हमारे धर्म की नैतिकता की पोल वैसे तो हमेशा ही खुली रहती थी पर इस बार कोविड संकट में जिस तरह से खुली है वह पहली बार तो नहीं हुआ पर हरेक के हिलाने वाला अवश्य होनी चाहिए जिस तरह मरते लोगों की परवाह किए बिना लोगों ने ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, रेम…….., डौक्सी, प्लाज्मा, अस्पताल के बेड, आईसीयू में भर्ती में ऊपरी पैसा मांगा या मोटा मुनाफा कमाया, वह दहलाने वाला था.
मौत के समय क…….खसोटों के किस्से बहुत पुराने हैं. हर अस्पताल आमतौर पर तब तक मृतक की लाश नहीं सौंपना जब तक बिल की पाईपाई न चुका दी जाए. हमेशा ही हमारे यहां एंबुलेंस ड्राइवर और अर्दली दुर्घटनाओं में अपने रेट बड़ा देते हैं पर इस महामारी में हरेक ने भर भर कर पैसा बनाया है. यह मेहनत का मुनाफा नहीं था, यह मरते व्यक्ति को बचाने के चक्कर में परिजनों की अंतिम कोशिश पर ब्लैकमेल था.
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पराकाष्ठा तो तब हुई जब श्मशान में जलाने के लिए जगह मिलने में कमी होने पर वहां हर जने ने पैसा वसूलना शुरू कर दिया. कफन के कपड़े तक के पैसे बढ़ा कर पैसा बनाया गया. लकड़ी के औने पौने टाम लिए गए. मृत व्यक्ति के शव को लाने ले जाने के लिए पैसे लग गए. मौत के तांडव में सैंकड़ों नहीं हजारों ने पैसा बनाया और उन के धर्म की शिक्षा ने कहीं उन को ललकारा नहीं कि कैसा अनैतिक काम कर रहे हो.
धर्म ने यदि नहीं ललकारा तो इसलिए गीता का उपदेश और पौराणिक यातनाएं बड़ी काम आती है. लीपापोती करने में. कोई ङ्क्षहदू मरता तो है ही नहीं. उस की आत्मा जीवित रहती है बशर्ते कि उस के पार्थीक शव निपटान विधि से संपन्न किया जाए. तभी उस के कर्मों का फल जांच कर अगले जन्म में किस योनि में जगह मिलती है. हमारे मृत संबंधी के सही जगह मिले इसलिए परिजनों को आज से नहीं पौराणिक काल से लूटा जा रहा है.
रेल दुर्घटनाओं में एक बड़ी भीड़ उमड़ती है, सेवा करने के लिए नहीं, मारे गए या घायलों को लूटने के लिए. लोगों की घडिय़ां, औरतों के कानों के बुंदे, चूडिय़ां, हार बेरहमी से खींचे जाते हैं. कोई चीज फंसी रह गई हो तो हाथ पैर काट दिए जाते हैं. पुलिस आती है तो भी यह खेल चलता है जब भीड़ नहीं पुलिस वाले कमाते हैं.
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धर्म ने अन्विता सिखाई नहीं है, उस ने लूटना सिखाया है. एक नवीन कालरा के पकड़ कर बंद कर देने से कुछ नहीं होगा क्योंकि हरेक को शिक्षा मिली है कि आपदा में अवसर खोजो. प्रधानमंत्री ने भी आंसू बहाने का नाटक कर इन मौतों को भुनाने का प्रयास किया है. अपनी गलतियों न मान कर औन लाइन सभा में दुख प्रकट कर के बनावटी शोक प्रकट किया है जैसा हमारे यहां उठाबनी में होता है.
ठीक है इस बार बीमारी में सेवा करने वाले हरेक जने ने कोविड हो जाने का जोखिम लिया है पर यह जोखिम तो डॉक्टरों और नर्सों ने लिया है, अस्पतालों के सपोर्ट स्टाफ ने लिया है, अस्पतालों का दवाइयां पहुंचाने वालों ने लिया है. उन्होंने इस तरह का पैसा नहीं बनाया है. उन्हें थोड़ा बहुत अतिरिक्त मिला होगा पर उसे बचाने की कीमत कहा जाएगा, मरने वाले से कफन चोरी नहीं.
यह इसलिए हुआ है कि हमारे धर्म में नैतिकता का पाठ केवल पंडितों, देवताओं, भगवानों की पूजा होती है. आप अगर 4 बार प्रसाद चढ़ाते हैं तो नैतिक हैं. व्रत उपवास कर के भोजन कराते हैं तो नैतिक हैं, दान देते हैं तो नैतिक है. तीर्थ यात्रा कर पैसा चढ़ा कर आते हैं तो नैतिक हैं.
मरने वाला तो यहां अपने भाग्य में मौत लिखा कर आता है. यह उस के पहले के पापों का फल है. हम क्या कर सकते हैं? हम ईश्वर के विधान को नहीं बदल सकते. हम पूजापाठ कर सकते है पर सेवा कर के किसी की जान नहीं बचा सकते. यह …..तो आधुनिक शिक्षा ने दिया है. नई नैतिकता ने दिया है कि समाज आप के लिए वही करेगा जो आप दूसरों के लिए करोगे. वैज्ञानिकों का मुंह हम जरूर देख रहे थे पर अपने दिमागों पर धार्मिक परदा डाले रख कर.