किसानों सरकार ने किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि देकर उनको ‘परजीवी’ बना दिया. खेती करने के बजाये 5 सौ रूपये महीनें की सरकारी सहायता पाकर वह खुश है. उन्हे ‘एमएसपी’ की नहीं ‘किसान सम्मान निधि‘ की जरूरत अधिक है. ऐसे लोगो को खेत से नहीं सम्मान निधि से लगाव है. किसान परजीवी बना रहेगा तो ना केवल सरकार की दुकान चलती रहेगी बल्कि धर्म की दुकानदारी भी चलेगी. किसान ‘चढावा‘ और ‘चंदा‘ देता रहेगा. जिन किसानों को खेती से प्यार है एमएसपी की चाहत है वह इसको बचाने के लिये जाडा, गर्मी और बरसात की चिंता छोड सरकार के जुल्म और सितम की परवाह किये बिना दिल्ली की सीमा पर डट कर सरकार का मुकाबला कर रहा है. आन्दोलनकारी ‘परजीवी’ नहीं है.
मैदानी इलाके के लोग खेती को गाली की तरह समझते है. वह किसान से अधिक प्राइवेट नौकरी करना इज्जत की बात समझते है. गंगा यमुना के मैदानी इलाकों में भाईभाई के बीच झगडे होते रहे है. रामायण से लेकर महाभारत तक की घटनाएं इसकी गवाह रहीं है. यहां मेहनत की जगह शतरंज की षकुनी चालों से राजपाट हासिल किया जाता रहा है. पूजापाठ का समर्थन करने वाली ब्राहमण जातियां यह चाहती है कि उनको चढावा मिलता रहे. बनिया वर्ग कर्ज में पैसा देकर लोगो का शोषण करता है.
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शोषण से परेशान व्यक्ति पूजापाठ और चढावा के जरीये अपनी किस्मत को चमकाना चाहता है. मैदानी इलाकों की ऊंची जातियों के पास खेती की जमीनें भले ही हो पर वह खेती नहीं करते है. थोडी बहुत खेती मजदूरों के जरीये जमींदार करते है. बडी संख्या में जाट, यादव, अहीर और कुर्मी भी खेती छोडते जा रहे है. केन्द्र सरकार कृषि कानूनो के जरीये किसानों से जमीन छीनकर निजी कंपनियों को देना चाहती है. एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे देश को गुलाम बना कर रखा था. सोचिए कई कंपनियां आने के बाद देश के किसानों का क्या हाल होगा ?
पिछले 20-22 सालों में जाट, यादव, अहीर और कुर्मी खेती छोडकर सरकारी नौकरी, नेतागिरी और बिचैलियें बनकर काम करने लगे. इन्होने खेती करनी छोड दी. किसानों के खेतों पर सरकार ने सडक और शहर बसाकर देश का विकास करना शुरू किया. सरकार के इस विकास का लाभ सरकारी नौकरों और नेताओं ने उठाया. खेती की जमीन के छोटेछोटे हिस्से होने के बाद किसान मजदूर बनकर रह गया. यही वजह है कि जब कृषि कानूनों के जरीये खेती में निजीकरण को बढावा दिया गया तो किसानों ने इसका विरोध शुरू किया. बहुत सारे किसान भले ही किसान आन्दोलन में हिस्सा लेने दिल्ली की सीमा पर ना गये हो पर केन्द्र सरकार की चतुराई और धोखेबाजी को समझ रहे है. खेती ने करने वाले किसानों के लिये प्राइवेट कंपनियो का जाल भारी पडेगा. खेती के इन हालातों को समझने का हमने प्रयास किया. हमें ऐसे किसान से मिलकर हालात को समझना था जिसे सम्मान निधि की नहीं एमएसपी की जरूरत है.
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‘ग्रांउड जीरो‘ पर हुई बातचीत: 09 फरवरी 2021 को किसान आन्दोलन को 75 दिन पूरे हो गये थे. आजादी के बाद देश का यह सबसे बडा आन्दोलन है जो इतने लंबे समय तक चल रहा है. किसान आन्दोलन को दबाने के लिये उसको खालिस्तान, चीन, पाकिस्तान समर्थक बताया गया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में किसान आंदोलन का मजाक उडाते हुये उसको ‘आन्दोलन जीवी’ और ‘परजीवी’ जैसे षब्दो से नवाजा. सत्ता, राजनीति, किसान आन्दोलनकारियों से दूर हटकर हमने इसको समझने के लिये उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 90 किलोमीटर दूर सीतापुर के किसान से बात करने का विचार बनाया. हमें ऐसे किसान की तलाश थी जो खेती के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो. उसे खेती के विज्ञान की समझ हो और उसने खुद अपनी मेहनत से कुछ बदलाव किया हो. उसे किसान राजनीति के साथ ही साथ कृषि कानूनों और किसान आन्दोलन की समझ हो.
सीतापुर में मौजूद अपने संपर्क सूत्रो के जरीये हमें सरदार स्वर्ण सिंह के बारें में पता चला. हम पहले लखनऊ से सीतापुर पहुचें वहां से लखीमपुर बाईपास पर स्वर्ण सिंह के 20 एकड वाले खेत पर उनसे मुलाकात हुई. खेत में गेहॅू की फसल लहलहा रही थी. सडक से लगा हुआ उनका खेत है. खेत को आवारा पषुओं और नीलगाय से बचाने के लिये चारों तरफ से ऊंची तारबंदी की गई है. तार को फांद कर जब हमने खेत में प्रवेश किया जो स्वर्ण सिंह ने हमें रोक दिया और बताया कि खेत में पैर रखने से पौधे टूट सकते है. हमें मेढ के जरीये खेत में आने को कहा. स्वर्ण सिंह ने बताया कि तारबंदी कराने के कारण किसानों की बडी जमापूंजी इसमें लग गई है. कई बार चोर किस्म के लोग तार को काट भी ले जाते है.
सरदार स्वर्ण सिंह सीतापुर के बनहेटा फार्म पर रहते है. यह सीतापुर से लखीमपुर की तरफ जाने वाली सडक पर लखीमपुर बाईपास के पास है. स्वर्ण सिंह के पास अपनी 10 एकड खेती की जमीन है. इसके साथ ही साथ वह 57 एकड खेत दूसरे किसानों से बटाई पर लेकर उस पर भी खेती करते है. कई दूसरें गावों में भी अब वह दूसरों के खेत लेकर खेती कर रहे है. बटाई पर खेत लेने का बहुत पुराना चलन है. मौजूदा समय में देखे तो हिदी बोली वाले प्रदेशो खासकर उत्तर प्रदेश बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में खेत को बटाई पर देने का चलन बहुत है. यह धीरेधीरे बढ रहा है. यहां की खेतीहर जातियां खेती नहीं करना चाहती. बटाई की खेती को ही ‘कांट्रैक्ट फार्मिग’ भी कहा जाता है.
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हरियाणा के कैथल तहसील के रहने वाले स्वर्ण सिह 1980 में अपने पिता के साथ सीतापुर आये थे. कैथल तहसील अब जिला बन गई है. स्वर्ण जिस समय सीतापुर आये थे उस समय वह कक्षा 4 में पढते थे. सीतापुर आकर पूरा परिवार यहां रहने लगा. उनके पास खेती की जमीन नहीं थी. धीरेधीरे उनके पिता ने खेतों पर काम करके अपनी खेती की जमीन ली और जब बच्चें बडे हुये तो अपनी खेती के साथ ही साथ बटंाई की खेती लेकर भी काम षुरू किया. सरदार स्वर्ण सिंह 57 एकड दूसरे लोगों के खेत लेकर खेती करते है. खुद के साथ ही साथ मूल किसान को भी नकद रकम देते है. स्वर्ण सिंह कहते है ‘हम लोग खेती को रोजगार बनाकर काम करते है. नौकरी हमारी प्राथमिकता में नहीं थी. मेरे छोटे भाई को सिपाही की नौकरी मिली थी पर उसने नौकरी करने की जगह पर खेती करने का ही विचार बनाया. आज वह खेती का काफी काम करता है.‘
नारों से नहीं मेहनत से बढेगी आय: 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों कीक आय दोगुनी करने का वादा किया. 2022 तक यह संभव नहीं हो सकता. देश के किसानों की हालत यह है कि वह 6 हजार रूपये सालाना ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि‘ पाकर खुद को सम्मानित महसूस कर रहे है. इसके जरीये ‘अजगर करे ना चाकरी पंक्षी करे ना काम दास मलूका कह गये सबके दाता राम’ वाली सोंच का आगे बढाया गया है. सरकार ने किसानों को ‘परजीवी’ बना दिया है. वह खुद मेहनत न करके यह चाहता है कि कोई इसकी जमीन ले ले और उनको पैसा दे दे. इस सोंच के सहारे किसान कभी तरक्की नहीं कर सकता है.
47 साल के स्वर्ण सिंह तीन भाई है. इनके नाम सुखबिंदर सिंह और मुखतार सिंह है. घर में सबसे बडे इनके पिता है. उनको मिलाकर 13 लोगों का परिवार है. स्वर्ण सिंह के दो बच्चे है. एक बेटा और एक बेटी है. दोनो ही सांइस ग्रेजूएट है. बेटी ने बीएसएसी करने के बाद टीचर के रूप में अपना कैरियर बनाने की दिशा में काम कर रही है. उसने कई प्रतियोगी परीक्षाएं भी दे रखी है. बेटा भी पढाई कर रहा है. स्वर्ण सिंह और उसके दोनो भाई भी पढे लिखे है. इन तीनो भाईयों ने कभी नौकरी करने की नहीं सोंची. स्वर्ण सिंह बताते है ‘हमें खेती से अच्छा और कुछ भी करना अच्छा नहीं लगता. खेती ही हमारी पहचान है. हमारा खेत, बीज और फसल से परिवार के सदस्यांे सा संबंध है. हमारे बारे में दूसरे किसान कहते है कि ‘सरदार जी अगर गेहॅू के बीज को भूनकर भी खेत में छिडक दे तो अच्छी पैदावार हो जायेगी’.
2018 में स्वर्ण सिंह की पहचान दीपक गुप्ता नामक व्यक्ति से हुई. जो अपने खेत पर 65 हजार का घाटा खा चुके थे. सब्जी की खेती में उनको नुकसान हुआ था. परेषान हालत में वह स्वर्ण सिंह से मिले. स्वर्ण सिंह को कहा कि वह यह खेत ले ले और इसपर खेती करे. स्वर्ण सिंह ने कहा ठीक है. जो लाभ होगा उसमें आधाआधा बांट लेगे. दीपक भी तैयार हो गये. खेती से उस साल लाभ हुआ और स्वर्ण सिंह और दीपक के हिस्से में 52-52 हजार आये. इलाके में स्वर्ण सिंह की पहचान किसान कम कृषि विज्ञानी के रूप मे अधिक होती है. स्वर्ण सिंह पहले सब्जी की खेती भी करते थे. वह बताते है ‘सब्जी की ख्ेाती में मजदूरी अधिक देनी पडती है. मजदूरों के मनरेगा और शहरो में मजदूरी करने करने से मजदूर कम हो गये. मंहगे भी हो गये.‘
मिर्च की खेती में केवल मिर्च की तोडाई में ही 2 से 3 रूपये प्रति किलो मजदूरी देनी होेती है. जबकि टमाटर में 1 से 2 रूपये देना पडता है. जिसकी वजह से फसल की कीमत बढ जाती है. ऐसे में सब्जी की खेती छोडकर गेहॅू और धान की खेती करते है. इसमें लाभ यह है कि काफी पैदावार एमएसपी कानून के तहत खरीद ली जाती है जिससे लाभ हो जाता है. स्वर्ण सिंह कहते है ‘सरकार अगर सब्जी की खेती को बढावा देना चाहती है और किसानों कह कमाई को आगे बढाना चाहती है तो मनरेगा के जरीये किसानों को मजदूर देकर मदद कर सकती है. मनरेगा के तहत मजदूर किसानों के खेत पर काम करे. मजदूरी किसान और सरकार मिलकर दे दे. जिससे मजदूर को मजदूरी मिल जायेगी और किसान को कूछ मजदूरी देनी होगी तो उसका सब्जी की खेती से मुनाफा बढ जायेगा. खेती और मजदूरी दोनो का आपस में रिश्ता है. सरकार की मदद से यह दोनो ही आगे बढ सकेगे.’
मैदानी इलाकों में खूब फलफूल रहा पंजाब मौडल: सरकार और सरकार के समर्थक किसान आन्दोलन को लेकर भले ही पंजाब के किसानों को गाली दे पर यहां के किसानों ने मैदानी इलाको में खेती की तस्वीर को बदल दिया है. केवल स्वर्ण सिंह और उनका परिवार ही नहीं पंजाब और हरियाणा के रहने वाले तमाम लोग मैदानी इलाकों में खेती कर रहे है. इनके पास जितनी अपनी जमीन है उससे कई गुना अधिक जमीन दूसरों की बंटाई पर लेकर खेती कर रहे है. सीतापुर, लखीमपुर, पीलीभीत ही नहीं लखनऊ रायबरेली जैसे जिलों में भी सरदार खेती कर रहे है. हरियाणा पंजाब के इन किसानो ने उसर और बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर मिसाल कामय की है. मैदानी इलाके के किसानों को खेती करने का तरीका सिखाया है.
आज मैदानी इलाको के किसान अपनी घाटे की खेती इन सरदारों के हवाले कर रही है. घाटे की खेती को सरदार लाभ की खेती बना दे रहे है. शुरूआती दिनों में मैदानी इलाके के किसान इनके साथ बहुत अच्छे संबंध नहीं रख रहे थे पर धीरेधीरे अब वह इन पंजाब के किसानों से खेती के तरीके सीख रहे है.
पीलीभीत के रहने वाले किसान पतविंदर सिंह ने बताया कि तराई के कुछ किसान धान की दो फसले लेते है. जबकि सामान्य किसान धान की एक फसल ही साल में ले पाते है. यह किसान आधुनिक खेती करते है. ज्यादा से ज्यादा मशीनों का प्रयोग करते है. बहुत सारी मषीने इनके द्वारा खुद के ही बनाई ली जाती है. यह किसान भी बीज और कीटनाशक की दुकानों से उधार चीजें लेते है. लेकिन फसल बेचने के बाद पैसा घर में बाद में ले जाते है सबसे पहले दुकानदारों का बकाया चुकाते है. मैदानी इलाके के किसान बकाया रकम चुकाने में कई साल लगा देते है. जिसके कारण कई बार वह कर्जदार बने रहते है. अपनी फेसबुक और वाट्सएप की डीपी में ‘मै भी टिकैत’ लगाने वाले दिलजीत सिंह कहते है ‘हमने अपनी मेहनत से मैदानी इलाकों में खेती का नया कल्चर बनाया है. हमारा खेती का मौडल सभी को पसंद आ रहा है.
सभी किसानों को मिले एमएसपी का लाभ: किसान आन्दोलन का जवाब देते हुये ससंद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा ‘एसएसपी ना खत्म की गई और ना कभी खत्म की जायेगी.‘ इसके बाद भी किसान एमएसपी की गारंटी चाहते है. उसको कानूनी दर्जा देने की मांग कर रहे है. एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइज) यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों के लिये बेहद जरूरी है. केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर कहते है किसान यह नहीं बताते कि कृषि कानूनों में काला क्या है ? केन्द्रीय कृषि मंत्री को पता नहीं है कि हर किसान अपना भला समझ रहा है. जब हमने स्वर्ण सिंह से पूछा कि एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गांरटी किसान क्यों मांग रहे है ? इसकी क्या उपयोगिता है ? किसानों को सरकार की बात पर भरोसा क्यों नहीं है ? देष में हर चीज के दाम उत्पादक तय करता है तो खेती से होने वाली पैदावार का दाम खरीददार क्यो तय करे. ?
स्वर्ण सिंह ने अपना उदाहरण देते कहा कि अगर किसान की आय दोगुनी करनी है तो एमएसपी की गांरटी देनी होगी. केवल सरकारी खरीद ही के साथ ही साथ प्राइवेट खरीददारों पर भी यह लागू किया जाये. एमएसपी से कम मूल्य पर खरीद को अपराध घोषित जाये. जब सरकारी और प्राइवेट दोनो तरह की खरीद एमएसपी पर होगी तो मनमानी नहीं हो पायेगी. ऐसे में जरूरी है कि सरकार मंडियों की व्यवस्थ्राा को भी मजबूत करे. जब तक प्राइवेट खरीददारी में एमएसपी लागू नहीं है तब तक सरकारी खरीद में किसानों को बेचने में काफी दिक्कत आती है. सरकारी खरीद में मनमानी की जाती है. सरकारी खरीद के पहले फसल धान और गेहॅू के मानक को देखा जाता है. धान के मामले में केवल धान की नहीं धान की कुटाई के बाद चावल भी देखा जाता है कि कितना चावल निकला और कितना चावल टूट गया. अगर चावल कम निकलता है या ज्यादा टूट जाता है तो उसकी खरीददारी नहीं की जाती है.
धान के लिये सरकारी खरीद सामान्य ग्रेड के लिये 1,868 रूपये और ए-ग्रेड के लिये 1,888 रूपये प्रति कंुतल है. प्राइवेट खरीददार इसी धान को 12 सौ से 13 सौ रूपये प्रति कंुतल की दर से होती है. ऐसे में 5 सौ रूपये के करीब प्रति कुंतल दोनो के बीच फर्क आता है. स्वर्ण सिंह बताते है ‘जब किसान प्राइवेट खरीददार को बेचता है तो उसे लागत से कम कीमत मिलती है. ऐसे में उसको नुकसान होता है. जब सरकारी खरीद यानि एमएसपी पर खरीददारी होती है तो किसान को बचत हो जाती है. इसी वजह से किसान अब एमएसपी की गांरटी चाहता है. एमएसपी केवल कुछ किसानों तक ही सीमित न रह सके इस लिये एमएसपी से कम की खरीद को अपराध घोषित किया जाय.
बाक्स: 1 नहीं होगा निजी कंपनियों को नुकसान: सरकार के लोग तर्क दे रहे है कि अगर प्राइवेट कंपनियांे को एमएसपी पर खरीदने पर बाध्य किया गया तो उनको नुकसान होगा तब उसकी भरपाई नहीं हो पायेगी. यह तर्क सही नहीं है. किसान से खरीद और उपभोक्ताओें तक पहंुचने के बीच मूल्य कई गुना बढ जाती है. स्वर्ण सिंह हमें समझाते कहते है ‘18 रूपये किलो में किसान से जो धान खरीदा जाता है वह चावल के रूप में उपभोक्ताओ को 35 से 60 रूपये किलों में बेचा जाता है. एमएसपी की कीमत के दोगुने और अधिक पर बेचने से नुकसान कैसे होगा ? यह कंपनियां अपने मुनाफें को कम नहीं करना चाहती. इस कारण ही वह एमएसपी देने से भाग रही है. इसी तरह से गेहॅू और दूसरी फसलों के साथ होता है. गेहॅू की एमएसपी 19 रूपये प्रति किलों है और प्राइवेट कंपनियां आटा 40 रूपये प्रति किलो की दर से बेचती है.
बाक्स: 2 कहीं भी फसल बेचने की आजादी का भ्रम: कृषि कानूनों का पक्ष रखते हुये केन्द्र सरकार बारबार कहती है कि इससे किसानों को देष में कहीं भी अपनी फसल बेचने अधिकार होगा. इसके बारे में जब हमने स्वर्ण सिंह के अनुभव पूछा तो उन्होने बताया कि हम सीतापुर से दूर पीलीभीत धान लेकर गये. हमें जितने बढे पैसे मिल रहे थे उतना सीतापुर से पीलीभीत तक धान पहंुचाने में खर्च हो गया. जब तक एमएसपी गांरटी नहीं होगी और प्राइवेट खरीददारों पर लागू नहीं होगी फसलों को कम से कम कीमत पर बेचने के लिये मजबूर किया जायेगा.