अफगानिस्तान में अमेरिका का पलायन और तालिबान लड़ाकूओं का सत्ता में आ जाना केवल इतिहास का दोहराना है. अफगान किसी भी सूरत में किसी और देश व लोगों के अधीन रहने को तैयार नहीं हैं और उन्होंने कर्ई सदियों से यह साबित कर दिया है कि विदेशी कुछ समय वहां राज कर सकते हैं, हमेशा नहीं. अफगानिस्तानी अपनी गरीबी, अपनी मेहनत पर संतुष्ट हैं और यदि उन्हें आधुनिक मिलें तो ठीक हैं वर्ना वे किसी भी हमले का खामियाजा भुगतने को तैयार हैं पर गुलाबी सहने को तैयार नहीं है.

तालिबानियों का काबुल पर कब्जा एक बार फिर साबित कर गया है कि इस देश को नियंत्रित करने का काम किसी के बस में नहीं है यह अच्छा है कि भारत ने इस विवाद में ज्यादा दखल नहीं दिया और कट्टरपंथी राज्य के अखंड पौराणिक भारत के सपने को साकार करने के लिए महाभारत वाले गंधार को आज का गंधार नहीं समझा. भारत के लिए काबुल अब एक बड़ा सिरदर्द रहेगा और 2 कट्टरपंथी सरकारों की झड़प हो जाए ये आश्चर्य नहीं है.

तालिबानी अफगानों का सपना सिर्फ काबुल पर राज करना नहीं है. वे पाकिस्तान, कश्मीर, उत्तर और पश्चिम में अपने पैर नहीं फैलाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है. यह न समझें कि दुनिया उन की आॢथक नाकेबंदी कर सकती क्योंकि दुनिया भर की सरकारें चाहे जो फैसलें लेती रहीं, उन्हीं की जनता पतली गलियों में आफगानिस्तान से उगी अफीम से बनी नशीली दवाओं को इस्तेमाल करती रहेगी. अफगानिस्तान को पैसे की कमी कभी नहीं होगी क्योंकि दुनिया भर के युवा नशा करने के लिए अफगान अफीम खरीदेंगे ही और जैसे पानी अपना रास्ता बांधों और बनाई गई दीवारों को तोड़ कर निकलता चला गया है, अफीम मिलती रहेगी.

तालिबानियों के लिए अफीम का व्यापार अब और आसान हो जाएगा क्योंकि अब दुनिया भर का पैसा यहां रखा जा सकेगा जो अपराधियों की कम से कम अपनी सरकारों से सुरक्षित तो रहेगा. इस सदी में तो कोई अफगानिस्तान से दखलअंदाजी नहीं करेगा, यह पक्का है.

भारत के लिए तालिबानी कब्जा एक बड़ा खतरा है क्योंकि संसद में बैठ कर कश्मीर का फैसला करना आसान है पर जब यह फैसला काबुल में आगे होगा तो नागपुर और दिल्ली कुछ नहीं कर पाएंगे. कश्मीर को अफगान अपना प्रेष्टिज मामला बना लें तो बड़ी बात नहीं है. उन्हें भारत से कोई लगाव नहीं है चाहे अब्दुल गफ्फार खां के जमाने में अफगान भारत संबंध कितने ही सहज रहे हों. तब से अब तक कट्टरता दोनों देशों में कई गुना बढ़ गई है. भारत में आप ङ्क्षहदू समर्थक भाड़े के रक्षकों पर निर्भर है जबकि काबुल में इस्लाम समर्थक खुद मरना व मारना जानता है.

मानवीय अधिकारों की बात न करें. जब लोगों ने कट्टर धर्म को अपनाया है तो इस का अर्थ है कि उन्होंने मानवीय अधिकारों को आग में जला दिया. भारत में कट्टर ङ्क्षहदू औरतों, दलितों, मुसलमानों, पिछड़ों के कौन से मानवीय अधिकारों की रक्षक है? अपनी ही औरतों के साथ जो व्यवहार यहां हो रहा है, वही अफगानिस्तान में हो रहा, फर्क डिग्रियों का है. ङ्क्षहदू प्रवचन सुनें तो वे अफगानी बयानों से कम नहीं लगेंगे. अफगान कट्टर भी है, मेहनती भी, डीलडौल में मजबूत भी हमारे कट्टरपंथी भाड़े के रक्षकों को ढूंढते हैं जैसे महान गुरू विश्वामित्र राक्षसों को मारने के लिए दशरथ के दरबार में पहुंचे थे.

तालिबानी अफगानिस्तान अपनेआप में उत्तरी कोरिया या क्यूबा की तरह संतुष्ट रहेगा, इस के आसार कम हैं. चूंकि उस का अस्तित्व अफीम के अंतराष्ट्रीय व्यापार व बाजार पर निर्भर है, वह अपने पांव पसारेगा. दुनिया भर में फैले शरणार्थी अफगान तालिबान हुक्म को मानने को मजबूर रहेंगे और उन का माफिया दक्षिणी अमेरिकी माफियाओं से ज्यादा खूंखार व प्रभावशाली रहेगा. भारत के लिए आसार अच्छे नहीं है, यह पक्का है. बहुत ही सूझबूझ वाली सरकार तालिबानी अफगानिस्तान से निपट सकती है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही अफगानिस्तान में 6500 टन अफीम पैदा होती है जिस की किसानों को 55 डौलर किलो कीमत मिलती है और करीब 300 करोड़ रुपए की आमदनी है. यह अफीम पूरे यूरोप में बिकती है और भारत में भी जम कर इस्तेमाल हो रही है. अमेरिकी अधिकारों के अनुसार 90′ हिराइन अफगानिस्तानी अफीम से ही बनती है. जब तक वास्तविक अफीम पैदा हो रही है ङ्क्षहदू या इस्लामी धर्म की अफीम की अफगानिस्तान को जरूरत नहीं हैं. वे तो वैसे ही दुनियाभर पर कब्जा किए बैठे हैं. तालिबानी तो इस धंधे को और ज्यादा जोर से चलाएंगे और अब सरकार का संरक्षण मिलेगा.

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