में अपने दो दोस्तों के साथ एक दलित के घर में रात बिताई थी. वे अक्सर अपनी माँ प्रियंका के साथ भी देखे जाते हैं. मगर सिर्फ गाँधी-वधऱा परिवार के दो-तीन सदस्यों की कोशिश से चुनावी वैतरणी पार नहीं की जा सकती है. इसके लिए तो पूरी कांग्रेस को एकजुट होना होगा.

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गौरतलब है कि 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस को 20 प्रतिशत वोट ही मिले थे और पार्टी सिर्फ़ 52 सीटें ही जीत पाई थी. ये आम चुनावों में कांग्रेस की लगातार दूसरी हार थी. लेकिन पार्टी के पास अभी भी संसद के दोनों सदनों में क़रीब 100 सांसद और देश की अलग-अलग विधानसभाओं में 880 विधायक हैं. कांग्रेस भारत में भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. बावजूद इसके पार्टी के दिग्गज नेताओं के बीच कोई तालमेल ना होने और अध्यक्ष पद को लेकर बीते दो दशकों से जो असमंजस की स्थिति बनी हुई है, उससे चुनावों के प्रति कोई तैयारी नहीं दिख रही है. ऐसा लगता है जैसे पार्टी की इच्छाशक्ति जवाब दे चुकी है.

दिग्गज राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर कहते हैं, ”मैं टिप्पणी करने वाला कोई नहीं हूँ कि कांग्रेस पार्टी में क्या ग़लत हो रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि पार्टी के चुनावी प्रदर्शन से जो दिख रहा है, समस्या उससे कहीं अधिक गंभीर है. पार्टी की समस्याएँ उसके ढांचे को लेकर अधिक हैं.” दरअसल सारा मसला नेतृत्व को लेकर है. कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर हो रहा है, जिसके कारण पूरी पार्टी दरक रही है. पुराने नेता पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की बात सुनने-मानने को तैयार नहीं हैं.

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इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन की शुरुआत सूबों में विद्रोह से ही होती रही है. जिस तरह से कांग्रेस पार्टी में विभिन्न सूबों में बगावत की आग सुलग रही है, निसंदेह यह कांग्रेस की ताकत को धीरे क्षीण कर रही है. एक वक़्त थी जब पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का ही शासन होता था मगर अब अब वह मात्र तीन प्रदेशों में सिमट कर रह गया है. और इन तीनों प्रदेशों में भी लगातार बढ़ता विद्रोह कांग्रेस पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है.

पंजाब में सिद्धू और कैप्टन का विवाद

गांधी परिवार के हस्तक्षेप के बाद लगने लगा था कि पंजाब में कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी लड़ाई का अंत हो जाएगा और पार्टी एकजुट हो कर अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट जायेगी. लेकिंग ये भ्रम अब टूटता नज़र आ रहा है. मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवनियुक्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के खुली तकरार जारी है. भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम की घोषणा और उसका पालन शायद ज्यादा आसान है पर पंजाब में मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष की लड़ाई में युद्ध विराम की संभावना के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं. सिद्धू सिद्ध वक्ता हैं. पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव में उनके जैसा स्टार प्रचारक पूरे दमखम के साथ चुनावी रणभेरी फूंकता तो कांग्रेस में नयी ऊर्जा का संचार हो जाता मगर सिद्धू तो अपनी सारी ऊर्जा अमरिंदर सिंह से धींगामुश्ती में गँवाए दे रहे हैं. उनको ना कांग्रेस की ख़राब होती छवि की परवाह है, ना गिरती साख की और ना चुनाव की. पंजाब में चुनाव में 6 महीनों से भी कम समय बचा है, पर जिस तरह से सिद्धू खेमा अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मुहिम में लगा हुआ है, उसे साफ़ है कि सिद्धू को पार्टी की जीत की ज्यादा फ़िक्र नहीं है. उनका वन पॉइंट एजेंडा है अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाना.

छत्तीसगढ़ में कुर्सी के लिए खींचतान

राहुल गाँधी के अपरिपक्व फैसले कई बार पार्टी पर काफी भारी पड़ते हैं. 2018 में जब राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तो उन्होंने छत्तीसगढ़ में पार्टी की शानदार विजय के बाद नेतृत्व के सवाल को सुलझाने के लिए एक फार्मूला बनाया था जिसके तहत उन्होंने स्पिलिट लीडरशिप का फैसला लिया. स्प्लिट लीडरशिप अक्सर गठबंधन की सरकारों में देखा जाता था, पर यह पहला अवसर था कि एक बहुमत की सरकार में मुखिया के नाम पर स्प्लिट लीडरशिप की सोच रखी गई. इसके मुताबिक़ भूपेश बघेल को पहले ढाई वर्ष तक मुख्यमंत्री रहना था और मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार टीएस सिंह देव को बाद के ढाई वर्षों तक. जून में बघेल का मुख्यमंत्री के रूप में ढाई वर्ष पूरे हो गए और टी. एस. सिंह देव ने पार्टी को राहुल गांधी के वादे की याद दिलानी शुरू कर दी.

टीएस सिंह देव पिछले ढाई वर्षों से प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री थे, कागजों पर अब भी हैं, पर जब सरकार को करोना के आशंकित तीसरे दौर से लड़ने की तैयारी करनी थी, सिंह देव ने नाराज़ हो कर अपने आप को मंत्रालय के काम काज से दूर कर लिया. सिंह देव को समझाने और उनकी नाराज़गी दूर करने के लिए राहुल गांधी के घर पर बघेल, सिंह देव, राज्य के प्रभारी पी.एल. पुनिया और पार्टी के संगठन महामंत्री के.सी. वेणुगोपाल की बैठक भी रखी गयी. तीन घंटे चली बैठक में इधर उधर की बातें होती रहीं पर नेतृत्व को लेकर कोई बात नहीं हुई. सिंह देव इससे और तुनक गए हैं. उनको लग रहा है कि राहुल अपने वादे से मुकर गए हैं. अगर नेतृत्व के मुद्दे पर चर्चा नहीं होनी थी तो बघेल और सिंह देव को दिल्ली क्यों बुलाया गया? अब वे बघेल की नींव खोदने में जुटे हैं और प्रदेश में पार्टी की कमजोर हो रही है.

राजस्थान में गहलोत और पायलट में उठा पटक

तीसरे कांग्रेस शासित प्रदेश राजस्थान में तो पिछले 15 महीने से घमासान छिड़ा हुआ है. पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के गुट की मांग है कि पायलट के करीबियों को मंत्रीमंडल और पार्टी के प्रदेश इकाई में जगह मिले, मगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनकी बात पर कान भी नहीं धर रहे हैं. पायलट गुट का विद्रोह कांग्रेस आलाकमान ने पिछले साल यह कह कर शांत कर दिया था कि उनकी मांग मानी जाएगी. एक के बाद एक, पार्टी के बड़े नेताओं ने जयपुर का चक्कर लगाया पर गहलोत ने किसी की बात नहीं सुनी और पायलट गुट को अभी भी दरकिनार कर रखा है. गांधी परिवार में शायद इतनी शक्ति नहीं है कि वह गहलोत और पायलट को आमने सामने बिठा कर इस समस्या का हल निकालें. अगर पायलट गुट फिर से विद्रोह का बिगुल फूंकता है तो इससे कांग्रेस पार्टी को काफी नुकसान होगा.

कांग्रेस शासित तीनों प्रदेशों में फिलहाल विद्रोह की स्थिति है. वहीं कुछ अन्य राज्य भी हैं जहां पार्टी सत्ता में नहीं है पर घमासान चल रहा है. जैसे कि हरियाणा में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा और प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा के बीच की लड़ाई, तमिलनाडु में नेतृत्व परिवर्तन के नाम पर विवाद और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद के दावेदार को चुनने का विवाद. इन सबकी सुध लेने और अपने घर को संभालने की जगह पार्टी आलाकमान 2024 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी एकता के प्रयासों में जुटी हुई है, साथ ही साथ कांग्रेस आलाकमान यह सुनिश्चित करने में लगी हुई है कि चाहे जो भी हो राहुल गांधी को ही विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना है. और उसके लिए ज़रूरी है कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों में ही रहे.

इतिहास के पन्नों में ऐसे कई किस्से दर्ज हैं, जब साम्राज्यों का अंत इन्हीं परिस्थितियों में हुआ, जो अभी कांग्रेस पार्टी में दिख रही हैं. यह उम्मीद करना कि रातों रात राहुल गांधी इतने लोकप्रिय नेता बन जाएंगे कि समस्त भारत उनके नाम पर वोट डालेगा और केंद्र में उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार बन जाएगी, सच्चाई से मुंह मोड़ने जैसा ही है. कांग्रेस पार्टी के लगातार पतन का सबसे बड़ा कारण ही है कि पार्टी की किसी को चिंता नहीं है, सभी को सिर्फ पद की चिंता है.

प्रशांत किशोर को हायर करना कितना सार्थक होगा

कांग्रेस को आज की तारीख़ में एक अच्छे को-ऑर्डिनेटर ( संयोजक) की ज़रूरत है, जो काम प्रशांत किशोर निभा सकते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही हैं. यही वजह है कि पिछले दिनों प्रशांत किशोर ने राहुल, प्रियंका और सोनिया तीनो से मुलाक़ात की है. उत्तर प्रदेश चुनाव का दारोमदार अगर प्रशांत के कंधे पर डाला जाता है तो ज़्यादा आश्चर्यं नहीं होना चाहिए.

दरसअल प्रशांत किशोर चुनाव जिताने वाले वह शख़्स हैं, नेता जिनकी मुट्ठी में रहते हैं. प्रशांत किशोर कोई साधारण राजनीतिक रणनीतिकार नहीं हैं. उन्हें भारत का सबसे चर्चित राजनीतिक सलाहकार और रणनीतिकार कहा जाता है. हालांकि वो इस विवरण को पसंद नहीं करते हैं.

उन्हें ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है, जिन्होंने चुनाव जीतने और लोगों की राय को प्रभावित करने में महारत हासिल कर ली है. साल 2011 के बाद से प्रशांत किशोर और उनकी राजनीतिक सलाह देने वाली फर्म ने नौ चुनावों में अलग-अलग पार्टियों के लिए काम किया है. इनमें से आठ में उन्होंने जीत हासिल की है.

प्रशांत किशोर सभी रंगों और विचारों के राजनीतिक दलों को अपनी सेवाएं दे चुके हैं. साल 2014 में वो नरेंद्र मोदी के साथ थे, वे पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के सलाहकार रहे और हाल ही में उन्होंने मोदी की चिर प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में जीत हासिल करने में मदद की. उन्होंने बिहार में अपनी सेवाएं नीतीश कुमार को भी दीं. ऐसे में उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर गहरी चिंता में ग्रस्त कांग्रेस यदि उनको हायर करने की बात सोच रही है, तो कुछ गलत नहीं है.

प्रशांत किशोर जिस तरह काम करते हैं, उससे भारत में राजनीतिक सलाहकारों के काम की झलक मिलती है. उनकी कंपनी आईपैक (इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी) में चुनावों के समय 4,000 तक लोग काम कर रहे होते हैं. ये जिस पार्टी के लिए काम करते हैं, एक तरह से उसी में घुस जाते हैं. वो एक तरह से पार्टी की ताकत बढ़ाने वाले फ़ैक्टर के रूप में काम करते हैं. एक पार्टी को चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए जो भी करना जरूरी होता है, वो उसमें मदद करते हैं. इससे कुछ फर्क तो पड़ता है लेकिन ये कितना होता है, इसकी सटीक गणना करना मुश्किल है.

 

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