भूख लगती है तो मां की याद आती हैं. भाग कर जाओ और रसोई में पकवान बना रही मां से लिपट जाओ. घर की रसोई और मां के हाथ का खाना भूख की तृष्णा को शांत कर देता है. लेकिन जब आप घर से दूर अकेले रह रहे हों, भूख लगे और पास में न मां हो, न मां के हाथ का बना खाना, तब बहुत तकलीफ होती है. बहुत याद आती है घर की रसोई और मां के हाथ की रोटी-सब्जी. नथुने फड़कते हैं उस खुशबू को एक बार फिर पा लेने को, मगर वह दूर-दूर तक नहीं मिलती.

घर से दूर किसी अनजान शहर में पढ़ने या नौकरी करने के दौरान अक्सर बाहर के खाने से ही पेट भरना पड़ता है. बाहर के खाने से भूख तो मिट जाती है, मन नहीं भर पाता है. तृप्ति नहीं हो पाती है. मगर मजबूरी है, क्या कर सकते हैं? जीवित तो रहना है और उसके लिए खाना जरूरी है. इसलिए हम परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं.

ज्यादातर लोगों की राय है कि बाहर के खाने में स्वाद नहीं होता. सारी सब्जियां एक जैसे स्वाद वाली होती हैं. लेकिन फिर भी कभी-कभी बाहर ठेले इत्यादि पर खाना खाते हुए हमें कुछ ऐसा स्वादिष्ट मिल ही जाता है कि पेट और आत्मा दोनों तृप्त हो जाती हैं. जरूरत है तो बस थोड़ा एक्सप्लोर करने की. जगह-जगह का स्वाद चखने की.

दिल्ली में 70 से 80 प्रतिशत लोग दूसरे शहरों से रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं. कितने ही युवा उच्च शिक्षा के लिए घर से दूर किराये का कमरा लेकर या निजी छात्रवासों में रहते हैं. उन्हें लगभग रोज ही बाहर से खरीदे हुए खाने से पेट भरना पड़ता है. लेकिन रोज-रोज होटलों या रेस्तरां के खर्चे उठाना संभव नहीं हो पाता. ऐसे में ठेले और ढाबे के खाने पर निर्भर होना ही पड़ता है, जहां 20 से 50 रुपए खर्च कर पेट भरना आसान होता है.

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घर से दूर रह रहे छात्रों या नौकरीपेशा युवाओं के लिए अच्छा और सस्ता खाना मिल पाना परेशानी का सबब है. खाना या तो खुद बनाना पड़ता हैं या खरीद कर खाना पड़ता हैं. अब खाना अच्छा भी हो और मंहगा भी न हो, तो आपकी ये दोनों इच्छाएं पूरी करते हैं दिल्ली के ठेलेवाले. चाहे पेट भरना हो या स्वाद के चटखारे लेने हो, कम पैसों में फास्ट फूड से लेकर खाने की थाली तक मिल जाती है इन ठेलेवालों के पास. राजमा-चावल , कढ़ी-चावल, मटर-कुलचे, आलू परांठा , पनीर परांठा या कचौरी-सब्जी दाम और स्वाद दोनों में घर से दूर युवाओं के लिए वरदान साबित होते हैं. बात करते हैं कुछ ऐसे ही ठेले और ढाबे वालों की, जिनका खाना स्वादिष्ट भी है और पेट व पॉकेट दोनों के अनुकूल भी.

ठेले, जिनके आगे लगते हैं मेले 

दिल्ली में खाने के कुछ ऐसे ठेले हैं जिनके आगे हमेशा ही भीड़ लगी रहती हैं. इनके खाने की खुशबू और जायका लोगों को खींच लाता हैं. ऑफिस में लंच टाइम होते ही इन ठेलों पर भीड़ जुट जाती है. परांठे का स्वाद, राजमा-चावल की खुश्बू, छोले-भठूरे का जायका, भूखे पेट होने पर तपती धूप में बारिश की बूंदों सा लगता है.

दक्षिणी दिल्ली में मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे एक परांठे वाला सुबह के नौ बजे से रात के बारह बजे तक परांठे बेचता है. आलू का परांठा, पनीर का परांठा, प्याज का परांठा, गोभी का परांठा और न जाने किस-किस चीज के परांठे और स्वाद ऐसा कि भीड़ सुबह से शाम कैसे कर देती है, पता ही नहीं चलता.

कुछ यही हाल गणेश नगर में ‘चांदनी चौक के परांठे’ वाले ढाबे का है. बीस रुपए से साठ रुपए में आलू परांठा, पनीर परांठा, गोभी परांठा जैसी कई वैरायटी आपको मिल जाती हैं. गर्म परांठे पर मक्खन का एक टुकड़ा साथ में लाल-हरी चटनी, सोचते ही मुंह में पानी भर आता है. कभी-कभी परांठे के साथ दही और हरी मिर्च का आचार पेट के साथ-साथ मन भी भर देता है.

राजीव चौक से सटे शंकर मार्केट के राजमा चावल का स्वाद भी बेजोड़ है. आॅफिस में काम करनेवाले कर्मचारी लंच टाइम पर इस ठेले पर ऐसे टूटते हैं, कि बेचारा ठेलेवाला ग्राहकों की प्लेटें लगाते-लगाते पसीने से तरबतर हो जाता है. चटपट में सारा राजमा-चावल सफाचट हो जाते हैं. इसी तरह मूलचंद में संजय चूर-चूर नान वाले के नान का स्वाद खाने वाले पर अलग ही जादू चलाता है. तिलकनगर में रामछोले के छोले भठूरे हों या जंग बहादुर कचौरी वाले की प्याज कचौरी, ड्राई फ्रूट कचौरी या दाल कचौरी ही क्यों न हों, कम दाम में ये स्वाद का जबरदस्त तड़का लगाते हैं. वहीं बिहारी पर बनने वाला गरमा-गरम बाटी-चोखा बिहारी लोगों को ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश और दिल्ली वालों को भी खूब भाता है.

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झंडेवालान में सैकड़ों छोटे-बड़े औफिस हैं. वीडियोकौन टावर भी यहां है तो बहुत बड़ा साइकिल मार्केट भी है. कहने का मतलब यह है कि यहां अधिकारी वर्ग के साथ-साथ एक बहुत बड़ा मजदूर वर्ग भी है, जो दोपहर के खाने के लिए बाहर निकलता है. इस क्षेत्र में बड़े होटल या रेस्ट्रां नहीं हैं, मगर ठेलेवाले खूब हैं. जूस से लेकर बिरयानी तक यहां ठेले पर मिलती है. चालीस रुपये में थाली, जिसमें दाल, चावल, चार रोटी, दो तरह की सब्जी और सलाद पेट भरने के लिए काफी होते हैं. वहीं सत्तर रुपये में मुर्ग-कोरमा और रोटी का स्वाद तो गजब का है. नब्बे रुपये में भरपेट बिरयानी के साथ रायता, सलाद और हरी चटनी का स्वाद लेना हो तो झंडेवालान आ जाइये.

क्या है इनकी कमाई?

भले ही ये ठेलेवाले हैं, छोटा व्यवसाय करते हैं, लेकिन इनके ठेले से इनकी कमाई का अंदाजा लगाना मुश्किल है. देखने में मामूली से लगने वाले ठेले और ढाबे वाले भी महीने में हजारों-लाखों रुपये की कमाई करते हैं. एक अच्छी कंपनी में नौकरी करने वाला आदमी महीने के 20 से 25 हजार रुपये कमाता है, तो उसी कंपनी के सामने चाय और समोसे की थपरी लगाने वाला महीने के 70 से 80 हजार रुपए आराम से कमा लेता है.

लक्ष्मी नगर के मशहूर गणेश कचौरी वाले का कहना है कि वो माह के साठ से सत्तर हजार रुपए कमाता है. सुबह के ग्यारह बजे से रात के दस बजे तक उसके ठेले पर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती हैं. जिससे प्रतिदिन 3-5 हजार रुपए तक की कमाई हो जाती है. अपने आठ वर्कर्स को तनख्वाह देने के बाद भी उसके पास एक अच्छा अमाउंट बच जाता है. एक सर्वेक्षण के अनुसार, औसत स्ट्रीट फूड विक्रेता कम से कम अस्सी हजार रुपए प्रतिमाह कमा लेते हैं. दिल्ली का एक मशहूर छोले भठूरे वाला एक दिन में 500 प्लेटें छोले भठूरे बेचता है. जिसकी कमाई औसतन 1.5 लाख रुपए प्रतिमाह है.

आथारिटी क्या कहती हैं?

भारत में फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथारिटी औफ़ इंडिया (एफएसएसएआई) ने स्ट्रीट फूड विक्रेताओं के लिए धारा 92 के तहत पंजीकरण कराने का प्रावधान है. जिसमें सभी फूड बिजनेस संचालकों, उत्पादकों, विक्रेताओं और वितरक को अधिनियम में सूचित प्रक्रियाओं के अनुसार कम से कम पंजीकरण कराना अनिवार्य किया गया है. फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी यह सुनिश्चित करता है कि फूड उत्पादकों  या वितरकों या विक्रेताओं द्वारा उपभोक्ता तक पहुंचने वाले सभी भोज्य पदार्थ स्वास्थ्य और सुरक्षा के मापदंडों को पूरा करते हों.

स्ट्रीट फूड या ठेले और ढाबे के फूड विक्रताओं के लिए भी एफएसएसएआई  के अंतर्गत पंजीकरण कराना अनिवार्य है. आथारिटी के अनुसार, ठेले और ढाबे वालों के लिए भी सभी कच्ची खाद्य सामग्री को अधिनियम के शर्तों को पूरा करना होता हैं. जिससे स्वास्थ्य और सफाई का विशेष ध्यान रखा जा सके. अथारिटी समय-समय पर फूड सैंपल लेकर उनकी जांच भी करती है और मानक से कम पाए जाने पर दंडित भी करती है, अथवा उनका पंजीकरण निरस्त कर देती है.

साफ-सफाई जरूरी है

कोई भी व्यक्ति खाना ऐसी जगह से खाना चाहता है जहां उसे साफ-सफाई मिले, खाना हाइजेनिक हो और ठीक से पका हुआ हो. ग्राहकों की मन:स्थिति को भांपते हुए ठेलों पर साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है, तभी उनकी कमाई भी होती है. ज्यादातर ठेलेवाले इस बात का ध्यान रखते हैं कि खाना बनाने वाले बर्तन साफ और धुले हुए हों. खाने की प्लेटें ठीक से धुली हों. हाइजीन का ध्यान रखते हुए ज्यादातर ठेलेवाले पेपर प्लेट, प्लास्टिक चम्मच, थर्माकोल की कटोरियों आदि का इस्तेमाल करते हैं. नगर निगम भी इन ठेलों के आसपास सफाई के लिए सख्ती बरतता है, जिसके चलते हर ठेलेवाले को अपने ठेले के पास एक बड़ा ढक्कनवाला डस्टबिन रखना अनिवार्य है ताकि खाने के बाद जूठन और प्लेटे इत्यादि उसमें फेंकी जाएं.

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इस बात का भी ध्यान रखा जाना जरूरी हैं कि खाने में इस्तेमाल की जाने वाली कच्ची सामग्री और तेल-मसाले सही गुणवत्ता वाले हों. खाना बनाने में इस्तेमाल किया जाने वाला पानी साफ हो. अगर खाना कहीं और से या केटरिंग से बनकर आता हों तो वहां भी साफ-सफाई की व्यवस्था ठीक होनी चाहिए. साथ ही खाना बनाने वाले कर्मी भी सफाई का पूरा ध्यान रखें. एप्रन और हाथों में दस्ताने का इस्तेमाल करें. इसके लिए फूड कंट्रोल अथौरिटी और नगर निगम अधिकारियों के साथ-साथ ग्राहक को भी नजर रखनी चाहिए. आप कहीं भी गंदगी देखें या खाने को मानक से कम पायें तो इसकी शिकायत जरूर करें और ठेलेवाले को भी चेताएं कि उसकी शिकायत होगी. इस तरह आप भी एक तरह से नियंत्रक का कार्य करेंगे और ठेलेवाले भी मानक के अनुरूप ही खाना बनाएंगे. ठेले का खाना स्वादिष्ट और सेहतमंत हो सकता है, बशर्ते आप ऐसा ठेला चुनें जहां हाईजीन और स्वाद का पूरा ध्यान रखा जाता हो.

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