लेखक- धीरज कुमार

सासाराम का रहने वाला राजीव कुमार वीर कुंवर सिंह यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर (गणित) तक पढ़ाई कर चुका है. लगभग 2 सालों तक दिल्ली में रह कर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी की है. अभी तक उसे सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई है. जब पढ़ाई कर रहा था तो उसे उम्मीद थी कि कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी. घर के लोगों को भी उम्मीद बंधी हुई थी कि उन का बेटा पढ़लिख कर घर के लिए सहारा अवश्य बनेगा. धीरेधीरे उस की नौकरी की उम्र निकलती जा रही है. अब वह पूरी तरह से निराश है. वह सरकार और सरकारी सिस्टम को कोसने से नहीं चूकता. कभीकभी अपने भाग्य को भी दोष देता है.

उस ने पढ़ाईलिखाई के दौरान जो शोहरत घरपरिवार, रिश्तेदार व समाज में बटोरी थी वह नौकरी नहीं मिलने के कारण धूमिल होती जा रही है. घर में तंगहाली भी आ चुकी है. फिर भी छोटामोटा धंधा करना नहीं चाहता है क्योंकि छोटामोटा धंधा करने से उस की प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी, ऐसा मानना है उस का. उस की सोच है कि छोटामोटा धंधा करना ही था तो इतना पैसा खर्च कर के पढ़ाईलिखाई करने की क्या जरूरत थी. द्य राजीव की तरह अनेक लोग हैं जो यह सोचते हैं कि पढ़लिख कर छोटामोटा धंधा करने में प्रतिष्ठा धूमिल होती है. वहीं, 8-10 हजार रुपए मासिक वेतन की कोई भी सरकारी नौकरी मिल जाती है तो वैसे लोग अपनेआप को प्रतिष्ठित सम?ाने लगते हैं. यही कारण है कि युवाओं के पास अपना धंधा करने के लिए संसाधन होने के बाद भी वे उस काम में नहीं लगना चाहते हैं.

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वे अपना धंधा और रोजगार करने से खुद को बचाते हैं. इस के पीछे की वजह आम लोगों में छोटामोटा धंधा करने वालों को हीनदृष्टि से देखने की प्रवृत्ति का होना है. जबकि सचाई इस से इतर है. अपने धंधे में वही तरक्की करता है जिस के पास पढ़नेलिखने के बाद मेहनत करने का गुण होता है. धंधे का मतलब यह नहीं होता है कि आप ने अपना धंधा शुरू कर दिया और कल से आप की अच्छी आय होनी शुरू हो जाएगी. इस के लिए संघर्ष करना पड़ता है. बाजार को सम?ाना पड़ता है. ग्राहकों की मनोवृत्ति देखनी पड़ती है. इस के लिए भी काबिलीयत की जरूरत होती है. भले ही कुछ लोग धंधा करने को अच्छा न मानते हों, छोटेमोटे धंधे करने वाले को हीन दृष्टि से देखते हों लेकिन जो धंधा करता है और अपनी बुद्धि व विवेक का पूरा इस्तेमाल करता है, वह अपने धंधे में सफल हो पाता है. द्य डेहरी औनसोन के रहने वाले अरविंद कुमार ने बिजनैस मैनेजमैंट की पढ़ाई दिल्ली के नामी इंस्टिट्यूट से की है. जब उन्हें नौकरी नहीं मिली तो अपने गांव में वापस आ कर शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए प्राइवेट स्कूल खोल दिया. आज उन के स्कूल में आसपास के गांव के लगभग 400 विद्यार्थी पढ़ाई कर रहे हैं.

वहीं 25 शिक्षकों को उन्होंने नौकरी भी दी है. अब स्कूल से अच्छी आय हो रही है और देश में शिक्षा के क्षेत्र में वे योगदान भी दे रहे हैं. उन का कहना है, ‘‘मैं ने मैनेजमैंट की पढ़ाई करने के बाद नौकरी के लिए काफी दौड़धूप की थी, लेकिन मु?ो अच्छी जौब नहीं मिल पा रही थी. फिर मैं ने अपना स्कूल ओपन करने के लिए सोचा. नौकरी चाहने वाले लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि नौकरी नहीं मिली तो जीवन वहीं रुक जाएगा, बल्कि अपने जीवन को अच्छा करने के लिए, अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए, अपनेआप को रोजीरोजगार में लगाना सब से बेहतर विकल्प है.’’

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1. रोहतास के रहने वाले विनोद शर्मा ने पौलिटैक्निक में डिप्लोमा की पढ़ाई की थी. उस के मातापिता ने कर्ज ले कर पढ़ाई का खर्चा उठाया था. पढ़ाई पूरी करने के बाद जब उसे नौकरी नहीं मिल पाई तो उस ने घर की माली हालत को सुधारने के लिए लोन पर ई-रिकशा खरीद लिया. आज उसी ई-रिकशा से कमा कर अपना घर चला रहा है. वह अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च भी वहन कर रहा है. वह अपने ई-रिकशा की ड्राइविंग सीट पर बैठ कर मुसकराते हुए कहता है, ‘‘अगर मैं यह सोच कर अपने घर में बैठ जाता कि मैं ने अच्छी पढ़ाईलिखाई की है और मु?ो नौकरी मिलनी ही चाहिए तो इस भरोसे मैं आज तक बेरोजगार ही बैठा रहता तथा औरों की तरह निराश रहता. ‘‘मैं भी दूसरे लोगों की तरह सरकार और सिस्टम को कोसता रहता. अगर आप सचमुच पढ़लिख लिए हैं तो पढ़ेलिखे लोगों को भूखे नहीं मरना चाहिए.

उन के पास जीनेखाने के लिए तजरबा भी होना चाहिए. पढ़लिख कर बेरोजगारी का दंश ?ोल रहे हैं तो फिर पढ़ालिखा कहना उचित नहीं होगा. पढ़ेलिखे समाज में उदाहरण बनते हैं. समाज को अलग दिशा देते हैं. औरों की तरह घर में बैठ कर वे सरकार और सिस्टम की खामियां नहीं निकालते रहते हैं.’

2. औरंगाबाद के रहने वाले किसान पिता के बेटे अजय कुमार ने स्नातक करने के बाद दिल्ली में 3 साल तक आईएएस की तैयारी की और जब वह तीसरे अटैम्प्ट में भी सलैक्ट नहीं हो पाया तो वह निराश हो कर घर वापस आ गया था. उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि अब क्या करे? कई माह तक यों ही निराश बैठा रहा. आखिरकार, उस ने सोचा कि मेरे पास अपने पिता की खेतीबाड़ी है और फिर उसी को संभालने लगा. उस ने पिता की पारंपरिक खेती को नए तरीके से करना शुरू किया और कई वर्षों के अथक प्रयास के बाद खेतों में अच्छी उपज होने लगी. इस से उस की आय बढ़ने लगी. आज वह अपने काम से पूरी तरह से संतुष्ट है. उस का कहना है, ‘‘आईएएस की तैयारी करने के बाद जब एकदम से खेतीबाड़ी करने का फैसला अपने घरपरिवार में सुनाया था तो उस के घर में यह बात किसी बम की तरह फटी थी. घर के लोग अजीब नजरों से देख रहे थे.

घर के लोगों को भी लग रहा था कि सारी इज्जत मिट्टी में मिला दी. अधिकतर मातापिता की यही सोच है कि बेटाबेटी पढ़लिख लिए तो उसे नौकरी मिलनी ही चाहिए. जबकि नौकरी मिलना इतना आसान नहीं है और फिर पढ़लिख लेने से सब को नौकरी नहीं मिल जाती है. नौकरी पाने वाले विरले ही होते हैं.’’ लोगों की नजरों में किसी भी प्रतियोगिता की तैयारी कर रहे छात्रों को सरकारी नौकरी नहीं मिलना असफलता माना जाता है. उस से भी अधिक असफलता की निशानी यह है कि वह नौकरी नहीं मिलने पर कोई छोटामोटा धंधा करने को अपनेआप को तैयार नहीं करता है. हर कोई नौकरी के सहारे ही जीवन में आगे नहीं बढ़ता है और भी कई रास्ते हैं जिन के सहारे आगे बढ़ा जा सकता है. पैसा कमाया जा सकता है. घरपरिवार चलाया जा सकता है. सफल व्यक्ति बना जा सकता है. समाज में अपनी पहचान बनाई जा सकती है. लोगों की नजरों में इज्जत कमाई जा सकती है.

परंतु इस सब के लिए शर्म त्यागनी होगी. अपने मन से निकाल देना होगा कि छोटामोटा धंधा करना अपमानजनक है, समाज में प्रतिष्ठा धूमिल होती है. बल्कि, सोचना यह होगा कि बेरोजगार रहना अपमानजनक है. कोई भी धंधा छोटा या बड़ा नहीं होता, बस, नजरिया बदलने की जरूरत है. छोटामोटा धंधा कर के भी आगे बढ़ा जा सकता है. अपनी सोच और नजरिया दुरुस्त करने की आवश्यकता है. यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि हमारे आसपास के लोग क्या कहेंगे. दूसरों से पहले अपनी सोच को ठीक करने की जरूरत है, तभी आत्मनिर्भर बना जा सकता है.

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