कट्टरपंथियों की एक विशेष कला है कि वे हर सवाल उठाने वाले के बारे में खोज कर कुछ बकने लगते हैं या किसी और मुद्दे की, कहीं और की बात करने लगते हैं. पाकिस्तान में ‘औरत मार्च’ का आयोजन किया गया जिस में सैकड़ों औरतों ने अपने हकों की मांग करते हुए देश के कई  शहरों  में जुलूस निकाले. फैसलाबाद में इस पर बैन लगा दिया गया जिस पर दुनियाभर के मानवीय अधिकार गुटों ने आपत्ति की.

पाकिस्तान में औरतों की आजादी न के बराबर है. वहां धर्म का हवाला दे कर बारबार कहा जाता है कि वे सिर्फ मर्दों की खिदमत करें, उन से मार खाएं, उन के बच्चे पालें और अगर मार डाली जाएं तो चुपचाप दफन हो जाएं. कुछ पढ़ीलिखी औरतों को यह सब स्वीकार नहीं है और वे औरतों को मर्दों की तरह की बराबरी दिलाना चाहती हैं.

समस्या वही है जो भारत में है. भारत की तरह वहां भी कट्टरपंथी एकदम कूद पड़े कि एक तरफ कोविड फैल रहा है और ये औरतें मार्च निकालना चाहती हैं. कुछ को कश्मीर याद आ गया. कुछ धर्म का फायदा समझाने लगे. कुछ भारत को दोष देने में लग गए.

जब औरतों ने पुलिस से इस मार्च की इजाजत चाही तो, जैसा भारत में होता है,  इजाजत नहीं दी गई. शासन को लगा कि ये औरतें सारे सामाजिक ढांचे को बिगाड़ देंगी जिस में मर्द को मुफ्त की गुलाम मिलती हैं. पुलिस ने मार्च निकालने पर उतारू छात्राओं को धमकियां देनी शुरू कर दीं और उन्हें गिरफ्तार करने का अपना अधिकार जता दिया. एक इस्लामी गुट के बयान का हवाला दे दिया जिस में धमकी दी गई थी कि अगर ‘औरत मार्च’ फैसलाबाद में निकाला गया तो इस के बहुत बुरे नतीजे सामने आएंगे.

पुलिस कमिश्नर साहब औरतों के डैलीगेशन को समझाते रहे कि पाकिस्तान में तो औरतें आजाद हैं, फिर मार्च की क्या जरूरत. उन्हें या तो पता नहीं या जान कर अनजान बन रहे थे कि 4 वर्षों पहले अमेरिका तक में ऐसा मार्च निकालने की जरूरत पड़ी क्योंकि वहां भी औरतें बेहद घुटन महसूस करती हैं. कट्टर पाकिस्तान भारत और बंगलादेश की तो बात ही क्या है?

हां, इतना अवश्य संतोष है कि पाकिस्तान की औरतों ने मार्च निकालने का मन बनाया. पाकिस्तान की हुकूमत को उन से डर भी लगा. यह भी एक उपलब्धि है जो कम नहीं है.

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