कोरोना वायरस के मौत के बादलों के तले टोकियो ओलंपिक कराने का फैसला और लगभग सभी खिलाडिय़ों का वहां पहुंच जाना मानव साहस की एक विभिष्ठ अनुभूति है. जब से मानव पेड़ों से उतर कर सभ्य बना है प्रकृति से लड़ता आया है और मौत के साए ने उसे न रेगिस्तान पार करने से रोक पाए, न बर्फीले पहाड़, न साउड और न जंगली जानवर. वह विशाल पत्थरों से स्मारक भी बनवा रहा है और अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए जंगलों को समतल कर के खेती लायक जमीन भी बनाता रहा.

कोविड का डर कम नहीं हुआ है. भारत जब अप्रैल-मई में भीषण मौतों से जूझ रहा था तब भी यहां खिलाड़ी तैयारियों में लगे थे. ओलंपिक कमेटी तमाम दबाव वावजूदों के कम करती रही. 33 खेलों में 339 मैचों में 11,200 से ज्यादा खिलाड़ी कोविड को भय के बावजूद टोकियों पहुंचे. 33 स्टेडियमों में   हुए इन खेलों में वैसी ही प्रतिस्पर्धा रही जो आप का ओलंपिकों में होती है. लगभग 4 विलियन डौलर का खर्च कर के बनी सुविधाओं का उपयोग पूरा नहीं हुआ क्योंकि दर्शकों को नहीं आने दिया लेकिन अरबों ने अपने टेलिविजनों पर इन खेलों का वही मजा लिया जो पहले लेते थे.

मामला खेल भावना और मानव संकल्प का ज्यादा है. मानव हार न माने, कोविड हो, ग्लोबल काॄमग हो, विश्व युद्ध हो, एटमबमों के संहार का खतरा हो, मानव को यह मानसिक दृढ़ता कि हर आपत्ति का मुकाबला करना है, अपने को स्थिति के अनुसार ढालना है, उपलब्ध तकनीक का पूरापूरा फायदा उठा कर प्रकृति के कहर का मुकाबला करना है, बहुत आशाजनक बात है.

टोकियो के खेलों में कौन कितने पदक पाए भारत कितने लाता है, कौन पिछड़ जाता है, यह सब बातें दूसरी हैं. ये खेल हो जाना ही बड़ी बात है. होने को तो ये खेल पिछली गॢमयों में थे पर एक साल में ही दुनिया ने सीख लिया कि कोविड के साथ कैसे जीना है.

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