पिछले साढ़े सात वर्ष से हर फिल्म में अलग तरह के किरदार निभाने के साथ हर मुद्दे पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखने वाली अभिनेत्री रिचा चड्डा निंरतर आगे बढ़ती जा रही है.इन दिनों वह अश्विनी अय्यर निर्देशित फिल्म ‘‘पंगा’’ को लेकर उत्साहित हैं, जिसमें उनका स्पेशल अपियरेंस है.

प्रस्तुत है रिचा चड्ढा से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंशः

2008 से 2020 यानी कि 12 साल के अपने कैरियर को किस तरह से देखती हैं?

-लेकिन मैं अपने कैरियर की शुरूआत 2012 से मानती हूं. 2008 में मैं दिल्ली में ही रहती थी. जब मैं कालेज में पढ़ रही थी, तभी मुझे दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘‘ओए लक्की..’’ मिल गयी. मैंने यह फिल्म की और मुंबई आयी, पर मुझे लगा कि फिल्म इंडस्ट्री में मेरा कुछ होने वाला नही है, तो मैं वापस दिल्ली लौट गयी थी. पर दिल्ली में रहते हुए मैं थिएटर या एड फिल्म जरुर कर लेती थी. लेकिन जब मैं अनुराग कश्यप की फिल्म ‘‘गैंग आफ वासेपुर’  के लिए 2011-2012 के आस पास मुंबई आयी, तो लगा कि इतने बड़े निर्देशक ने मुझे मौका दिया, इसके मायने हैं कि मैं कुछ कर सकती हूं. 2012 से अब तक मैंने बहुत सारी चप्पलें घिसायी हैं. तब यहां तक पहुंच पायी.

चलिए, तो यह बता दें कि साढ़े सात वर्ष के कैरियर को आप किस तरह से देख रही हैं ?

मैंने पाया कि यहां पर दो तरह के लोग हैं. जब मैं इंडस्ट्री में आयी थी, तब कुछ लोग इतनी उंचाई थे, जिन्हें देखकर मुझे लगा था कि यह कभी भी लुप्त नही हो सकते, मगर वह लोग गायब हो चुके हैं. कुछ लोग जो कुछ नहीं थे, वह काफी आगे बढ़ चुके हैं, तो मुझे लगता है कि लंबी रेस वाला घोड़ा का जो वक्त है, वह मेरा अब बौलीवुड में आ गया है. मैं अपने साढ़े सात वर्ष के कैरियर को अच्छे रूप में ही देखती हूं. इस दौरान मैंने काफी उतार चढ़ाव भी देखे. मैंने कभी लीड किया, कभी सह कलाकार की भूमिका निभायी, कभी आर्ट फिल्म की, कभी व्यावसायिक फिल्म की. पर मैंने अब तक जितने भी किरदार निभाए, उनमें विविधता है. इससे मैं खुश हूं.

अब तक के कैरियर में आपका सबसे बड़ा कड़वा अनुभव क्या रहा ?

एक बार ऐसा हुआ था कि मुझे एक फिल्म से अंतिम समय में बाहर कर दिया गया था, मैंने सुना था कि निर्देशक का उस लड़की के संग अफेयर था, जिसे उन्होंने मेरी जगह पर हीरोईन लिया था, पर असली सच नही जानती. और मैं उसका नाम नहीं लेना चाहती. हर किसी के काम करने का ढंग और सोच होती है. जब मुझे फिल्म से निकाला गया था, तब मुझे दुःख हुआ था. मुझे लगा था कि यह कैसे जाहिल लोग हैं, मगर बाद में जब वह फिल्म रिलीज हुई, तो उसने बाक्स आफिस पर पानी भी नही मांगा. तो मुझे लगा कि निर्देशक का फोकश फिल्म नहीं, वह लड़की थी, तो यही हश्र होना था. वैसे तो कड़वे अनुभव आए दिन आते रहते हैं, पर अब मैं उन्हें निजी स्तर पर ज्यादा लेती नही हूं.

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आपको किस फिल्म को करने का गम है ?

सरबजीत, मुझे लगा कि सरबजीत के निर्माताओं ने मेरा उपयोग किया.उन्होंने मेरी पंजाबियत का इस्तेमाल करके बाद में मेरे किरदार पर ऐसी कैंची चला दी कि अब कुछ कहना बेकार है. मुझे बड़ी तकलीफ हुई थी.

फिल्म ‘‘सेक्शन 375’’ के रिलीज के बाद किस तरह के रिएक्शन मिले ?

-कई तरह के रिएक्शन मिले. कुछ लोगों ने कहा कि वह फिल्म के अंत से सहमत नही हैं. अजय बहल काबिल निर्देशक है. देखिए,विवाद की जो चर्चा है, वह कानून पर होनी चाहिए.

फिल्म ‘‘पंगा’’ से जुड़ने के पीछे क्या सोच रही ?

-एक दिन फिल्म की निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी मुझसे मिली और कहा कि वह नारी प्रधान फिल्म ‘पंगा’बना रही है.इसमें लड़कियों का मुद्दा है, तो मैंने हामी भर दी. मेरा लालच था कि मुझे खेल पर आधारित नारी प्रधान फिल्म करने का अवसर मिल रहा है. इस फिल्म को करने से मुझे कबड्डी का खेल सीखने को मिला. दूसरी बात मैं अपने दूसरे काम के साथ सामंजस्य बैठाकर चल रही हूं,तो अगर मैने एक फिल्म सहायक किरदार वाली कर ली,तो चल जाता है. इससे मुझे नुकसान नही होगा.

अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगी ?

-फिल्म ‘‘पंगा’’में मैंने मीनू का किरदार निभाया है. स्कूल व कालेज में मीनू और जया निगम दो स्टार कबड्डी खिलाड़ी होती हैं.पर आगे चलकर जया निगम को प्रशांत श्रीवास्तव से प्यार हो जाता है और जया कबड्डी के खेल को अलविदा कहकर प्रशांत के संग शादी कर अपने पति के साथ पारिवारिक जिंदगी में व्यस्त हो जाती है. वह एक बेटे की मां बन जाती है, जबकि मीनू लगातार कबड्डी खेलते हुए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना लेती है. मीनू को भी रेलवे में नौकरी मिल जाती है. मीनू रेलवे की नौकर करने के साथ साथ कबड्डी का खेल खेलती है और कबड्डी की कोचिंग भी करती है यानीकि दूसरों को कबड्डी का खेल सिखाती है. पर जब बेटा आठ वर्ष का हो जाता है, तब जया, मीनू को देखकर अफसोस करती है कि मीनू खेल रही है और वह नहीं खेल रही है. तब मीनू,जया से कहती है कि कोई बात नहीं. बेटे की मां बनने के बावजूद तुम खेल में वापसी करना चाहती हो, तो आओ, मैं तुम्हे ट्रेंड करती हूं. फिर मीनू, जया को कबड्डी की ट्रेनिंग देती है.

फिल्म ‘‘पंगा’’ और कुछ दिन पहले प्रदर्शित फिल्म ‘‘सांड़ की आंख’’ में आप किस तरह का अंतर देखती हैं?

‘सांड़ की आंख’ में सामाजिक दबाव के चलते पुरूषों द्वारा दबाने का मुद्दा था. मगर ‘पंगा’ में औरत खुद ही कबड्डी से अलग होकर घर गृहस्थी में रम जाती है. तो यह फिल्म देखकर आज की औरतों को सोचने का मौका मिलेगा. जरुरी नही है कि तुम बच्चे की मां बन गयी हो, इसलिए सब छोड़कर घर पर बैठ जाओ. जिसमें फिजिकल होना पड़ता है, मसलन,स्पोर्ट्स हो या अभिनय हो, तो एक बार बात समझ में आती है.

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आपकी फिल्म ‘‘शकीला’’ भी दो वर्ष से बन रही है ?

वास्तव में हमने पिछले वर्ष इसका कलेंडर जारी कर गलती की थी. फिल्म की शूटिंग शुरू होने से पहले ही पोस्टर जारी कर दिया था, इसलिए लोगों को लगता है कि यह फिल्म लंबे समय से बन रही है. अभी ‘शकीला’ पोस्ट प्रोडक्शन में है. डबिंग भी करनी पड़ेगी. ‘शकीला’ की यात्रा से हर औरत रिलेट करेगी.

शकीला’ को बहुत बोल्ड माना गया. आप क्या सोचती हैं ?

मुझे लगता है कि छोटी उम्र में अपने परिवार की मदद करने के लिए उसने भले ही बी ग्रेड फिल्में की, पर उसने अपने भाई बहनों को उच्च शिक्षा दिलवाकर उन्हें अच्छे मुकाम पर पहुंचाया. उन्होंने अपने भाई बहनों को अमीर बना दिया, पर वह खुद अकेली रह गयी. उनके परिवार के लोगों ने ही उनका शोषण किया. उनका उपयोग किया. मेरी राय यही है. देखिए, माइकल जैक्सन के मरने के बाद उनके चरित्र पर सवाल उठाए जा रहे हैं,जो कि सच भी हो सकता है.

पर जो इंसान इस दुनिया में नहीं है ?

-इस तरह के आरोप लगाकर यदि पीड़ित को संतुष्टि मिल रही है,तो ठीक है.उसे अपनी बात कहनी चाहिए. मुझे लगता है कि माइकल जैक्सन के पिता का प्रभाव माइकल जैक्सन पर पूरी तरह से रहा.माइकल के पिता की आदत थी मारना पीटना वगैरह..

इधर शकीला गरीब रह गयी. उनके अपने कमाए हुए पैसे भी उनके मां बाप ने उनसे छीन लिए. तो यदि मां बाप सही न हों, तो उसका प्रभाव बच्चे पर किस तरह से पड़ता है, उसका उदाहरण हैं शकीला और माइकल जैक्सन.

फिल्म ‘‘घूमकेतु’’ भी फंस गयी ?

-यह मेरी फिल्म नही है. यह तो नवाजुद्दीन सिद्दिकी की फिल्म है. इसमें मेरा सिर्फ दो दिन का ही काम है.

इसके बाद क्या कर रही हैं ?

फिलहाल तो कई फिल्में तैयार हैं, वही अब आएंगी. ‘अभी तो पार्टी बाकी है, ‘शकीला’ और एक फिल्म की है,  जिसका नाम फिलहाल बताने की स्थिति में नहीं हूं. उसकी निर्माता की तरफ से घोषणा नहीं हुई है.

पर ‘पार्टी अभी शुरू हुई है’भी लंबे समय से बन रही थी ?

हां! फिल्म पूरी होने के बाद अनुभव सर को लगा कि इसमें कुछ बदलाव होना चाहिए, तो नए सिरे से कुछ दृश्य फिल्माए जाने हैं.

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-अभी अधूरी पड़ी है. अब मैं सोच रही हूं कि मैं राइटिंग का कोर्स कर लूं. मेरे अंदर लिखने की आदत इंस्टिंट है, पर मुझे प्रैक्टिस की जरुरत है. सीखने की जरुरत है.

किताब लिख रही थी?

वह भी चल रहा है.

आप एक लघु फिल्म बना चुकी हैं तो फिल्म कब निर्देशित करने वाली हैं ?

मैंने पंजाबी में एक लघु फिल्म का सिर्फ निर्माण किया था. आगे चलकर शायद अपनी लिखी पटकथा पर फिल्म का निर्माण कर लूं पर निर्देशन नही करुंगी. निर्देशन बहुत बड़ा सरदर्द है. फिल्म का निर्माण जरुर कर सकती हूं. पर एक लघु फिल्म का निर्देशन कर सकती हूं. यदि सामाजिक व्यवस्था इसी तरह की रहेगी, तो जरुर कोई न कोई लघु फिल्म बनानी पड़ेगी. उसके बाद मुझे भी गालियां पड़ेंगी.

पिछले दिनों ट्वीटर पर अशोक पंडित से आपकी अनबन हुई ?

-अशोक पंडित ने मुझ पर अर्बन नक्सलवादी होने का आरोप लगाया था,तो मुझे उन्हे जवाब देना पड़ा.मैं खुद को गांधीवादी मानती हूं. मुझे न्याय में विश्वास है, तो मैं उस पर कायम रहती हूं. पर कई बार खुद को बचाने के लिए जवाब देना ही पड़ता है.

आपको नहीं लगता कि सोशल मीडिया आपसी वैमनस्य फैलाने का काम कर रहा है ?

जी हां! मैं इस बात से सहमत हूं. यह बहुत डैंजरस हो गया है. अगर सरकार ‘हैशटैग’ देखकर चलने लगेंगी, तो आम इंसान क्या करेगा. आम इंसान के पास न बिजली है, न मोबाइल फोन है और न ही इंटरनेट की सुविधा है कि बेचारा वह उसी में लगा रहे. हिंदुस्तान तो सबका है. जो किसान हर दिन आत्महत्या कर रहा है, वह तो सुरक्षित नहीं है.सैलीब्रिटी की बात सुनकर या पायल रोहतगी की बात सुनकर किसान जिंदा नहीं रह सकता.

क्या सिनेमा में ओमन इम्पावरमेंट की बात सही ढंग से हो रही है?

हो रही है, मगर थोड़ी सी. पूरी नहीं. सिनेमा भी समाज का हिस्सा है,जब तक समाज में बदलाव नहीं आएगा, समाज में लोग औरतों को लेकर बकवास करते रहेंगे, विवादित टिप्प्पणी देते रहेंगे, तो बदलाव कैसे आएगा.

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