लेखक- रोहित और शाहनवाज

दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बोर्डर पर हम किसान आन्दोलन कवर करने गए थे. आन्दोलन में ‘जय जवान, जय किसान’ के नारों की आवाज वहां तक पहुंच रही थी जहां दूर मीडिया की गाड़ियों के खड़े होने की जगह थी. उत्सुकता बढ़ी तो तेज क़दमों से धरनास्थल पर पैर दोड़ पड़े. वहां पुलिस के लगाए 2 लेयर बैरीकेडो के बीचोंबीच जा कर हम फंस गए. हमें बैरीकेड पार कर के किसानों की तरफ बढ़ना था. लेकिन अन्दर जाने का रास्ता ब्लाक था.

रास्ता खोज ही रहे थे कि तभी एक आवाज सुनाई दी, “भाइयों, रास्ता इधर है. इस रास्ते से आ जाओ.” मुड़े तो देखा कि एक 27 वर्षीय युवा (तेजिंदर सिंह) बैरीकेड के ठीक पीछे कुर्सी पर दिल्ली के तरफ मुह कर के खड़ा था. उस के हाथ में एक सफेद रंग की तख्ती (प्लकार्ड) थी. तख्ती पर लिखा था “गोदी मीडिया गो बेक.” वहीं उस के बगल में खड़े दूसरे आन्दोलनकारी की तख्ती पर कुछ मीडिया चैनलों के नाम के साथ ‘मुर्दाबाद’ के नारे लिखे हुए थे.

ये भी पढ़ें- किसान आन्दोलन: जब किसानों ने रागिणी गा कर सरकार को घेर लिया

अब यह दिलचस्प था कि किसान आन्दोलन में सरकार की नीतियों के साथसाथ मुख्यधारा की मीडिया की मुखालफत देखने को मिली. हम जानने के लिए उन की तरफ बढ़े, हायहेल्लो की फोरमेलिटी छोड़ कर सीधा प्रश्न पूछ पड़े, ‘इन तख्तियों का क्या मतलब है?’

तेजिंदर ने जवाब दिया, “हम किसानों का यह संघर्ष दो मोर्चों पर है. एक, तीनों कानून वापस करवाने आए हैं. दूसरा, हमारा संघर्ष सरकार के तलवे चाटने वाली गोदी मीडिया के खिलाफ भी है. हम इन के आगे चाहे कितनी भी सफाई दे दें, जो भी सच्चाई रख दें, ये लोग वहीँ दिखाएंगे जो सरकार इन से कहेगी. आज ये दोनों मिल कर हमें खालिस्तानी कह रहे हैं कल को कुछ और भी कह सकते हैं. मीडिया एक बार भी इन कानूनों को ले कर सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर सकती.”

तभी दूसरा युवक भी बातों में कूद पड़ा, उस ने तपाक से कहा, “ये (मीडिया) बस आन्दोलन को किसी भी तरह से बदनाम करना चाहते हैं. जो भी आवाज सरकारी नीतियों के खिलाफ उठती है उस आवाज को सब से पहले यही मीडिया विरोध करती है. इस का किसानों पर क्या असर पड़ेगा उन्हें इस से कोई मतलब नहीं. इन्हें तो मोटी मलाई मिल ही जाती है. हम यहां खड़े ही इसीलिए हैं ताकि उन्हें उन की बिकी हुई हकीकत दिखा सकें.”

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन उस पार

आन्दोलन में सरकार के साथसाथ मीडिया को ले कर प्रदर्शनकारियों में असंतोष का यह पहला उदाहरण नहीं था, बल्कि वहां देखने में आया कि किसान इन बातों को ले कर इतना सचेत थे कि अपनी बात रखने से पहले वे यह अच्छी तरह टटोल लेते कि फलां कौन सा चैनल है, रात के प्राइम टाइम में क्या चलाएगा, और हमें इन से कैसे बात करनी है?

मीडिया और सरकार को ले कर किसान प्रदर्शनकारियों का विश्वास पूरी तरह ख़त्म हो चुका है. आन्दोलन के शुरू से इन दोनों के रवैये को किसान समझ चुके थे. इस का कारण यह कि भाजपाई नेता लगातार आन्दोलन पर कोई हड्डी हवा में उछालता तो यह मीडिया लपक कर उस के ऊपर दौड़ पड़ता.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलनों का डेरा

मीडिया-सत्ता का गठजोड़

जून में विवादित कृषि सम्बंधित अध्यादेश आने के बाद से ही देशभर में किसान तरहतरह से अपने स्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे. भारत में दुनिया के सब से सख्त लौकडाउन लगने के कारण इन अध्यादेशों के खिलाफ पंजाब व अन्य राज्यों में लोग अपनी घरों की छत पर इकट्ठे हो कर ही इन कानूनों का विरोध कर रहे थे. समय के साथसाथ लोगों कि छतों और आंगन में होने वाले प्रोटेस्ट सड़कों पर उतर आए. एक समय बाद किसानों ने अपनी यूनियन के साथ इकट्ठे हो कर पंजाब में ‘रेल रोको आन्दोलन’ किया. और जब किसानों की मांग को सरकार ने अनदेखा कर दिया तो किसान अपनी मांग ले कर अभी दिल्ली के बौर्डर पर तैनात हो आए हैं. ये आन्दोलन समय के साथसाथ बड़ा हुआ है और किसान अपनी बात, अपनी मांगे जनता तक पहुंचाने में एक तरह से सफल भी हुए हैं.

लेकिन किसानों के इस आन्दोलन को सरकारी नुमाईन्दों और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया, जिसे गोदी मीडिया कहा जाता है, ने बदनाम करने का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया. भाजपाई नेता और उस की आईटी सेल जो भी आरोप आन्दोलन के खिलाफ गढ़ते, उसे मुख्यधारा की मीडिया सरकारी भोपू की तरह दिनरात बजबजाती.

भाजपाई नेता और मीडिया द्वारा खालिस्तानी, देशद्रोही, टुकड़ेटुकड़े गैंग, आतंकवादी कनेक्शन, चीन-पाक कनेक्शन इत्यादि शब्दों से आन्दोलन पर कई सवालिया निशान खड़े किए जाते रहे है, यह इसलिए ताकि आमजन को पूरा मसला समझ में आए उस से पहले ही उन्हें भ्रम की दीवार के पीछे धकेल दिया जाए. आन्दोलन के खिलाफ नकारात्मक रिपोर्ट से सनी आज की मीडिया अपना चरित्र साफ़ दिखा चुकी है, जिसे किसान भी समझ रहे हैं.

ये भी पढ़ें- किसान आंदोलन में यूपी किसानों का अगर मगर

यह मीडिया की ही सच्चाई है कि पिछले 3 महीने से लगातार चले आ रहे इस आन्दोलन में- किसानों की मांग क्या है, यह कानून क्या है, आखिर वो मजबूर क्यों हैं, इसे स्पष्ट तौर से समझाने की जगह बस सरकारी आरोपों का भोपू बजाया गया है. सरकार की दमनकारी नीति तो दूर, इस बात को भी बड़े स्मार्ट तरीके से छुपाया गया कि किसान का यह आन्दोलन अदानी-अंबानी और चंद कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ भी है. जिस के पेट्रोलपम्पों, नेटवर्क, माल्स को किसान बायकाट कर रहे हैं.

यह सोचने वाली बात है जब तक किसान अपने प्रदेश में, राज्य स्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे, तब तक सरकार इन पर ध्यान देना भी जरुरी नहीं समझ रही थी. लेकिन वही किसान अब जब अपनी मांगों को ले कर दिल्ली आ गए तो उन पर तरहतरह का टैग लगा कर उन के आन्दोलन को बदनाम करने पर उतारू है.

किसानों को दिल्ली के सिंघु बौर्डर पर आए अभी 2 ही दिन हुए थे कि 30 नम्वंबर को बीजेपी के सोशल मीडिया अकाउंट, खासकर ट्विटर और फेसबुक से प्रदर्शन करने आए किसानों पर ‘खालिस्तानी’ होने का टैग लगा दिया. वैसे तो यह सब टैगिंग का काम भाजपा के अंधभक्त पहले से ही कर रहे थे, लेकिन आधिकारिक रूप से भाजपा ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से ट्वीट कर किसानों के आन्दोलन को ‘खालिस्तानी’ होने कि बात कही.

सिर्फ सोशल मीडिया हैंडल ही नहीं, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तो यह तक कह गए कि, “अगर ये लोग इंदिरा गांधी को कर सकते हैं तो ये मोदी को क्यों नहीं कर सकते.” इस के साथ ही खट्टर ने इन किसानों के ‘प्रो खालिस्तान और प्रो पाकिस्तान’ होने का भी टैग लगा दिया था.

ठीक उसी दिन उत्तराखंड भाजपा के नेता दुष्यंत कुमार गौतम ने कहा कि, “इन किसानों का इस प्रोटेस्ट से कोई लेना देना नहीं है. इसे आतंकवादियों और राष्ट्र विरोधी ताकतों द्वारा अपहरण कर लिया गया है. प्रोटेस्ट में आए कुछ लोग महंगी कारों और अच्छे कपड़ों में देखे गए, वह किसान नहीं हो सकते.” कुछ इसी तरह का बयान केन्द्रीय मंत्री वीके सिंह ने भी दिया. उन्होंने कहा कि कपड़ों से ये लोग किसान नहीं लगते हैं.

लोगों को गुमराह करने में महारत हासिल करने वाले भाजपा के सोशल मीडिया चीफ अमित मालवीय ने 2 दिसम्बर को इन्टरनेट पर वायरल हो रहे एक विडियो का अधूरा हिस्सा दिखा कर ट्वीट किया कि पुलिस वालों ने किसी किसान पर लाठियों से हमला नहीं किया. जिस के जवाब में किसी राजनैतिक पार्टी ने नहीं बल्कि ट्विटर की कंपनी ने ही उस ट्वीट को ‘मैनीप्युलेटेड मीडिया’ (मीडिया में हेर फेर) का टैग लगा दिया. भारत में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी व्यक्ति के ट्वीट को ट्विटर ने ‘मैनीप्युलेटेड मीडिया’ का टैग दिया हो.

3 दिसम्बर के दिन दिल्ली भाजपा के एमपी मनोज तिवारी ने किसान आन्दोलन को ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ द्वारा संचालित करने का आरोप लगाया. इस आन्दोलन को उन्होंने ‘सुनियोजित साजिश’ करार दिया और कहा कि ये गैंग इस प्रोटेस्ट को शाहीन बाग जैसा बनाना चाहते हैं. कहा कि ये शाहीन बाग 2.0 बनाने की पूरी तैयारी है. 6 दिसम्बर को भाजपा के जनरल सेक्रेटरी बीएल संतोष ने किसान आन्दोलन कर रहे किसान यूनियनों पर ‘दोगला’ होने का आरोप भी लगाया.

किसान आन्दोलन की मांगों का समर्थन कर रहे ऊंचे अवार्ड और पदकों से सम्मानित खिलाड़ियों के अवार्ड वापिस करने को ले कर मध्य प्रदेश भाजपा के नेता कमल पटेल का अजीबोंगरीब बयान भी सामने आया. जिस में उन्होंने कहा, “अवार्ड वापसी करने वाले सभी लोगों ने भारत माता को गाली दी है और देश के टुकड़े करने की कसम खाई है. अवार्ड वापसी करने वाला कोई भी देशभक्त नहीं है.”

9 दिसम्बर को केन्द्रीय मंत्री राओसाहेब दानवे ने यह दावा किया कि इस प्रोटेस्ट के पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है. उन के अनुसार चीन और पाकिस्तान इस प्रोटेस्ट की फंडिंग कर रहा है. यहां तक कि अगर कोई मुस्लिम व्यक्ति आन्दोन में दिख जाए तो उस का ऐसा एंगल दिखाया जाता मानो वह संदिग्ध हो, उस ने वहां जाकर कोई गुनाह कर दिया हो. ऐसे में सवाल यह बनता है कि देश में क्या कोई मुस्लिम समुदाय से आने वाला व्यक्ति किसान नहीं हो सकता?

इस के बाद 11 दिसम्बर ‘ह्यूमन राइट्स डे’ के दिन सिंघु बॉर्डर पर भारतीय किसान यूनियन (उग्रहन) के किसानों ने देश की जेलों में कैद उन लोगों को रिहा करने की मांग भी उठाई जो सरकार की तीखी आलोचना करते थे और जिन पर अभी तक कोई आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका है. जिन में वरवरा राव, शर्जील इमाम, उमर खालिद, फादर स्टेन, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा और भी कई ऐसे नाम है जिन पर सरकार द्वारा यूएपीए कानून के तहत काफी लम्बे समय से जेल में बंद हैं. और इस लिस्ट में कई नाम ऐसे भी है जो किसानों के अधिकारों को लेकर लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे. और बड़ी अजीब बात यह है कि सरकार इन में से किसी के खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाई है.

अब माओवादी और देशद्रोह कनेक्शन..

इन सब आरोपों के बाद सरकार ने इन दिनों आन्दोलन को बदनाम करने के लिए कुछ और आरोपों को इन में शामिल कर दिया है. अब जाहिर सी बात है, ‘खालिस्तान’ की पीपरी, यूपी, बिहार और हरियाणा में बैठे किसान परिवार के समझ के परे था तो सरकार को ऐसे सिंबल की जरुरत थी जो उन के आरोपों को सार्थक कर सके. यही कारण था कि माओवादी, देशद्रोही, टुकड़ेटुकड़े गैंग की हवा फिर से बनाने की पूरी कवायद चल रही है. जिस के लिए सरकार ने “सरकारी सूत्रों” (केन्द्रीय ख़ुफ़िया ब्यूरो) का हवाला देते हुए यह खबर खूब जौरशौर से चलवा दी कि किसानों के इस आन्दोलन को ‘अल्ट्रा लेफ्ट’, ‘प्रो लेफ्ट विंग’, ‘एक्सट्रिमिस्ट एलिमेंट’ और ‘माओवादियों’ ने हाईजैक कर लिया है.

पंजाब के संगरूर जिले से मंजीत सिंह से जब इन आरोपों के बारे में पूछा गया तो वे कहते हैं, “ये सब झूठे आरोप लगा कर सरकार हमारे आन्दोलन को बदनाम करना चाहती है. और इस आग में घी डालने का काम गोदी मीडिया कर रहा है. इस देश को गर्त में ले जाने का काम जितना देश की सरकार ने किया है उस से कहीं बड़ा योगदान हमारी दलाल मीडिया का है. हम सीधेसाधे किसान हैं जो अपने हक मांगने सरकार के पास आए हैं.”

वे आगे कहते हैं, “सरकार इन कानूनों को वापस लेने से डरती है, क्योंकि इस से उन के चंद कॉर्पोरेट दोस्तों के हित जुड़े हुए हैं. यही कारण है कि वे हम पर बदलबदल कर आरोप लगा रहे हैं. खालिस्तानी, आतंकवादी चल नहीं पाया तो माओवादी कहना शुरू कर दिया है. सरकार बौखलाई हुई है, क्योंकि वे नैतिक दबाव में फंस चुके हैं, इस लिए हमारे आन्दोलन को अनैतिक दिखाने की कोशिश कर रही है. यही कारण है वे हम पर झूठे आरोप लगा रही है.”

इसी मसले पर सिंघु बोर्डर पर आए करमजीत ने फोन पर बात करते हुए बताया कि, “अगर सरकार को पता है कि आन्दोलन में खालिस्तानी, आतंकवादी, माओवादी, देशद्रोही वगेरावगेरा हैं तो आए उन्हें गिरफ्तार करे. चुप क्यों बैठे हैं. चुप बैठ कर तो वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं, यानी यह दिखाता है कि बस कीचड उछालना चाहती है.” करमजीत मानते हैं कि भाजपा ने इन 6 सालों में अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए कुछ तरह के नए सिंबल गढ़े हैं. या पुराने सिंबल को जौरशौर से इस्तेमाल किया है, जिस में मीडिया के बड़े हिस्से ने उन का साथ दिया है.

सिंबल के इर्दगिर्द राजनीति

किसी भी तरफ की राजनीति में ‘पहचान’, ‘टेग’ व ‘सिंबल’ एक अहम् चीज होती है. फिर चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक. इन ‘सिंबल’ को स्थापित करना किसी भी राजनेता के लिए राजनीतिक विजय के समान होता है. यह वही ‘पहचान’ होते हैं जो राजनेता को राजनीतिक फायदा व नुकसान पहुंचाते हैं, यही कारण है कि सब से पहले राजनेता इन्ही को गढ़ने की कोशिश करता है. आज भाजपा इतनी ताकतवर है कि उस ने अपने विरोधियों के खिलाफ ऐसे कई टैग गढ़ दिए हैं जिस से ने बड़े ही

2014 में जब प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में काबिज हो रहे थे, उस से पहले वे खुद के लिए योजनाबद्ध तरीके से हिन्दू हृदय सम्राट, साधूसंत, सन्यासी, फ़कीर, विकासपुरुष, ईमानदार जैसे शब्द स्थापित करवा चुके थे. वहीं उस समय के विपक्षी नेता उम्मीदवार राहुल गांधी के लिए शहजादा, पप्पू, नौसिखिया, मां का लाडला जैसी पहचान घरघर तक पहुंचा चुके थे. जिस से आमजन में प्रधानमंत्री के चेहरे के लिए एक स्पष्टता बनी.

यह इमेज को बनाने और बिगाड़ने का खेल राजनीति की प्रमुख पहचान है. राजनीति में यह सिंबल ना सिर्फ किसी की हस्ती को बनानेडुबाने के काम आते हैं बल्कि सत्ता में बैठे सत्ताधारियों का अपने खिलाफ उठ रहे विरोधों को कुचलने के भी काम आते हैं. मौजूदा समय की बात की जाए तो भाजपा इन सिंबल व अपने प्रचार तंत्र के सहारे कई आंदोलनों का दमन कर चुकी है.

यही कारण था, जुलाई 2015 में दलित छात्र स्कोलर रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद उठ रहे देश में विरोधों को ख़त्म करने के लिए, देश में आंदोलित छात्रों पर सब से पहले हमला किया गया, और उन्हें कथित ‘टुकड़ेटुकड़े गैंग’ सिंबल दिया गया, जो आज तक छात्र आन्दोलन के लिए नासूर बना हुआ है. इस शब्द के बड़े राजनीतिक मायने रहे हैं. इस के जरिए समाज में एक अलग तरह का डिस्कोर्स खड़ा किया गया. देशभक्त बनाम देशद्रोह की बहस छेड़ी गई. बाजार में दाल चावल की बढ़ी कीमतों से परेशान आम व्यक्ति के लिए भी फलाने यूनिवर्सिटी में कुछ नौसिखियों छात्रों द्वारा चली बहस प्राथमिकता बन गई. और पूरा मामला भाजपा के लिए अंधभक्ति फैलाने के नजरिए से मील का पत्थर बन गया.

ठीक इसी तरह की ‘सिंबल’ की राजनीति मोदी सरकार के खिलाफ उठे उन तमाम विरोधों, आपत्तियों और असहमतियों के विरुद्ध भाजपाइयों द्वारा की गई, जहां बुद्धिजीवियों को ‘अर्बन नक्सल’, असहमति में अवार्ड लौटाने वालों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ इत्यादि टेग दिए गए.

इसी कड़ी में सीएए-एनआरसी आन्दोलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड के दुमका से आगजनी करने वालों को कपड़ों से पहचानने की सलाह दे दी. वैसे तो यह तय है कि तमाम मीडिया और सरकारी तंत्र ने आज अल्पसंख्यक समुदाय को संदिग्ध की केटेगरी में डाल ही दिया है, फिर चाहे वह ‘मोब लिंचिंग’ के समय से हो, या सीएए-एनआरसी के समय हो, इस समझने के लिए कोरोना काल में तबलीगी जमात से वाले प्रकरण को लिया जा सकता है. लेकिन इस के साथ जो भी सरकार की आंख में किरकिरी पैदा करता है उसे यह सरकार सिंबल के माध्यम से बदनाम करवाती है, जैसे लौकडाउन के समय मजदूरों को कहा जा रहा था कि वे कोरोना वाहक हैं.

आज किसानों के आन्दोलन में भी यही देखने को मिला है, जहां कानूनों पर चर्चा से ज्यादा सरकार और मीडिया नए सिंबल गढ़ने का या तो प्रयास कर रही है, या पुराने सिम्बलों के जरिए आन्दोलन को कटघरे में खड़ा कर रही है. बस इस बीच जो नहीं हो पा रहा वह किसानों को इन कानूनों से होने वाली समस्या और कानूनों के फायदे नुकसान पर सिलसिलेवार चर्चा है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...