लेखक – अमृता पांडे

यूं तो मानसून आता है तो मन में एक उमंग जाग उठती है और कवियों की कल्पना का आकाश भी विस्तृत हो जाता है परंतु उत्तराखंड में वर्तमान समय में मानसून पीड़ादायक हो चुका है और चिंतन के लिए मज़बूर कर देता है.

देशभर से आने वाले भूस्खलन के समाचार चिंता बढ़ाने वाले हैं. लगता है कि आदमी की जान बहुत ही सस्ती हो गई है. अभी हाल फिलहाल में हिमाचल के किन्नौर में हुई घटना ने पूरे देश का दिल दहला दिया है. निगुल सेरी नेशनल हाईवे पर यह बस तब दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जब यह उत्तराखंड के हरिद्वार शहर को जा रही थी. दुर्घटना का कारण पहाड़ी से आया भारी मलबा था जिसमें बस थक गई और बस में सवार यात्री भी घंटों दबे रहे. कुछ एक ने तड़प तड़प के वहीं दम तोड़ दिया होगा. कुछ इस भयावह से से डरकर मौत के आगोश में आ गए. कुछ जिंदगी भर के लिए अपंग हो गए. इसी तरह एक पर्यटक वाहन भी सांगला छितकुल मार्ग पर पहाड़ी से दरकी चट्टान की चपेट में आ गया जिसमें 10 पर्यटकों की मौत हो गई.

कहते हैं कि प्रत्यक्ष यात्रा से जो अनुभव प्राप्त होते हैं, वह किताबों में नहीं होते. हम आए दिन समाचार पत्रों में टीवी में भूस्खलन की घटनाएं पढ़ते हैं, देखते हैं और कुछ देर में भूल जाते हैं लेकिन जब प्रत्यक्ष रूप से अपनी आंखों से यह नज़ारा देखते हैं तो दिल कांप उठता है. अभी कुछ ही दिनों पहले कार्यवश उत्तराखंड के पर्वती क्षेत्र में भ्रमण का मौका मिला तो बरसात में होने वाली तबाही का जायज़ा भी लेने को मिला.

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भूस्खलन मानव के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है. यूं तो पूर्वोत्तर के राज्य जिन्हें हम सेवेन सिस्टर्स कहते हैं, भूकंप से सर्वाधिक प्रभावित हैं परंतु यहां पर अपने राज्य उत्तराखंड की बात करूंगी जो स्वयं एक पर्वतीय राज्य हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में 84 डेंजर ज़ोन सक्रिय हैं. यह राज्य हिमालय की नव युवा पर्वत श्रृंखलाओं पर स्थित है और भंगुर, भुरभुरी मिट्टी के अलावा रेत, चूना पत्थर और डोलोमाइट की अधिकता पाई जाती है. टिहरी जिला क्षेत्र में ऋषिकेश- गंगोत्री और बद्रीनाथ हाईवे में 150 किलोमीटर की दूरी में 60 डेंजर ज़ोन बताए जाते हैं. कई बार भूगर्भ वैज्ञानिक सर्वे कराया जा चुका है और इसके अनुसार ट्रीटमेंट किया जाता है परंतु यह अस्थाई उपाय है. इन पर्वतीय इलाकों में भूस्खलन जो़न बढ़ते ही जा रहे हैं. कब पहाड़ी से कोई बोल्डर आकर  गिर जाए, पता ही नहीं. अभी पिछले जुलाई माह में गुडगांव से नैनीताल आ रहे पर्यटक दंपति इसका शिकार हुए, जिसमें पति की मौके पर ही मृत्यु हो गई और पत्नी के सिर में गहरी चोट आई.

एक दूसरी घटना में उत्तराखंड के देवप्रयाग के पास तोता घाटी इलाके से गुजर रहे पत्रकारिता के प्रोफ़ेसर की कार में बॉर्डर गिरने से तत्काल मृत्यु हो गई.भूस्खलन की दृष्टि से बहुत सारे राज्य संवेदनशील हैं जिनमें जम्मू कश्मीर सिक्किम केरल पश्चिम बंगाल गोवा नीलगिरी की पहाड़ियां महाराष्ट्र में कौन क्षेत्र हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड शामिल है.

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हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को इस मामले में सर्वाधिक संवेदनशील कहा जा सकता है. इन दो प्रदेशों में इतना ज्यादा भूस्खलन क्यों होता है, सोचने वाली बात है. पिछले कुछ सालों से यह घटनाएं बढ़ती है चली जा रही हैं. दरअसल हिमालय इलाके बहुत संवेदनशील हैं. यहां पर मिट्टी भुरभुरी और रेतीली होती हैं. ये पहाड़ियां अभी नयी हैं. इन्हें मज़बूत और कठोर होने में वक्त लगता है. मगर समय से पूर्व ही इन पर डायनामाइट की हथौड़ी चला देने से यह कमजोर हो रही हैं और इनमें दरार पड़ रही है, जिससे संतुलन बिगड़ता नज़र आ रहा है. पहाड़ों में बर्फबारी होना आम बात है. बर्फबारी के बाद गर्मी में जब बर्फ पिघलती है तो चट्टान और मिट्टी मुलायम हो जाती है. हिमालय के ऊपरी भाग में ढलान पर गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होने से चट्टाने नीचे की ओर खिसकने लगती है और जब मानसून आता है तो बारिश की मार से ये और कमजोर हो जाती हैं. इस बार अंधाधुंध सड़क निर्माण, वनों की कटाई, पानी का रिसाव मुसीबत को और बढ़ा देता है. भूस्खलन की गति 260 फीट प्रति सेकंड तक मापी गई है जहां पर संभलने का कोई मौका ही नहीं मिलता.

विकास कार्य में आवश्यक है परंतु पर्यावरण की कीमत पर बिल्कुल नहीं. यदि वैज्ञानिक तरीके इस्तेमाल किए जाएं और निर्माण कार्य छोटे पैमाने पर किया जाए, पत्थरों को रोकने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली दीवारें बनाई जाएं और मज़बूत जाल की व्यवस्था की जाए तो हम भूस्खलन की घटनाओं से काफी हद तक बच सकते हैं. हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट, सुरंग का अंधाधुंध निर्माण हो रहा है इसके लिए ड्रिल का प्रयोग करने से पहाड़ियों की ऊपरी सतह दिन प्रतिदिन कमजोर हो रही है और पत्थर हिल रहे हैं.

उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे को मैंने बहुत करीब से देखा है. पहाड़ों पर रिजॉर्ट्स, बड़ी-बड़ी इमारतें बिना मानकों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं. चमोली जिले में हर साल भूस्खलन से मवेशी और इंसान तक करना चाहते हैं पहाड़ियों में स्थित घर भी हर साल भूस्खलन की चपेट में  आते ही रहते हैं. हाल ही में भूस्खलन के कारण उत्तराखंड में दुर्घटना हुई जिसमें एक परिवार के तीन सदस्य दबकर मर गए.

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भूस्खलन के कारण पिथौरागढ़ मार्ग कई बार बंद हो चुका है. अभी 11 अगस्त को गंगोत्री हाईवे के  बंदरकोट के पास भारी मलबा आने से यातायात बाधित रहा. इसी तरह चिन्यालीसौड़ में मोरनी मोटर मार्ग पर चट्टान खिसकने से जेसीबी चालक की दर्दनाक मौत हो गई. ये कुछ एक उदाहरण है. मौत के आंकड़ों का सही पता लगाना बहुत मुश्किल है. कई बार तो दुर्घटना हो जाती है लेकिन उसका रिकॉर्ड नहीं रहता.

भूस्खलन के कारण कई पुल ध्वस्त हो जाते हैं और कई कई दिनों तक ग्रामीणों का संपर्क मुख्य मार्ग से टूट जाता है. आजकल तो महामारी के कारण स्कूल बंद है, मगर पिछले सालों में बच्चों को रस्सी जिसे गरारी कहते हैं, के सहारे नदी पार करते हुए देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे. आज भी आवश्यक सामग्री की खरीदने हेतु ग्रामीण इसी रस्सी या गरारी का सहारा लेकर पार जाते हैं.

पहाड़ी क्षेत्रों में कई वर्षों से सड़कें बन रही हैं लेकिन काम कभी समाप्त होता ही नहीं. मानसून में अत्यधिक बारिश के कारण सड़कों में गड्ढे पड़ते रहते हैं, पहाड़ चटकते रहते हैं और इनकी मरम्मत पुनर्निर्माण जारी रहता है. देखा जाए तो इससे आर्थिक क्षति भी बहुत ज़्यादा होती है.करोड़ो रुपए प्रतिवर्ष खर्च करने के बाद भी नतीजा संतोषजनक नहीं रहता.

मानव सदा से प्रगतिशील और परिवर्तनशील प्राणी रहा है ‌.अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए हमेशा से प्रकृति के साथ प्रयोग या छेड़छाड़ भी करता आया है. मानव और आपदा का संबंध बहुत पुराना है. जब से मानव जीवन अस्तित्व में आया है तब से कदम कदम पर आपदाओं ने डेरा डाला है.जून 2013 में आई केदार आपदा को हम कैसे भूल सकते हैं, जब लगभग 4400 हजार से अधिक लोग इसके शिकार हुए थे.

प्रकृति संरक्षण और संवर्धन मांगती है. उसके साथ छेड़छाड़ के नतीजे़ हमेशा ही घातक साबित हुए हैं. प्रकृति के इशारों को समझते हुए उसके साथ चलने में ही समझदारी है और जीवन की सुरक्षा है.

 

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