जो तू ब्राह्मण, ब्राह्मणी का जाया|
आन बाट काहे नहीं आया|| (कबीर)
संत कबीर का यह दोहा उन लोगों के लिए सीख है जो आज भी लोगों को नस्ल, जाति, धर्म, लिंग के तौर पर भेद करते हैं. यह दोहा अत्याचार करने वालों पर तमाचा है जिन्होंने सदियों से खुद को शुद्ध या ऊँचा बताया और इसी आधार पर कमजोर व नीच कहे जाने वालों का शोषण किया. आज बेशक कहने को बदलाव हुए हैं लेकिन समय- समय पर यह नस्लीय और जातीय मानसिकता लोगों को शिकार बनाते रहे हैं. फिर चाहे वह भारत हो या दुनिया का कोई भी देश हो.
आज दुनिया में लोगों ने भेदभाव वाली व्यवस्था को तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश की है, लेकिन आज भी उठ- उठकर चीजें फिर से उसी रूप में सामने आ जाती है. इस का एक उदाहरण फिर से अमेरिका में देखने को मिला जहां पिछले दिनों चमड़ी के काले रंग होने के कारण एक व्यक्ति को नस्लवाद का शिकार होना पड़ा.
ये भी पढ़ें-अनलॉक ज़िन्दगी : बदलने होंगे जीवन के ढर्रे
अमेरिका में उस दिन क्या हुआ?
मामला 25 मई का है. जब अमेरिका में महज 20 डॉलर के नकली करेंसी चलाने के शक में जॉर्ज फ्लॉयड नाम के काले व्यक्ति को मारा गया. मारने वाले कोई और नहीं बल्कि उसी देश की पुलिस के 4 गौरे सिपाही थे. इन सिपाहियों में से एक ने जॉर्ज की गर्दन पर अपना बायाँ पावं कस के रखा हुआ था, एक ने पीठ पर, और एक ने उसकी टांगो को दबोचा हुआ था. यह ठीक उसी तरह था जैसे धर्म के नाम पर जानवर की बलि देने से पहले उसे दबोचा जाता है. जॉर्ज लगातार कहता रहा कि उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही है. लेकिन पुलिस ने तब तक उसे नहीं छोड़ा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई. जाते जाते जॉर्ज के कहे आखिरी 3 शब्द “आई कांट ब्रेथ” पुरे देश के लिए आन्दोलन का नारा बन गया.
बेशक यह घटना दर्दनाक थी. इस घटना के बाद जिस तरह से अमेरिका में आन्दोलन चले उसने पुरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा. वहां के नागरिक महामारी की परवाह किये बगैर सड़कों पर आए. पूरी दुनिया को, ‘हम एक है’ का सन्देश दिया. खासकर भारत में भी शहरी लोगों की तरफ से इसके समर्थन में प्रतिक्रियाएं दी गई. किन्तु इन प्रतिक्रियाओं के साथ हमें यह देखने की जरुरत है कि भारत में, ‘हम एक हैं’ की यह बात हम कितना समझते है? इसलिए आज हमारे देश के लोग अगर लोकतंत्र को सही मायनों में समझना चाहते हैं तो अमेरिका में चल रहे आन्दोलन को करीब से देखने की सख्त जरुरत है.
ये भी पढ़ें-प्रसव पीड़ा से महिला तड़पती रही, अस्पताल चक्कर कटवाते रहे, आखिर में
इस आन्दोलन की खासियत?
जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद नस्लवाद के खिलाफ आन्दोलन भड़क उठा, जिसका फैलाव देखते देखते अमेरिका के 40 शहरों तक जा पहुंचा. आन्दोलन की ख़ूबसूरती सिर्फ यह नहीं थी कि वहां बड़ी संख्या में श्वेत-अश्वेत आन्दोलनकारी सामने आए, बल्कि इससे कहीं अधिक यह कि वहां की सरकारी संस्थाएं ट्रम्प के नस्लवाद के खिलाफ खड़ी हो गई. जहां कई तस्वीरों में पुलिस प्रदर्शनकारियों से जॉर्ज की मौत पर घुटने टेक माफ़ी मांगते दिखी. जब ट्रम्प ने आन्दोलन को कुचलने के लिए मिलिट्री लाने की धमकी दी तो मिलिट्री हेड ने ट्रम्प को यह कह दिया कि “उनकी जिम्मेदारी संविधान की रक्षा करना है ट्रम्प की नहीं”.
आज वहां की स्थिति यह है कि देश के कई सरकारी पदाधिकारी ट्रम्प के खिलाफ खड़े हो गए हैं. खासियत यह की यह आन्दोलन अमेरिका के मिनियापोलीस शहर से शुरू होकर पुरे अमेरिका से होते हुए यूरोप तक फ़ैल चुका है. फ्रांस, जर्मनी, इग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि देशों में लोग सड़कों पर कूच करने लगे हैं. आज उन सारी मूर्तियों को तोड़ी या कालिक पोती जा रही है जिसके कारण नस्लवाद को आधार मिला.
ये भी पढ़ें-जमातियों पर हल्ला भगवा गैंग की साजिश
इतिहास क्या कहता है?
एक दौर था जब अमेरिका में ‘श्वेत स्टेलर सोसाइटी’ का दबदबा हुआ करता था. उस समय अश्वेत गुलाम रखे जाते थे. 1619-1800 के बीच काफी संख्या में अश्वेत गुलाम बनाए गए थे. आज यही गुलाम बनाए लोग अफ़्रीकी अमेरिकी के रूप में पहचाने जाते हैं. उस समय उन्हें जंजीरों से बांध कर बाजारों में लाया जाता था. अगर कोई गुलाम रास्ते में चलते वक़्त बिमारी और भूख से मौत की दहलीज पर होता तो उसे रास्ते में मरने के लिए छोड़ दिया जाता. इन पर बाजारों में बोलिया लगाई जाती थी, सामान के भाव बेचा व खरीदा जाता था. इनके जीवन पर पूरा अधिकार उनके गौरे मालिकों का होता था. गुलाम अश्वेतों को खाना भी सिर्फ इसलिए दिया जाता था ताकि अगले दिन फिर से मेहनत करने को तैयार हो सके. कहा जाता है पहला अफ़्रीकी गुलाम 1619 में अमेरिका लाया गया था, इसके बाद लगातार यह सिलसिला बढ़ता गया. वर्ष 1641 में गुलाम बनाने के कानून को अमल में लाया गया. जो 1808 तक चलता रहा.
हांलांकि पश्चिमी देशों में गुलाम प्रथा तो ख़त्म हो गई किन्तु आज भी बहुत से गौरों में गुलाम मानसिकता बनी हुई है. आज भी कई गौरे खुद को विश्वविजेता समझते हैं. उनके अन्दर से अपने इतिहास पर गर्व करने की ऐंठ नहीं गई है. आज भी वह खुद को सुपीरिअर समझते हैं. अगर कोई काला व्यक्ति सर उठाते दिख जाए तो वह उन्हें इतिहास वाला सबक याद दिला देना चाहते हैं. ठीक वैसे ही जैसा जॉर्ज के साथ हुआ.
जॉर्ज फ्लॉयड की नस्लीय मौत 1808 में क़ानून बनने के बाद पहली नहीं है, बल्कि इसी का सबसे बड़ा उदाहरण 1968 में मार्टिन लूथर किंग की हत्या से लगाया जा सकता है. लेकिन बड़ा सवाल यह कि इस प्रकार की दबाए रखने वाली मानसिकता आज भी कैसे जिन्दा है?
इसके पीछे धर्म का पावरफुल इंजन काम करता है
एक समय था जब यूरोप के देश बाकी देशों के मुकाबले आधुनिक हो चले थे. उन्होंने इसे आधुनिक सभ्यता का नाम दिया. उस समय यूरोप के देशों ने बाकि देशों को अपना उपनिवेश बनाना शुरू किया, उनके 3 प्रमुख उद्देश्य हुआ करते थे जिसे 3जी के नाम से जाना जाता है. गॉड, गोल्ड और ग्लोरी. यानी 1. इसाई धर्म का प्रचार, 2.सोना इकठ्ठा करना और 3.बाकि लोगों को बताना कि गौरी नस्ल ही सबसे उत्तम है.
इसी सभ्यता की आड़ में उन्होंने बाकी देशों पर विजय भी हांसिल की. यही कारण था कि अमेरिका यूरोप की नजर में तब आया जब वहां कोलंबस गए. उसके बाद ब्रिटेन ने इसी 3जी थ्योरी के नाम पर वहां कब्ज़ा किया. इसाई धर्म का विस्तार किया. और वहां रह रहे रेड इंडियन ट्राइब्स और अफ्रीका से लाए गए कालों को गुलाम बनाया गया. ध्यान देने वाली बात यह कि यूरोपियन सिर्फ गौरे लोगों को स्लेव बनाना गलत मानते थे. जैंसे इस्लाम धर्म में भी मुसलामानों को स्लेव बनाना गलत माना जाता था.
जॉर्ज की मौत के बाद पुरे अमेरिका में प्रदर्शन उग्र होने लगे. लोग जस्टिस की मांग करने लगे लेकिन हैरानी वाली बात यह कि राष्ट्रपति ट्रम्प इस मसले पर बाहर आए तो सिर्फ चर्च में फोटो खिंचवाने के लिए. वो भी बाइबिल पकड़ते हुए. आखिर इसका मतलब क्या था?
इसे जानने के लिए सैंट पॉल के द्वारा इफिसियों को लिखे गए पत्र को समझने की ज़रूरत है. जिसमे बाइबिल के नए टेस्टामेंट की दसवी किताब में गुलाम प्रथा को सही ठहराया गया था. जिसमे सैंट पॉल बताते है कि, “सभी को उनके कर्म के अनुसार ही अपने भगवान से फल प्राप्त होता है, फिर चाहे वह मुक्त हो या फिर बंधन में. एक गुलाम को अपने मालिक की सेवा, एक व्यक्ति के तौर पर नहीं, बल्कि अपन भगवान समझ कर करनी चाहिए. उसे अपने मालिक से डरना चाहिए.” यही कारण था कि यूरोपियन देशों और बाद में अमेरिका में गुलाम बनाने की प्रथा को 3जी थ्योरी और बाइबिल के आधार पर सही ठहराया जाता था. इसका शिकार सिर्फ़ काले लोग ही नहीं थे बल्कि गोरी ओरतें तक भी इन्ही धर्म-कर्म के पाखंडों ओर पुरुषों के भोग विलास का शिकार बनती रही.
बाइबिल में महिलाओं को दबाने की बाते भी सामने आती है. जिसमे पत्नी को अपने पति के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए उसके अंश मिलते है. जिसमे कहा गया है की “पत्नियाँ अपने पति को प्रभु के रूप में सौपें, क्योंकि पति ही उसके लिए सब कुछ है, उसका उद्धारकर्ता भी वही है ओर उसका ईसा भी.” (इफिसियों 5:22-23) इसी के साथ महिलाओं को बोलने की भी अनुमति नही थी. जिसमे ये कहा गया की “महिला को किसी पुरुष को सिखाने की अनुमति नहीं है, बल्कि उसे चुप रहना चाहिए” (1 टिमोथी 2: 11-12). हालिया रिसर्च से यह बात भी सामने आती है कि आज भी चर्च जाने वाले लोग अपनी पत्नी को अधिक प्रताड़ित करते हैं.
जाहिर है आज भी पश्चिमी देशों के बाइबिल बेल्ट में स्लेव मानसिकता जिन्दा है. यही कारण है कि नस्लवाद को लेकर उठे इस आन्दोलन में प्रदर्शनकारियों ने 200 साल पुरानी चर्च पर आग लगाकर अपनी नाराजगी जाहिर की. साथ ही उन प्रतीकों को तोड़ा फोड़ा जिनके कारण इस गुलाम प्रथा की नीव डली. जाहिर है यह धार्मिक स्थलों और उसके पंडे पुजारियों द्वारा ही इस तरह की कुप्रथाओं को हमेशा आधार मिलता रहा. दुनिया में हर जगह लोगों को मुर्ख बनाने के लिए इन्ही धार्मिक स्थलों की जरुरत पड़ी, जिससे खुद को पवित्र कहने वालों की अय्याशी पूरी होती रही.
भारत का भी यही हाल
इसी प्रकार हिन्दू धर्म ग्रंथों में जातिवाद को सही ठहराये जाने को लेकर तर्क दिया गया. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण मनुस्मृति से मिल जाता है. जिसे सामंती समाज का संविधान भी कहा जाता है. जिसका निचोड़ कहता है कि अगर तारे तारों की जगह है, नदी नदी की जगह, पेड़ पेड़ों की जगह है, कुतिया के पेट से निकलने वाला बच्चा कुत्ता होता है, और शेर के पेट से निकलने वाला बच्चा शेर होता है. ठीक वैसे ही ब्राह्मण का बच्चा ब्राह्मण बनेगा, और चमार का बच्चा चमार. यही प्रकृति का नियम है. इस प्रकृति को भगवान् ने बनाया है. अगर इस नियम को कोई तोड़ता है तो उसने पाप किया है. जिसकी सजा राजा उसे देगा. और यह राजा कोन, जो ईश्वर का अवतार है. ऐसा ही उदाहरण वाल्मीकि रामायण में शम्बूक के वध के समय देखने को मिलता है. जब राजा राम शम्बूक की गर्दन धड़ से अलग कर देते हैं क्योंकि वह शुद्र होकर वेद का उच्चारण कर रहा होता है. (वाल्मीकि, अध्याय 73-76)
यह वही मनुस्मृति है जिसमें जातियों के काम बांटे हुए थे. ऊँची जाति (ब्राहमण और क्षत्रिय) के हिस्से में विशेष अधिकार थे. और नीच कही जाने वाली जातियों के लिए दंड था. अगर कोई शुद्र वेद का उच्चारण सुन ले तो उसके कान में पिघला शीशा डालने का दंड था. कोई शुद्र ब्राह्मण के सामने से गुजर भी जाए तो वह दंड का भोगी बन जाता था. ऐसी कई नियम क़ानून ने सामंती समाज में जातिवाद को वेधानिक किया.
लेकिन मनुस्मृति से पहले भी वेदों में वर्ण सरंचना देखने को मिल जाती है. ऋग्वेद के दसवें मंडल में पुरुषसूक्त में लिखा है कि “ब्राहमण ब्रह्मा के मुख से पैदा होता है, छत्रिय भुजाओं से और शुद्र पैरों से.” यही कारण है कि ब्राहमण और क्षत्रिय खुद को सुपिरिअर मानते रहे जिनका काम राज पाठ का होता था. और शूद्रों के हिस्से निचला काम क्योंकि उन्हें ब्रह्मा के पैरों से निकला हुआ बताया गया. वैसे ही ऋग्वेद के इसी मंडल में महिलाओं के सती होने की बात की गई. अगर पति मर जाए तो पत्नी को उसी की चिता के साथ जिन्दा जला दिया जाता था. उसे भी पढने का अधिकार नहीं था. (अध्याय 7-8)
इसी प्रकार तुलसीदास जिन्होंने रामचरितमानस लिखी उन्होंने अपने एक श्लोक में महिला और शुद्र की तुलना ढोल और पशु से की. जिसका सीधा मतलब यह कि जैसे ढोल और पशु को काम करवाने से पहले कसा जाता है वैसे ही महिला और शुद्र के साथ व्यवहार करना चाहिए. यह वही समय है जब राजाओं के बीच चलने वाले युद्ध में हारने वाले राजा की रानियों, दासियों और नगर की महिलाओं को कब्जे में ले लिया जाता था. कब्जे में लेने की मानसिकता उसी प्रकार है जैसे हारने वाले राजा की संपत्ति कब्जाई जाती थी. यानी महिलाओं को संपत्ति मात्र समझा जाता था.
जाहिर है समय बदलने के बावजूद महिलाओं और दलितों के साथ उत्पीडन की घटनाएं आज भी जारी हैं. रोहित वेमुला, ऊना काण्ड और प्रियंका रेड्डी इसका ज्वलंत उदाहरण है. इन धार्मिक पंडो की इतनी ऐंठ है कि आज भी महिलाओं और दलितों को मंदिरों में घुसने नहीं दिया जाता. महिलाओं को दोयम समझने का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी शादी में दहेज़ कितना मिलेगा उस तौर पर महिला को खरीदा जाता है. शादी के बाद उसके व्यक्तिगत जीवन को पूरी तरह ख़त्म कर दिया जाता है. आज भी मनचले गुंडे अपनी पुरानी धौंस में लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंक देते हैं. इसका एक कारण यह भी है कि आज सत्ता तक पहुँचने वाले लोग इसी धार्मिक पाखंड को बचाए रखना चाहते हैं.
अमेरिका के आन्दोलन हमारे लिए जरुरी?
इसे समझने के लिए जर्मनी में हिटलर काल को देखने की जरुरत है. जब ‘नुरेम्बर्ग कानून’ बनाकर यहूदियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया गया और उन पर अत्याचार किया गया. यह अत्याचार नस्ल और धर्म को लेकर था. जिसमें नाजीयों को यहूदियों से पवित्र माना गया था. यह वही हिटलर था जो 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अमेरिका की गैर इसाई और अश्वेतों को बाहर निकालने की रणनीति से प्रभावित हुआ.
याद हो तो भारत में आरएसएस के चीफ एमएस गोलवलकर, हिटलर के इन्ही नस्लीय नीतियों से प्रभावित थे. वह भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे. वही हिन्दू राष्ट्र है जिसकी बुनियाद जाति व्यवस्था पर टिकी हुई है. आज इसी आरएसएस से जन्मी पार्टी (भाजपा) सत्ता में है. जिसे अपने पौराणिक ग्रंथो, वेदों, स्मृतियों वाली संस्कृति पर ऐंठ है. यह वही संस्कृति है जिसमें ब्राह्मणों का दलितों से खाल खींच कर मुफ्त में काम लेने वाला इतिहास छुपा है. साथ ही महिलाओं को मात्र संपत्ति मानने की सोच छुपी है जिसे बस घर की चारदीवारी में भोग की वस्तु बनाया जाए. यही कारण भी था कि आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत ने महिलाओं के द्वारा तलाक लिए जाने का कारण शिक्षा को बताया. और कहा कि महिलाएं शिक्षित होकर घमंडी हो जाती हैं. आए दिन इनके नेता महिला विरोधी कमेन्ट देते पाए जाते हैं.
आज यह बात समझने की जरुरत है कि मामला चाहे अमेरिका का हो, या भारत का इन सब के पीछे संविधान की जगह धर्म के पाखंड को स्थापित करने की मंशा जुडी हुई है. आज इन्ही धर्मों, धार्मिक स्थलों और उसके ठेकेदारों से इन प्रताडनाओं को खाद पानी मिल रहा है. यही चीजें समाज को वैज्ञानिक और प्रगतिशील होने से रोक रहे हैं. अमेरिका हो चाहे भारत दोनों जगह धर्म की राजनीति करने वाले सत्ता में बैठे हुए हैं. ट्रम्प चर्च में बाइबिल दिखाते हैं, मोदी खुद को जगतगुरु संयासी बताते हैं. दोनों जगह नागरिकों को अंधराष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाई जा रही है. धार्मिक मुददों में भटकाया जा रहा है. कहीं बाइबिल दिखाके तो कहीं रामायण दिखाके. दोनों जगह कालों और दलित, पिछड़े व अल्पसंख्यकों की सस्ती मजदूरी पर निर्भर अर्थव्यवस्था है. जिसे लूटने के लिए ही धर्म का प्रचार प्रसार किया जा रहा है.
साथ ही यह भी देखने की जरुरत है कि पूंजी का वर्चस्व जिसके हाथ में सीमित है ऊसी की दादागिरी चलती रही है. अमेरिका में जहां गौरे लोगों के हाथों में ज्यादातर संपत्ति है वहीँ भारत में भी सवर्णों के पास अधिकाँश सत्ता और संपत्ति रही है. आज भले ही भारत के अभिजात तबके ने अमेरिका के काले लोगों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है. किन्तु अमेरिका की तरह भारत में भी भेदभाव को लेकर सामानंतर समस्याएं है. उस पर चुप्पी साधने की बजाय मुखर होने जरुरत है.