हंसतेखेलते परिवार के मुखिया की मृत्यु के बाद उस के उत्तराधिकारी संपत्ति के लिए आपस में लड़नेझगड़ने लगते हैं. यहां तक कि कोर्टकेस की नौबत तक आ जाती है. कोर्ट में समय, श्रम और धन की बरबादी होती है. वर्र्षों तक मामला अटका भी रहता है. कई बार दादा द्वारा किए केस का फैसला पोते तक भी नहीं हो पाता. नतीजतन, संपत्ति होते हुए भी उस के वास्तविक हकदार वर्षों तक उस का उपयोग नहीं कर पाते.

यों तो देशभर की अदालतों में हजारों मामले ऐसे चल रहे हैं जिन के कारण दूसरीतीसरी पीढ़ी भी संपत्ति का सही ढंग से उपयोग नहीं कर पा रही है लेकिन इस संबंध में देश के सब से बड़े व्यावसायिक घराने अंबानी भाइयों का मामला उल्लेखनीय है.

वर्ष 2002 में धीरूभाई अंबानी का देहांत हो गया. उन्होंने कोई वसीयत नहीं लिखी. इस कारण उन के बेटे मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के बीच लंबे समय तक विवाद रहा. मुकदमेबाजी की परिस्थितियां बन गईं.

वर्ष 2005 में उन की मां कोकिला बेन की मध्यस्थता में दोनों भाइयों के बीच कंपनियों का बंटवारा किया गया. बड़े भाई मुकेश अंबानी को पैट्रोकैमिकल, रिफाइनिंग और मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी कंपनियां मिलीं जबकि छोटे भाई अनिल अंबानी को बिजली, टैलीकौम और वित्तीय सेवाओं से जुड़ी कंपनियों का स्वामित्व मिला. इस के बाद भी दोनों भाइयों में विवाद की स्थितियां बनी रहीं.

ऐसे मामले सामने आते रहते हैं. इन का सब से उपयुक्त समाधान परिवार के मुखिया द्वारा वसीयत करना ही है. यह देखा गया है कि अधिकांश भारतीय वसीयत नहीं करते. बहुत से लोगों का मानना है कि वसीयत करना पैसे वालों का काम है, हम क्यों वसीयत करें. वास्तव में जिस व्यक्ति के पास थोड़ीबहुत जितनी भी संपत्ति है, उस के उत्तराधिकारी बिना लड़ेझगड़े उपयोग करते रहें, इस के लिए वसीयत करना जरूरी होता है.

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व्यावसायिक घरानों में पारिवारिक विवादों को बचाने में वसीयत बहुत कामयाब होती है. हालांकि, फिर भी भाइयों के विवाद होते रहते है. कई बार तो बहुत छोटे मामले को ले कर गंभीर विवाद पैदा हो  जाता है.

किर्लोस्कर ब्रदर्स जानीमानी हैवी मशीनरी वाली कंपनी है, इस के 60 वर्षीय संजय किर्लोस्कर और 61 वर्षीय अतुल किर्लोस्कर में पूना की मौडल कालोनी में विवाद खड़ा हुआ जिस में

82 वर्षीय सुमन किर्लोस्कर और सब से छोटा बेटा संजय भी चपेट में आ गए. हजारों करोड़ों की मिल्कीयत वाली कंपनी में 10 करोड़ की जमीन को ले कर विवाद चला जो किसी की भी मृत्यु के बाद वसीयतों को ले कर फिर उग्र हो उठेगा.

विजयपत सिंघानिया और गौतम सिंघानिया का विवाद तो बहुत चर्चित हुआ जिस में रेमंड कंपनी के वृद्ध मालिक को घर से निकल कर दरदर भटकना पड़ा. रैनबैक्सी परिवार कई हजार करोड़ का हो गया था और इन की दवाएं दुनियाभर में बिक रही थीं पर जैसे ही दवाओं की क्लालिटी पर सवाल उठने खड़े हुए, परिवार में भी फूट पड़ गई और हाथापाई तक  की नौबत आ गई. इस की जड़ में भी विरासत संबंधी मनमुटाव रहा है.

क्या है वसीयत

वसीयत परिवार के मुखिया द्वारा लिखा गया एक कानूनी दस्तावेज है जिस के जरिए वह स्वअर्जित संपत्ति और पूर्वजों से मिली वह संपत्ति जो उस के नाम है, को अपनी इच्छा के अनुसार परिवार के सदस्यों में बंटवारा करता है. वसीयत मकान, जमीनजायदाद के साथसाथ गहनों, शेयर, बैंक जमाओं, साझेदारी के हित आदि के साथ अन्य मूल्यवान चल व अचल संपत्तियों की हो सकती है.

कब लिखें वसीयत

व्यक्ति अपने जीवनकाल में कभी भी वसीयत लिख सकता है लेकिन जितना जल्दी संभव हो, लिख दी जानी चाहिए. लिखी हुई वसीयत को वह चाहे जितनी बार परिवर्तित कर सकता है और चाहे तो पुरानी वसीयत के स्थान पर नई वसीयत लिख सकता है. परिवर्तन की दशा में अंतिम परिवर्तन वाली वसीयत को ही वैध माना जाता है. यदि वसीयत नई लिखी गई है तो जो सब से नई लिखी गई वसीयत है, उस को ही वैधानिक रूप से स्वीकार किया जाता है.

क्या लिखें वसीयत में

वसीयत में सारी चल और अचल संपत्ति का विवरण स्पष्ट रूप से किया जाना जरूरी है, साथ ही, संपत्ति का कितनाकितना हिस्सा परिवार के किसकिस सदस्य को दिया जाना है, इस का उल्लेख भी किया जाना जरूरी है. अचल संपत्ति का नक्शा भी लगाया जा सकता है. संपत्ति का उचित और न्यायपूर्ण बंटवारा भी जरूरी है.

परिवार की लड़कियों और अन्य किसी सदस्य, जो मुखिया पर ही निर्भर है, के हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए. वसीयत करने वाले के वसीयतनामे पर हस्ताक्षर अवश्य ही होने चाहिए. साथ ही 2 गवाहों के हस्ताक्षर व नामपते भी होने चाहिए. वे यह प्रमाणित करेंगे कि वसीयत उन के सामने लिखी गई है और वसीयतनामे पर किए गए हस्ताक्षर असली हैं. वसीयत सादे कागज पर भी की जा सकती है और स्टांपपेपर पर भी. वसीयत लिखते समय किसी वकील या कानूनी मामलों के जानकार की सहायता लेना ज्यादा उपयुक्त रहता है.

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रजिस्टर्ड कराना जरूरी नहीं

वसीयत को सबरजिस्ट्रार औफिस में रजिस्टर्ड कराना जरूरी नहीं है. इस के बिना भी वसीयत कानूनी रूप से मान्य होती है. लेकिन, वसीयत को रजिस्टर्ड करा लेना ज्यादा सुरक्षित रहता है. यदि वसीयत पर कोईर् विवाद हो तो रजिस्टर्ड वसीयत को अनरजिस्टर्ड वसीयत की तुलना में कानूनी रूप से ज्यादा मान्यता मिलती है.

वसीयत करने वाला वसीयत की प्रति अपने पास सुरक्षित स्थान पर रख सकता है. रजिस्टर्ड वसीयत की प्रति सबरजिस्ट्रार औफिस में भी रखी जाती है. वसीयत को व्यक्ति अपने जीवनकाल में भी घोषित  कर सकता है और चाहे तो इस के विवरण को छिपा कर भी रख सकता है.

एक्जिक्यूटर की नियुक्ति

अपनी मृत्यु के बाद वसीयत का सही ढंग से निष्पादन करने हेतु वसीयत करने वाला व्यक्ति एक निष्पादक या एक्जिक्यूटर भी नियुक्त कर सकता है. वह व्यक्ति कोई वकील या कानूनी मामलों का जानकार हो तो बेहतर रहता है. उस का कार्य व्यक्ति की मृत्यु के बाद उस की इच्छा के अनुसार संपत्तियों और दायित्वों को निबटारा करने और संपत्ति का वसीयतकर्ता की इच्छा के अनुसार बंटवारा करना होता है. जब यह काम पूरा हो जाता है तब एक्जिक्यूटर की नियुक्ति अपनेआप समाप्त हो जाती है.

वसीयत लिखे जाने पर मुखिया की मृत्यु की दशा में उस के सब उत्तराधिकारी उस की इच्छा को सामान्यतया सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं और हरेक उत्तराधिकारी अपने हिस्से में प्राप्त संपत्ति का अपनी इच्छा के अनुसार उपयोग करने हेतु स्वतंत्र हो जाता है. इस से परिवार में गैरजरूरी कलह और विवाद नहीं रहता और परिवार के लोग आपसी मेलजोल व सुखशांति से रहते हैं.

यदि आप परिवार के मुखिया हैं और आप ने अपनी वसीयत नहीं की है तो इस दिशा में जरूर सोचें और जितनी जल्दी हो सके, अपनी वसीयत लिख दें, ताकि आप भी सुखी और संतुष्ट रहें व बाद में परिवार के किसी सदस्य के साथ अन्याय न हो और उन के बीच आपसी मेलमिलाप बना रहे.

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