देश और सरकार उपदेशों व प्रवचनों के बजाय वैज्ञानिक व तकनीकी राह अपनाते तो कोरोना के हालात भयावह न होते. कुंभ और रैलियों ने कोरोना का कहर इतना बढ़ा दिया कि जगहजगह लाशों के अंबार लग गए जैसे महाभारत के युद्ध के बाद लगे थे. लड़ाई तब भी सत्ता की थी और आज भी है. महाभारत इकलौता धर्मग्रंथ है जिसे हिंदू घर में नहीं रखते. माना यह जाता है कि जिस घर में महाभारत की किताब रखी होगी उस में कलह जरूर होगी. यह पूरी किताब ही सब से बड़े राजनीतिक युद्ध की वजह से ही वेद व्यास ने लिखी जिस के कर्णधार, सूत्रधार और नायक कृष्ण हैं.

उस में कलह ही कलह है जिस से लोग डरते हैं कि यह हमारे यहां न हो. इस महाकाव्य को घरों में न रखने की सलाह देना एक और धार्मिक चालाकी है कि लोग अगर इसे पढ़ व सम झ लेंगे तो उन्हें यह भी सम झ आ जाएगा कि कैसेकैसे छलकपट, झूठफरेब, व्यभिचार और धूर्तता हिंदुओं के वे आदर्श बिना किसी लिहाज के करते थे जिन्हें भगवान बना कर घरघर में पूजा जाता है. यह सच ढका रहे, इसलिए कलह का डर लोगों, खासतौर से औरतों को दिखाया गया और उन्हें श्रीमद्भगवतगीता पढ़ने को कहा गया जो इसी किताब का बहुत छोटा सा हिस्सा है. धर्म के ठेकेदारों का एक बड़ा डर यह भी है कि लोग कहीं यह न पूछने लगें कि जब इतना विनाश होना ही था जितना कि युद्ध के बाद हुआ, तो क्या युद्ध जरूरी था? क्या इसे टरकाया नहीं जा सकता था?

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परिवारों के मामूली विवाद को कैसे कृष्ण एक भीषण नरसंहार तक ले गए और इस से उन्हें क्या हासिल हुआ? ऐसे कई सवाल लोगों के जेहन में आते तो फिर वे कृष्ण की हकीकत जान शायद उन्हें भगवान मानने से ही इनकार कर सकते थे. महाभारत के युद्ध की तरह 5 राज्यों, खासतौर से पश्चिम बंगाल की चुनावी लड़ाई बिलाशक सत्ता की थी जो कोरोना के कहर के चलते लाखों लाशों के ढेर पर खड़ी है. हर कोई जानता है कि संभावित नतीजे देख पांडव कौरवों से लड़ना नहीं चाहते थे खासतौर से अर्जुन, जो पांचों भाइयों में सब से बहादुर व बुद्धिमान था. लेकिन कृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दे कर युद्ध के लिए उकसाया, डराया, बरगलाया और धर्म की दुहाई दी. इसीलिए इसे धर्मयुद्ध भी कहा जाता है. युद्ध के मैदान में अपने नजदीकी रिश्तेदारों को देख अर्जुन ने अपना तर्क कृष्ण के सामने रखा जिसे पंडितों ने मोह और डर कह कर मुद्दे की जो बात ढक ली वह यह थी-

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।।1.35।। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 1, श्लोक 35) हे मधुसूदन, इन के मु झे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी मैं इन को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है. गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।2.5।। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 2, श्लोक 5) महानुभाव गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा का अन्न खाना भी श्रेष्ठ सम झता हूं क्योंकि गुरुजनों को मार कर यहां रक्त से सने हुए तथा धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही तो भोगूंगा. अर्जुन के इस रवैए पर कृष्ण लड़खड़ा गए. इस स्टेज पर आ कर अगर पांडव मैदान छोड़ जाते तो कौरव पांडवों से भी पहले कृष्ण का गिरेहबान पकड़ते, लिहाजा उन्होंने अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार किया और इस के लिए जो उपदेश दिए वे श्रीमद्भगवतगीता के नाम से मशहूर हुए, जिस को घर में रखने से और पढ़ने से कलह नहीं होती.

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उलटे, आदमी पुण्य और मोक्ष का हकदार हो जाता है. यह और बात है कि हकीकत में हर घर में कलह है. अब युद्ध कृष्ण के लिए ज्यादा अहम व जरूरी हो गया था. लिहाजा उन्होंने विरक्त, निराश और हताश अर्जुन को फुसलाते हुए कहा, ‘तू युद्ध कर क्योंकि धर्म यही कहता है, तू कर्म कर फल की चिंता मत कर और तेरा यहां कुछ नहीं, तू क्या ले कर आया था और क्या ले कर जाएगा. मनुष्य का शरीर मरता है, आत्मा नहीं, जैसी सैकड़ों बातें कृष्ण ने कहीं, साथ ही यह भी सम झाया कि अगर तू ने कौरवों को नहीं मारा तो वे तु झे मार डालेंगे. लंबेचौड़े उपदेश के बाद आखिरकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गया क्योंकि कृष्ण उसे युद्ध की अनिवार्यता से सहमत करते जीत का मतलब सम झाने में कामयाब रहे थे कि जीता तो भोगविलास करेगा व स्वर्ग भोगेगा, राज करेगा और यही लोक कल्याण का रास्ता है.

इसी लोक कल्याण के लिए मौजूदा दौर में 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए जिन में पश्चिम बंगाल वाकई कुरुक्षेत्र बन गया था. यह लड़ाई भी किसी महाभारत से कम दिलचस्प और रोमांचकारी नहीं थी जिस में भगवा गैंग ने खुद को पूरी तरह झोंक दिया था. लेकिन 2 मई को जब नतीजे आए तो कौरवनुमा टीएमसी बाजी मार ले गई. कुरुक्षेत्र बना बंगाल यह चुनाव कोरोना के साए में हुआ जिस की दूसरी लहर में आम तो आम, खास लोग भी औक्सीजन व इलाज के अभाव में जल बिन मछली की तरह सड़कों पर छटपटाते दम तोड़ रहे थे, और आज भी दम तोड़ रहे हैं. किस तरह की अफरातफरी मची हुई थी, यह हर किसी ने देखा. क्या लाखों लाशों की शर्त पर इस चुनाव का होना जरूरी था यह सवाल नतीजों के बाद ज्यादा पूछा जाना बताता है कि हम और हमारे मौजूदा शासक कतई अर्जुन की तरह दूरदर्शी व संवेदनशील नहीं हैं. धर्म ने हमें क्रूर और स्वार्थी बना दिया है.

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हम युद्ध की अनिवार्यता और प्रासंगिकता पर कुछ नहीं बोलते, बल्कि लोकतांत्रिक युद्ध यानी चुनाव में भी मनोरंजन व रोमांच ढूंढ़ते हैं. बिलाशक कोरोना की दूसरी बड़ी तबाही के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन की सरकार ही जिम्मेदार है. बंगाल के नतीजे सम झने के पहले यह सम झना जरूरी है कि इस चुनावी मनोरंजन का पार्ट वन पिछले साल 2020 में मार्च में देखने में आया था जब भाजपा ने मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के लिए लौकडाउन घोषित करने में कोताही बरती थी जबकि कोरोना देशभर में फैल चुका था. तब हुआ सिर्फ इतना था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने 22 समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे. तब मोदी सरकार ने कोरोना की आहट को किनारे रख दिया और 23 मार्च को राज्य में सरकार बना ली. फिर दूसरे दिन लौकडाउन घोषित किया गया.

तब तक दुनियाभर की एजेंसियां, वैज्ञानिक और डाक्टर कोरोना की भयावहता बता चुके थे. देश मार्च 2020 में थम गया था. दिल्ली और मुंबई सहित देश के अधिकांश राज्यों में दहशत फैल चुकी थी. बाजार सूने होने लगे थे. स्कूलकालेज और सार्वजनिक स्थल बंद किए जाने लगे थे. भगदड़ मचने लगी थी. लेकिन भाजपा को मध्य प्रदेश में सरकार बनाने की पड़ी थी, लिहाजा उस ने जानमाल के नुकसान की कोई परवा न की. मार्च 2021 आतेआते हालात थोड़े सुधरते दिखे थे लेकिन कोविड-19 का खतरा पूरी तरह तो क्या, थोड़ा भी टला नहीं था. 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों का एलान हुआ तो भाजपा और उस की सरकार का ध्यान इन राज्यों, खासतौर से पश्चिम बंगाल में सिमट कर रह गया.

यह उस की दूसरी बड़ी गलती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह समेत तमाम छोटेबड़े भाजपाई नेताओं ने पश्चिम बंगाल में अपडाउन शुरू कर दिया. कोलकाता को हस्तिनापुर बना डाला. देश के शासकों को न अस्पतालों की चिंता थी, न वैंटिलेटरों की, न औक्सीजन सिलैंडरों की और न ही नर्सों की. चिंता थी उन 1,00,000 संघ के कार्यकर्ताओं की जो 5 वर्षों से पश्चिम बंगाल में भाजपा की जीत के लिए धर्म की चरस बो रहे थे. इन्हें हवस थी तो उस सत्ता की जिसे ये हर कीमत पर भोगना चाहते थे, चाहे देश में लाशों का अंबार क्यों न लग जाए. इतिहास गवाह रहेगा कि जिस समय देश में कोरोना के चलते त्राहित्राहि मची हुई थी, लाशें सड़कों के किनारे जलाई जा रही थीं, कब्रिस्तान में जगहें कम पड़ने लगी थीं, अस्पतालों में बिन इलाज लोग तड़पतड़प कर मर रहे थे,

औक्सीजन की किल्लत चल रही थी, परिवार के परिवार घर के भीतर एकसाथ ही उजड़ रहे थे, उस समय लाखों धर्मांधों की भीड़ चुनावी रैलियों से ले कर कुंभ में डुबकियां मार रही थी और इसे रोकने की जगह मुख्य जिम्मेदार लोग इस के मदमस्त नशे में झूम रहे थे. क्या यही महाभारत था कि सैकड़ों बेगुनाह सिर्फ भाजपा की चुनावी हवस मिटाने के लिए असमय मर जाएं? क्या यही है सत्ता की भूख? और इसी से हो कर देश में रामराज्य आएगा? आज इस भयावहता का सारा ठीकरा कोरोना महामारी के मत्थे फोड़ा जा रहा है, लेकिन क्या कभी यह आत्ममंथन का विषय बनेगा कि एक साल से भी अधिक समय मिलने के बावजूद केंद्र सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की, स्वास्थ्य व्यवस्था पर कोई काम नहीं किया, कोरोना को मजाक में लिया, लोगों को मौत के हवनकुंड में झोंक दिया. आखिर ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी थी कि इस दौरान राज्यों में चुनाव न होते या हार भी जाते तो प्रलय आ जाती क्या? इन लोगों ने बड़ीबड़ी रैलियां कीं, जिन में लाखों लोग जुटाए गए.

इस की जिम्मेदारी पश्चिम बंगाल के भाजपा प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी गई जिन का चेहरा 2 मई को लटका हुआ था. उन्हें भी इस बात का कोई मलाल नहीं था कि अब तक लाखों लोग कोरोना और इलाज के अभाव में बेमौत मर चुके हैं और दुनियाभर के लोग भारत सरकार को कोस रहे हैं. उन्हें दुख इस बात का था कि लाख कोशिशों के बाद भी पश्चिम बंगाल में भाजपा औंधेमुंह लुढ़क गई. धर्मावलंबी सरकार की बड़ी गलती हरिद्वार कुंभ का भव्य आयोजन होने देना था जिस में लाखों लोग देशभर से डुबकी लगाने आए और पुण्य की गठरी की जगह कोरोना वायरस का संक्रमण अपने साथ ले जा कर फैलाया. यह फैसला देशभर को काफी महंगा पड़ा जिस ने संक्रमण इस तरह फैलाया कि सरकार ने हाथ खड़े कर दिए कि अब हम कुछ नहीं कर सकते, जो पूछना है वह ऊपर जा कर भगवान से पूछना.

यह बेशर्मी, जिद, लापरवाही और मनमानी की हद थी जिस की मिसाल शायद ही ढूंढे़ से कहीं मिले. अंधविश्वासी जनता हर जगह होती है जो आस्था में बह कर काम करती है. शासक का काम नियंत्रित करना होता है. कुंभ में पहले लोग बिछुड़ते थे, भगदड़ होती थी, आज नहीं होती क्योंकि अब भक्त नहीं, सरकार जागरूक हुई. अब इस मौके पर सब भुला दिया गया. चुनावी युद्ध सरिता के मार्च (द्वितीय) अंक में भाजपा की मंशा पर लेख ‘5 राज्यों के चुनाव, राम वाम या काम’ में बहुत सधे ढंग और सलीके से उजागर किया था व यह स्पष्ट भी किया था कि धर्म और राम नाम का कार्ड वहां नहीं चलने वाला. उक्त रिपोर्ट के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं. इस बाबत पहले स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ‘सरिता’ भविष्यवाणियों और अटकलों में यकीन नहीं करती लेकिन निष्पक्ष जमीनी लेखन इसे औरों से भिन्न व पाठकों की पसंद बनाए रखे हुए है, खासतौर से उस दौर में जब पूरा मीडिया और न्यूज चैनल्स अपने सर्वेक्षणों में भाजपा को जीता हुआ बता कर लोगों को गुमराह करते हैं, जिस से न केवल उन की बल्कि समूचे मीडिया की विश्वसनीयता कठघरे में खड़ी नजर आती है.

आइए देखें कुछ वे अंश : पांचों राज्यों में मुसलमानों, ईसाइयों सहित दलितों व आदिवासियों के खासे वोट हैं. लड़ाई इसी बात की है कि एक यानी भाजपा की तरफ हो गए सवर्णों को अगर दलितों, आदिवासियों के 20-25 फीसदी वोट भी मिल जाएं तो भगवा गैंग का हिंदू राष्ट्र का सपना पूरी तरह साकार हो सकता है और वर्णव्यवस्था थोपने को ले कर अभी निराशहताश होने की जरूरत नहीं. 2 मई को आने वाले नतीजे यह नहीं बताएंगे कि कौन जीता कौन हारा, बल्कि यह बताएंगे कि चुनावी जनगणना में तादाद किस की ज्यादा निकली और जनता ने किसे मठाधीश चुना. सीधेतौर पर कहा जाए तो यह चुनावी घमासान यह बताएगा कि राम और नई शक्ल लेते वाम में से कौन चला. बीती 9 व 10 मार्च को ममता बनर्जी जब नंदीग्राम, जहां से वे चुनाव लड़ रही हैं, पहुंचीं और एकाएक ही यह बोलीं कि ‘मेरे साथ हिंदू कार्ड मत खेलो, मैं भी हिंदू हूं और घर से चंडी पाठ कर के निकलती हूं.’

खुद को हिंदू बताने के लिए उन्होंने मंच से दुर्गा मंत्र का भी पाठ कर डाला और शिव मंदिर जा कर पूजाअर्चना भी की. यह उन की गलती है क्योंकि फिलहाल हिंदू होने का सर्टिफिकेट केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मारफत मिल सकता है. बंगाल में अपना नया हिंदुत्व गढ़ कर ममता ने भाजपा को दिक्कत में डालने में जरूर कामयाबी पा ली है. जहर से जहर काटने का यह टोटका भगवा खेमे में खलबली मचाने के लिए काफी था. पश्चिम बंगाल के लोगों की भी धार्मिक भावनाएं ममता के धार्मिक पाखंडों के चलते उम्मीद के मुताबिक नहीं भड़कीं क्योंकि देवीदेवताओं के नाम पर वहां विष्णु और उस के अवतार राम, कृष्ण कम बल्कि दुर्गा और काली पूजी जाती हैं.

अब यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि जनता किसे चुनती है – राम को, जो सिर्फ ऊंची जाति वालों के लिए हैं या नए तरीके से आकार लेते वाम को, जिस में सभी के लिए बराबरी, जगह और सम्मान है. शायद उन्हें (असुदुद्दीन ओवैसी) सम झ आ रहा है कि बंगाल का मुसलमान उन्हें बिहार जैसा भाव नहीं देगा क्योंकि ममता को ही चुनना उस की मजबूरी हो गई है और उन की पार्टी कोई गुल नहीं खिला पाएगी. नतीजे साफतौर पर बताते हैं कि लोगों ने धर्म के सहारे सत्ता हासिल करने का भाजपा का सपना खाक कर दिया जिसे पश्चिम बंगाल में 292 में से केवल 77 सीटें मिलीं जबकि उस का दावा 200 सीटें पार करने का था. उस का वोट फीसदी भी 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 3 फीसदी घटा है और बढ़त भी 124 से कम हो गई है. उलट इस के, टीएमसी ने अपनी सीटें और वोट फीसदी दोनों बढ़ा कर यह जता दिया है कि नारा बराबरी वाला ही चलेगा.

टीएमसी को अनुमानों से परे 213 सीटें मिली हैं हालांकि ममता बनर्जी नंदीग्राम सीट से भाजपा के सुवेंदु अधिकारी से हार गई हैं पर यह ठीक वैसा ही है कि क्रिकेट के खेल में कोई कैप्टन बल्लेबाज कम स्कोर पर आउट हो जाए लेकिन टीम को धमाकेदार जीत दिला ले जाए. दुर्गति का शिकार कांग्रेस और कम्युनिस्ट हुए हैं जो खाता भी नहीं खोल पाए. महिलाओं ने भी ममता पर भरोसा जताया कि वही उन की हिफाजत कर सकती हैं. भाजपा का स्त्री विरोधी चेहरा तो तभी उजागर हो गया था जब नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी का मजाक उड़ाने के लहजे में एक खास लेकिन घटिया अंदाज में ‘दीदी…ओ…दीदी…’ कहा था. भाजपा जाहिर है, टीएमसी से कुछ नहीं छीन पाई है. उसे जो भी मिला वह एक तरह से कम्युनिस्टों और कांग्रेस के हिस्से का मिला. भाजपा पूरे चुनाव प्रचार में राम के सहारे रही और ममता को कोसती रही कि वे मुसलिम तुष्टिकरण की राजनीति करती हैं, उन्हें श्रीराम की जय बोलने से चिढ़ होती है, वे कलमा पढ़ती हैं और हिंदुत्व व विकास की दुश्मन हैं.

यानी हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति ही धर्म है. ममता क्या हैं और कैसे व क्यों भाजपाई क्षत्रपों पर अकेले भारी पड़ीं, यह नतीजों के बाद साफ हो गया है कि उन्हें मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं के वोट मिले. बंगाल में मुसलमानों ने संभल कर एकतरफा टीएमसी को वोट किया. खुद को वैष्णव मानने वाले जिस मतुआ समुदाय के दम पर भाजपा बड़ीबड़ी डींगें हांक रही थी उस ने भी पूरी तरह उस का साथ नहीं निभाया. भाजपाई होहल्ला मतदाता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया और नरेंद्र मोदी अपना प्रभाव खो रहे हैं जो कोरोना से मृत लाखों लोगों की लाशों पर जीत का ख्वाव देख रहे थे. बंगालियों को भावनात्मक तौर पर लुभाने के लिए उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर कट दाढ़ी भी रख ली थी.

सोनार बांगला का उन का नारा नहीं चला तो साफ यह भी हुआ कि भाजपा के झूठ और फरेब की गठरी की गठान बंगाल से खुल गई है. दुखी अमित शाह के व्यापारी और पूंजीपति मित्र भी होंगे जिन्हें बंगाल में अपना कारोबार और मुनाफा दिख रहा था. यहां नक्सली अहम और उल्लेखनीय हो जाते हैं जिन की वजह से कम्युनिस्टों ने 34 साल बंगाल पर राज किया लेकिन जैसे ही 2009 से तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने पूंजीपतियों से पींगें बढ़ाईं तो वोटरों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाते 2011 के चुनाव में ममता बनर्जी पर भरोसा जताया और अब अगले 5 साल के लिए उस का नवीनीकरण भी कर दिया. असल में पश्चिम बंगाल के लोग प्रचार शुरू होते ही भगवा गैंग के पाखंडी संस्कारों को भांप गए थे कि ये लोग अगर सत्ता में आए तो कामधाम तो कुछ करेंगे नहीं, बस, रामराम करते रहने की आड़ में पूंजीपतियों को प्रदेश सौंप देंगे. इस के एवज में धर्मकर्म फलेगाफूलेगा, ब्राह्मणबनिया गठजोड़ की पुनर्स्थापना होगी और पुरोहितवाद पनपेगा जिस से बंगाल पिछड़ेगा और इस से भी ज्यादा चिंता की बात आएदिन सांप्रदायिक हिंसा होगी जिस से राज्य का अमनचैन छिन जाएगा.

नए तरह का वाम उन्हें ममता में दिखा जो कर्मकांड नहीं करतीं, नदियों में हरहर गंगे बोल कर डुबकी नहीं लगातीं, दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों से नफरत नहीं करतीं, पुजारियोंपंडों के पैर छू कर उन्हें दानदक्षिणा नहीं देतीं लेकिन चुनाव जीतने के लिए उन्हें भी खुद को हिंदू ब्राह्मण कहने और अपना गोत्र बताने से कोई गुरेजपरहेज नहीं होता. इस पर उन का परंपरागत मुसलिम वोटबैंक एतराज भी नहीं जताता क्योंकि उसे सिर्फ सम्मान और सुरक्षा चाहिए. तेजी से पनपती यह अस्थाई अर्धधार्मिक राजनीति भाजपा को सांसत में डाले हुए है जिसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी करते हैं और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी करते हैं और यहां तक कि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी इस टोटके का अपवाद नहीं. लेकिन अच्छी बात यह है कि ये और ऐसे लोग धर्म से ऊपर जनता का काम और हित रखते हैं. कोरोना को मैनेज करने में अरविंद केजरीवाल पीछे नहीं रहे जबकि केंद्र सरकार दिल्ली के साथ भेदभाव करती रही. जनता चाहती यह है कि संकट के इन दिनों में हालात कैसे भी हों, उन का मुख्यमंत्री दिल से उन के साथ खड़ा रहे जो कि केजरीवाल, नवीन पटनायक और हेमंत सोरेन ने किया जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस उम्मीद पर खरे नहीं उतरे. दोनों कोरोना के कहर के वक्त पश्चिम बंगाल व दूसरे राज्यों में चुनावप्रचार करते दिखे.

तमिलनाडु में भी डूबे तमिलनाडु में भाजपा तो उम्मीद के मुताबिक डूबी ही, साथ ही अपनी सहयोगी सत्तारूढ़ एआईएडीएमके को भी ले डूबी. दक्षिण भारत के इस राज्य में धर्मकर्म की राजनीति इस बार भी नहीं चली क्योंकि सत्ताविरोधी लहर इतनी जबरदस्त थी कि बदलाव के अलावा कोई और मुद्दा जोर ही नहीं पकड़ पाया. भाजपा और एआईएडीएमके के गठजोड़ को 234 में से केवल 78 सीटें मिलीं. इन में से 4 भाजपा के हिस्से में आईं और एआईएडीएमके महज 66 सीटों पर सिमट कर रह गई. साल 2016 के चुनाव में एआईएडीएमके को जयललिता की अगुआई में 136 सीटें मिली थीं. उलट इस के, डीएमके-कांग्रेस गठबंधन को 156 सीटें मिलीं जिन में कांग्रेस की भागीदारी 18 सीटों की रही. डीएमके प्रमुख एम के स्टालिन को मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की गिरती इमेज का पूरा फायदा मिला जो हर मोरचे पर नाकाम साबित हुए.

जयललिता की मौत के बाद से ही वे भीतर और बाहर की दुश्वारियों से जू झ रहे थे. एम के स्टालिन तमिलनाडु के जानेमाने नेता हैं जिन्हें अपने पिता करुणानिधि के नाम का फायदा मिला. भाजपा के तमाम दिग्गज नेताओं ने तमिलनाडु में भी रैलियां की थीं जो तमाशा साबित हुईं और वोटरों ने उन्हें भाव नहीं दिया. भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी इस राज्य में अपनी जड़ें नहीं जमा पा रही है, तो उस की अपनी वजहें भी हैं. इन में सब से पहली तो यह है कि केरल और बंगाल की तरह यहां के लोग राम नाम पर तवज्जुह नहीं देते और उसे हिंदी पट्टी की पार्टी मानते हैं. यहां बंगाल की तरह उतने हिंदीभाषी भी नहीं हैं जो थोड़ीबहुत सीटें उसे दिला दें. कांग्रेस भी यहां कुछ खास नहीं कर पाती लेकिन भाजपा से बेहतर प्रदर्शन वह हर बार करती है जिस की वजह उस के स्थानीय नेता हैं.

अब बारी एम के स्टालिन को खुद को साबित करने की है कि वे काम करें वरना जनता उन्हें भी उखाड़ फेंकने से परहेज नहीं करेगी. केरल में विजयन चमके भाजपा को इस बार वामपंथियों के गढ़ केरल से बड़ी उम्मीदें थीं कि वह सत्तारूढ़ एलडीएफ और यूडीएफ की लड़ाई में अपने लिए निर्णायक जगह बना लेगी. इस बाबत नरेंद्र मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ ने केरल के अपने दौरों में धर्मांतरण को मुद्दा बनाने की पूरी कोशिश की थी लेकिन दूसरे राज्यों की तरह धर्म का कार्ड यहां भी नहीं चला. सो, भाजपा को चाहिए कि वह मुद्दों की राजनीति करे वरना हिंदीभाषी राज्यों में भी उस की स्थिति खराब हो सकती है. जहां इन नतीजों को ले कर खासी हलचल है उन राज्यों में भाजपा ने सत्ता राममंदिर और धर्म के नाम पर हासिल की हुई है.

इस चुनाव में भाजपा ने 88 वर्षीय श्रीधरन, जो मैट्रोमैन के नाम से मशहूर हैं, को पार्टी में ले कर हलचल मचाने की कोशिश की थी लेकिन उस का खाता भी यहां नहीं खुल पाया और खुद श्रीधरन भी हार गए. 2016 के चुनाव में एक सीट मिलने भर से भाजपा ने बगैर किसी जमीन के केरल से हिंदुत्व के सहारे जरूरत से ज्यादा उम्मीदें पाल ली थीं. मिला कांग्रेस को भी कुछ नहीं है जबकि राहुल, प्रियंका गांधी ने केरल में जम कर प्रचार किया था. उस के गठबंधन यूडीएफ को 140 में से केवल 41 सीटें मिलीं जबकि एलडीएफ के खाते में 93 सीटें गईं. कांग्रेस को हालांकि सीटों और वोट फीसदी का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ लेकिन उस की सहयोगी पार्टियां पिछड़ गईं और मुख्यमंत्री पी विजयन की इमेज ने उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनवा दिया. केरल का नतीजा वैचारिक रूप से उल्लेखनीय है कि वामपंथ अभी जिंदा है.

इस का दूसरा पहलू यह है कि दक्षिणपंथियों को अभी और मशक्कत करनी पड़ेगी और इस के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि केरल जैसे राज्य हिंदू राष्ट्र के हवनकुंड में वोटों की आहुति डालेंगे. असम से राहत धर्मकर्म की बातों से परहेज करते हुए असम में भाजपा विकास को मुद्दा बना कर ही नैया पार लगा पाई क्योंकि यहां उस की सरकार थी. पूर्वोत्तर के सब से बड़े इस राज्य में भी कांग्रेस को मायूसी हाथ लगी. भाजपा यहां शुरू से ही सतर्क थी और सीएए कानून के मुद्दे को उस ने मैनेज कर लिया. इस के अलावा, एहतियात बरतते उस ने मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल को बतौर सीएम पेश नहीं किया था जिस का फायदा उसे मिला और सत्ताविरोधी लहर नहीं चल पाई.

बहुसंख्यक वोटों को साधने को भाजपा द्वारा हेमंत विस्वा सरमा को भी आगे करना उस की जीत की अहम वजह बना. कांग्रेस यह आंकने में असफल रही कि अपर असम में वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के हक में जा रहा है. हिंदीभाषी इलाकों में वोट थोक में भाजपा के पक्ष में गए और अल्पसंख्यक वोट एकमुश्त उसे न मिल कर छोटी पार्टियों के हिस्से में भी चले गए. नतीजतन, कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन 50 सीटों पर सिमट कर रह गया और भाजपा गठबंधन 74 सीटें जीत गया. एआईयूडीएफ के मुखिया बदरुद्दीन अजमल मुसलिम वोटों को सहेज कर रखने में नाकाम रहे. असम की हार जता गई कि कांग्रेस के पास रणनीतिकारों का टोटा हो चला है. उस के पास दूसरी पंक्ति के नेता भी इनेगिने बचे हैं. हर जगह राहुल गांधी के दर्शन करा कर वह चुनाव नहीं जीत सकती.

पुदुचेरी में कमल असम जैसी गलती कांग्रेस ने पुदुचेरी में भी दोहराई और सत्ता थाल में परोस कर भाजपा व एआईएनआर कांग्रेस को सौंप दी. जो भाजपा यहां खाता खोलने को भी तरस रही थी, उस ने 6 और एआईएनआर कांग्रेस ने 10 सीटें जीत कर सब को चौंका दिया. कांग्रेस को 30 में से केवल 2 और डीएमके को 6 सीटों से तसल्ली करनी पड़ी. दूसरी छोटी पार्टियां 6 सीटें ले गईं. चुनाव के ठीक पहले ही कांग्रेस के 4 विधायकों के इस्तीफे से यहां कांग्रेस अल्पमत में आ गई थी. उस के 2 विधायकों को भाजपा ने फोड़ लिया था जिस का फायदा उसे मिला. सभी हैं गुनाहगार इन चुनावी आंकड़ों और विश्लेषण पर कोरोना से लाशों का ढेर भारी पड़ रहा है. सोचा जाना स्वभाविक है कि इस चुनावी युद्ध से किसे क्या मिला. ममता बनर्जी कामयाब जरूर रहीं, लेकिन रैलियां करने के मामले में वे भाजपाइयों से कम गुनाहगार नहीं. लगता नहीं कि वे अपनी पार्टी की जीत से खुश होंगी. अर्जुन को तो कृष्ण ने बहलाफुसला लिया था लेकिन युद्ध के बाद का नजारा उतना ही दिल दहला देने वाला था जितना कि आज है.

अंतर सिर्फ लोगों के मारे जाने के तरीके और वजह का है. मौजूदा दौर में कोरोना से मृत लोगों का सटीक आंकड़ा शायद ही मिले पर जिस तेजी से संक्रमित लोग बढ़ और मर रहे हैं उसे देख लगता है कि महाभारत में वर्णित काल्पनिक आंकड़ों की संख्या देश पार कर लेगा. काल्पनिक महाभारत युद्ध में पुरुष ज्यादा मारे गए थे. नतीजतन, विधवाओं और अनाथ बच्चों की तादाद बढ़ गई थी. अब भी हालत वही है. महिलाएं भी कोरोना का शिकार हो कर मर रही हैं जिस से विधुर और विधवाओं के सामने छोटे बच्चों की परवरिश का और खुद की सहज जिंदगी गुजारने का संकट मुंहबाए खड़ा है. कोरोनाकाल में अंतिम संस्कार के लाले पड़े हुए हैं श्मशान घाटों तक पर लाइनें लगी हैं, लकडि़यों का टोटा है, जगह कम है और अंतिम संस्कार करने वाले डोम तक शिफ्टों में भी लाशों को जला नहीं पा रहे.

अंतिम संस्कार पर भी पैसा कमाने वाले पंडे कोरोना के डर से घरों में दुबके पड़े हैं. अपने प्रियजनों की मौत का दुख और मातम भी लोग सलीके से नहीं मना पा रहे हैं जो एक सहज मानवीय संवेदना है. देशभर में पसरी असंवेदना के जिम्मेदार लोगों के लिए धिक्कारने वाली बात और स्थिति है जो चुनाव के दौरान लाखों लोगों की रैलियां करते रहे और सब से बड़े धार्मिक इवैंट कुंभ में लोगों को डुबकी लगवा कर मोक्ष का वायरस फैलाते रहे. इन के लिए चुनाव जरूरी था. यह खेल सब ने खूब खेला, जिस के नतीजे में देश में लाशों का मेला लग गया. अगर चुनाव कराने ही थे तो बिना रैली के भी हो सकते थे. आखिर दोनों पक्षों की कौन सी बात ऐसी थी जो जनता नहीं जानती थी. जब जनता को मालूम था कि कोरोना का काला साया सिर पर है तो रैलियों में भक्तों और समर्थकों में शामिल होने की जरूरत न थी.

पर शासकों ने सत्ता और धर्म की दुकानदारी को पुराने ढंग से ही चलाने के लिए पश्चिम बंगाल में ही नहीं, पांचों राज्यों में चुनाव कराने के साथ जम कर रैलियां कीं. नरेंद्र मोदी को यह गुमान हो चुका है कि उन का चेहरा देखते ही वोटर का दिमाग बदल जाता है. पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में वोट डलवाए गए ताकि नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा दिखाने के अवसर ज्यादा मिलें. उन्होंने लगभग 15 से ज्यादा रैलियां पश्चिम बंगाल में कीं. कुंभ के बिना भी काम चल सकता था पर धर्म का धंधा चालू रहे, इस के लिए नरेंद्र मोदी की हिम्मत नहीं हुई कि उसे टलवाने का आदेश दें. उन्हीं लोगों की मेहरबानी से तो सिंहासन पर बैठे हैं वे. कुंभ के कारण किस तरह कोरोना फैला होगा, इस का अंदाजा ही लगाया जा सकता है. पर जो सरकार 2 गज की दूरी और मास्क को जरूरत पर (चुनावी रैलियों और कुंभ मेले के दौरान) नजरअंदाज कर रही हो वह कैसे पूरे देश को ही नहीं, पूरी दुनिया को फिर कोरोना महामारी की चपेट में ला सकती है.

धर्म और सत्ता के नशे ने शासकों की तार्किक बुद्धि को बिलकुल कुंद कर दिया और अब लाखों परिवार इस का खमियाजा 20-30 साल भुगतेंगे क्योंकि उन के एकदो या ज्यादा प्रियजन असमय चले गए. अर्जुन की आशंका बेमानी नहीं थी लेकिन कृष्ण के जवाब क्रूरता और अमानवीयता की मिसाल थे जिन पर धर्म का रैपर लपेट दिया गया. हो आज भी वही रहा है, बस, नाम युद्ध की जगह चुनाव हो गया है. मोदीभक्त अपने भगवान की गलती स्वीकारेंगे, यह उम्मीद उन से करना बेमानी है क्योंकि ये धर्मजीवी तो मानते हैं कि शरीर नश्वर और धर्म व सत्ता ही सबकुछ है. कृष्ण ने अर्जुन से कहा भी है कि  अव्यक्तोऽन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्चैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।

(श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 2, श्लोक 25) इस आत्मा को अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है, इसलिए इस को इस प्रकार जान कर तुम को शोक करना उचित नहीं है. जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मभदपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहैसि।2.27।। (श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय 2, श्लोक 27) जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है. इसलिए, जो अटल है, अपरिहार्य है उस के विषय में तुम को शोक नहीं करना चाहिए.

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