राज्यों के विस्तार और साम्राज्यों के उदय के साथ ही हथियारों का उत्पादन एक उद्योग बन गया है. जैसे-जैसे  हथियारों पर सरकारों की निर्भरता बढ़ती गयी, वैसे-वैसे इस उद्योग का विस्तार होता चला गया. आज संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा हथियार उत्पादक देश है, उसके नियंत्रण में आधे से ज्यादा हथियार उद्योग हैं. जिसमें हर उद्योग की तरह व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, भारी मुनाफा, निजी कम्पनियां और सरकारों के द्वारा किये गये सामरिक संधि एवं समझौते हैं. हथियारों के सबसे बड़े खरीददार तीसरी दुनिया के देश हैं. जहां हथियारों की खपत के लिये युद्ध और युद्ध की आशंकाओं को रोज बढ़ाया जाता है.

हथियार उद्योग उत्पादक देशों की सरकारों और उपभोक्ता देशों की सरकारों के बीच का करार भले ही नजर आता है, जिसे उस देश की सुरक्षा के नाम पर प्रचारित किया जाता है, लेकिन वास्तव में इसमें हथियार उत्पादक निजी कम्पनियों का बड़ा हिस्सा होता है. स्थितियां ऐसी बन गयी हैं, कि हथियार उत्पादक देशों की सरकारें निजी कम्पनियों के लिये काम करती हैं, और हथियार उपभोक्ता देशों की सरकार अपने देश की आम जनता के पैसों से उसकी खरीददारी करती है. हथियारों के होड़ की सबसे बड़ी वजह यही है, कि साम्राज्यवादी देश तीसरी दुनिया के देशों के बीच आपसी असुरक्षा और संघर्ष तथा युद्ध और युद्ध के भय को बना कर रखती है.

अमेरिकी सरकार तो खुलेआम युद्ध का निर्यात करती है. आज विश्व में जहां भी तनाव और युद्ध हो रहे हैं, वहां यूरो-अमेरिकी साम्राज्यवाद की सम्बद्धता है. उसने आतंकवाद को -आतंकवाद के खिलाफ युद्ध को- अपना हथियार बना लिया है. जहां हथियारों की भारी खपत है. हथियारों को बेचने, हथियारों की मांग बढ़ाने के लिये युद्ध के निर्यात की नीति यूरो-अमेरिकी साम्राज्यवाद और हथियार उत्पादक निजी कम्पनियां ही बना सकती हैं.

सउदी अरब, संयुक्त अरब अमिरात, इराक, इस्त्राइल और आॅस्ट्रेलिया अमेरिकी हथियारों के सबसे बड़े खरीददार हैं. रूस भी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हथियार उत्पादक देश है, किंतु विश्व बाजार में उसकी हिस्सेदारी मात्र 14 प्रतिशत है.

अमेरिकी रक्षा बजट दुनिया भर के देशों के रक्षा बजट में सबसे ज्यादा है, इसके बाद भी अमेरिका अपने को असुरक्षित महसूस करता है, इसका प्रचार करता है. यह भी उल्लेखनिय है, कि उसने विश्व में 1000 से अधिक सैन्य अड्डे बसा रखे हैं. अमेरिकी सेना और दुनिया भर के देशों में फैले उसके सैनिकों के बारे में बस इतना ही कहा जा सकता है, कि सैनिक अपने देश के लिये, अब व्यवस्था का संकट बन गये हैं. यदि उनकी वापसी हो जाये तो अमेरिकी व्यवस्था असंतुलित हो जायेगी.

अमेरिकी अर्थव्यवस्था विध्वंसक हथियारों के उत्पादन पर टिक कर रह गयी है, जो निजी कम्पनियों एवं बड़े कारपोरेट की पकड़ में है. उसके सामरिक खर्च अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर बड़ा बोझ है.

नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने अब तक के कार्यकाल के दौरान हथियार उद्योग को काफी लाभ पहुंचाया है. उन्होंने लगभग 200 बिलियन डालर के हथियारों की बिक्री पर अपनी मंजूरी दी है.

साल 2013 में अमेरिकी हथियार उद्योग ने वियतनाम और लीबिया में हथियारों के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को ढीला करवाने के लिये 170 मिलियन डालर की लाॅबिंग की थी. जिसका भारी मुनाफा वहां के हथियार उद्योग को मिला. लीबिया में कर्नल गद्दाफी के पतन और अमेरिकी साजिशों के तहत उनकी हत्या के बाद, आज लीबिया ही नहीं, उसके पड़ोसी देशों और आपसी संघर्ष में फंसाये गये अफ्रीकी देशों की सरकारों के लिये, अवैध रूप से पहुंचे अमेरिकी हथियार सबसे बड़ी समस्या हैं. जहां विद्रोही और आतंकी राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ा कर अमेरिका और यूरोपीय देशों के सैन्य हस्तक्षेप की अनिवार्यतायें बना रहे हैं. हमने हमेशा यह कहा है, कि कर्नल गद्दाफी का पतन और उनकी हत्या लीबिया ही नहीं, अफ्रीकी महाद्वीप के आने वाले कल की हत्या है, जिसमें आपसी सहयोग एवं समर्थन के आधार पर उनकी एकजुटता थी. अफ्रीका के विकास को औपनिवेशिक यूरोप आौर साम्राज्यवादी अमेरिका ने मार डाला है.

दुनिया भर के तमाम विद्रोही, आतंकी संगठनों, मिलिसियायी गुटों और निजी सेनाओं के पास अवैध अमेरिकी हथियार हैं. युद्ध और आतंक को यूरोपीय देश और अमेरिकी सरकार ने नयी ऊचाईयां दी है.

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