देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर की चुनी सरकारें उन जागरूक लोगों से डरती हैं जो दूसरों को जगाते हैं और सरकार के गलत कामों का निडर हो कर विरोध भी करते हैं. ये लोग शोषण और असमानता का विरोध करने का कोई मौका नहीं चूकते. लिहाजा, सरकार इन का मुंह बंद करने के लिए कानूनों को

 हथियार बनाने लगती है. यही स्टैन स्वामी के साथ हुआ.

देशभर की जेलों से पिछले साल कोरोना की कहर के दौरान कैदियों को पैरोल पर रिहा किया गया था. ऐसा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते इसलिए किया गया था ताकि जेलों में कोरोना न फैले क्योंकि देश की अधिकतर जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी ठुंसे हुए थे. नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो की साल 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश की जेलों में 4.78 लाख कैदी थे जो जेलों की क्षमता से 18.5 फीसदी ज्यादा थे. दिलचस्प बात यह है कि इन में से भी 69.05 फीसदी कैदी विचाराधीन थे.

ये भी पढ़ें-भारत भूमि युगे युगे: मेनका का गुस्सा

किस तरह के अपराधियों को पैरोल पर छोड़ा जाना है, यह राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया था जिन्होंने इस के लिए पावर्ड कमेटियां बनाई थीं. दूसरी लहर के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फिर एक आदेश में कुछ निर्देश दिए थे.

थोड़े दिनों के लिए ही सही मिली इस आजादी पर कई छोटेबड़े मुजरिमों ने दीवाली मनाई थी. पैरोल पर कुछ ऐसे कैदियों को भी रिहा कर दिया गया था जो दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों की सजा काट रहे थे. इस पर नागरिक उपभोक्ता मंच ने एतराज दर्ज कराते जबलपुर हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर दी जिस में कहा गया कि ‘महिलाओं और नाबालिग बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने और हार्डकोर्ड अपराधियों को कोरोनाकाल में पैरोल का फायदा नहीं मिलना चाहिए.’ यह मामला अभी अदालत में चल रहा है.

कोरोना से बड़ा कहर कानून का

होना तो यह चाहिए था कि ये पावर्ड कमेटियां गंभीरता से अपराधियों के अपराध के स्वभाव, अपराधी की उम्र, सेहत और सुनवाई का ध्यान रखतीं, यानी विचाराधीन कैदियों को रिहा करने पर जोर देतीं, खासतौर से उन पर जिन्हें जेल में 6 महीने से ज्यादा का वक्त हो चुका था और मामले की सुनवाई के कोई अतेपते नहीं थे. लेकिन लगता ऐसा है कि पैरोल के नाम पर भेड़बकरियों का बाड़ा खोल दिया गया था जिस में से हट्टेकट्टे और ताकतवर तो भाग निकले पर वे रह गए जो अशक्तता के चलते सरक भी न सकते थे. इन में से भी कइयों का एक संगीन गुनाह यह भी था कि इन पर सरकार की नजर तिरछी थी, इसलिए इन पर तवज्जुह न देते हुए इन्हें इन के हाल पर छोड़ दिया गया.

ये भी पढ़ें- तालिबान से दहशतजदा अफगानी औरतें

ऐसे ही एक कथित अपराधी थे फादर स्टैन स्वामी, जिन की उम्र 84 साल थी. इस उम्र की तमाम बीमारियां उन्हें थीं. जिन में सब से ज्यादा घातक थी पार्किन्सन नाम की बीमारी, जिस के चलते उन के हाथपैर कांपते थे और वे अपने हाथ से न खाना खा पाते थे और न ही पानी पी पाते थे. 5 जुलाई को उन की मौत मुंबई के होली फैमिली अस्पताल में कोरोना से हो गई. यह एक गैरमामूली शख्स की मामूली से भी गईबीती बदतर मौत थी जिस का असल हत्यारा वह कानून है जिस के बारे में धारणा है कि वह इंसाफ करता है.

मौत के बाद मचे हल्ले ने स्टैन स्वामी में आम लोगों की जिज्ञासा पैदा की और लोग उन के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाह रहे हैं. स्टैन स्वामी कौन थे और कैसे कानून के हाथों मारे गए? इसे बेहतर तरीके से सम झने के लिए उन के एक वीडियो के कुछ अंशों पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात का आभास था कि एक दिन वे वैसी ही मौत मरेंगे या मारे जाएंगे जैसी कि 5 जुलाई, 2021 को उन्हें मिली या दी गई. दोनों बातों में कोई खास फर्क नहीं है. वीडियो में उन्होंने कहा था,

जो मेरे साथ घटित हो रहा है वह सिर्फ मेरे अकेले के साथ नहीं हो रहा और न ही यह कोई अनोखी बात है. यह व्यापक तौर पर पूरे देश में चल रहा है.

ये भी पढ़ें- सिद्धू: पंजाब कांग्रेस के ” गुरु “

हम सब को पता है कि कैसे देश के जानेमाने बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, कार्यकर्ताओं, छात्रों और नेतृत्वकर्ताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि वे अपनी असहमति जता रहे हैं या भारत देश की सत्तारूढ़ व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं.

हम इस प्रक्रिया का हिस्सा हैं. मु झे खुशी है कि मैं भी इस प्रक्रिया का हिस्सा हूं. मैं यहां एक मूक दर्शक नहीं हूं बल्कि इस खेल का हिस्सा हूं और इस के लिए मु झे जो भी कीमत चुकानी पड़े, चुकाने को तैयार हूं.

स्टैन स्वामी की यह भविष्यवाणी या शक, कुछ भी कह लें, सच साबित हुआ और मौत उन्हें कोरोना के बहाने आई पर हाथ दरअसल कानून के थे.

कौन थे स्टैन स्वामी

दुबलेपतले, लंबे कद और रोबदार चेहरे के मालिक अकसर टीशर्ट में नजर आने वाले तमिलनाडु के एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में जन्मे स्टैन स्वामी का वास्तविक नाम स्टेनसिलौस लोरदुसामी था. उन के बारे में लिखनेकहने को तो इतना कुछ है कि एक नया ग्रंथ तैयार हो जाए लेकिन खुद उन्होंने जो अपने बारे में दिल्ली प्रैस की लोकप्रिय और प्रतिष्ठित इंग्लिश पत्रिका ‘द कैरेवान’ को दिए इंटरव्यू में बताया था वह उन की जिंदगी और लड़ाई का सार कहा जा सकता है.

‘‘मैं तमिलनाडु के तिरुची से हूं. जब मैं कालेज का छात्र था तभी मेरे मन में यह स्पष्ट था कि मु झे दूसरे लोगों की सेवा में अपनी जिंदगी जीनी है. मैं ने खुद से पूछा कि मु झे यह काम कहां करना चाहिए तो जवाब मिला कि मध्य भारत में. यहां पर आदिवासी वैसी जमीन पर रहते हैं जो पूरी तरह से खनिज संपदा से भरी हुई है. दूसरे इस संपदा को लूटते हैं और आदिवासियों को कुछ भी नहीं मिलता है.

‘‘साल 1971 में सोशियोलौजी में मास्टर डिग्री लेने के बाद जब मैं फिलीपींस से भारत लौटा तो 2 साल के लिए  झारखंड में आदिवासियों के बीच काम करने के लिए चला गया. इन 2 सालों में मैं ने आदिवासियों की सामाजिक व आर्थिक परिस्थिति का अध्ययन किया. मैं ने बहुतकुछ सीखा. मैं ने अपनी आंखों से देखा कि कैसे बाजार उन के उत्पादों के साथ शोषण (लूट खसोट) करता है. मैं ने यह भी महसूस किया कि आदिवासी समुदाय के भीतर बराबरी, सामुदायिकता और आपस में मिल कर फैसले लेने की जबरदस्त परंपरा है.

‘‘इस के बाद मैं इंडियन इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंस बेंगलुरु में लौट आया. यहां मैं ने 15 साल बिताए जिन में से 10 साल खुद डायरैक्टर के पद पर रहा. मेरा कार्यकाल खत्म हो गया तो मैं फिर  झारखंड वापस लौट गया. मु झे लगा कि मेरी विशेषज्ञता आदिवासियों के काम आ सकती है. साल 2000 के लगभग जब  झारखंड राज्य बना तो मैं ने बगाईचानाम से ट्रेनिंग सैंटर बनाया.

‘‘इस ट्रेनिंग सैंटर का मकसद था कि आदिवासियों और कमजोर वर्ग के अधिकारों को ले कर अध्ययन किया जाए, शोध किया जाए और इन के अधिकारों की लड़ाई लड़ी जाए. इसी ट्रेनिंग सैंटर के तहत मैं काम करते आ रहा हूं. इस देश में 5 फीसदी लोगों के पास अधिकतर संपदा है.

यह असमानता है. सरकार अपने कदमों से इस असमानता को और बढ़ाती जा रही है. हम इसी असमानता के खिलाफ लड़ते हैं. हमारा काम कोई जादू की छड़ी नहीं कि हम एक दिन में सबकुछ ठीक कर दें. हम जो कर सकते हैं वह यह है कि हमें केवल अपना काम करना है. पुलिस के  झूठे, मनगढ़ंत आरोपों से निर्दोष लोगों को बचाना है.’’

अब यह और बात है कि वे खुद को कानून के नुकीले हाथों से बचा नहीं पाए क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना था वह आत्महत्या करने जैसा था और ऐसा कहने की मुकम्मल वजहें भी हैं और प्रमाण भी हैं. बहरहाल, उन्होंने पूरी ईमानदारी व मेहनत से खुद को आदिवासियों के लिए  झोंक दिया. ठीक वैसे ही जैसे उन के पहले कइयों ने सेवा और जागरूकता का यह रास्ता चुनते शोषण को चुनौती दी थी. इन में एक उल्लेखनीय नाम छत्तीसगढ़ के डाक्टर विनायक सेन का है जिन्हें सरकार ने ऐसे और इतने मुकदमों में फंसाया था कि लंबे वक्त तक लोग इस तरह की समाजसेवा के फील्ड में आने से कतराने लगे थे. (देखें बौक्स)

साल 1991 में स्टैन स्वामी, जिन्हें ईसाई धर्मगुरु होने के चलते लोग फादर कहते थे, पूरी तरह  झारखंड के हो गए और रांची के नामकुम इलाके में उन्होंने बच्चों के लिए स्कूल और टैक्निकल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट खोले. यहां तक किसी को कोई एतराज न था लेकिन जैसे ही आदिवासी अधिकारों को ले कर उन्होंने सरकार से टकराना शुरू किया तो वे एकसाथ कई आंखों में खटकने लगे. 1996 में उन्होंने यूरेनियम कौर्पोरेशन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा तो एक खास वर्ग के लोग उन्हें एक बड़े खतरे के रूप में देखने लगे. बगईचा उन की संस्था का नाम ही नहीं था बल्कि घर और दफ्तर भी इसी नाम से पहचाने जाने लगे थे, जिस में कोई भारीभरकम सामान कभी नहीं रहा क्योंकि वे अविवाहित थे.

उन के छोटे से कमरे में घरगृहस्थी के सामान के नाम पर एक पलंग, एक टेबल और कुछ कागजात व किताबें भर हैं. उन की सेवा करने वाली पुष्पा कच्छप को यकीन ही नहीं होता कि स्टैन स्वामी अब नहीं रहे. यही हाल बगईचा की देखभाल करने वाले सिलवासटेन लकडा सहित दूसरे लोगों का है. बकौल पुष्पा, ‘‘वे बहुत सीधे थे और गलती हो जाने पर भी किसी को डांटते नहीं थे बल्कि प्यार से सम झाते थे. उन्होंने 3 कुत्ते पाल रखे थे जिन का वे पूरा खयाल रखते थे.’’

5 जुलाई को न केवल बगईचा और रांची में, बल्कि पूरे  झारखंड में लोग दुखी थे और उन की मौत को हत्या करार दे रहे थे. रांची सहित पूरे  झारखंड के लोगों  में देखने में आया कि सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किए और कुछ जगहों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पुतला भी फूंका गया. ये लोग केंद्र सरकार और एनआईए को स्टैन स्वामी की मौत का जिम्मेदार ठहरा रहे थे.

इसलिए खटकने लगे थे

धीरेधीरे स्टैन स्वामी की पहचान एक एक्टिविस्ट और आदिवासी कार्यकर्त्ता की हो गई. गरीबों के लिए भोजन का अधिकार हो या उन का आधार कार्ड बनना हो, स्टैन स्वामी एक बड़े वर्ग के निशुल्क सलाहकार बनते गए. मनरेगा और सामाजिक सुरक्षा के अलावा उन का फोकस विस्थापितों और जेल में बंद कर दिए गए बेगुनाह आदिवासियों पर भी रहा. लेखक और कानून के अच्छे जानकार स्टैन स्वामी जरूरतमंदों की ये छोटीबड़ी लड़ाइयां खुद की मान कर लड़ने लगे.

इस बाबत वे सरकारी महकमों को केवल चिट्ठियां ही नहीं लिखते थे बल्कि जरूरत पड़ने पर अदालत का दरवाजा भी खटखटाने लगे थे. अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए वे आदिवासियों को प्रशिक्षण भी देने लगे थे. आदिवासियों का आत्मसम्मान कहे जाने वाले पत्थलगढ़ी आंदोलन को भी उन्होंने अपना समर्थन दिया था. इस बाबत राज्य सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया था.

झारखंड में भाजपा राज के दौरान उन्होंने सीएनटी (छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम) और एसपीटी (संथाल परगना अधिनियम) कानूनों में बदलाव व संविधान की 5वीं अनुसूची सहित पेसा (पंचायती राज – अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार अधिनियम 1996) कानून के अमल के लिए मुहिम चलाई तो देखते ही देखते भगवा गैंग ने उन की नई पहचान गढ़ना शुरू कर दी कि वे नक्सली समर्थक वामपंथी हैं और ईसाई मिशनरियों की मदद से धर्मांतरण कराते हैं, जबकि उन के नजदीकी बेहतर जानते और सम झते थे कि स्टैन स्वामी ईश्वर की सेवा के बजाय आदिवासियों और वंचितों की सेवा करते हैं.

दरअसल, सीएनटी और एसपीटी में बदलाव कर भाजपा सरकार आदिवासियों की जमीनों की खरीदफरोख्त का रास्ता खासतौर से पूंजीपतियों के लिए खोलना चाह रही थी. इन कानूनों में कड़े प्रावधान इस बात के हैं कि कोई बाहरी व्यक्ति आदिवासियों की जमीनों की खरीदफरोख्त नहीं कर सकता. और तो और खुद भूमिस्वामी को भी इस बात की छूट या इजाजत नहीं है कि वह अपनी जमीन किराए पर दे. अंगरेजों के बनाए ये कानून कोई शक नहीं कि आदिवासियों के भले के थे.

हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में यह बड़ा मुद्दा भी था लेकिन स्टैन स्वामी को राजनीति से परे चिंता भोले और सीधेसादे आदिवासियों की थी, इसलिए वे भाजपाई कोशिशों का विरोध करते रहे. गड़बड़ यहीं से शुरू हुई और  झल्लाई भाजपा और उस के समर्थक पूंजीपतियों ने स्टैन स्वामी को तरहतरह से बदनाम करना शुरू कर दिया.

हेमंत सोरेन की अगुआई वाले  झारखंड मुक्ति मोरचा और कांग्रेस गठबंधन को मिली जीत की बड़ी वजह इन कानूनों से छेड़छाड़ न करने का वादा भी था. हेमंत सोरेन मौके की नजाकत भांपते अपनी चुनावी सभाओं में यह कहने से नहीं चूकते थे कि, आदिवासियों की जमीनों पर जिन पूंजीपतियों की नजरें हैं, भाजपा उन के हित साधना चाहती है लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे.

यानी मुद्दा पकाया तो स्टैन स्वामी ने था लेकिन उस का फायदा मिला  झामुमो को. लेकिन हार के बाद रांची से दिल्ली मैसेज यह गया कि असल में स्टैन स्वामी ने आदिवासियों को भाजपा के खिलाफ भड़काया तभी से मोदीशाह की नजरें इस एक्टिविस्ट पर ऐक्टिव होने लगीं थीं. जिस का नतीजा 8 अक्तूबर, 2020 को उन की गिरफ्तारी की शक्ल में सामने आया जिस के लिए स्टैन स्वामी मानसिक रूप से तो तैयार थे लेकिन शारीरिक रूप से नहीं. गिरती सेहत, बढ़ती बीमारियों और कानून के कहर ने उन्हें हमेशा के लिए मुक्त कर दिया था.

साथ ही, यह बता और जता दिया कि अगली बार जो भी स्टैन स्वामी बनने की कोशिश करेगा उसे उन की जैसी मौत मरने भी तैयार रहना चाहिए.

हत्यारे साबित हुए कानून के हाथ

केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली नैशनल इन्वैस्टिगेशन एजेंसी यानी एनआईए ने रांची के उन के घर से उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन पर आरोप मढ़ा गया था कि वे 1 जनवरी, 2018 को हुई भीमा कोरेगांव की हिंसा में हिस्सेदार थे. अपने आरोपपत्र में एनआईए ने दावा किया था कि स्टैन स्वामी माओवादी संगठन की गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल थे और फंड भी ले रहे थे. उन के कब्जे से प्रचार सामग्री और साहित्य सहित दूसरे दस्तावेज पाए गए. यह भी प्रमुखता से कहा गया था कि पीपीएससी यानी कैदियों की एकजुटता समिति, जो सीपीआई (एम) का फ्रंटल संगठन है, के वे संयोजक हैं वगैरहवगैरह.

9 अक्तूबर, 2020 की दोपहर स्टैन स्वामी को मुंबई स्थित विशेष अदालत में पेश किया गया. उन्हें 23 अक्तूबर तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.

इस के पहले उन के जैसे  16 कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, वकीलों और समाजसेवियों को देश के विभिन्न हिस्सों से गिरफ्तार किया जा चुका था जिन में सुधीर धवले, रोना विल्सन, अरुण परेरा, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुम्ब्डे, गौतम नवलखा और हनी बाबू प्रमुख थे. इन सभी में वरवरा राव इकलौते कैदी थे जिन्हें बौम्बे हाईकोर्ट से 21 फरवरी, 2021 को मैडिकल ग्राउंड पर जमानत नसीब हो गई थी.

स्टैन स्वामी की गिरफ्तारी पर देशविदेश के हैरान लोगों ने प्रतिक्रियाएं भी व्यापक दी थीं. जिन में सब से सटीक मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की थी. उन्होंने कहा था, ‘‘स्टैन ने अपनी पूरी जिंदगी आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने में लगाई है. यह मोदी सरकार ऐसे लोगों को चुप करा रही है क्योंकि इस सरकार के लिए कोल माइन कंपनियों का फायदा आदिवासियों की जिंदगी और रोजगार से ज्यादा जरूरी है.’’

लेकिन सरकार के लिए इस से भी ज्यादा जो जरूरी था वह स्टैन स्वामी की जमानत न होने देना था. बावजूद इस हकीकत के कि स्टैन स्वामी गिरफ्तारी के वक्त 83 साल के थे, बीमार रहते थे और पार्किन्सन बीमारी के चलते उन के हाथ कांपते थे. अपनी गिरफ्तारी से पहले उन्होंने मीडिया से कहा भी था कि उन के किसी तरह के संबंध माओवादियों या उन के संगठनों से नहीं हैं.

जिन सुबूतों का हवाला एनआईए दे रहा है वे उन के कंप्यूटर में षड्यंत्रपूर्वक डाले गए हैं. इस बात में दम लाने वाली बात एक अमेरिकन डिजिटल फौरेंसिक लैबोरेटरी का यह दावा काफी है कि यलगार परिषद के 2 आरोपियों रोना विल्सन और सुरेंद्र गाड्लिंग के कंप्यूटरों में मालवेयर वायरस के जरिए कुछ कागजात डाले गए थे जो इन दोनों को दोषी साबित कर सकते हैं तो ऐसा स्टैन स्वामी के साथ क्यों नहीं हो सकता जिस की आशंका भी वे जाहिर कर रहे थे.

किस (के) काम का कानून

राष्ट्रद्रोह का कहे जाने वाले जिस कानून के तहत स्टैन स्वामी को गिरफ्तार किया गया उस के तहत यलगार परिषद के 14 सदस्यों को गिरफ्तार कर उन्हें जमानत के लिए तरसा देने की परंपरा खूब निभाई गई है. यलगार परिषद के ही 14 आरोपी 2 साल से बिना कोई जुर्म साबित हुए कारावास की सैर कर रहे हैं और अदालतों को कोई चिंता नहीं है कि बिना अपराध साबित हुए किसी को कैसे जेल में बंद कर रखा जाता है जबकि मामला वैचारिक है न कि हथियारों का या विद्रोह के लिए लोगों को जमा करने का.

केरल के एक पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को पुलिस ने 5 अक्तूबर, 2020 को 3 साथियों सहित मथुरा में गिरफ्तार किया था. इन चारों पर राजद्रोह के साथसाथ दंगा फैलाने, विदेशों से फंड लेने और आईटी एक्ट की धाराएं लगाई गई थीं. इन लोगों के खिलाफ अप्रैल में एसटीएफ ने आरोपपत्र दायर किया था.

बीती 5 जुलाई को जब मुंबई में स्टैन स्वामी की जिस वक्त मौत हुई थी उसी वक्त मथुरा की एक अदालत में सिद्दीकी के वकील विल्स मैथ्यू उन की जमानत के लिए जिरह कर रहे थे. बहस 6 जुलाई को भी जारी रही लेकिन दोपहर 3 बजे अदालत ने सिद्दीकी कप्पन की जमानत याचिका बिना किसी टिप्पणी के खारिज कर दी.

इस के पहले 21 अप्रैल को सिद्दीकी बाथरूम में गिर पड़े थे, इलाज के लिए अस्पताल में भरती किए गए तो वे भी कोरोना पौजिटिव निकले यानी गिरते नहीं तो स्टैन स्वामी की तरह कानून के नाम पर कोरोना अपना काम कर देता. अब मुमकिन है वे भी सुप्रीम कोर्ट जाएं लेकिन जमानत की गारंटी वहां भी नहीं है. कानून की किताबों और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में मानव अधिकारों की बातें चाहे जो भी हों, जमानत देने में अदालतों की कंजूसी एक तरह से कानून की बेडि़यां पहनाना है. इन्हीं बेडि़यों में कुछ दम तोड़ देते हैं जो कानून द्वारा हत्या है.

दिल्ली दंगों के 3 युवा आरोपियों एक्टिविस्ट नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इक्वल तनहा को दिल्ली हाईकोर्ट से बीती 17 जून को जमानत मिल गई थी. इन तीनों पर भी यूएपीए की धाराएं लगाई गई थीं. जमानत के आदेश के बाद भी इन्हें मुश्किल से रिहा किया गया, इस से पुलिस वालों की मंशा ही उजागर होती है. नताशा के पिता महावीर नरवाल की एक महीने पहले ही कोरोना से मौत हुई थी.

इस मामले से कई सवाल और शक भी उठ खड़े हो रहे हैं क्योंकि यूएपीए कानून साल 1967 में राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को संकट में डालने वाली गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए बनाया गया था. अगस्त 2019 में मोदी सरकार ने इस कानून में और भी संशोधन करते इसे और शक्तिसंपन्न बना दिया. जिस के तहत अब संगठनों के अलावा संदिग्ध व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित किया जा सकता है और उस की संपत्ति भी जब्त की जा सकती है.

राष्ट्रद्रोह के कानून में अब बाकी यही रह गया है कि पुलिस या एनआईए जैसी सरकारी एजेंसी को ये अधिकार भर नहीं दिए गए हैं कि उसे जिस किसी के राष्ट्रद्रोही होने का शक हो आए, उसे तुरंत वह गोली मार दे. इस से जमानत और अदालत वगैरह का  झं झट ही खत्म हो जाएगा. लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं, जिन के मुताबिक, राष्ट्रद्रोह एक मिथ्या परिकल्पना से ज्यादा कुछ नहीं है. सरकार की ही एजेंसी एनसीआरबी के मुताबिक, 2014 से 2019 तक 326 मामले इस के दर्ज हुए जिन में 599 लोगों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन आरोप महज 10 लोगों पर ही साबित हुए.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता चिराग गुप्ता के मुताबिक, जब ज्यादा लोग छूट रहे हैं तो यह साबित हो जाता है कि गलत मुकदमे दायर हो रहे हैं क्योंकि उन्हें दायर करना आसान होता है. भारत में पटवारी और पुलिस इंस्पैक्टर ये दोनों सिविल और क्रिमिनल में प्रभावी होते हैं ये जो लकीर खींच देते हैं वह पत्थर की लकीर हो जाती है. उसे पलटने के लिए लोगों को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की दौड़ लगानी पड़ती है.

ऐसे में यह बात भी साबित हो जाती है कि यह कानून किसी काम का नहीं है सिवा सरकार के काम के, जो इसे हथियार बना कर अपने से असहमत लोगों को जेल में डाल देती है. इस के बाद जो होता है वह स्टैन स्वामी के मामले से भी सहज सम झा जा सकता है और सिद्दीकी कप्पन जैसे लोगों की बदहाली से भी जो अपनी बीमार बूढ़ी मां को आखिरी बार देखने भी नहीं जा पाते.

इंडियन पीनल कोड बनाने के बाद साल 1870 में अंगरेजों ने राष्ट्रद्रोह वाली धारा 124ए को इस में जोड़ा था. मकसद था स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलना, महात्मा गांधी से ले कर भगत सिंह तक पर धारा 124ए लगाई गई थी लेकिन आजादी मिलने के बाद भी यह धारा वजूद में रही जो अब नएनए संस्करणों से सामने आ कर नएनए फसाद खड़े कर रही है, जिन के लोकतंत्र में कोई माने नहीं.

माने हैं तो सिर्फ इतने…

दाद देनी होगी एनआईए की कार्यशैली की जिसे जांच हाथ में लेने के 8 महीने बाद यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि स्टैन स्वामी क्यों भीमा कोरेगांव की हिंसा के आरोपी नहीं हो या बनाए जा सकते. गिरफ्तारी के पहले वह जून और अगस्त 2020 में भी स्टैन स्वामी के  झोंपड़े की तलाशी ले चुका था. तब उसे ये सुबूत क्यों नहीं मिले थे.

यानी स्टैन स्वामी का यह कहना गलत भी नहीं हो सकता कि बगइचा की तलाशी के दौरान सुबूत प्लांट किए गए. एनआईए तो यह भी साबित नहीं कर पा रहा कि भीमा कोरेगांव की हिंसा या यलगार परिषद की कथित मीटिंग के वक्त वे घटनास्थल पर थे भी या नहीं.

बहरहाल, 9 अक्तूबर, 2020 को ही एनआईए ने एक सप्लीमैंट्री चार्जशीट इस अदालत में पेश की जिस में उन पर आईपीसी की धाराओं 120(बी), 121, 121( ए ) 124( ए ) और 34

सहित यूएपीए की धाराएं 13, 16,18, 20, 38 और 39 लगाई गईं. अदालत ने उन्हें मुंबई की तलोजा सैंट्रल जेल भेज दिया.

जेल में जाते ही स्टैन स्वामी की सेहत लगातार बिगड़ती गई. 26 अप्रैल, 2021 को उन्होंने जमानत के लिए बौम्बे हाईकोर्ट का रुख करते जमानत याचिका पेश की. हाईकोर्ट को भी उन की सेहत पर कोई रहम न आया और उस ने उन्हें तमाम मैडिकल रिपोर्टे दाखिल करने का आदेश दिया.

इस के बाद इलाज के लिए उन्हें मुंबई के जेजे अस्पताल में भरती करा दिया गया. 29 मई को स्टैन स्वामी की किसी अच्छे प्राइवेट अस्पताल में इलाज की मांग स्वीकारते उन्हें होली फैमिली अस्पताल जाने की इजाजत दे दी गई. यहां उन की कोविड जांच रिपोर्ट पौजिटिव आई जिस का इलाज चलता रहा और इलाज का सारा खर्च उन के शुभचिंतकों व परिचितों ने उठाया.  4 जुलाई को उन्हें दूसरे लाखों कोरोना संक्रमितों की तरह दिल का दौरा पड़ा जिस के चलते वे अगले दिन चल बसे. 5 जुलाई को जब हाईकोर्ट की बैंच एक बार फिर उन की जमानत अर्जी पर सुनवाई के लिए बैठी तब तक फैसला कुदरत कर चुकी थी.

भरे मन से स्टैन स्वामी के वकील मिहिर देसाई ने अदालत को उन की मौत की खबर दी जिस पर जस्टिस एस एस शिंदे और जस्टिस एस जे जमादार ने औपचारिक खेद व्यक्त करते अपना काम पूरा हुआ मान लिया.

कानून कितना बेरहम है यह इस बात से स्पष्ट है कि अदालत ने मौत क्यों हुई यह जानना भी जरूरी नहीं समझा और किसी कानूनविद को इस कार्य में नहीं लगाया. अपनी बात न खुले, इस के लिए जज, वकील बहुत सावधान रहते हैं.

इतना क्रूर है कानून 

जेल में स्टैन स्वामी की हालत कतई ठीक नहीं थी. इस पर भी नीम चढ़े करेले जैसी बात यह थी कि विशेष अदालत के बाद हाईकोर्ट ने भी कोई नरमी उन की हालत को ले कर नहीं दिखाई. उलटे, जितनी ज्यादा हो सकती थी, सख्ती दिखाई. ऐसा बेवजह नहीं था. उन वजहों को सम झने से पहले कानूनी क्रूरता का एक उदाहरण देखना व सम झना जरूरी है.

स्टैन स्वामी हाथ कंपकंपाने के चलते खानेपीने के लिए स्ट्रा और सिपर का इस्तेमाल करते थे. इस बाबत उन्होंने विशेष अदालत में याचिका दायर की तो 26 नवंबर, 2020 को एनआईए के यानी सरकारी वकील प्रकाश शेट्टी ने कहा, ‘‘असल में स्टैन स्वामी ने कभी स्ट्रा और सिपर के लिए अर्जी ही नहीं दी और उन्हें गिरफ्तार करते वक्त ये चीजें बरामद ही नहीं हुईं. जब हमें स्ट्रा और सिपर जैसा कुछ मिला ही नहीं तो हम उन्हें ये कैसे दे दें.’’ इस का अर्थ यह भी है कि गिरफ्तार करते समय एनआईए बनियान और अंडरवियर भी देखेंगे कि कितने हैं, किस ब्रैंड के हैं और कहीं हैं तो जेल में नहीं देगी!

वकील की दलील तो बचकानी और धूर्तता वाली थी ही लेकिन अदालत तुरंत स्ट्रा दे देने के आदेश की जगह मामले को टालते हुए भी उस से ज्यादा मासूमियत से पेश आई, जिस ने तलोजा जेल के मैडिकल औफिसर को निर्देश दिया कि वे स्टैन स्वामी के लिए स्ट्रा, सिपर और गरम कपड़ों की जरूरतों से संबधित अर्जी के बारे में अगली तारीख को जवाब दें. यह सब क्या था- 83-84 साल का एक बूढ़ा जो हाथ से खाता है तो निवाला मुंह तक पहुंचने के पहले गिर जाता है, जो पानी का गिलास उठाता है तो वह होंठों तक नहीं पहुंचता उस से पहले ही छलक जाता है उस के लिए किसी वकील या जज ने यह मानवीयता नहीं दिखाई कि वह 20 रुपए से भी कम कीमत के ये आइटम खरीदने की पहल करे. उलटे, इस के लिए भी डाक्टर को जवाब देने को कहा गया.

स्ट्रा कोई हथियार तो नहीं है

यह सरासर एक बूढ़े, बीमार और लाचार विचाराधीन कैदी से उस के खानेपीने का भी हक छीनने जैसा गुनाह था. स्टैन स्वामी कोई असलहा, बारूद नहीं मांग रहे थे बल्कि एक तरह से अपने खानेपीने के साधन या चम्मच सरीखे आइटम मांग रहे थे.

इस बात से कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि उन के साथ और क्याक्या नहीं हुआ होगा. ऐसे गैरजरूरी सवालजवाबों में अदालती वक्त, वह भी इंसाफ के ठेकेदारों के हाथों, बरबाद करना भी किसी क्रूरता से कमतर नहीं कहा जा सकता. जेल में उन्हें खाना भी दूसरे कैदी खिलाते थे और पानी भी पिलाते थे. यह बात खुद स्टैन स्वामी ने जेल से एक दोस्त को चिट्ठी के जरिए बताई थी. हकीकत में उन का मनोबल तोड़ने के लिए कानूनी खानापूर्तियों की आड़ ले कर उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जा रही थीं जो धीरेधीरे उन की मौत की वजह बनीं.

जद्दोजेहद जमानत की 

ये वही स्टैन स्वामी थे जिन्होंने अपनी जिंदगी में जेलों में फर्जी आरोपों में ठूंसे गए कोई 3 हजार कैदियों के लिए लड़ाई लड़ी थी. इस का जिक्र उन्होंने अपनी लिखी किताब ‘जेल में बंद कैदियों का सच’ में किया भी है कि पुलिस जिन आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार करती है उन में से 98 फीसदी का नक्सलवाद से कोई प्रत्यक्ष तो दूर की बात है परोक्ष संबंध भी नहीं होता. लेकिन इस के बाद भी उन्हें सालों जेल में गुजारने पड़े. यह सब हवाहवाई नहीं था बल्कि उन की रिसर्च का नतीजा था जो उन्होंने 3 हजार परिवारों पर की थी.

स्टैन स्वामी इस संवेदनशील मुद्दे, जो आदिवासियों की बड़ी सिरदर्दी है, को ले कर बेहद संजीदा थे क्योंकि ऐसे पकड़े गए कथित आरोपी आदिवासी युवा ज्यादा होते थे. अपनी रिसर्च को आधार बना कर उन्होंने साल 2017 में  झारखंड हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर मांग की थी कि ऐसे युवाओं को अंतरिम जमानत देने और मामलों के त्वरित निबटारों के लिए एक जांच आयोग का गठन किया जाए जो  झारखंड के सभी 24 जिलों में इस बात की भी पड़ताल करे कि कैसे नक्सली होने के नाम पर आदिवासियों से आत्मसमर्पण करवाया जाता है और कई बार फर्जी मुठभेड़ों में उन्हें मार भी गिराया जाता है. मानव अधिकार आयोग से भी इस बाबत उन्होंने गुहार लगाई थी लेकिन कहीं उन की सुनवाई नहीं हुई.

सुनवाई तो उन की बौम्बे हाईकोर्ट में भी नहीं हुई जिस के माने साफ हैं कि मकसद उन्हें जेल में सड़ाना था और इस साजिश में सारे मौसेरे भाई एकजुट हो गए थे. उन्हें अब जेल में रख कर  आदिवासियों को जागरूक करने के गुनाह और  झारखंड में भाजपा की हार का जिम्मेदार मानते सजा दी जा रही थी. बहुत से चिंतकों और विचारकों का यह कहना और रोनागाना गलत नहीं है कि स्टैन स्वामी की हत्या की गई है.

क्या उन्हें जमानत नहीं दी जा सकती थी? यह सवाल इस प्रतिनिधि ने कोई 20 छोटेबड़े वकीलों से पूछा तो सभी ने एक स्वर में कहा कि स्टैन स्वामी को जमानत दी जानी चाहिए थी और यह उन का हक भी था. सीहोर के रामनारायण ताम्रकर हों या भोपाल के अनिल श्रीवास्तव या फिर विदिशा की उषा विक्रोल हों, इन सभी ने उन्हें जमानत न मिलने पर हैरानी जताई.  झारखंड हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता व एक्टिविस्ट राजीव कुमार ने स्टैन स्वामी का नाम सुनते ही सवाल पूरा होने से पहले ही जवाब दे दिया कि उन के साथ न्याय नहीं हुआ बल्कि अन्याय हुआ है. जमानत तो उन्हें विशेष अदालत भी दे सकती थी लेकिन इस पूरे मामले में सरकारी दखल साफसाफ दिख रहा है.

बकौल राजीव कुमार, कोई नेता जब किसी घपलेघोटाले में पकड़ा जाता है तो मैडिकल ग्राउंड ले कर सीधे अस्पताल में भरती होता है. ऐसे दर्जनों उदाहरण मैं गिना सकता हूं जिन में नेता जेल नहीं गया. यह भेदभाव नहीं तो क्या है. असल में इन दिनों एक बड़ा गड़बड़ झाला ज्युडिशयरी में देखने में आ रहा है कि नीचे से ले कर ऊपर तक जज साहिबान सरकार के मुहताज हो चले हैं और इस के अपने कारण भी हैं. निचली अदालतें आमतौर पर जमानतें देने में हिचकने लगी हैं. इसे देख लगता है कि उन्हें जमानत के लिए तकलीफ देने के इस प्रावधान पर ही पुनर्विचार हो. अधिकतर मामलों में होता वह है जो सरकार की मंशा होती है तो न्याय की उम्मीदें क्षीण हो जाती हैं.

इस के लिए कोई सर्कुलर कहीं से जारी नहीं होता बल्कि सबकुछ कैरीफौरवर्ड शब्द के तहत होता है. बात जहां तक स्टैन स्वामी की है तो वे भी इसी रिवाज के शिकार हुए लगते हैं. लगता ऐसा भी है कि नीचे से ले कर ऊपर तक सभी ने उन्हें जमानत न देने का मैसेज सम झ उसे अपने दिमाग में सेव कर लिया था. इसलिए बारबार तारीख आगे बढ़ती रही लेकिन अगर जमानत मिल जाती तो वे बच सकते थे. अदालतों को केवल आरोपों की गंभीरता को प्राथमिकता में नहीं रखना चाहिए क्योंकि वे कथित होती हैं. स्टैन स्वामी जैसे मामलों में आरोपी की उम्र और सेहत पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए क्योंकि आरोपी भी तो आरोप सिद्ध न होने तक कथित तौर पर ही आरोपी होता है.

रांची के राजीव कुमार की बातों को विस्तार देते हुए जबलपुर हाईकोर्ट के युवा अधिवक्ता सौरभ भूषण कहते हैं, ‘‘ट्रायल से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक के जजों से सरकार के स्वार्थ ट्रांसफर और प्रमोशन के अलावा किसी न किसी आयोग या फोरम में फिट होने और आर्बिट्रेटर नियुक्त हो जाने के रहते हैं क्योंकि ये नियुक्तियां सरकार ही करती है और इसलिए कोई भी जज सरकार को नाराज नहीं करना चाहता.’’

निचली अदालतें जमानत देने में हिचकिचाती क्यों हैं, इस सवाल के जवाब में सौरभ कहते हैं, ‘‘असल में निचली अदालतों के जजों पर हाईकोर्ट का दबाव रहता है. वह यह कि अगर किसी चर्चित या गंभीर मामले में जमानत दे दी तो उन्हें शक की निगाह से देखा जाने लगता है कि जरूर उन्होंने कुछ गड़बड़ की है या घूस ली होगी. कई बार तो हाईकोर्ट से उन्हें शोकौज नोटिस भी थमा दिया जाता है जिस से उन की सीआर खराब होती है. इसलिए वे इस  झं झट में ही नहीं पड़ते. जबकि सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत देने के मामले में उन के अधिकार किसी भी दूसरी बड़ी अदालत से कमतर नहीं हैं.’’

बकौल सौरभ, किसी वकील के मुंह से यह बात सुनना अतिशयोक्ति या पूर्वाग्रह लग सकता है लेकिन इसी साल जनवरी में एक वैबिनार में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस अतुल श्रीधरन ने कहा था, निचली अदालतें इतने दबाव में हैं कि वे सामान्य मामलों में भी जमानत नहीं देतीं. किसी भी व्यक्ति को जब तक बहुत जरूरी न हो, जेल में नहीं रखा जाना चाहिए. उन्होंने जजों से विवेक संपन्नता की भी अपेक्षा व्यक्त की थी. आंकड़ों के जरिए भी उन्होंने बताया था कि हाईकोर्ट में 10 में से 8 मामले जमानत के होते हैं क्योंकि निचली अदालतों ने जमानत देना बंद कर दिया है. इसीलिए हाईकोर्ट में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है.’’

जमानत के कानून की धाराएं ब्रिटिश टाइम की हैं जो आज के मुकाबले ज्यादा उदार और मानव प्रेमी थे और कोतवाल को असीमित अधिकार देने से रोकते थे. कुछ ही अंगरेज मजिस्ट्रेट कुछ ही मामलों में कट्टर होते थे. इन में किसी तरह का भेदभाव किसी भी आधार पर नहीं है. आमतौर पर यह केस डायरी या इन्वैस्टिगेशन रिपोर्ट से ज्यादा जज के विवेक पर निर्भर रहता है कि जमानत दी जाए या नहीं. स्टैन स्वामी की गिरफ्तारी के साथ ही उन की बीमारी और उम्र का हल्ला मचने लगा था. सौरभ कहते हैं, ‘‘आमतौर पर जज आरोपी की बौडीलैंग्वेज से ही ताड़ जाते हैं कि आरोपी किस लैवल का है. विशेष अदालत को स्टैन स्वामी की हालत नहीं दिखी होगी, ऐसा लगता नहीं, लेकिन उस ने कागजी कार्यवाही पर जोर दिया जिस में बेवजह का वक्त लगता है. अगर मंशा वाकई नेक होती तो उन्हें भी कोरोना के पैरोल का फायदा कुछ शर्तों के दिया जा सकता था.’’

क्या अदालतें सरकार की मंशा के मुताबिक काम करने लगी हैं, इस पर वे कहते हैं, ‘‘आप को मैं इस की वजहें बता चुका हूं लेकिन देखा यह भी जाना चाहिए कि क्यों सुप्रीम कोर्ट के जजों को प्रैस कौन्फ्रैंस कर अपनी व्यथा बतानी पड़ी थी, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था. अब तो कौलेजियम सिस्टम खत्म होने से जजों की नियुक्ति में भी सरकार का दखल हो गया है. ऐसे में आप बहुत ज्यादा स्वतंत्रता और निष्पक्षता को ले कर चिंतित हो सकते हैं.’’

स्टैन स्वामी की मौत पर हर कोई कानून को कोस रहा है. उसे हत्यारा बता रहा है. तो अब अदालतों को सोचना चाहिए कि वे अपनी कैसी इमेज गढ़ना चाहती हैं, जैसी पहले कभी थी वैसी या जैसी अभी बनती जा रही है वैसी.

  एक हैं विनायक सेन

पेशे से डाक्टर विनायक सेन इन दिनों कहां हैं, यह कम ही लोगों को मालूम है. इस प्रतिनिधि ने छत्तीसगढ़ में उन के नजदीकियों से बात की तो पता चला कि वे कोलकाता में हो सकते हैं और इन दिनों अस्वस्थ चल रहे हैं. पिछले साल कोलकाता में ही अगस्त में पत्नी इलिना सेन की कैंसर से हुई मौत ने उन्हें तोड़ सा दिया है. विनायक सेन पर भी स्टैन स्वामी जैसा जज्बा आदिवासियों की सेवा का था और वे न केवल मुफ्त में उन का इलाज करते थे बल्कि उन के लिए वह सब करते थे जो स्टैन स्वामी जैसे लोग अपनी सुखसुविधाएं छोड़ कर जंगलों में वंचितों के उद्धार के लिए उतर जाते हैं. इस एक्टविस्ट को 14 मई, 2007 को बिलासपुर से बड़े नाटकीय अंदाज में गिरफ्तार किया गया था.

तब विनायक पर आरोप लगाया गया था कि वे नक्सलियों के साथी हैं और उन के लिए काम करते हैं. दूसरे दिन ही उन्होंने जमानत याचिका दायर की जो तुरंत खारिज कर दी गई. 3 दिनों बाद अदालत के आदेश पर पुलिस ने विनायक सेन के घर की तलाशी ली तो पुलिस ने उन के कंप्यूटर की

छानबीन की. इसी साल 3 अगस्त को छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा कानून और अवैध गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत उन के खिलाफ स्थानीय अदालत में आरोपपत्र पेश किया गया. जमानत के लिए वे सुप्रीम कोर्ट गए लेकिन  10 दिसंबर, 2007 को वहां से भी उन की जमानत याचिका खारिज हो गई. इसी बीच, मुकदमे की सुनवाई शुरू हो गई. इस के बाद विनायक ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में जमानत याचिका लगाई लेकिन वह भी खारिज हो गई. इस दौरान उन की गिरफ्तारी को ले कर देशदुनिया से आवाजें उठने लगी थीं कि रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार उन्हें एक साजिश के तहत फंसा रही है.

आखिर 25 मई, 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया. तब 2 सदस्यीय बैंच में जस्टिस दीपक वर्मा और जस्टिस मार्कंडेय काटजू थे. निचली अदालत में मुकदमा चलता रहा और 24 दिसंबर, 2010 को सैशन कोर्ट के जज बी पी वर्मा ने इन्हें आईपीसी की धाराओं 124ए और 120बी के तहत दोषी करार दे कर आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

10 दिनों बाद ही विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और जमानत के लिए भी गुहार लगाई जो 10 फरवरी, 2011 को खारिज कर दी गई. फिर से सुप्रीम कोर्ट जाने पर उन्हें 15 अप्रैल, 2011 को जमानत दे दी गई. उन की तरफ से यह सारी कानूनी लड़ाई उन की पत्नी इलिना सेन ने लड़ी जो वर्धा यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थीं. वर्धा में ही एक मुलाकात में उन्होंने इस प्रतिनिधि को बताया था कि विनायक सीधे हैं, सेवाभावी हैं. कई बार तो मु झे उन की जेबें टटोल देखना पड़ता है कि उन के पास पैसे हैं या नहीं और कहने वाले उन्हें नक्सली और राजद्रोही के खिताब से नवाज रहे हैं.

यह मामला सिर्फ इस नजरिए से दिलचस्प नहीं है कि विनायक सेन नक्सली और दोषी हैं या नहीं, बल्कि इस लिहाज से ज्यादा दिलचस्प है कि अदालती कार्रवाई बहुत लंबी चली और चल रही है. यह बहुत सहूलियत से सोचा जा सकता है कि उन दिनों केंद्र में यूपीए की सरकार थी, इसलिए सुप्रीम कोर्ट से उन्हें 2 बार जमानत मिली जबकि छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार थी जो उन्हें सबक सिखाना चाहती थी. इसलिए सैशन और हाईकोर्ट से उन्हें जमानत नहीं मिली यानी अधिवक्ता राजीव कुमार और सौरभ भूषण की इस बात में दम है कि न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप रहता है.

अगर ऐसा है तो स्टैन स्वामी को भी जमानत रांची की निचली अदालत से मिल जाती लेकिन अब तक एनआईए नाम की संस्था वजूद में आ चुकी थी. इसलिए सुनवाई उसी की विशेष अदालत में हुई जिस ने केंद्र सरकार का मूड देखा. एनआईए को मौजूदा सरकार ने एक विधेयक के जरिए और अधिकारसंपन्न बना दिया है लेकिन उस की कार्यशैली देखते कहने वाले उसे सीबीआई के बाद दूसरा तोता कहने से चूकते नहीं, स्टैन स्वामी की मौत इस कटाक्ष को सच ही साबित करती है. उन की मौत के बाद मुंबई की तलोजा जेल में बंद यलगार परिषद के आरोपियों ने भूखहड़ताल कर स्टन स्वामी की मौत को संस्थागत हत्या बताते केंद्र सरकार और एनआईए को मौत का जिम्मेदार बताया.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...