हम अक्सर देखते हैं कि सबकुछ होने के बाद भी लोग अपनी छोटी-छोटी कमियों को लेकर रोते रहते हैं, दूसरों को सुखी देख कर दुखी रहते हैं, भले अपने पास सबकुछ क्यों न हो उन्हें कभी तृप्ति नहीं होती. ऐसे लोग कभी यह नहीं देखते कि दुनिया में कितने ही लोग हैं जो बेहद अभावों में भी खुशी-खुशी अपनी जिन्दगी जी रहे हैं. मुझे भी इस बात का अहसास उस दिन ही हुआ जब मैंने अपने घर के सामने खेलते उस छोटे से गरीब और गंदे बच्चे से बात की. उस दिन उसकी बातें सुन कर मैं अचम्भित हो गयी. सोचने को मजबूर हो गयी कि वह अपनी गरीबी में भी कैसा खुश था.
दरअसल मेरे घर के सामने वाली बिल्डिंग में काफी दिन से कंस्ट्रक्शन वर्क चल रहा था. सामने की सड़क के किनारे उस बिल्डिंग में काम करने वाले मजदूरों ने अपनी झुग्गियां डाल ली थीं. उनकी औरतें भी बिल्डिंग में मजदूरी करती थीं और शाम को सड़क किनारे ही उनकी रसोई बनती थी.
शाम को आॅफिस से आने के बाद मैं अक्सर अपने गार्डन में ही बैठ कर चाय पीती हूं. उस दिन भी मैं गार्डन में बैठी चाय की चुस्कियां ले रही थी. सामने सड़क पार मजदूरों के नंग-धड़क बच्चे खेल रहे थे. चाय पीते-पीते मैं उनके खेल में मगन हो गयी. उनके खेल में मुझे आनन्द आने लगा. वह एक दूसरे के पीछे लगे लम्बी ट्रेन बना कर दौड़ते-हंसते, सीटी बजाते कभी बिल्डिंग के अन्दर घुस जाते, कभी बरगद के बड़े से पेड़ का चक्कर लगाकर मेरे घर के गेट तक आ जाते थे.
मैं उनके खेल में मजा लेने लगी. दूसरे दिन भी, तीसरे दिन भी, चौथे दिन भी चाय की चुस्कियों के बीच मैं उनके खेल में रमी रही. इन चार दिनों में मैंने एक बात नोटिस की कि वे तीन से छह साल तक के नन्हे बच्चे थे. फटेहाल, काले, भद्दे, गंदे मगर बिल्कुल मस्त. वे एक दूसरे की शर्ट पकड़ कर रेल बनाते थे. पांच-छह बच्चे रेल के डिब्बे बन जाते और एक बच्चा इंजन बनता. मगर उस ग्रुप में एक बच्चा जो सबसे छोटा था और जिसके बदन पर सिर्फ एक गंदी सी चड्डी थी, वह हाथ में एक छोटा सा गंदा कपड़ा हिला-हिला कर गार्ड की भूमिका निभाता था. मैं कई दिन से उन बच्चों का खेल देख रही थी. हर दिन डिब्बे वाले बच्चे बदल जाते थे. इंजन भी बदल जाता था. कभी कुछ नये बच्चे भी इस रेलगाड़ी में जुड़ जाते थे, तो कभी कुछ कम भी हो जाते, मगर मैं चार दिन से देख रही थी कि गार्ड वाला बच्चा वही था. गंदे बदन पर एक फटी सी चड्डी पहने पूरी मस्ती से अपना छोटा सा कपड़ा हिला-हिला कर रेल को चलता करता और रेल को रोकता था. उसकी उम्र तीन साल से ज्यादा न होगी. पांचवे दिन मैं चाय का प्याला लेकर अपने गार्डन से उठ कर गेट पर आ कर खड़ी हो गयी. बच्चों की रेलगाड़ी जब सीटी बजाती बरगद के पेड़ की तरफ मुड़ी तो मैंने उस बच्चे को इशारे से अपने पास बुलाया. वह रेलगाड़ी के लौटने का इंतजार करता अपनी चड्डी संभाले खड़ा था.
मेरे बुलाने पर वह भागा-भागा मेरे पास चला आया. मैंने गेट खोला और गार्डन में आकर ट्रे में रखे बिस्कुट में से दो उठा कर उसकी ओर बढ़ाये. पहले तो वह थोड़ा सकुचाया, मगर फिर मुस्कुराते हुए ले लिये.
मैंने उससे नाम पूछा तो उसने बड़ी खुशी-खुशी बताया, ‘हंसमुख’. वह बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप ही था, हंसता-खिलखिलाता. मैंने दो बिस्कुट प्लेट से और उठा कर उसे दिये और दूसरा सवाल दाग दिया, ‘तुम रोज अपनी रेलगाड़ी के गार्ड ही क्यों बनते हो? बाकी बच्चे तो डिब्बा और इंजन भी बनते हैं. तुम क्यों नही बनते?’
इसके बाद उसका जवाब सुन कर मैं अवाक रह गयी.
वह बोला, ‘बाकी सबके पास कमीज है न, मेरे पास नहीं है, फिर मेरे पीछे वाला मुझे पकड़ेगा कैसे? इसीलिए मैं गार्ड बनता हूं.’
उसके जवाब ने मुझे भीतर तक हिला दिया. वह अपनी गरीबी में भी खुश है. हंसता है. मुस्कुराता है. जिन्दगी से एडजेस्ट करता है. उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है.
उसी दिन मैंने बाजार जाकर उसके लिए चार जोड़ी पैंट शर्ट खरीदे और लाकर उसको दिये. दूसरे दिन मैंने उसे उस रेलगाड़ी में चमचमाता इंजिन बने देखा तो मेरा मन खुशी से झूम उठा. वह पूरी गाड़ी खींचता हुआ बार-बार पलट कर मेरी ओर देखता और मुस्कुरा देता. उसकी मुस्कुराहट मेरे दिल को कितना सुकून पहुंचा रही थी, यह मैं यहां शब्दों में बयां नहीं कर सकती.