इसराईल और फिलिस्तीन के बीच 11 दिनों तक चला खूनी संघर्ष थम गया. अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते आखिरकार इसराईल ने गाजा पट्टी में सैन्य अभियान को रोकने के लिए 21 मई से सीजफायर का ऐलान कर दिया. गाजा पट्टी से हमास के अधिकारियों ने भी लड़ाई रोकने की पुष्टि कर दी. इसराईल और फिलिस्तीन के बीच जारी जंग को खत्म करने के लिए अमेरिका का भारी दबाव इसराईल पर था. पहले इसराईल ने अमेरिकी अपील को नकार दिया था और लड़ाई को निर्णायक मोड़ तक ले जाने की बात कही थी लेकिन बाद में इसराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की हाईलैवल सिक्योरिटी कैबिनेट के मंत्रियों ने सर्वसम्मति से गाजा में सीजफायर के समर्थन में वोट किया.

इसराईल के रक्षा अधिकारियों ने मंत्रियों के सामने ब्रीफिंग करते हुए कहा कि इसराईल ने फिलिस्तीनी आतंकी समूह हमास के खिलाफ तटीय इलाके में सभी संभावित उपलब्धियों को हासिल कर लिया है (जैसा कि उस की मंशा थी). हमारे हमलों से हमास काफी डर गया है और उसे काफी चोट पहुंची है.

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इसराईल और फिलिस्तीन के बीच भीषण संघर्ष की शुरुआत तो पहली रमजान को ही हो गई थी जब इसराईली पुलिस ने येरुशलम की अलअक्सा मसजिद में घुस कर तोड़फोड़ मचाई और वहां लगे लाउडस्पीकर के केबल काट कर पूरे परिसर में तांडव किया था. इस का बदला लेने के लिए फिलिस्तीन की गाजा पट्टी से हमास, जिसे आतंकी संगठन कहा जाता है, ने इसराईल के खिलाफ मोरचा खोल दिया. इसराईल को शायद इसी मौके का इंतजार था. देखते ही देखते उस के लड़ाकू विमान फिलिस्तीन पर मिसाइल हमले कर के तबाही मचाने लगे. वहीं, गाजा पट्टी से हमास भी लगातार इसराईल पर रौकेटों की बारिश करने लगा.

गौरतलब है कि तकरीबन 2 हफ्ते की ताजा लड़ाई में फिलिस्तीन में 230 लोग मारे गए और इसराईल में 12 लोगों ने अपनी जानें गंवाईं. फिलिस्तीन के 41 बच्चों की जानें भी इस खूनी संघर्ष में चली गईं. संघर्ष के चलते करीब 58 हजार फिलिस्तीनियों ने पलायन किया है. गाजा में हमास के मुखिया याह्या अल सिनवार के घर को इसराईली मिसाइलों ने मिट्टी के ढेर में बदल दिया है. वहीं अरब और यहूदियों की मिश्रित आबादी वाले इसराईली शहरों में भी नागरिकों के बीच काफी झड़पें व हिंसा हुई है, जबकि अमूमन उन के बीच शांति और सौहार्द का माहौल रहता था.

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हालिया संघर्ष से पहले इसराईल और फिलिस्तीन के बीच लंबे वक्त तक शांति बनी रही. इस की वजह इसराईल पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव था. हालांकि कभीकभी राजनयिक स्तर पर कुछ विवाद उभरते थे, मगर जल्दी ही दब भी जाते थे. लेकिन अप्रैलमई में अचानक जंग के हालात पैदा हो गए और संभावना ऐसी बनने लगी कि अगर हालात काबू से बाहर हुए और जंग येरुशलम तक पहुंची तो दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी होगी.

झगड़े का इतिहास 

इसराईल और फिलिस्तीन यानी यहूदी और मुसलमान का सारा झगड़ा धर्म, वर्चस्व, जमीन हथियाने व तेल के कुओं के इर्दगिर्द ही है. यहूदी और मुसलमान दोनों के धर्मों का मूल स्रोत एक ही है. बावजूद इस के, ये दोनों एकदूसरे की जान के प्यासे हैं. दरअसल, दुनिया में धर्म ही हर झगड़े, हर फसाद की जड़ है. धर्म मासूमों की जानें लेता है. धर्म देशों को तबाह करता है. पूरे मध्यपूर्व एशिया को धर्म ने तबाह कर डाला. अमेरिका पर आतंकी हमले के पीछे धर्म और उस से उपजी कुंठा ही वजह थी. अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिंदुस्तान हर जगह धर्म मानवजाति के विनाश पर उतारू है. धर्म धरती का सब से बड़ा बोझ है. मगर कोई इस बोझ को उतार फेंकने को तैयार नहीं है.

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यहूदी और मुसलमान हमेशा से एकदूसरे की जान के प्यासे रहे हैं. वहीं, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच भी नफरत की कई मिसालें हैं. जबकि इसलाम और ईसाई दोनों धर्मों की उत्पत्ति यहूदी धर्म से हुई है. ये तीनों ही धर्म एकदूसरे के खिलाफ हैं, जबकि तीनों ही धर्म मूलरूप में एकसमान ही हैं. आज पूरा मध्य एशिया यहूदी, ईसाई और मुसलमानों के बीच जारी जंग से तबाह और बरबाद है.

उल्लेखनीय है कि 613 में जब हजरत मुहम्मद ने उपदेश देना शुरू किया तब मक्का, मदीना सहित पूरे अरब में यहूदी धर्म, पेगन, मुशरिक, सबायन, ईसाई आदि धर्म थे. हजरत मुहम्मद द्वारा पहले से मौजूद धर्मों में बदलाव लाने के लिए एक नए धर्म को शुरू करना यहूदियों और ईसाइयों को पसंद नहीं आ रहा था.

मुहम्मद के कुछ समर्थक थे और कुछ विरोधी. विरोध करने वालों में यहूदी सब से आगे थे. यहूदी नहीं चाहते थे कि धर्म को बिगाड़ा जाए, जबकि हजरत मुहम्मद के अनुसार, वे इसलाम की शुरुआत कर के मौजूदा धर्मों में सुधार लाने की कोशिश कर रहे थे. बस, यहीं से यहूदियों, मुसलमानों और ईसाईयों के बीच फसाद व जंग की नींव पड़ी.

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सन 622 में हजरत मुहम्मद अपने समर्थकों के साथ मक्का से मदीना चले गए. इसे ‘हिजरत’ कहा जाता है. मदीना में हजरत मुहम्मद ने लोगों को इकट्ठा कर के इसलामिक फौज तैयार की, सैनिकों के लिए कई कड़े नियम बनाए जिन में 30 दिन का रोजा और दिन में 5 वक्त की नमाज जैसी चीजें शामिल थीं. इसे हर सैनिक के लिए अनिवार्य किया गया और इस के बाद शुरू हुआ जंग का सफर. इसलामिक फौज ने जल्दी ही खंदक, खैबर, बदर और फिर मक्का को फतह कर लिया. ये लड़ाइयां अरसे तक चलती रहीं.

632 ईसवी में हजरत मुहम्मद के जाने के वक्त तक और उस के अगले सौ सालों में लगभग पूरे अरब में मुसलामानों का वर्चस्व कायम हो गया. इस के बाद मुसलमानों ने यहूदियों को अरब से बाहर खदेड़ दिया. हालत यह हो गई कि यहूदी इसराईल और मिस्र में सिमट कर रह गए. मगर वहां भी वे या तो मुसलिम शासन के अंतर्गत रहते या ईसाइयों के शासन में. 1096-99 में पहले कू्रसेड यानी धर्मयुद्ध और 1144 में दूसरे क्रूसेड के बाद यहूदियों को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लगातार दरबदर रहना पड़ा.

फिलिस्तीन में भी यहूदी शरणार्थी के तौर पर रहते थे. 1948 में फिलिस्तीन के बंटवारे से पहले तक फिलिस्तीन पर सौ फीसदी फिलिस्तीनियों यानी अरबों का कब्जा था. मगर धीरेधीरे यहूदियों ने अपने लिए अलग मुल्क की मांग उठानी शुरू कर दी. इस मामले में ईसाईयों ने यहूदियों का साथ दिया और 1948 में अंगरेजों ने फिलिस्तीन के 2 टुकड़े कर दिए. जमीन का 55 फीसदी टुकड़ा फिलिस्तीन यानी अरबों के हिस्से में आया और 45 फीसदी इसराईल के रूप में यहूदियों को सौंप दिया गया. 14 मई, 1948 को इसराईल ने खुद को एक आजाद देश घोषित कर दिया और इस तरह पहली बार एक यहूदी देश दुनिया के नक्शे पर आया.

मगर येरुशलम को ले कर लड़ाई जारी रही क्योंकि इसराईल और फिलिस्तीन दोनों येरुशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहते थे. धार्मिक लिहाज से येरुशलम न सिर्फ मुसलिम और यहूदी बल्कि ईसाइयों के लिए भी बेहद खास है. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र बीच में आया और उस ने फिलिस्तीन का एक टुकड़ा और अलग कर दिया. अब येरुशलम का 8 फीसदी हिस्सा संयुक्त राष्ट्र के कंट्रोल में आ गया, जबकि 48 फीसदी जमीन का टुकड़ा फिलिस्तीन और 44 फीसदी टुकड़ा इसराईल के हिस्से में रह गया.

येरुशलम पर नजर 

इसराईल येरुशलम पर अपना कब्जा चाहता है क्योंकि यह यहूदियों की आस्था का केंद्र है. यहां कभी यहूदियों का पवित्र सुलेमानी मंदिर हुआ करता था जो अब एक दीवार मात्र है. यहीं पर मूसा ने यहूदियों को धर्म की शिक्षा दी थी. मगर येरुशलम पर ईसाई धर्म और इसलाम भी अपना दावा रखते हैं क्योंकि यही शहर ईसा मसीह की कर्मभूमि रहा है तो माना जाता है कि यहीं से हजरत मुहम्मद जन्नत की ओर रवाना हुए थे.

प्रताड़ना के शिकार रहे हैं यहूदी

आज अपने अस्तित्व को बचाने व वर्चस्व को बढ़ाने के लिए यहूदी अपनी सारी ताकत लगाए हुए हैं तो इस के पीछे उन का वह अतीत जिम्मेदार है जिस में वे अन्य धर्मों को मानने वालों के हाथों लंबे समय तक जुल्म, प्रताड़ना, भटकाव और भयावह मौतों का शिकार बनते रहे. सदियों तक यहूदी यूरोप में भटकते रहे, पिटते रहे और मारे जाते रहे. नाजी हिटलर ने तो ‘फाइनल सोल्यूशन’ के नाम पर यहूदियों की पूरी कौम को ही खत्म करने का संकल्प ले लिया था. उन्हें मारने के लिए उस ने बाकायदा गैस चैंबर बनवाए थे.

आज अगर यहूदी ताकतवर हैं, दुनिया के पैसे पर उन का बड़ा कब्जा है और वे मुसलमानों व ईसाईयों के प्रति कट्टरता का परिचय दे रहे हैं तो इस के लिए उन का वह इतिहास और अन्य धर्मों के वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने उन पर लंबे समय तक हिंसा की.

नाजी जरमनी के अलावा भी कई सरकारों ने कैंप सिस्टम और टैक्नोलौजी का सहारा लिया और दुनिया के ज्यादातर हिस्से में यहूदियों का कत्ल किया जाता रहा. हालांकि सब से भयानक तरीका जरमन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने इख्तियार किया.

एडोल्फ हिटलर ने यहूदियों की तुलना कीटाणुओं से की. उस ने कहा कि जब तक आप उन के कारणों को नष्ट नहीं करते, बीमारियों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. उस का मानना था कि यहूदियों का प्रभाव तब तक नहीं हटेगा जब तक हम हमारे बीच से यहूदियों को ही न खत्म कर दें.

हिटलर ने यहूदियों को सब-ह्यूमन करार दिया था और उन्हें इंसानी नस्ल का हिस्सा नहीं माना. 1939 में जरमनी द्वारा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अपने फाइनल सोल्यूशन को अमल में लाना शुरू किया. उस के सैनिक यहूदियों को कुछ खास इलाकों में ठूंसने लगे. उन से काम करवाने, उन्हें एक जगह इकट्ठा करने और मार डालने के लिए विशेष कैंप स्थापित किए गए जिन में सब से कुख्यात था औस्चविट्ज.

यहूदियों को इन शिविरों में लाया जाता और वहां बंद कमरों में जहरीली गैस छोड़ कर उन्हें मार डाला जाता. जिन्हें काम करने के काबिल नहीं समझा जाता, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता. जबकि बाकी बचे यहूदियों में से ज्यादातर भूख और बीमारी से दम तोड़ देते. युद्ध के बाद सामने आए दस्तावेजों से पता चलता है कि हिटलर का मकसद दुनिया से एकएक यहूदी को खत्म कर देना था.

युद्ध के 6 वर्षों के दौरान नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या की जिन में 15 लाख बच्चे थे. यहूदियों को जड़ से मिटाने के अपने मकसद को हिटलर ने इतने प्रभावी ढंग से अंजाम दिया कि दुनिया की एकतिहाई यहूदी आबादी खत्म हो गई. यह नरसंहार संख्या, प्रबंधन और क्रियान्वयन के लिहाज से विलक्षण था.

एडोल्फ हिटलर सिर्फ जरमनों को पवित्र रक्त वाला मानता था. इसलिए उस ने उन लोगों को भी खत्म किया जिन्हें कोई आनुवंशिक या लंबी बीमारी थी. हिटलर ने 1920 के दशक में जो विचार विकसित किए थे वे 1945 में उस की मृत्यु तक कमोबेश एकजैसे ही रहे.

जमीन पर कब्जे की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं यहूदी 

2 देश बनने के बावजूद यहूदियों और अरबों के बीच छिटपुट जंग चलती रही. वर्ष 1956, 1967, 1973 और 1982 में इसराईल और फिलिस्तीन के बीच कई झड़पें हुईं और उन झड़पों के दौरान इसराईल लगातार अपना दायरा बढ़ाता रहा और फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा करता रहा.

1967 में इसराईल ने फिलिस्तीन के कुछ उन हिस्सों पर भी कब्जा कर लिया जहां ज्यादातर अरब मूल के लोग रहते थे. आज इसराईल के कब्जे वाले क्षेत्र में रहने वाले अरब खासी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. इन लोगों के पास न तो इसराईली नागरिकता है और न वोटिंग का अधिकार. इन पर कई तरह के प्रतिबंध हैं. कई बार इन के घर तोड़ दिए जाते हैं और शहर से बाहर जाने के लिए भी इन्हें इसराईली सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है.

फिलिस्तीन पर इसराईल के बढ़ते कब्जे से नौबत यह हो गई कि पहले 55 फीसदी और फिर 48 फीसदी से सिमटते हुए 22 फीसदी और अब 12 फीसदी जमीन के टुकड़े पर ही फिलिस्तीन सिमट कर रह गया है. जबकि आधिकारिक रूप से येरुशलम को छोड़ कर इसराईल लगभग बाकी के 80 फीसदी इलाके पर कब्जा कर चुका है. लेदे कर फिलिस्तीन के नाम पर अब 2 ही इलाके बचे हैं, एक गाजा और दूसरा वेस्ट बैंक.

वेस्ट बैंक अमूमन शांत रहता है जबकि गाजा में भयंकर उथलपुथल मची रहती है क्योंकि गाजा पर एक तरह से हमास का कंट्रोल है. गाजा किसी सूरत में इसराईल के दबाव में आने को तैयार नहीं है. मौजूदा तनाव इसी गाजा और इसराईल के बीच है. गाजा को बचाए रखने वाले हमास को अंतर्राष्ट्रीय समूह एक आतंकी संगठन के तौर पर देखता है. लेकिन इस संगठन को अरब युवाओं का भारी समर्थन हासिल है. वहीं, ईरान भी हमास को सपोर्ट करता है. सारे रौकेट और बम हमास द्वारा इसी गाजा से इसराईल पर गिराए जाते हैं और इसराईल इसी गाजा पर बमबारी कर रहा है.

गौरतलब है कि हमास और इसराईल के बीच  पिछला बड़ा संघर्ष 7 वर्षों पहले हुआ था. दोनों के बीच अब तक 16 बार हिंसक झड़पें हो चुकी हैं. दरअसल इसराईली किसी तरह अरबों का येरुशलम पर हक छीन लेना चाहते हैं. वे उन्हें येरुशलम से बाहर खदेड़ देना चाहते हैं. 1948 से यह कोशिश हो रही है मगर कोई अपना जन्मस्थान नहीं छोड़ना चाहता. इसराईली पुलिस जबजब फिलिस्तीनी मुसलमानों को प्रताडि़त करती है, उन्हें वहां से खदेड़ने की कोशिश करती है तो हमास उस का बदला लेने के लिए उठ खड़ा होता है.

हालिया जंग की वजह

फिलिस्तीनियों पर इसराईली पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई ने ही एक बार फिर दोनों मुल्कों के बीच जंग का सिलसिला शुरू किया. 10 मई को हमास ने इसराईल की सरजमीं पर पहला रौकेट दागा था. इस के पीछे वजह यह थी कि 27 दिनों पहले यानी 13 अप्रैल को इसराईली पुलिस येरुशलम की पवित्र अलअक्सा मसजिद में मय हथियार घुस आई थी.

अलअक्सा मसजिद दुनियाभर के मुसलमानों की आस्था का केंद्र है. यहां घुस कर इसराईली पुलिस ने पहले तो लोगों से बहस की और फिर उन के साथ मारपीट की. उस ने वहां लगे लाउडस्पीकर की तमाम केबल्स काट दीं और फिर पूरा परिसर ही तबाह कर दिया.

उल्लेखनीय है कि 13 अप्रैल को मुसलिमों के पवित्र रमजान माह का पहला दिन था. मसजिद में तमाम नमाजी इबादत के लिए इकट्ठा हुए थे जब इजराइली पुलिस ने वहां घुस कर तांडव मचाया.

अलअक्सा मसजिद में इसराईली पुलिस क्यों घुसी

13 अप्रैल को इसराईल का मैमोरियल डे होता है. यह उन सैनिकों की शहादत को याद करने के लिए मनाया जाता है जिन्होंने इसराईल को बनाने में योगदान दिया था. 13 अप्रैल को जब इसराईली राष्ट्रपति रेवन रिवलिन यहां स्पीच देने आने वाले थे तो इसराईल प्रशासन ने अलअक्सा मसजिद के लाउडस्पीकर को राष्ट्रपति की स्पीच के वास्ते इस्तेमाल करने का आदेश दिया था लेकिन मस्जिद की देखरेख करने वालों ने इस आदेश का पालन नहीं किया क्योंकि वह रमजान का पहला दिन था और समय नमाज का था. इस के बाद पुलिस ने मसजिद में छापा मारा और लाउडस्पीकर के तमाम केबल काट कर पूरी मसजिद में बवाल मचाया.

मसजिद के शेख साबरी कहते हैं, ‘‘इजराइली पुलिस मसजिद का सम्मान नहीं कर रही थी. वह भी तब जबकि यह माह ए रमजान था.’’

एक महीने बाद रिऐक्शन

अलअक्सा चूंकि मुसलिम समुदाय की आस्था का केंद्र है और इसराईली पुलिस ने रमजान के दौरान यहां घुस कर तांडव मचाया था तो उस का विरोध होना लाजिमी था. पूरे गाजा में अंदर ही अंदर इस हरकत के खिलाफ आग भड़कने लगी. मुसलिम युवाओं का समर्थन पा कर हमास जवाबी कार्रवाई की तैयारी में जुट गया और ठीक एक महीने बाद उस ने रौकेट से इसराईल पर हमला कर दिया. वहीं, इसराईल के कुछ शहरों में अरब और यहूदियों के बीच दंगे शुरू हो गए जहां अमूमन नहीं होते थे.

येरुशलम के मुफ्ती शेख करीम कहते हैं, ‘‘अलअक्सा मसजिद में पुलिसिया कार्रवाई ही जंग के लिए जिम्मेदार है.’’

इसराईल की मंशा

इसराईल जानबूझ कर फिलिस्तीन से जंग चाहता है क्योंकि इस से उस को फायदा होता है. इसराईल ने जबजब फिलिस्तीन से जंग की उस ने फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा बढ़ाया और इस बार भी उस ने यही किया है. जानकार मानते हैं कि इसराईल और फिलिस्तीन की जंग गाजा या वेस्ट बैंक तक सीमित रहे, तो ही ठीक है क्योंकि अगर यह मामला येरुशलम तक पहुंच गया तो दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की दहलीज पर खड़ी नजर आएगी क्योंकि येरुशलम यहूदियों, मुसलमानों और ईसाईयों तीनों की धार्मिक आस्था का केंद्र है.

इसराईल पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव  

इस वक्त दुनिया के कुछ देश इसराईल के साथ खड़े हैं तो कुछ फिलिस्तीन के साथ, मगर तमाम देश चाहते ह क यह मसला शांति से सुलझ जाए ताकि कोरोना महामारी से परेशान दुनिया और ज्यादा आफत में न पड़े. इसराईल जिस तरह अलअक्सा मसजिद पर अपना कब्जा जमाना चाह रहा है उस से मुसलिम देश खासे खफा हैं. बीते दिनों इसलामिक देशों के संगठन और्गेनाइजेशन औफ इसलामिक कोऔपरेशन ने आपात बैठक कर इसराईल को चेतावनी दी कि वह अलअक्सा मसजिद पर कब्जा करने की कोशिश करेगा तो इस के नतीजे भयानक होंगे. यह मीटिंग सऊदी अरब ने बुलाई थी. उसी सऊदी अरब ने जिस ने अमेरिकी जेट फाइटर को अपनी जमीन इसलिए दे रखी है ताकि जरूरत पड़ने पर अमेरिका इसराईल की मदद के लिए उस का इस्तेमाल कर सके. मगर अलअक्सा मसजिद में इसराईल की नापाक हरकत से सऊदी अरब खफा हो गया है जिस का असर अब अमेरिका सहित इसराईल को समर्थन देने वाले अन्य मुल्कों पर भी देखा जा रहा है.

इसराईल को ईरान का डर

दुनिया की सब से चतुर खुफिया एजेंसी, दुनिया के सब से ताकतवर हथियारों से लैस और दुनिया की सब से बेखौफ सेना होने का दावा करने वाले इसराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से जब भी पूछा जाता है कि आप के देश के लिए 3 सब से बड़े खतरे कौन से हैं? तो उन का जवाब होता है, ‘‘ईरान, ईरान और ईरान.’’

आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक तौर पर ईरान को पंगु बनाने की अमेरिका, यूरोपियन देशों और इसराईल की तमाम कोशिशों के बाद भी अरब में अगर कोई मुल्क सीना तान के खड़ा है तो वह ईरान है. वरना इराक, लीबिया और ट्यूनीशिया की मिसालें सामने हैं जिन्हें इन देशों ने मिल कर तबाह कर दिया.

आज अगर इसराईल और अमेरिका जैसे दुनिया के सब से शक्तिशाली देशों को मिडिल ईस्ट में कोई टक्कर दे सकता है तो वह और कोई नहीं, बल्कि ईरानी हुकूमत है. आज हमास अगर इसराईल सेना का मुकाबला कर पा रहा है तो उस की बड़ी वजह ईरान ही है जिस का खुला समर्थन हमास को हासिल है.

ईरान कई मौकों पर साफ कह चुका है कि जब तक वह है तब तक येरुशलम की अलअक्सा मसजिद को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता. मौजूदा विवाद में भी शियाबहुल ईरान, सुन्नी बहुल फिलिस्तीन के साथ ही खड़ा है. खुद हमास नेता इस्माइल हनीयेह ने उन के समर्थन के लिए ईरान का शुक्रिया अदा किया है. हनीयेह का कहना है कि इसराईल के खिलाफ लड़ाई सिर्फ हमास की नहीं, बल्कि पूरी इसलामी दुनिया की है.

तीन तरफ से घिरा इसराईल

इसराईल को ईरान से खतरा है तो उस की 3 बड़ी वजहें हैं, वह भी 3 तरफ से. पहली वजह राजधानी तेल अवीव के पश्चिम में गाजा पट्टी पर मौजूद फिलिस्तीनी संगठन हमास जिस के साथ ईरान शियासुन्नी का फर्क मिटा कर पूरी शिद्दत से खड़ा है. उसे न सिर्फ पैसों से, बल्कि अत्याधुनिक हथियारों से भी लैस कर रहा है.

ईरान से इसराईल के खौफ की दूसरी वजह है उत्तर दिशा में उस के पड़ोसी मुल्क लेबनान में मौजूद राजनीतिक संगठन हिजबुल्लाह, जिस के लीडर हसन नसरुल्लाह के एक इशारे पर लाखों लेबनानी लोग इसराईल पर टूटने के लिए आमादा रहते हैं. हिजबुल्लाह अकसर इसराईली सेना पर रौकेट लौंचरों से हमला करता रहता है. इसे भी ईरान का समर्थन हासिल है और इस के लीडर नसरुल्लाह ईरानी सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खामनाई को अपना लीडर मानते हैं.

इसराईल के खौफ की तीसरी वजह है पूरब में मौजूद सीरिया, जहां के सरहदी इलाकों में ईरानी शिया मिलिशिया की मौजूदगी है और जो हमेशा इसराईल के लिए खतरा बनी रहती है. इसराईल अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद सीरिया में ईरान की मौजूदगी को खत्म नहीं कर पा रहा है. मिडिल ईस्ट में अमेरिकी दबाव के बाद भी इसराईल इस कोशिश में नाकाम रहा है.

ईरान की इस ताकत के पीछे उस की अपनी कोशिशें तो हैं ही, साथ ही, चीन और रूस जैसे देशों की दोस्ती ने भी उसे कई मौकों पर मदद की है. रूस और चीन की बात करें तो चीन खासकर मिडिल ईस्ट में अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. पिछले कुछ सालों में उस ने कई अरब देशों के साथ बिलियन डौलर डील्स साइन की हैं. ईरान के साथ उस ने 400 बिलियन डौलर के समझौते किए हैं. मगर चीन अरब में यह सब कर क्यों रहा है, उस की मंशा क्या है?

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही चीन मिडिल ईस्ट में ऐक्टिव हो गया था. मगर उस दौर में तेल और गैस की खोज होने के बाद अमेरिका यहां कूद पड़ा और तब से इस पूरे क्षेत्र में अशांति का दौर शुरू हो गया. जिन देशों ने अमेरिका की मनमानी को माना, वे उस के दोस्त बन गए और जिन्होंने उसे नकार दिया वहां गृहयुद्ध या किसी न किसी और बहाने से अमेरिका ने या तो हमला कर दिया या वहां की सरकारों को सत्ता से बेदखल करवा दिया. आज भी मिडिल ईस्ट में अशांति की जो सब से बड़ी वजह है, वह तेल ही है. जानकार मानते हैं कि जब इन देशों में तेल खत्म होना शुरू होगा, यहां फिर से शांति की बहाली होना शुरू हो जाएगी.

पूरे मामले पर भारत की चुप्पी

उल्लेखनीय है कि बीते दिनों इसराईल और फिलिस्तीन के बीच जारी युद्ध पर दुनिया का हर देश अपने विचार जाहिर कर रहा था और युद्ध को जल्द से जल्द खत्म करने का दबाव बना रहा था. लेकिन आश्चर्जनकरूप से भारत ने इस मामले में चुप्पी ओढ़ रखी थी. इस चुप्पी का क्या राज है और भारत किस के साथ है?

दरअसल भारत के सामने 2 मुश्किलें हैं. भारत इसराईल का समर्थन नहीं कर सकता क्योंकि इसराईल को खुश करने का मतलब है अरब देशों से रिश्ते खराब करना, जो भारत हरगिज नहीं चाहता. भारत का अरब देशों के साथ करीब 121 अरब डौलर का व्यापार है जो भारत के कुल विदेशी व्यापार का करीब 19 फीसदी है. तेल का सब से ज्यादा आयात भी हम इन्हीं से करते हैं. इस के अलावा भारत के करीब एक करोड़ लोग अरब के अलगअलग शहरों में नौकरियां करते हैं. वहीं, इसराईल के साथ हमारा व्यापार सिर्फ 5 अरब डौलर का है. इसलिए भारत फिलहाल इस मसले पर हर कदम फूंक कर उठा रहा है.

भारत फिलिस्तीनी जमीन पर इसराईल के कब्जे का समर्थन भी नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से पाकिस्तान के कब्जे वाले पाक अधिकृत कश्मीर और चीन के कब्जे वाले अक्साई चिन को वापस हासिल करने में अड़चनें आ सकती हैं. क्योंकि जब हम दूसरों के अवैध कब्जे को सही ठहराएंगे, तो पाकिस्तान और चीन को पीओके और अक्साई चिन को कब्जाने का मौका मिल जाएगा. इसीलिए भारत की शुरू से यह नीति रही है कि उस ने फिलिस्तीन पर इसराईल के कब्जे का हमेशा विरोध किया है.

1948 के बाद से ही येरुशलम संयुक्त राष्ट्र के अधीन है. वहां न तो इसराईल की सत्ता है और न ही फिलिस्तीन की. हालांकि डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में अचानक इसराईल ने येरुशलम को अपनी राजधानी बनाने की कोशिश की थी. इतना ही नहीं, उस ने अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम शिफ्ट कर दिया था. लेकिन इस घटना को ले कर खासा हंगामा हुआ. संयुक्त राष्ट्र ने इसराईल के इस कदम की कड़ी निंदा की. निंदा में तमाम देशों के साथ भारत भी शामिल था.

हालांकि भारत में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में एक धड़ा ऐसा है जो इसराईल से मजबूत रिश्तों की हिमायत करता है और फिलिस्तीन के मुसलमानों से उसे नफरत है मगर सरकार की मजबूरी तेल और व्यापार है जिस के चलते वह इसराईल से नजदीकी दिखा कर अरब देशों को नाराज नहीं कर सकती है. इसलिए इस मामले में ज्यादा कुछ बोलने से बेहतर है खामोश रहना.

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