लेखक-भारत भूषण श्रीवास्तव और शैलेंद्र सिंह
पतंजलि ने बेहद सधे शब्दों में धर्म और संस्कृत के शब्दों का प्रयोग कर के कोरोनिल को कोराना की रामबाण दवा बताया. पतंजलि ने अपने लिखित विवरण में बताया कि पंतजलि रिसर्च इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों ने क्लीनिकल केस स्टडी तथा रेंडमाइज्डप्लेसिबो कंट्रोल्ड क्लीनिकल ट्रायल (आरसीटी) करने के साथ औषधि अनुसंधान के सभी प्रोटोकौल का अनुपालन करते हुए कोरोना के रोगियों के लिए आयुर्वेदिक औषधि की खोज की है. सवाल है, जब कोरोनिल आयुर्वेदिक दवा है जिस का फार्मूला पहले से ग्रंथों में है तो आखिर क्यों रिसर्च एलोपैथिक दवा से करने का दावा किया गया? दावा तो यहां तक किया गया कि अनुसंधान के दौरान कोरोना पौजिटिव एसिम्टोमैटिक, माइल्ड एवं मौडरेट रोगी 3 से 7 दिनों में नैगेटिव हो गए.
अपनी बात के समर्थन में पंतजलि ने लिखा कि इन औषधियों की क्लीनिकल केस स्टडी दिल्ली, अहमदाबाद और मेरठ आदि शहरों से ले कर देश के विभिन्न शहरों में की गई. रेंडमाइज्डप्लेसिबो कंट्रोल्ड क्लीनिकल ट्रायल (आरसीटी) को नैशनल इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल सांइस एंड रिसर्च (निम्स यूनिवर्सिटी), जयपुर में किया गया. पतंजलि ने बताया कि कोरोनिल कोरोना के रोगियों पर विश्व में आयुर्वेदिक औषधियों का पहला सफल क्लीनिकल ट्रायल है.
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पतंजलि ने कहा कि यह औषधि मनुष्य के फेफड़ों से ले कर बाकी शरीर में कोरोना के संक्रमण की चेन को तोड़ने का काम करती है. कोरोना वायरस के कारण होने वाली दूसरी बीमारियों पर भी यह दवा असर करती है. यह हमारे शरीर की ऊर्जा को जाग्रत करती है. पतंजलि ने केवल क्लीनिकल ट्रायल तक ही बात को सीमित नहीं रखा. धर्म और राष्ट्रवाद का तड़का लगाने के लिए उस ने कहा, ‘‘हमारे पूर्वज ऋषियों के ज्ञान से यह दवा बनाई गई है.’’ इस की वजह यह थी कि लोग पूर्वज और ऋषियों के नाम पर कोरोनिल पर कोई सवाल न करें. ये सब बातें तो आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों के खिलाफ हैं जो दिव्य दृष्टि से लिखे गए हैं.
एक तरफ रामदेव कहते हैं कि एलोपैथी एक नाटक और तमाशा है तो दूसरी ओर अपने ही ट्रस्ट के इनकम टैक्स मामले, जिस का निर्णय अपीलिएट ट्रिब्यूनल ने 9 फरवरी, 2017 को दिया था, के बारे में कहते हैं कि ट्रस्ट का उद्देश्य ‘प्राणायाम’ को मुफ्त दवा के रूप में ‘मौडर्न मैडिकल साइंस’ के ‘पैरामीटर्स’ के मापदंडों के आधार पर रिसर्च कर के उपलब्ध कराना है.
इसी मामले में वे दावा करते हैं कि आयुर्वेद, सर्जरी, एलोपैथी का सम्मिश्रण करना ट्रस्ट का उद्देश्य है. एलोपेथी को मूर्खों की साइंस बताने वाले रामदेव के संस्थानों में शर्ली टेलेस जैसे एलोपैथी डाक्टरों की बहैसियत डायरैक्टर भरती उन के दोहरेपन की मिसाल नहीं तो और क्या है. असल में उन की दवाइयां एलोपैथी के फार्मूले व मानकों पर ही बनती हैं.
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रामदेव को बताना चाहिए कि यह दुर्लभ ज्ञान किस ग्रंथ में कहां वर्णित है जिस से भारत अपनी शक्ति और संस्कृति से दुनियाभर को बता पाए कि हमारे ऋषिमुनि हजारों साल पहले ही कोरोना वायरस और उस की दवा को खोज चुके थे. चूंकि ऐसा कुछ है ही नहीं, इसलिए यह ?ाठैला बाबा बगलें ?ांकता नजर आएगा. वह जवाब में कहेगा कि आप बताओ कि कोविशील्ड की रिसर्च रिपोर्ट कहां है? चूंकि कोविशील्ड
पेटेंटेड दवा है, इसलिए कंपनी उस की जांचपरख में रिपोर्ट तो शेयर करेगी नहीं. सो, वाक्युद्ध में आप हार जाएंगे.
एक तरफ योग से कोरोना के उपचार का दावा किया जा रहा है और दूसरी तरफ इसी मामले में कहा गया कि पतंजलि के अनुसार योग के 8 पहलू हैं :यज्ञ, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहरा, धरना, ध्यान व समाधि. यह सम?ा से परे है कि इन सब का जब दूरदूर तक कोविड की बीमारी से संबंध नहीं है तो रामदेव और उन जैसों धर्म समर्थक कैसे एलोपैथी को गालियां दे सकते हैं जो मंचों पर खुलेआम दी गईं.
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गौरतलब है कि विद्यापीठ ने आयुर्वेद आचार्य बालकृष्ण की पुस्तक ‘योग इन सिनर्जी विद मैडिकल साइंस’ का हवाला देते हुए कहा कि योग के क्लीनिकल असर की जांच वैज्ञानिक पैमानों पर क्वालीफाइड डाक्टरों (निसंदेह एलोपैथी डाक्टरों) के निरीक्षण में की गई और योग से लाभ हुआ, यह साबित भी हुआ. ऐसे में यह कहा जाना स्वाभाविक है कि यदि मैडिकल साइंस, एलोपैथी, डाक्टर, वैज्ञानिक निरर्थक हैं तो उन्हें इन की जांच की जरूरत ही क्यों पड़ी थी.
कई दावे करने के बाद पतंजलि ने अंत में यह भी कहा कि किसी भी आपात स्थिति में आकस्मिक अवस्था में श्वसन से अधिक कठिनाई आदि की हालत में भारत सरकार द्वारा निर्धारित चिकित्सा विधि का पालन करें. अगर पतंजलि को कोरोनिल पर इतना भरोसा था तो फिर रोगियों को दूसरी चिकित्सा में जाने के लिए क्यों कहा गया? इस का मतलब साफ है कि कोरोनिल पर पतंजलि को ही भरोसा नहीं. वह कोरोना के इलाज के नाम पर आपदा में अवसर तलाश रही थी.
विवादों में घिरी कोरोनिल दवा
पतंजलि की कोरोनिल दवा के क्लीनिकल ट्रायल करने का दावा तब गलत साबित हो गया जब क्लीनिकल ट्रायल करने वाले निम्स विश्वविद्यालय के मालिक और चेयरमैन बी एस तोमर ने कहा कि उन के अस्पतालों में कोरोना की दवा का कोई भी क्लीनिकल ट्रायल नहीं किया गया है. तोमर ने कहा, ‘‘हम ने कोरोना के मरीजों को इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में अश्वगंधा, गिलोय और तुलसी दिया था. इस संबंध में अभी मैं कुछ नहीं कह सकता कि योगगुरु रामदेव ने इसे कोरोना का शतप्रतिशत इलाज करने वाली दवा कैसे बता दिया. इस के बारे में सिर्फ रामदेव ही बता सकते हैं.’’
निम्स विश्वविद्यालय ने सीटीआरआई से 20 मई को औषधियों की इम्युनिटी टैस्ंिटग के लिए इजाजत ली थी. इस के बाद निम्स में इन औषधियों का ट्रायल भी शुरू किया गया था. 23 मई से शुरू हुए ट्रायल के एक महीने बाद ही 23 जून को योगगुरु रामदेव के साथ मिल कर दवा लौंच कर दी गई. यह मामला जब तूल पकड़ने लगा है तो निम्स के चेयरमैन ने कहा था, ‘हमारी फाइंडिंग अभी 2 दिनों पहले ही आई थी. योगगुरु रामदेव ने कोरोनिल दवा कैसे बनाई है, यह तो वही जानते हैं. इस बारे में मैं कुछ भी नहीं कह सकता हूं.’
यही नहीं, कोरोना वायरस के संक्रमण को पूरी तरह से खत्म करने का दावा करने वाले योगगुरु रामदेव की दवा कोरोनिल पर आयुष मंत्रालय ने रोक लगा दी थी. इस पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए पतंजलि से दवा का टैस्ट सैंपल, लाइसैंस आदि की पूरी जानकारी भी मांगी गई थी, जिस के जवाब में पतंजलि ने कहा था कि इस दवाई को कोरोना वायरस से पीडि़त किसी गंभीर मरीज पर टैस्ट नहीं किया गया है, कम लक्षण वाले मरीजों पर टैस्ट किया गया था. पतंजलि के मालिक बाबा रामदेव का प्रभाव केंद्र और उत्तराखंड की सरकारों पर भी था, इस कारण से उन के खिलाफ किसी भी तरह की कार्यवाही नहीं की गई.
एलोपैथी पर विवाद
पतंजलि की कोरोनिल दवा पर जब विवाद उठे और उस को दवा का दर्जा हासिल नहीं हुआ तो भी रामदेव ने अपने राजनीतिक प्रभाव से कोरोनिल को बाजार में बेचना जारी रखा. रामदेव ने बड़ीबड़ी बातें कर के जनता को बहकाने का काम किया. इस तरह का काम एलोपैथी के डाक्टर नहीं कर सकते. शिक्षित पर अंधविश्वासी और कम पढ़ीलिखी मूर्ख व दकियानूसी जनता रामदेव बिरादरी के नीमहकीमों के पास जाना शुरू कर देती है, जो उन के मर्ज को बढ़ा देते हैं. ऐसे नीमहकीमों की बकबक करने पर रोक लगनी चाहिए. यह काम कानून नहीं, बल्कि मीडिया और जनता खुद करे.
हकीकत में रामदेव एलोपैथी को आयुर्वेद का जामा पहना कर भुना रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे कसबाई नीमहकीम बुखार आने पर मरीज को पैरासिटामोल की गोली पीस कर खिला देते हैं. बुखार उतरने पर लोग आयुर्वेद की जयजयकार करने लगते हैं लेकिन यह नहीं जान पाते कि वे एलोपैथी की दवा से ठीक हुए हैं. भोपाल के एक कैमिस्ट का कहना है कि गांवदेहातों के वैद्य थोक में दस्त, उलटी, दर्द जैसी सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए एलोपैथी की दवाएं ले जा कर आयुर्वेद के नाम पर उन की पुडि़या बना कर ऊंचे दामों में बेचते हैं. रामदेव यही काम बहुत बड़े पैमाने पर कर रहे हैं और खिसियाहट व अपराधबोध जब सिर पर सवार होता है तो वे एलोपैथी को कोसने लगते हैं.
देखा जाए तो आयुर्वेद प्लेसिबो यानी एक प्रभावहीन चिकित्सा पद्धति है जिस का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. इस में मरीज को लाभ होने का भ्रम होता है लेकिन वास्तव में होता नहीं है और अगर होता भी है तो इस की वजह कोई और होती है. एलोपैथी पर सवाल उठाते रामदेव इसी तर्ज पर लोगों के दिमाग में यह बात भरने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर वे ठीक हुए तो इस की वजह उन की कोरोना और आयुर्वेदिक दवाएं हैं और मरे तो इस की वजह एलोपैथिक दवाइयां हैं.