देश में न तो कानून का राज है और न कानून का डर. कानून अब ताकतवरों, रसूखदारों के हाथ का खिलौना बन गया है. कानून के रखवाले न तो कानून को ठीक तरीके से लागू कर पा रहे हैं और न ही उस की हिफाज़त कर पा रहे हैं. यही वजह है कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को परेशान करने, सत्ता में बने रहने, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने, वोटों की खातिर ध्रुवीकरण करने, धर्मविशेष के लोगों को दहशत में रखने, बहुओं द्वारा ससुराल वालों से बदला लेने, ज़मीनजायदाद हड़पने आदि के लिए रसूखदार लोगों द्वारा पैसे व ताकत के बल पर कानून को तोड़मरोड़ कर अपने हक़ में इस्तेमाल करने, झूठी एफआईआर दर्ज करवा कर लोगों को परेशान करने, उन्हें जेल भेजने और यहां तक कि उन पर रासुका या देशद्रोह जैसा इलज़ाम लगा कर सालों सलाखों में कैद रखने के लाखों उदाहरण बिखरे पड़े हैं.
भीमा कोरेगांव में दलितों का उत्पीड़न हो, दिल्ली की जामिया मिल्लिया के छात्रों का उत्पीड़न हो, डा. कफील का मामला हो, आईपीएस संजीव भट्ट का केस हो या आईपीएस दारापुरी को जेल भेजने का, आतंकी बता कर मुसलिम युवाओं को उत्पीड़ित करने का मामला हो या गोकशी-गोतस्करी के झूठे आरोप में फंसाने का, 498-ए का दुरुपयोग कर के घरेलू हिंसा और दहेज़ मांगने का आरोप लगा कर पतियों और ससुरालियों का उत्पीड़न करना हो या राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को परेशान करने या जेल भेजने की बात हो, एक झूठी एफआईआर एक निर्दोष की पूरी जिंदगी ख़ाक करने के लिए काफी है. वह अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ता रहेगा, जिंदगी के तमाम साल बरबाद कर देगा, सारी जमापूंजी पुलिस-वकीलों और कोर्ट के चक्कर लगाने में खर्च कर देगा, आरोपों के चलते अपनी इज्जत का जनाज़ा उठते देखेगा, समाज में तिरस्कार और अपमान सहेगा, नौकरी-धंधे से हाथ धो बैठेगा, सालोंसाल जेल काटेगा और अगर कहीं थोड़ा भाग्यशाली रहा और सालों चली कानूनी कार्रवाई के बाद कोर्ट में अपनी बेगुनाही साबित कर पाया, तब भी समाज में मुंह उठा कर चलने व जीने के काबिल नहीं बचेगा.
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कश्मीर से ले कर दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, मेरठ, गाज़ियाबाद से कितने ही मुसलिम युवा माथे पर आतंकी का लेबल चिपकाए आज भी जेल की सलाखों में कैद हैं. विश्वविद्यालयों के कितने युवा देशद्रोही का लेबल लगा कर कालकोठरी में ठूंस दिए गए हैं, कितने नौजवान अपनी पत्नियों द्वारा घरेलू हिंसा और दहेज़ प्रताड़ना के झूठे मुकदमों में जेल में जवानी बरबाद कर रहे हैं. खुद सुप्रीम कोर्ट यह बात कह चुका है कि 498-ए का दुरुपयोग कर पतियों और ससुरालियों के खिलाफ महिलाओं द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर में 99 फ़ीसदी फ़र्ज़ी होती हैं, जो सिर्फ तंग करने, धन उगाहने, अपमानित करने या बदला लेने की नीयत से करवाई जाती हैं.
देशभर के पुलिस स्टेशन झूठे मुकदमों की फाइलों से पटे पड़े हैं. झूठी एफआईआर करवाने वालों से वरदी वालों को उगाही के तौर पर खासी रकम हासिल हो जाती है. एफआईआर करवाने वाली पार्टी मोटी हुई, राजनीतिक ताकत रखने वाली हुई तो बढ़िया ट्रांसफर-पोस्टिंग का चांस भी रहता है. देशभर की अदालतें झूठे मुकदमों की सुनवाई में अपना बहुमूल्य समय बरबाद कर रही हैं. इस के चलते वास्तविक मामलों को न्याय के मुहाने तक पहुंचने में कई साल लग जाते हैं. कभीकभी तो राजनीतिक साजिशों के चलते दर्ज हुए झूठे केसेस की सुनवाई के एवज़ में जजों को भी बड़ा इनाम हासिल हो जाता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जब उच्च और उच्चतम न्यायालय के जजों को सेवानिवृत्ति के बाद संसद और बड़े संस्थानों में महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन होते देखा गया है. किसी निर्दोष को दोषी साबित करने और उस का जीवन जेल की सलाखों में सड़ाने के लिए संविधान और कानून को ताक पर रख कर न्यायतंत्र के लोग जुट जाते हैं. इस में मीडिया की भूमिका भी खूब होती है. इंवैस्टिगेटिंग जर्नलिज़्म का दौर ख़त्म हो चुका है. आज का मीडिया सत्ता का भोंपू बन गया है. टीवी समाचार चैनल सत्ता के प्रवक्ता के रूप में काम कर रहे हैं. ऐसे में अदालत में केस पहुंचने से पहले ही मीडिया ट्रायल हो जाता है और एक निर्दोष के लिए अदालत में अपनी बेगुनाही साबित करना और भी ज़्यादा कठिन हो जाता है.
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तबलीगी जमात पर एफआईआर
भारत में कोरोना ने कदम रखा, तो उस का ठीकरा सीधे मुसलमानों के सिर फोड़ दिया गया. दिल्ली के निजामुद्दीन में आयोजित हुए मरकज में शामिल तबलीगी जमात के लोगों पर एफआईआर दर्ज की गई, जबकि मरकज का पूरा कार्यक्रम स्थानीय थाने की जानकारी व अनुमति से हो रहा था और अचानक लगे लौकडाउन के कारण लोग मसजिद में फंस गए थे. निजामुद्दीन स्थित मरकज में तबलीगी जमात के जलसे में शामिल हुए लोगों पर इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) की धारा 271 और 188 के तहत एफईआर दर्ज की गई. इस में बहुतेरे विदेशी नागरिक भी थे.
क्वारैंटाइन आदेशों का उल्लंघन करने (आईपीसी की धारा 271) और सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों का उल्लंघन करने (आईपीसी की धारा 188) के लिए मुंबई में तबलीगी जमात के 150 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. धारा 271 और 188 के अलावा सभी पर आईपीसी की धारा 269 के तहत भी कार्रवाई हुई. दिल्ली, महाराष्ट्र के अलावा यूपी और तमिलनाडु समेत कई अन्य राज्यों से भी बड़ी संख्या में तबलीगी जमात के लोगों की धरपकड़ हुई. ऐसा लगा कि देशभर में कोरोना फैलाने के जिम्मेदार सिर्फ जमाती हैं. विदेशी नागरिकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उन के पासपोर्ट जब्त कर लिए गए. सभी विदेशी नागरिकों को हैलट अस्पताल के क्वारैंटाइन वार्ड में भरती कर दिया गया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो तब चीखचीख कर कहा कि तबलीगी जमात के सदस्यों की गलतियों का खमियाजा प्रदेशवासी नहीं भुगतेंगे. कानपुर में पुलिस ने 8 विदेशी नागरिकों पर एफआइआर दर्ज की. शहर के बाबूपुरवा इलाके में स्थित सुफ्फा मसजिद से 6 फगानी, एक ईरानी और एक यूके के नागरिक मिले थे. ये आठों विदेशी दिल्ली के निजामुद्दीन की तबलीगी जमात में शामिल हुए थे. इन को बुक कर इन के पासपोर्ट जब्त कर लिए गए.
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तबलीगी जमात का मामला जब बौम्बे हाईकोर्ट में पहुंचा तब कोर्ट ने जमात में शामिल विदेशी नागरिकों पर दर्ज एफआईआर को रद्द किया. कोर्ट ने कहा- “मीडिया ने उन के खिलाफ दुष्प्रचार किया, उन्हें बलि का बकरा बनाया.” बौम्बे हाईकोर्ट ने बहुत ही कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपना फैसला सुनाया और 29 विदेशी नागरिकों के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर को रद्द कर दिया. आईपीसी, महामारी रोग अधिनियम, महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, आपदा प्रबंधन अधिनियम और विदेशी नागरिक अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत दर्ज एफआईआर टूरिस्ट वीजा का उल्लंघन कर दिल्ली के निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के कार्यक्रम में शामिल होने के आरोप में दर्ज की गई थी. पुलिस ने विदेशी नागरिकों के अलावा, उन्हें आश्रय देने के आरोप में अनेक भारतीय नागरिकों और मसजिदों के ट्रस्टियों को भी बुक किया था. औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्ति टी वी नलवाडे और न्यायमूर्ति एम जी सेवलिकर की खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर 3 अलगअलग याचिकाओं को सुना, जो कि आइवरी कोस्ट, घाना, तंजानिया, जिबूती, बेनिन और इंडोनेशिया जैसे देशों से संबंधित थीं. इन सभी को पुलिस द्वारा अलगअलग क्षेत्रों की मसजिदों में रहने और लौकडाउन के आदेशों का उल्लंघन कर नमाज अदा करने की कथित गुप्त सूचनाओं के तहत बुक किया गया था.
सरकार और पुलिस का दोहरा चरित्र देखिए. कोरोनाकाल शुरू हुआ, तो मोदी सरकार ने देश में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आगमन पर ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम का आयोजन कर लाखों की भीड़ जुटाई, मगर कोरोना फैलाने के लिए उस भीड़ के खिलाफ कोई एफआईआर नहीं दर्ज कराइ गई. कोरोनाकाल में मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने रैली में लाखों की भीड़ जुटाई, हिमाचल में सड़कों पर जलसे हुए, दक्षिण में मंदिरों में पूजाअर्चना में लोगों की भीड़ उमड़ी, रथयात्राएं निकलीं, अमावस्या पर मेले लगे, लोगों ने एकसाथ नदियों में डुबकियां लगाईं, हज़ारों कार्यक्रम देशभर में चलते रहे मगर तबलीगी जमात को छोड़ कर कोरोना फैलाने के आरोप में किसी के खिलाफ कोई एफआईआर नहीं हुई.
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भीमा कोरेगांव में फ़र्ज़ी एफआईआर की बाढ़
महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव मामले से कौन वाकिफ नहीं है. ढाई सौ सालों से उच्च जाति और दलितों के बीच जारी विवाद में हज़ारों ज़िंदगियां तबाह हुई हैं. 250 वर्षों पहले हुई दलितों और मराठाओं के बीच लड़ाई में दलितों की जीत का जश्न मनाने के लिए वहां हर साल दलित समुदाय के लोग इकट्ठा होते हैं. उच्च जाति वालों को यह नागवार गुज़रता है. तकरीबन हर साल यहां दलितों के उत्साह को दबाने के लिए हिंसा का तांडव होता है. उस के बाद इस पर राजनीति खेली जाती है. बीते साल भी यहां हिंसा हुई और उस के एक साल पहले भी, जिस के चलते सैकड़ों दलित, समाजसेवी, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर झूठे केस दर्ज कर के उन्हें जेलों में बंद कर दिया गया. क्या बच्चा क्या बूढ़ा, किसी को नहीं बख्शा गया.
83 वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी भी 23 अक्तूबर तक न्यायिक हिरासत में हैं. उन पर माओवादियों से रिश्ते रखने का आरोप है. आरोपियों पर आईपीसी और यूएपीए के विभिन्न प्रावधानों के तहत मामले दर्ज किए गए हैं. राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने आरोप लगाया है कि फादर स्टेन स्वामी ने माओवादियों के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए एक सहयोगी के मारफत धन भी प्राप्त किया था. बता दें फादर स्टेन स्वामी भाकपा (माओवादी) के एक प्रमुख संगठन परसिक्युटेड प्रिजनर्स सोलीडैरिटी कमेटी (पीपीएससी) के संयोजक भी हैं. एजेंसी ने स्वामी के पास से भाकपा (माओवादी) से जुड़े साहित्य, दुष्प्रचार सामग्री तथा संचार से जुड़े दस्तावेज बरामद दिखाए, जो कथिततौर पर समूह के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए थे. 83 साल के स्वामी, जो अब ठीक से चलफिर भी नहीं पाते, उम्र के आखिरी हिस्से में घर में अपनों के बीच होने के बजाय जेल की सलाखों में कैद हैं.
पुणे के पास कोरेगांव भीमा में एक युद्ध स्मारक के पास एक जनवरी, 2018 को हिंसा भड़की थी. इस के एक दिन पहले ही पुणे शहर में हुए एल्गार परिषद सम्मेलन के दौरान कथिततौर पर उकसाने वाले भाषण दिए गए थे. एनआईए अधिकारियों का कहना है कि जांच में यह स्थापित हुआ है कि स्वामी माओवादी गतिविधियों में संलिप्त थे. वे समूह की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए सुधीर धावले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, अरुण फरेरा, वर्णन गोंजाल्वेस, हनी बाबू, शोमा सेन, महेश राउत, वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्बदे के संपर्क में थे, जिन पर पहले से आरोप हैं.
बीते साल अगस्त और सितंबर में 10 एक्टिविस्ट्स को गिरफ्तार किया गया था. सभी आरोपी ट्रायल का सामना कर रहे हैं. हाल ही में एनसीपी नेताओं ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मुलाकात कर भीमा कोरेगांव हिंसा के आरोपियों के खिलाफ दर्ज किए गए सभी मामलों को बंद करने की मांग की थी क्योंकि उन पर लगाए गए आरोप फ़र्ज़ी हैं.
दिल्ली दंगे में फंसे निर्दोष
एनआरसी और सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और दिल्ली दंगा उस वक़्त हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर मोदी सरकार ‘नमस्ते ट्रंप’ का आयोजन कर रही थी. दिल्ली जल रही थी और मोदी सरकार ट्रंप के स्वागत में मशगूल थी. कोरोनाकाल शुरू हो चुका था, दिल्ली की गलियां हिंदू और मुसलिमों के लिए जंग का मैदान बनी हुई थीं और मोदी ट्रंप के स्वागत में लाखों की भीड़ इकट्ठा कर रहे थे. दिल्ली के कई इलाकों में हिंदू और मुसलिमों के बीच जारी हिंसा में दर्जनों लोग मारे गए और उधर हैदराबाद हाउस के हरेभरे बगीचे में राष्ट्रपति ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी दोस्ती का जश्न मनाते रहे.
गौरतलब है कि सीएए-एनआरसी समर्थकों और विरोधियों के बीच हुई हिंसा में 20 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी. 3 दिनों तक दिल्ली में हिंसा जारी रही. भीड़ ने मुसलिमों के घरों और कई मस्जिदों पर हमला किया. लोगों की दुकानें-मकान आग के हवाले कर दिए गए. मगर हिंसा भड़काने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, उलटे, पीड़ितों को उठा कर जेल में बंद कर दिया गया. तमाम निर्दोष अभी भी जेल में हैं.
विदेशी मीडिया दिल्ली हिंसा के पीछे सीधेसीधे भाजपा का हाथ बताता है और पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े करता है. दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हिंसा को ले कर एक ‘राजनीतिक‘ नजरिया अपना लिया, जिस में भड़काऊ भाषण देने वाले भाजपा नेताओं की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया गया और सीएएविरोधी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया.
पुलिसिया उत्पीड़न का नज़ारा जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी में देखने को मिला जब निर्दोष छात्रों पर पुलिस ने लाठीडंडों से बर्बर हमला किया और तमाम छात्रों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया. जामिया की छात्रा, जामिया कोऔर्डिनेशन कमेटी की सदस्य और 3 माह की गर्भवती सफूरा जरगर को देश के बेहद सख्त आंतकवाद विरोधी कानून गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए के तहत आरोप लगा कर जेल भेज दिया गया. जामिया के एक और छात्र मीरान हैदर, विश्वविद्यालय के अल्युमनाई एसोसिएशन के अध्यक्ष शिफा-उर-रहमानी और 2 दूसरे सीएएविरोधी कार्यकर्ताओं ख़ालिद सैफी और पूर्व पार्षद इशरत जहां को भी उसी एफआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया. देवांगना कलिता सहित जामिया स्टूडैंट आसिफ इकबाल तन्हा, गुलफिशा खातून, जेएनयू स्टूडैंट नताशा नरवाल, खालिद सैफी, कांग्रेस की पूर्व पार्षद इशरत जहां पर भी लोगों को भड़काने का आरोप लगा कर सलाखों में कैद कर दिया गया.
हाल ही में इसी मामले में जेएनयू से पीएचडी करने वाले उमर खालिद को भी गिरफ्तार किया गया है. उमर खालिद की गिरफ़्तारी दिल्ली पुलिस द्वारा एफआईआर 59/2020 में आरोपपत्र दाखिल करने की आखिरी तारीख से कुछ ही दिनों पहले हुई, जो दंगों की कथित साजिश से जुड़ी है. सामाजिक कार्यकर्ताओं की नजर में पुलिस द्वारा किए जा रहे दावे घिनौने और राजनीति से प्रेरित हैं. पुलिस राजीनीतिक आकाओं का खिलौना बनी हुई है.
इतिहासकार बनने का सपना देखने वाले उमर खालिद को लगता है कि दंगों की पड़ताल सुनियोजित तरीके से केवल मुसलमानों को ही नहीं, बल्कि छात्रों और प्रदर्शनकारियों को भी घेरने के इरादे से चल रही है. वे कहते हैं, “मुझे ही नहीं, कुछ और लोगों को भी कुछ साल जेल में बिताने पड़ेंगे. मेरी जेलयात्रा लंबी हो सकती है क्योंकि पुलिस के पास मेरे खिलाफ एक भी सुबूत नहीं है. इसलिए ‘प्रक्रिया ही सज़ा होगी.’
देवांगना कलिता पर पुलिस ने जफराबाद मैट्रो स्टेशन के पास लोगों को सीएए के विरोध में दंगे के लिए भड़काने का आरोप लगाया था. लेकिन सुनवाई के दौरान अदालत ने पाया कि पुलिस की तरफ से पेश की गई आतंरिक डायरी और पेनड्राइव में कहीं ऐसी बात नहीं है जो पुलिस के आरोपों को सिद्ध करे. अदालत ने कहा कि देवांगना के जिस भाषण की बात हो रही है उस में कुछ भी भड़काऊ नहीं है. देवांगना को निर्दोष पाते हुए कोर्ट ने उन को जमानत दे दी है, मगर आने वाले कई सालों तक वे अपने ऊपर दर्ज एक झूठे केस का सामना करती रहेंगी.
कितना हास्यास्पद है कि दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा इन छात्रों को राष्ट्रद्रोह, हत्या के प्रयास, हत्या, आपराधिक साजिश, धर्म, जाति आदि के आधार पर समूहों में नफरत फैलाने के संगीन आरोपों के तहत गिरफ्तार कर के जेल में ठूंस देती है लेकिन कोर्ट में सुनवाई के वक़्त वह इतने गंभीर आरोपों को साबित करने के लिए एक भी सबूत पेश नहीं कर पाती है.
साफ़ है कि जिस पुलिस का काम क़ानून की रक्षा करने का है, वह कानून उस के हाथों का खिलौना बन गया है. पुलिस विभाग सत्ताधारियों के इशारे पर नाचने वाली एजेंसी बन कर रह गया है, जिस का खुला इस्तेमाल सत्ता अपने विरोधियों के उत्पीड़न और प्रताड़ना के लिए करती है.
सच बोलने की सज़ा सलाखें
मोदी सरकार के राज में मीडिया द्वारा किसी कमी की ओर इशारा करना, सरकार की आलोचना करना, सरकार से सवाल पूछना, जनता के हक़ की बात उठाना मना है. किसी ने ऐसा करने की जुर्रत की तो उस पर झूठे आरोप लगा कर जेल भेजने का इंतज़ाम पक्का है. कितने ही पत्रकार इस तरह के सरकारी उत्पीड़न का शिकार हो चुके हैं, कुछ तो अभी भी जेल में हैं. कोविड-19 लौकडाउन के दौरान वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी के गोद लिए गांव की पोल खोलने वाली महिला पत्रकार सुप्रिया शर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. सुप्रिया का गुनाह यह था कि उन्होंने सच दिखा दिया था. सुप्रिया शर्मा समाचार वैबसाइट स्क्रौल डौट इन की एडिटर इन चीफ हैं. उन के खिलाफ वाराणसी के रामनगर थाना में एफआईआर दर्ज की गई है. उन पर झूठी खबर प्रकाशित करने का आरोप लगाया गया. दरअसल, सुप्रिया शर्मा ने स्क्रौल डौट इन पर 8 जून को एक खबर प्रकाशित की थी. रिपोर्ट में उन्होंने लिखा था कि लौकडाउन के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गोद लिए गांव के लोग किन हालात में अपने दिन गुजार रहे हैं.
सच लिखने की हिम्मत करने पर पुलिस ने महिला पत्रकार सुप्रिया शर्मा के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 269 (किसी बीमारी को फैलाने के लिए किया गया गैरजिम्मेदाराना काम, जिस से किसी अन्य व्यक्ति की जान को खतरा हो सकता है), 501 (मानहानिकारक जानी हुई बात को मुद्रित करना), अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (नृशंसता निवारण) अधिनियम 1989 की धारा 3(1)(द), 3(1) (घ) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया.
सुप्रिया शर्मा ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से इस पर प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, ‘स्क्रौल डौट इन ने 5 जून को डोमरी गांव, वाराणसी, उत्तर प्रदेश में माला नामक महिला का साक्षात्कार लिया. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा गोद लिए गांव में उन के कथन का सहीसही वर्णन किया गया है, जिन लोगों को लौकडाउन के दौरान भूखा रखा गया था. प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र से जो रिपोर्ट की गई है स्क्रौल डौट इन अपने स्टैंड पर कायम है. यह एफआईआर में स्वतंत्र पत्रकारिता को डराने और चुप कराने की कोशिश है.’
अगस्त 2019 में अमेरिका के नैशनल प्रैस क्लब ने अपने वार्षिक जौन औबुचौन प्रैस फ़्रीडम अवार्ड के लिए भारत से कश्मीरी पत्रकार आसिफ सुल्तान को उन के निष्पक्ष और साहसिक पत्रकारिता के लिए चुना. सुल्तान को अगस्त 2018 में उन की रिपोर्टिंग के आधार पर जेल में डाल दिया गया था और उन पर विद्रोहियों का समर्थन करने का आरोप लगाया गया था. सुल्तान को उन की रिपोर्टिंग के लिए लगभग 1 साल तक जेल में कैद रखा गया. पुलिस ने उन के इलैक्ट्रौनिक उपकरणों और नोटबुक को जब्त कर लिया. पुलिस ने उन के स्रोतों के बारे में पूछताछ की और उन से मुखबिर बनने के लिए कहा. लेकिन, सुल्तान ने खबरी बनने से इनकार कर दिया.
अमेरिका के नैशनल प्रैस क्लब ने पुरस्कार की घोषणा के साथ कश्मीर की हालत पर चिंता भी व्यक्त की. क्लब के वक्तव्य में सुल्तान का जिक्र कर कहा गया कि यह कश्मीर में प्रैस और नागरिकता के लिए बिगड़ती परिस्थितियों को दर्शाता है. इस में मोदी सरकार द्वारा कश्मीर पर लिए गए फैसले के बाद प्रैस ब्लैकआउट का जिक्र भी किया गया. क्लब के अध्यक्ष एलिसन कोडजक ने कहा, ”भारत दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र है और अमेरिका के साथ उस के करीबी रिश्ते हैं, लेकिन पत्रकारों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को स्वीकार नहीं किया जा सकता. कश्मीर के लोगों को सूचना के अधिकार से वंचित रखना अस्वीकार्य है.”
झूठी एफआईआर ने आतंकी बना दिया
देश में जब कभी आतंकी घटना होती है, आतंकियों की जल्द से जल्द गिरफ्तारी के लिए मीडिया और विपक्ष का सरकार पर भारी दबाव बनता है. ऐसे में सरकार को इस दबाव से मुक्ति देने के लिए अकसर पुलिस बिना सुबूत के बेगुनाह युवकों को गिरफ्तार कर उन का मीडिया ट्रायल कर आतंकी बता कर जेल भेज देती है.
जब सालों बाद उन के केस अदालत तक पहुंचते हैं और पुलिस उन के खिलाफ पुख्ता सुबूत पेश नहीं कर पाती है तब कहीं जा कर उन्हें जेल की सलाखों से मुक्ति मिलती है. लेकिन तब तक उन के जीवन के बहुमूल्य साल जेल में नष्ट हो चुके होते हैं. सालों चलने वाली लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद बेगुनाह साबित होने वाले अनेक युवाओं से ‘सरिता’ ने बात की. उन में से किसी ने 8 साल, किसी ने 9 साल और किसी ने 14 साल जेल की सलाखों के पीछे काटे हैं. इस दौरान उन का कैरियर तो खत्म हो ही गया, उन का घरपरिवार भी पूरी तरह बिखर गया. नौकरी गई, परिवार को आतंकी का परिवार कह कर ज़लील किया गया, उन के बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया. आतंकी का लेबल माथे पर चस्पां हुआ तो किसी की मां ने इस आघात में दम तोड़ दिया तो किसी के पिता की इहलीला खत्म हो गई. लेकिन आतंकवादी का जो कलंक उन के माथे पर पुलिस ने चस्पां कर दिया उस से वे आज तक नजात नहीं पा सके.
इन युवाओं में एक हैं मोहम्मद आमिर खान, जिन्हें 18 साल की उम्र में आतंकी बता कर जेल में ठूंस दिया गया और 14 साल लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद उन को बेगुनाह पा कर जब कोर्ट ने उन्हें रिहा किया तो जेल के बाहर उन की पूरी दुनिया उजड़ चुकी थी.
पुरानी दिल्ली के आज़ाद मार्केट में रहने वाले मोहम्मद आमिर खान जैसे कमउम्र नौजवानों के मामले दिल दहला देने वाले हैं. एक निर्दोष को बिना किसी गुनाह के अपनी जिंदगी के 14 साल जेल की सलाखों के पीछे काटने को मजबूर होना पड़ा. 20 फरवरी, 1998 की शाम 18 वर्षीय आमिर अपने बीमार पिता के लिए कैमिस्ट से दवा लेने दिल्ली की बहादुरगढ़ रोड पर पैदल जा रहा था. अचानक सफ़ेद रंग की एक जिप्सी उस के पास रुकी. जिप्सी से सादे कपड़ों में 2 लोग उतरे और उन्होंने आमिर के हाथपैर पकड़ कर उसे गाडी में ठूंस दिया. जिप्सी की ज़मीन पर आमिर को औंधा गिरा कर एक आदमी उस की पीठ पर घुटना टिका कर बैठ गया.
आमिर को लगा कि उस का अपहरण हो रहा है. वे आमिर को ले कर एक औफिस में पहुंचे. वहां पहुंचने पर आमिर को पता चला कि वे कोई अपहरणकर्ता नहीं, बल्कि पुलिस के लोग हैं. पुलिस ने आमिर खान को एक गुप्त कमरे में 7 दिनों तक बंदी बना कर रखा. वहां उस पर वह कहर टूटा जिसे याद कर के आज भी उस के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उस पर डंडे बरसाए गए. उस के नाखून उखाड़े गए. बिजली का करैंट लगाया गया और फिर उसे सादे कागजों पर साइन करने के लिए मजबूर किया गया. इन्हीं कागजों को पुलिस ने उस के झूठे बयान के लिए इस्तेमाल किया और आमिर खान पर उस की उम्र से ज्यादा बम धमाकों के मुक़दमे लाद दिए गए.
आमिर को पुलिस ने जान से मारने की धमकी दे कर चुप रहने के लिए इतना डराया कि 7 दिनों बाद उस को आतंकी बता कर मीडिया और अदालत के सामने पेश किया गया. तो, बेगुनाह होते हुए भी वह किसी से कुछ नहीं कह सका.
हैरानी की बात यह भी कि आमिर को 7 दिनों तक गुप्त कमरे में रख कर प्रताड़ित करने वाली पुलिस ने जब 28 फरवरी, 1998 को उसे अदालत के सामने पेश किया तो उस की गिरफ्तारी सिर्फ एक दिन पहले यानी 27 फरवरी, 1998 को सदर बाज़ार रेलवे ट्रैक से बताई.
अपने मांबाप का इकलौता बेटा आमिर, जो उस वक्त 11वीं कक्षा का छात्र था, जब आतंकी बता कर जेल में डाल दिया गया तो उस के परिवार पर क्या गुजरी, यह जान कर आप के भी रोंगटे खड़े हो जाएंगे. उस के पिता कपड़ों का छोटा व्यापार करते थे. आमिर को पुलिस के चंगुल से छुड़ाने की जद्दोजहद में उन का सार व्यापार चौपट हो गया. जमा पूंजी कानूनी लड़ाई में ख़त्म होने लगी. घर बिक गया. मां के गहने बिक गए. बेटे के माथे पर आतंकी होने का दाग लगा तो दोस्तों और रिश्तेदारों ने मुंह फेर लिया.
बेटे को जेल से छुडाने की आस में मातापिता वकीलों के दरवाजों पर गिड़गिड़ाते रहे और फिर एक दिन गम और सदमे का भारी बोझ दिल पर लिए उस के पिता हमेशाहमेशा के लिए दुनिया से चले गए.
पिता की मौत के बाद आमिर की मां ने अकेले दम पर अपने बेगुनाह बेटे को जेल से छुड़ाने की लड़ाई जारी रखी. उन्हें उम्मीद थी कि उन का बेटा जल्दी ही घर वापस लौट आएगा. लेकिन मां अकेली थी. वकीलों और अदालतों के चक्कर लगातेलगाते वह थक गई, टूट गई. सालदरसाल गुजर रहे थे और मां की आस दम तोड़ रही थी. दुख, तनाव और हताशा एक दिन उस पराकाष्ठ पर पहुंच गई कि उन्हें ब्रेन हैमरेज हो गया. ब्रेन हैमरेज से जहां उन का आधा शरीर लकवाग्रस्त हो गया वहीं उन की मानसिक हालत भी बिगड़ गई.
जनवरी 2012 में जब आमिर खान दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की अदालतों से निर्दोष साबित हुआ और जेल से रिहा हो कर घर पहुंचा. तो उस ने अपनी मां को एक जिंदा लाश की तरह एक छोटे से किराए के कमरे में ज़मीन पर पड़ा देखा.
अब पुलिस या कोई और क्या आमिर के जीवन के बेवजह बरबाद हुए 14 साल लौटा सकता है? हंसताखिलखिलाता परिवार वापस कर सकता है?
ऐसे कई नौजवान हैं जो पुलिस के जुल्म और साजिश के शिकार हुए, बेगुनाह होते हुए भी सलाखों के पीछे डाल दिए गए, न्यायपालिका ने कुछ के साथ न्याय किया और उन को बाइज्ज़त बरी किया मगर अभी भी हज़ारों की संख्या में ऐसे युवा जेल में हैं जो साजिशन फंसाए गए हैं. हर बार जब अदालतें निर्दोष लोगों को रिहा करती हैं तो सरकार की मंशा और पुलिस की कार्यपद्धति पर कड़ी टिप्पणियां करती हैं. बावजूद इस के, आज तक पुलिस या सरकार द्वारा इन पीड़ितों से न तो कोई माफ़ी मांगी गई और न ही इन के पुनर्वास के लिए प्रयास किए गए. सब से बुरी बात यह है कि झूठे मुकदमों में उन्हें फंसाने वाले किसी भी अधिकारी के खिलाफ आज तक कोई कारवाई नहीं की गई.
आमिर के अलावा जावेद, वासिफ, मुमताज़ जैसे कई युवा हैं जिन्हें लंबे कारावास के बाद आखिरकार आज़ादी तो मिली है लेकिन उन का भविष्य अभी भी अंधेरे में कैद है क्योंकि निर्दोष होते हुए भी पुलिस द्वारा आतंकवादी का जो कलंक उन के माथे पर लगाया गया वह देश की अदालतों द्वारा उन्हें बेगुनाह साबित किए जाने के बावजूद चमक रहा है. समाज उन्हें शक की नज़र से देखता है. लिहाज़ा, सवाल आज उन के परिवारों के गुज़रबसर और रोज़ीरोटी का है.
दहेज़ कानूनों का गलत इस्तेमाल
महिलाएं अपने पति और उस के परिवार पर हमला करने, फंसाने, बदला लेने, समाज में अपमानित करने, धन की लालसा में झूठी शिकायत दर्ज करने के लिए धारा 498-ए और दहेज अधिनियम का दुरुपयोग जम कर करती हैं. भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए उन महिलाओं के लिए बनाई गई थी जो ससुराल में उत्पीड़न का शिकार होती हैं. यह एक प्रावधान है जिस के अंतर्गत पति, उस के मातापिता और रिश्तेदारों को अपनी गैरकानूनी मांगों (दहेज) और बहू को मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने के कारण गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता है. इस धारा के अंतर्गत आमतौर पर पति, उस के मातापिता और रिश्तेदारों को तुरंत पर्याप्त जांच के बिना ही गिरफ्तार कर लिया जाता है और गैरजमानती शर्तों पर सलाखों के पीछे रखा जाता है. इस क़ानून का महिलाएं खूब दुरुपयोग कर रही हैं.
भले ही शिकायत झूठी है, मगर इस कानून के तहत बुक आरोपी को तब तक दोषी माना जाता है जब तक कि वह अदालत में निर्दोष साबित न हो जाए. दोषी साबित होने पर अधिकतम सजा 3 साल तक कारावास है. लेकिन हकीकत यह है कि सुनवाई के लिए कोर्ट की पटल पर केस पहुंचतेपहुंचे ही कई साल लग जाते हैं. ऐसे में झूठी एफआईआर के कारण जेल जाने वाले पुरुष और उन का परिवार बेवजह उत्पीड़न का शिकार होता है. वह अपना सामाजिक सम्मान गवां देता है, नौकरी-धंधे से हाथ धो बैठता है और पुलिस-वकीलों पर जमापूंजी बरबाद कर देता है.
महिलाओं द्वारा बनाई गई झूठी शिकायतों पर न्यायपालिका धारा 498-ए के दुरुपयोग के बारे में अच्छी तरह से अवगत है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे कानूनी आतंकवाद तक कहा है और माना है कि इस धारा के तहत दर्ज 99 फीसद मामले झूठे होते हैं. लेकिन, नारीवादी समूहों से जबरदस्त दबाव के कारण न्यायपालिका असहाय है. यही वजह है कि देशभर की जेलों में हज़ारों युवा अपनी जवानी के बेहतरीन साल खराब कर रहे हैं.
क्या करें जब फंसें झूठे केस में
सत्ता में बने रहने की लालसा, वोटबैंक के लिए ध्रुवीकरण की कोशिशों, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का राजनीतिक कैरियर बरबाद करने आदि के लिए बेकुसूरों पर झूठी एफआईआर दर्ज करवा कर उन्हें कानूनी दांवपेंच में उलझाए रखना, जेल भेज देना अब आम हो चुका है. हमारे समाज और परिवार में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कानून का दुरुपयोग करना बहुत अच्छी तरह जानते हैं. अकसर हम ये खबरें पढ़ते या सुनते हैं कि किस तरह लोगों को झूठी रिपोर्ट लिखा कर उन्हें फंसाने और परेशान करने का काम किया जाता है. ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है.
थोड़े से पैसे और ताकत के दम पर पुलिसकर्मियों की मिलीभगत से लोग कई बार किसी दुश्मनी या निजी दुराग्रह, आपसी रंजिश या मतभेद. ज़मीनजायदाद के लालच या फिर किसी अन्य कारण से किसी के ऊपर झूठी एफआईआर लिखवा देते हैं. इस के अलावा, आप को परेशान करने के उद्देश्य से भी कोई आप के ऊपर झूठी एफआईआर दर्ज़ करवा सकता है. ऐसे में आप के लिए यह जानना ज़रूरी है कि आप इस तरह की झूठी एफआईआर पर क्या करें. अगर ऐसा हो जाए तो क्या कोई कानूनी रास्ता है जिस से अपना बचाव किया जा सके. अगर कोई आप के खिलाफ झूठी एफआईआर लिखवा देता है तो आप के पास इस से बचने के लिए क्या रास्ता है? आप इस एफआईआर को चुनौती दे सकते हैं. अगर आप निर्दोष हैं तो आप को इस में हाईकोर्ट से राहत मिल सकती है.
अगर किसी अपराध के मामले, जैसे चोरी, मारपीट, ज़मीन विवाद, संपत्ति विवाद से ले कर रेप आदि में आप को साज़िश के तहत जानबूझ कर फंसाया गया है और आप निर्दोष हैं तो घबराएं नहीं. आप उच्च न्यायालय में अपील करें. अपील करने के बाद बिलकुल भी डरे नहीं क्योंकि आप के अपील करने के बाद इस बारे में हाईकोर्ट में केस चलने की प्रक्रिया के दौरान पुलिस, याचिकाकर्ता के खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकती है.
भारतीय दंड संहिता की धारा 482 में इस तरह के मामलों को चैलेंज करने का प्रावधान किया गया है. यदि किसी ने आप के खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज करवा दी है तो इस धारा का इस्तेमाल किया जा सकता है. आईपीसी की धारा 482 के तहत जिस व्यक्ति के खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज कराई गई है उसे हाईकोर्ट से राहत मिल सकती है. तब कोर्ट के जरिए इस मामले में आप के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं होगी. पुलिस को अपनी कार्रवाई रोकनी होगी.
क्या है आईपीसी की धारा 482
इस धारा के तहत वकील के माध्यम से हाईकोर्ट में प्रार्थनापत्र लगाया जा सकता है. इस प्रार्थनापत्र के जरिए आप अपनी बेगुनाही के सुबूत दे सकते हैं. आप वकील के माध्यम से एविडेंस तैयार कर सकते हैं. अगर आप के पक्ष में कोई गवाह है तो उस का जिक्र जरूर करें. जब यह मामला कोर्ट के सामने आता है और उसे लगता है कि आप ने जो सुबूत दिए हैं वे आप के पक्ष को मजबूत बनाते हैं तो पुलिस को तुरंत कार्रवाई रोकनी होगी. इस तरह आप को झूठी रिपोर्ट के मामले में राहत मिल जाएगी.
गिरफ्तार नहीं करेगी पुलिस
यदि किसी भी मामले में आप को षडयंत्र कर के फंसाया जाता है तो हाईकोर्ट में अपील की जा सकती है. हाईकोर्ट में केस चलने के दौरान पुलिस आप के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकती है. इतना ही नहीं, अगर आप के खिलाफ वारंट भी जारी होता है तो आप खुद को गिरफ्तार होने से बचा सकते हैं. इस मामले में आप की गिरफ्तारी भी नहीं होगी. कोर्ट जांच अधिकारी को जांच के लिए जरूरी दिशानिर्देश भी दे सकती है.
और क्या करें अगर आप के खिलाफ कोई झूठी शिकायत पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई है?
1. सब से पहले झूठी शिकायत देने के लिए शिकायतकर्ता के खिलाफ एक काउंटर शिकायत सम्बंधित या नजदीकी पुलिस स्टेशन में दें या उन के उच्चाधिकारी को दें. याद रखें शिकायत दर्ज कराने के लिए किसी सुबूत को साथ देने की जरूरत नहीं होती. यह जांच अधिकारी की जिम्मेदारी होती है कि वह शिकायत की जांच करे, गलत पाए जाने पर शिकायत बंद कर दे या फिर सही पाए जाने पर सम्बंधित धारा के तहत केस दर्ज करे.
2. झूठी शिकायतकर्ता के खिलाफ एक प्राइवेट शिकायत इलाके के मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी की धारा 190 (ए) के तहत भी दी जा सकती है. वे आप की शिकायत पर धारा 200 के तहत कार्रवाई करेंगे.
3. सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट को शिकायत दे कर पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने के वास्ते निवेदन किया जा सकता है.
4. अगर उपरोक्त झूठी शिकायत कोर्ट में जाती है तो आप कोर्ट से ‘नोटिस औफ़ एक्वाजेशन’ की मांग कर उस झूठी शिकायत को कंटेस्ट करने की इच्छा जताएं. जैसे ही आप कंटेस्ट की बात रखेंगे तो अगली पार्टी को एक निश्चित समयसीमा के भीतर आप के खिलाफ सुबूत व गवाह पेश करने होंगे. उस सुबूत व गवाह को आप कोर्ट में क्रौस परीक्षण कर सकते है व अपने पक्ष को रखते हुए सचाई को कोर्ट के सामने ला सकते हैं.
5. झूठे शिकायतकर्ता को यों ही न छोड़ें. विभिन्न धाराओं के तहत उस के ऊपर भी केस दर्ज कराने कि प्रक्रिया शुरू करें. अपने साथ हुई ज्यादती व मानसिक परेशानी और मानहानि का मुआवजा मांगें. याद रखें कि झूठे शिकायतकर्ता क़ानून के मालिक नहीं हैं बल्कि वे तो क़ानून की कमियों का फायदा उठाने वाले मेनुपुलेटर हैं.
भारत में क़ानून का सब से बड़ा मालिक देश की संसद है और सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय उस क़ानून के संरक्षक. इन संविधानिक कोर्ट्स को किसी भी तरह की झूठी शिकायत या केस को ख़ारिज कर झूठे शिकायतकर्ता को समुचित दंड देने का पर्याप्त अधिकार है.
याद रखें, लड़ाई आप को ही लड़नी है. हम तो सिर्फ आप को रास्ता बता सकते हैं. उस पर निर्भीकरूप से आप को आगे बढ़ना है. तभी झूठे शिकायतकर्ताओं को कड़ा संदेश जाएगा. जो कि जरूरी भी है.