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आसान नहीं सामाजिक बराबरी, जातियों में बैलैंस बनाए रखना मुश्किल

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जाति के आधार पर नेताओं के लिए जनता के वोट लेना भले ही आसान काम हो, पर सरकार बनाने के बाद जातियों में बैलैंस बनाए रखना मुश्किल काम होता है. यही वजह है कि बहुमत से सरकार बनाने वाले दलों को 5 साल में ही हार का सामना करना पड़ता है. अब जातीयता राजनीतिक दलों को भी लंबे समय तक टिक कर राज नहीं करने देती है.

वोट लेते समय राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक बराबरी बनाए रखना भले ही आसान काम हो, पर सरकार चलाते समय इस को बनाए रखना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से लेकर योगी आदित्यनाथ की सामाजिक बराबरी तक यह बारबार साबित होता दिख रहा है.

उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले की तिलोई विधानसभा सीट से विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह और योगी सरकार में आवास राज्यमंत्री सुरेश पासी के बीच छिड़ी लड़ाई इस का ताजा उदाहरण है. सुरेश पासी जगदीशपुर विधानसभा सीट से विधायक हैं और वे उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. तिलोई और जगदीशपुर विधानसभा इलाके आसपास हैं.

अपनी राजनीति को मजबूत बनाए रखने के लिए विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह और मंत्री सुरेश पासी एकदूसरे के इलाकों में दखलअंदाजी भी करते रहते हैं. अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए कई बार आमने सामने भी आ जाते हैं. सबसे अहम बात यह है कि दोनों ही भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं.

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मंत्री होने के चलते सुरेश पासी के पास ज्यादा हक हैं. सरकारी नौकर भी विधायक से ज्यादा मंत्री की बात को अहमियत देते हैं.

सुरेश पासी भले ही जगदीशपुर से चुनाव लड़ते हों, पर उनका अपना निजी घर तिलोई विधानसभा इलाके में पड़ता है. लगातार 3 बार से गांव की प्रधानी सुरेश पासी के परिवार के पास ही रही है. ऐसे में सुरेश पासी को तिलोई इलाके में भी पैरवी करनी पड़ती है. इस के चलते तिलोई के विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह के साथ उनकी होड़ सी बन जाती है.

एक ही पार्टी में होने के बाद दोनों नेताओं के बीच किसी किस्म का तालमेल नहीं है. दोनों के बीच झगड़ा इस कदर बढ़ गया था कि विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह ने अपने पद से इस्तीफा तक देने का मन बना लिया. इसके बाद वे प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिले.

विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह की नाराजगी के चलते अमेठी की पुलिस सुपरिटैंडैंट पूनम का वहां से तबादला कर दिया गया. वे विधायक और मंत्री के बीच तालमेल बनाने में नाकाम रही थीं. भाजपा के सामने यह पहला मामला है जो खुल कर सामने आ गया है.

वैसे, पूरे प्रदेश में ऐसे तमाम मामले हैं जहां नेताओं की जमीनी लैवल पर अलग अलग खेमेबंदी है.

भाजपा ने विधानसभा चुनाव के समय अलग अलग दलों और जातीय नेताओं को अपने साथ जोड़ा था, अब इनको साथ लेकर चलना मुश्किल हो रहा है. इन नेताओं की आपसी खेमेबंदी का नुकसान पार्टी को चुकाना पड़ सकता है.

बहुत से विधायक और मंत्री अपने चहेते लोगों को पार्टी में अहम पदों पर बिठाना चाहते हैं. जातीय आधार पर देखें तो पता चलता है कि भाजपा हमेशा से ही अगड़ी जातियों की पार्टी रही है. ऐसे में अगड़ी जाति के नेता अपनी अलग अहमियत चाहते हैं.

भाजपा ने वोट के लिए दलित और पिछड़े तबके के नेताओं को पार्टी से जोड़ा था. चुनाव के बाद अब जमीनी लैवल पर इनके बीच तालमेल बनाए रखना मुश्किल काम हो गया है. जातीय आधार पर सब से ज्यादा परेशानी दलित तबके को हो रही है. उसके नेता से लेकर कार्यकर्ता तक को ज्यादा अहमियत नहीं मिल रही है. भाजपा में हिंदू धर्म को मानने वालों की तादाद ज्यादा है. वे लोग दलितों के साथ तालमेल नहीं बना पा रहे हैं और भाजपा बारबार इस मुद्दे को दबाने में लगी रहती है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और संगठन मंत्री सुनील बंसल पार्टी कार्यकर्ताओं को परिवारवाद से दूर रहने और आपसी तालमेल बनाए रखने की बात समझाते हैं. इसके बाद भी नेता किसी न किसी मुद्दे को लेकर सामने आ ही जाते हैं. ऐसा केवल भाजपा के ही साथ नहीं हुआ है. इस के पहले बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को भी इसी बात का शिकार होना पड़ा था.

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साल 2007 में बसपा सुप्रीमो मायावती ने ब्राह्मणदलित गठजोड़ के साथ सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति तैयार की थी, जिस में दलितों के साथ साथ कई अगड़ी जातियों ने भी बसपा का साथ दिया था. इसके बल पर मायावती को पहली बार बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला था.

सरकार बनाने के बाद बसपा इस बैलैंस को बनाए रखने में नाकाम रही, जिस से सरकार के मंत्रियों और कार्यकर्ताओं के बीच दूरियां बढ़ने लगीं.

जो दलित तबका कभी बसपा का मजबूत खंभा होता था, वह खुद पार्टी से दूर जाने लगा. इसके चलते बसपा को विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में ही करारी हार मिली थी. बसपा की ही तरह समाजवादी पार्टी के साथ भी यही हुआ था. पिछड़ों के बेस वोट के बाद मुसलिमों और अगड़ों को साथ लेकर सपा ने साल 2012 में बहुमत की सरकार बना ली थी.

अखिलेश यादव की युवा इमेज और मुलायम सिंह यादव की संगठन कूवत भी सरकार के समय जातीय बैलैंस साधने में नाकाम रही थी. इस से अलग अलग जातियों के नेता सपा से नाराज हो गए. सबसे ज्यादा परेशानी में अतिपिछड़े और दलित नेता थे. उनको लग रहा था कि अखिलेश सरकार में उनकी सुनी नहीं जा रही है. ऐसे में जब 2014 के लोकसभा चुनाव आए तो यह तबका भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया और सपा को करारी हार देखनी पड़ी.

2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने भी अपने कैडर वोट के अलावा दलित और पिछड़ों को पार्टी के साथ जोड़ने में कामयाबी तो हासिल करली, पर अब इनको एकसाथ लेकर चलना भारी पड़ रहा है. भाजपा का मुख्य अगड़ा वोट बैंक पार्टी से खुश नहीं है खासकर बनिया और ब्राह्मण तबका.

भाजपा ने बाहरी नेताओं को भी पार्टी में शामिल किया है. ये नेता भाजपा के पुराने नेताओं के साथ सहज भाव से एक नहीं हो पा रहे हैं. इस का खमियाजा पार्टी को आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है.

कलाकार के तौर पर श्रीदेवी की अधूरी रही यह तमन्ना

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300 फिल्मों में अभिनय करते हुए श्रीदेवी ने अपने अभिनय के नित नए रंग पेश किए थें. उन्होंने ‘सदमा’ सहित कुछ फिल्मों में जिस तरह के किरदार निभाए थें, उस तरह के किरदार बिरले कलाकार ही निभा सकते हैं. उन्होंने कई विविधता पूर्ण किरदार निभाएं.

उनके नृत्य का तो हर कोई दीवाना रहा है. अपने अभिनय से हर किसी के दिलों में कभी न मिटने वाली छाप छोड़कर इस संसार से जा चुकी हैं. मगर कलाकार के तौर पर उनकी हास्य किरदार निभाने की इच्छा अधूरी ही रह गई.

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जी हां, कुछ समय पहले जब श्रीदेवी से हमारी बात हुई थी, तब हास्य की चर्चा चलने पर हमने उनसे पूछा था कि, ‘क्या अब वह हास्य किरदार निभाना पसंद करेगी? ’तब श्री देवी ने कहा था – ‘‘आपने तो मेरे मन की बात छीन ली. मैं भी यही सोच रही थी कि यदि सब कुछ अच्छा रहा, तो मैं अगली फिल्म में कौमेडी करूंगी.’’

अफसोस श्रीदेवी को अगली किसी फिल्म में हास्य भूमिका निभाने का अवसर मिलता, उससे पहले ही वह चिरनिद्रा में हमेशा के लिए सो गईं और हास्य किरदार निभाने की उनकी इच्छा अधूरी रह गयी.

इस छोटे बच्चे की गेंदबाजी पर फिदा हुए वसीम अकरम

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विश्व क्रिकेट में पाकिस्तान की पहचान बल्लेबाजी से ज्यादा गेंदबाजी में रही है. मोहम्मद निसार से लेकर शोएब अख्तर तक ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े गेंदबाजों में अपना खौफ पैदा किया. इस फेहरिस्त में वसीम अकरम, वकार युनूस, इमरान खान ऐसे हैं नाम है, जिनके सामने बल्लेबाजी करते हुए बड़े से बड़ा बल्लेबाज भी कांपने लगता था. अब भी अगर पाकिस्तान क्रिकेट टीम पर नजर डाली जाए तो आज भी पाकिस्तान की पहचान गेंदबाजों के लिए ही होती है.

बता दें कि अधिकारिक रूप से दर्ज की गई सबसे तेज गति से डाली गई गेंद की गति 161.3 किलोमीटर प्रति घंटा (100.2 मीटर प्रति घंटा) थी और यह गेंद 2003 के क्रिकेट विश्व कप में इंग्लैंड के खिलाफ एक मैच के दौरान पकिस्तान के शोएब अख्तर के द्वारा डाली गई थी. इस गेंद पर खेलने वाले बल्लेबाज निक नाईट थे, जिन्होंने लेग साइड हिट किया था.

पर शोएब अख्तर, इमरान खान और वसीम अकरम ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने पाकिस्तान क्रिकेट को दुनिया में एक अलग पहचान दिलाई है. वसीम अकरम, शोएब अख्तर और शाहिद अफरीदी ऐसे खिलाड़ी हैं, जो अपने देश के टैलेंट को पहचान कर उन्हें आगे भी लाना चाहते हैं.

सोशल मीडिया पर एक पाकिस्तानी बच्चे का वीडियो वायरल हो रहा है. इस वीडियो में यह बच्चा गेंदबाजी करता नजर आ रहा है. इस बच्चे की गेंदबाजी इतनी शानदार है, जिसे देखकर खुद वसीम अकरम भी फिदा हो गए हैं.

फैजान रमजान नाम के एक टि्वटर यूजर ने अपने टि्वटर अकाउंट पर वसीम अकरम, शाहिद अफरीदी, शोएब मलिक और रमीज राजा को टैग करते हुए इस वीडियो को शेयर किया है. वीडियो शेयर करते हुए फैजान ने लिखा है- मुझे अभी यह वीडियो मिला. नहीं जानता यह बच्चा कौन है, लेकिन इस बच्चे की शानदार गेंदबाजी पर आपके विचार जानना चाहता हूं.

फैजान के इस ट्वीट को सबसे पहले वसीम अकरम ने लाइक किया और उसके बाद इस वीडियो को शेयर करते हुए लिखा- कहां है यह लड़का? हमारे देश की रगो में यह शानदार टैलेंट बसा हुआ है और हमारे पास ऐसा कोई प्लेटफौर्म नहीं है. जहां हम ऐसे बच्चों को खोज सकें. यह वक्त है कुछ करने का. इसके साथ ही उन्होंने एक हैशटैग भी दिया. #TheFutureOfCricketIsWithOurYouth.

गौरतलब है कि कुछ साल पहले पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने नई प्रतिभाओं को खोजने के लिए एक तरीका ईजाद किया था. पीसीबी ने अपनी वेबसाइट के जरिए ऐसी प्रतिभाओं को खोजने की एक मुहिम भी चलाई थी. पीसीबी ने योजना बनाई थी कि वह एक वेबसाइट बनाएंगे जहां युवा क्रिकेटर अपनी बल्लेबाजी और गेंदबाजी के वीडियो यहां अपलोड कर सकते थे.

आज मिल कर

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चलो, आज मिल कर

एक जख्म कुरेदा जाए

और यादों को

बक्से से निकाला जाए

नया कोई रंग फिर

तेरी तसवीर पे डाला जाए

और उस ख्वाब के

माने निकाले जाएं

समय नापने को

सिक्के उछाले जाएं

बहकने दो खुद को

आज न संभाला जाए

तुम्हें पा लेने की जो

हसरतें की थीं हम ने

आज उन हसरतों को

जाम में डुबोया जाए

एक लमहे को फिर से

थामा जाए

एक उम्र को

फिर से बिताया जाए

सांस में सांस मिला कर

जो गीत बने

उन गीतों को मिल के

गुनगुनाया जाए

फिर से उलझाई जाए

माथे की लट तेरी

फिर उंगलियों से

बारबार सुलझाया जाए.

– अमरदीप

नरेंद्र मोदी की मनोरंजक थ्योरी और पकौड़ा राजनीति के माने

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वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान देश की जनता बड़े मुग्धभाव से नरेंद्र मोदी की तरफ देखती थी. वे कांग्रेसी नेताओं से बेहतर, लच्छेदार भाषण देते थे, उम्मीदें बंधाते थे और सब्जबाग दिखाने के तो वे विशेषज्ञ हैं. तब लगता था कि कोई जादूगर पाशा या जादूगर सरकार मंच पर है जो अपनी छड़ी घुमाएगा और देखते ही देखते

देश की तकदीर बदल जाएगी. खेत लहलहाने लगेंगे, उत्पादन चारगुना बढ़ जाएगा, बैंक खातों में नोट बरसने लगेंगे, आतंकी सहम कर भाग जाएंगे और इस से भी ज्यादा अहम बात यह, कि हर हाथ के लिए काम होगा. यानी कोई बेरोजगार नहीं रहेगा.

उस दौरान नरेंद्र मोदी बड़े फख्र से खुद को जब चाय वाला कहते थे तो जनता उन पर बलिहारी जाती थी कि देखो, इतने नीचे से वे इतने ऊंचे तक आ गए यानी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए. नतीजतन, देशवासियों ने उन के हाथों में देश सौंप कर बेफिक्र होते अच्छे दिनों का इंतजार करने लगे.

उन के प्रधानमंत्रित्वकाल के 4 वर्ष बीत जाने के बाद भी अच्छे दिन नहीं आए तो अब लोगों को शक हो रहा है कि यह कैसा जादू है जिस के चलते सबकुछ उलटापुलटा हो रहा है, किसान पहले से ज्यादा खुदकुशी करने लगे हैं. जो नोट बड़े जतन से अपने खर्चों में से कटौती कर बचा कर रखे थे वे तक नोटबंदी के चलते छू हो गए थे. जीएसटी के कारण कारोबारी बेकार होते जा रहे हैं. आतंकी देश के सैनिकों की खुलेआम हत्याएं करने लगे हैं जिस से शहीदों की तादाद बढ़ रही है, यह तो हमारी सेना की देशभक्ति और पे्रम है कि वह विद्रोह तो दूर की बात है, कोई एतराज भी दर्ज नहीं कराती. फसलों की पैदावार तो कहीं बढ़ी नहीं और नौजवान थोक में बेरोजगार हो कर हताशा का शिकार हो चले हैं.

2 आरजू में और 2 साल इंतजार में कटे, लेकिन इस दौरान बुरा यह हुआ कि जनता का ब्लडप्रैशर कभी लो और कभी हाई होने लगा कि अब आगे क्या होगा. होने के नाम पर कुछ नहीं होना, यह तो सभी को समझ आ गया पर न होने के नाम पर अब क्या होगा, यह सोचसोच कर लोग हैरानपरेशान हैं.

नरेंद्र मोदी ने जनता की नब्ज टटोली तो वे चिंता में पड़ गए जो नए बजट को देख गश खाने लगी थी. ऐसे में एक दिन  उन का ध्यान पकौड़ों की तरफ गया तो वे अपने सुनहरे अतीत में खो गए जिसे सिगमंड फ्रायड जैसे मनोविज्ञानी अतीत और बचपन में जीना कहते रहे हैं.

हर कोई जानता है कि यह पकौड़ा एक परंपरागत भारतीय व्यंजन है जो बेसन व तेल के मिश्रण से तैयार किया जाता है. छोटे साइज का पकौड़ा, पकौड़ी कहलाता है. इसे आलू, प्याज, पनीर सहित गिलकी व पालक तक से बनाया जाता है. भारतीय इसे बड़े चाव से खाते हैं.

होली के दिनों में भांग के पकौड़े खाने का रिवाज है, जिन के सेवन से लोग 2014 के सम्मोहित दौर में पहुंच जाते हैं. भांग का पकौड़ा बड़ा असरकारी होता है. फागुन के मदमस्त माहौल में तो इस का असर हजारगुना तक बढ़ जाता है.

पकौड़े की एक खूबी यह है कि इसे एक बार खाओ तो मन नहीं भरता. लिहाजा, लोग ठूंसठूंस कर पकौड़े खाते हैं और दूसरे दिन स्वच्छ भारत अभियान पर पलीता लगाते नजर आते हैं. आयुर्वेदिक चूर्णों की बिक्री में पकौड़ों के सेवन का बड़ा योगदान है.

देश के बेरोजगार होते नौजवानों की चिंता का हल प्रधानमंत्रीजी को यों ही पकौड़े में नहीं दिख गया कि उन्होंने युवाओं को पकौड़ा बेचने का मशवरा दे डाला. पकौड़ा बेचने की सलाह पर व्यापक और देशव्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और इतनी हुईं कि अगर पकौड़े में चेतना होती तो वह घबरा कर खुदकुशी कर लेता. देश की सारी समस्याएं पकौड़े में सिमट कर रह गईं. जनता ने अभी राफेल डील के बाबत मुंह खोला ही था कि उस में पकौड़े ठूंस दिए गए.

जो राजनीति कल तक चायमय थी, वह पकौड़ामय हो गई. पकौड़े पर शोध होने लगे लेकिन इधर युवाओं को यह मशवरा नागवार गुजरा कि हम डिगरी ले कर पकौड़ा बेचने जैसा क्षुद्र उद्यम क्यों करें, यह तो शर्म की बात है. इस पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिदकते युवाओं को समझाया कि पकौड़े बेचना कोई शर्म की बात नहीं. वे नहीं बता पाए कि यह फख्र की बात कैसे है. चूंकि पार्टी के मुखिया ने कहा था, इसलिए इसे बाद में तरहतरह से जगहजगह कई भाजपाई दरबारियों ने दोहराया कि पकौड़ा बेचना शर्म या हर्ज की बात नहीं.

हम ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं जिस से नौकरियां और रोजगार के मौके पैदा हों, यह बात शीर्ष नेताद्वय ने बड़े फागुनी अंदाज से कही थी कि अगर नौकरीरोजगार नहीं मिल रहे तो पकौड़े बेचो. यह इन की गलती नहीं थी, बल्कि मौसम की थी, होली के महीनाभर पहले से ही मानवदिल हंसीमजाक के लिए मचलने जो लगता है.

राजनीति का एक अलिखित सिद्धांत है कि जब सत्तापक्ष हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है तब विपक्ष सुस्त पड़ जाता है. इधर मोदी और शाह ने पकौड़ा उछाला, तो विपक्ष ने उसे लपक कर पकड़ लिया. तरहतरह की दिलचस्प बयानबाजियां हुईं. जगहजगह सार्वजनिक रूप से पकौड़े तल कर विरोध जताया गया. पकौड़ामय हो चले देश को एक काम मिल गया. सोशल मीडिया के सूरमा पोर्न साइट्स और धर्म को भूलभाल कर पकौड़े को ले कर पोस्ट डालने लगे. पकौड़े ने इतनी प्रसिद्धि अपने उद्भव के बाद कभी हासिल नहीं की थी जितनी साल 2018 के फरवरी महीने में की.

इन महावीरों ने साल 2018-19 के बजट को पकौड़ा बजट घोषित कर दिया. बुद्धिजीवी और विद्वान भी पकौड़ाचिंतन में व्यस्त हो गए. कइयों ने तो पकौड़े पर सब्सिडी की मांग कर डाली और कुछ लोग पकौड़े को भी आधार से लिंक करने की बात करने लगे. एक पोस्ट में तो पकौडे़ बनाने का राष्ट्रीय व्यावसायिक चित्रण यह बताते किया गया कि पकौड़ा बेचने का आइडिया मोदी ने दिया, इस के लिए गैस रिलायंस वाला अंबानी देगा, फौर्च्यून का तेल अडानी देगा और रामदेव पंतजलि का बेसन मुहैया कराएगा.

कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी अपना ज्ञान बघारा कि जब सभी लोग पकौड़े बेचने लगेंगे तो उन्हें खरीदेगा कौन और क्या पकौड़े के स्टौल (हकीकत में ठेला या खोमचा) लगाने के लिए सरकार कर्ज देगी. पकौड़ा व्यवसाय को ले कर लोग आशान्वित भी हैं कि मुमकिन है ज्यादा पकौड़े बेचने वाले को सरकार पद्मश्री दे.

धर्म के जानकारों ने धर्मग्रंथ छान मारे पर किसी वेदपुराण, संहिता या उपनिषद में पकौडे़ का जिक्र नहीं मिला. फिर भी, उन्होंने मान लिया कि पकौड़ा सनातनी व्यंजन है. इधर, पूछा यह भी जा रहा है कि पकौड़े न खाने वालों को कहीं राष्ट्रद्रोही तो करार नहीं दिया जाएगा और क्या भगवा रंग के पकौड़े बनाने, खाने व बेचने वालों को देशभक्त का खिताब दिया जाएगा?

कुछ अदूरदर्शी लोगों की राय यह है कि जल्द ही बाबा रामदेव पंतजलि  बेसनी पकौड़ा लौंच कर सकते हैं क्योंकि वे मैदा के घोर दुश्मन हैं. नई पीढ़ी पिज्जा, चाउमीन और नूडल्स खा कर अपनी सेहत खराब कर रही है, उस से बचने का एकमात्र तरीका पकौड़ा है जो आखिरकार एक आयुर्वेदिक पकवान है. इस का इकलौता आधार यह है कि इसे पीढि़यों से देश खा रहा है और अफ्रीका या यूरोप ने अभी पकौड़े पर अपनी दावेदारी नहीं जताई है.

हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर जल्द ही कोई प्रदेश पकौड़े की बढ़ती लोकप्रियता देख अपनी दावेदारी इस पर ठोक दे. रसगुल्ला ओडिशा की डिश है या पश्चिम बंगाल की, यह तय करने में अदालतों को पसीने आ गए थे.

हरहर पकौड़ा, घरघर पकौड़ा के लगते नारों के बीच अच्छी बात यह है कि पकौड़ा एक धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद से मुक्त व्यंजन है. पकौड़े का वंशवाद से भी कोई संबंध नहीं है. मायावती जैसी नेत्री यह आरोप नहीं लगा सकतीं कि चूंकि पकौड़ा मनुवाद का प्रतीक है, इसलिए इसे प्रोत्साहन दिया जा रहा है. वामपंथी भी पकौड़े पर खामोश रहने को विवश हैं, क्योंकि इस का सामंतवाद, जमींदारी  या शोषण से कोई संबंध अभी तक सामने नहीं आया है. पकौड़ा दिल्ली के छोलेकुलचे और भठूरों के खिलाफ भी कोई साजिश नहीं है.

पकौड़े की राजनीति के अपने अलग नजरिए हैं. लोग जिस दिलचस्पी से पकौड़ापकौड़ा खेल रहे हैं, मुमकिन है इसे प्रसाद के रूप में देवीदेवताओं को चढ़ाया जाने लगे. कुछ शिक्षाविदों की राय है कि पकौड़ा निर्माण और विपणन को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, जिस से देश का भविष्य स्वावलंबी बने. देश के बच्चे अब डाक्टर, इंजीनियर या साइंटिस्ट बनने के सपने नहीं देखते, बल्कि वे पकौड़ाबाज बनने की ख्वाहिश पालने लगे हैं. ऐसे में देश का भविष्य वाकई उज्ज्वल है, यही कहा जाएगा.

नरेंद्र मोदी वाकई अतिमानव हैं जो देश का मनोरंजन करने के लिए नईनई तरकीब पेश करते रहते हैं. उन के सामने कर्नाटक, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनावों की चुनौती है. उन्हें देश को विश्वगुरु भी बनाना है. उन के चिंतन में बाधा डाल  रहे लोग पकौड़ाचिंतन में व्यस्त हो गए हैं, यह किसी उपलब्धि से कम बात नहीं.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भाजपा को देंगी चुनौती

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गुजरात विधानसभा और राजस्थान उपचुनावों के बाद भारतीय जनता  पार्टी को अपना जनाधार टूटता दिखने लगा है. 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहरा पाना सब से बड़ी चुनौती होगी. निकाय चुनाव में प्रदेश के कसबों और गांवों में भाजपा को पहले जैसे वोट नहीं मिले. भाजपा लगातार यह प्रयास कर रही है कि उस के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो कर मुकाबले में न आए. भाजपा को पता है कि अपने दम पर पूरे देश में कांग्रेस का लोकसभा चुनाव में उतरना उस के संगठन की क्षमता से बाहर है. ऐसे में कांग्रेस अलगअलग प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल कर के चुनाव मैदान में उतरेगी. भाजपा ने लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सब से बड़ी जीत हासिल की है. उस के बाद नगर निगम के चुनावों में सब से अधिक मेयर भाजपा के चुने गए हैं. ऐसे में अब भाजपा के पास कोई बहाना नहीं है कि प्रदेश का विकास क्यों नहीं हो पाया.

परेशानियों से जूझ रही है जनता

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के विकास को पटरी पर लाने में असफल रहे हैं. प्रदेश की जनता कई तरह की परेशानियों से जूझ रही है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं में 10 लाख छात्रों ने परीक्षा छोड़ दी. योगी सरकार इसे अपनी सफलता के रूप में देख रही है जबकि हकीकत में यह योगी सरकार के लिए सब से बड़ा संकट साबित होने वाला है.

योगी सरकार का तर्क है कि नकल पर नकेल कसने के कारण छात्रों ने परीक्षा छोड़ी. इन छात्रों के साथ उन के परिवारों का तर्क यह है कि कक्षा में छात्रों को सही तरीके से पढ़ाया ही नहीं गया. हाईस्कूल और इंटर के छात्रों की संख्या बहुत है. इस परीक्षा का असर परीक्षाफल पर भी पड़ेगा. पास होने वाले छात्रों की संख्या कम होगी. उन के नंबर कम आएंगे. समाजवादी पार्टी की सरकार ने हाईस्कूल और इंटर के बच्चों से किया अपना वादा पूरा नहीं किया था. उन को पूरी तरह से लैपटौप और टैबलेट नहीं दिए थे. सपा को चुनाव में इस की कीमत चुकानी पड़ी.

योगी सरकार का एक और फैसला खनन नीति को ले कर है. इस की वजह से घर बनाने में प्रयोग होने वाली बालू और मोरंग बहुत महंगी हो गई है. एक तरफ सरकार सब को घर देने की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ घर बनाने में लगने वाली सामग्री महंगी होती जा रही है. गांव का किसान अपने खेतों को नुकसान पहुंचा रहे छुट्टा जानवरों से परेशान है. गांवों में इस को ले कर झगड़े तक हो रहे हैं. सरकार के पास इस का कोई उपाय नहीं है. वह तरहतरह की हवाहवाई योजनाएं फाइलों में तैयार कर रही है. ऐसे में सब से बड़ा प्रभाव उस जनता पर पड़ रहा है जो गांवों में रहती है. गांव और कसबे के लोगों को यह लग रहा है कि यह सरकार बड़ी और ऊंची जातियों के प्रभाव में है.

धर्म के नाम पर लोकसभा और विधानसभा में भाजपा को वोट देने वाला वर्ग खुद को ठगा महसूस कर रहा है. सहारनपुर दंगा इस की मिसाल बना. इस के बाद कासगंज में हुए दंगे से साफ हो गया कि योगी सरकार प्रदेश में जिस अपराधमुक्त वातावरण की बात कर रही थी उस में वह सफल नहीं हुई. सरकार ‘पुलिस एनकांउटर’ नीति से अपराध को खत्म करने की दिशा में चल रही है.

बदलते समीकरण

2014 के लोकसभा चुनाव और 2019 के आगामी लोकसभा चुनाव की स्थिति में काफी अंतर है. उस समय देश में कांग्रेस के विरोध में वातावरण बना हुआ था. लोगों को भाजपा नेता नरेंद्र मोदी से चमत्कार की उम्मीद थी. नोटबंदी और जीएसटी से साफ हो गया कि केंद्र सरकार ने किसी भी फैसले को लागू करने से पहले कोई तैयारी नहीं की. नोटबंदी से क्या लाभ हुए, यह बताने में सरकार असफल रही. जीएसटी में एक देश एक टैक्स की बात कही गई पर 5 तरह के स्लैब के साथ जीएसटी लागू हुआ. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है. भाजपा के लिए अपनी सीटों को बचाने की चुनौती है.

सपाकांग्रेस गठबंधन का आधार

उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटों में से केवल 7 सीटें विपक्ष के पास हैं.

72 लोकसभा सीटें भाजपा और उस के सहयोगी दलों के पास हैं. भाजपा के लिए इन 72 लोकसभा सीटों को दोबारा हासिल करना बड़ी चुनौती है. तब तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में भी रहते हुए भाजपा को ढाई साल का समय हो चुका होगा. तब उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामियां भी सामने होंगी.

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में नई शुरुआत करनी है. सपा के पास 5 लोकसभा सीटें हैं तो कांग्रेस के पास केवल 2 सीटें हैं. 2017 में विधानसभा चुनाव सपाकांग्रेस ने साथ मिल कर लड़े थे. लेकिन उस में दोनों को कोई खास सफलता नहीं मिली थी. विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा नेता अखिलेश यादव के बीच कोई तालमेल नहीं दिखा. अखिलेश यादव ने यह कहा था कि वे दोस्ती नहीं तोड़ते हैं. इस बात से यह साफ है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस एकसाथ खड़ी होंगी.

अखिलेश और राहुल की जोड़ी के लिए अच्छी बात यह है कि अब उन के पास अपनी पार्टियों की सीधी कमान है. दोनों ही अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. 2017 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी अपने घरेलू विवाद में फंसी थी और राहुल गांधी पूरी तरह से पार्टी की कमान नहीं संभाल पाए थे. ऐसे में अब उन के लिए काम करना सरल है.

धीरेधीरे एक बड़ा वर्ग यह भी मान रहा है कि भाजपा केवल हिंदुत्व यानी पाखंडी दुकानदारी को आगे रख कर ही लड़ाई जीतने की कोशिश में रहती है. हिंदुत्व के तहत धुव्रीकरण का प्रयास भाजपा लोकसभा चुनाव में भी करेगी. अयोध्या का राममंदिर विवाद इस का सब से बड़ा माध्यम बन सकता है. कांग्रेस और सपा अगर खुद को भाजपा के इस जाल से बाहर निकालने में सफल रहे तो दोनों दलों के लिए लोकसभा चुनाव बेहतर साबित हो सकते हैं.

भाजपा के पास चुनावी मैनेजमैंट बहुत बेहतर है पर उस के पास जमीनी स्तर पर जनाधार वाला नेता नहीं है. यही वजह है कि भाजपा को एक मुख्यमंत्री और 2 उपमुख्यमंत्री के बल पर अपना काम करना पड़ रहा है. सत्ता में रहने के कारण विधायक, सांसद और कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा से परेशान हैं. कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि उन की बातें सुनी नहीं जा रहीं. नौकरशाही सरकार पर पूरी तरह हावी है. ऐसे में केवल भगवा रंग के सहारे लोकसभा चुनाव में पार पाना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा.

सपा के लिए अब तक मुश्किल यह थी कि प्रमुख विपक्षी बहुजन समाज पार्टी तालमेल के पक्ष में नहीं रहती थी. ऐसे में 4 बड़े दल अलगअलग चुनाव लड़ते थे. उत्तर प्रदेश में मायावती की दलित राजनीति अब कमजोर हो चली है.

दलित धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में खड़े होते हैं पर सामाजिक स्तर पर भाजपा के साथ उन का कोई तालमेल नहीं है. ऐसे में दलित के लिए सपाकांग्रेस के पक्ष में खड़ा होना मुफीद लगता है. सपा में अब तक होने वाले फैसलों में मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव और तमाम बड़े नेताओं का प्रभाव होता था. अब सभी फैसले केवल अखिलेश के होते हैं. ऐसे में किसी पहल के लिए उन को दूसरे नेताओं के समर्थन और आलोचना की चिंता नहीं है. कमोबेश यही हालत कांग्रेस की है. अब राहुल गांधी के हाथ में पार्टी की कमान है.

भाजपा में शाहमोदी की जोड़ी ने पूरी पार्टी को अपने कब्जे में कर रखा है. वहां सारे फैसले उन के ही होते हैं. विपक्ष का आरोप है कि उत्तर प्रदेश में अदृश्य मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा कार्यालय से सरकार चलाई जा रही है. ऐसे में पार्टी के तमाम नेता चुनावी समय में असहयोग कर सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव के परिणाम 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों को भी प्रभावित करेंगे. अगर कांग्रेससपा की जोड़ी लोकसभा चुनावों में भाजपा को मात दे पाई तो विधानसभा चुनावों में वह सब से प्रबल दावेदार हो सकती है. कांग्रेस के लोगों से बात करने पर पता चलता है कि गुजरात चुनावों में जिस तरह से भाजपा के खिलाफ लामबंदी का परिणाम देखने को मिला उस से कांग्रेस हर प्रदेश में इसे प्रयोग में लाएगी.

इसी साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव होने हैं. भाजपा की रणनीति यह बन रही है कि इन राज्यों के चुनावों के साथ ही वह लोकसभा चुनाव भी करा दे, जिस से विपक्ष संभल न पाए और भाजपा इस का लाभ उठा कर चुनाव जीत ले. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें हैं. ऐसे में यहां सरकार बचाना कठिन काम है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सब से कमजोर प्रदेश हैं. अगर 3 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मात मिली तो उत्तर प्रदेश में उसे लोकसभा की 72 सीटें हासिल करना बहुत मुश्किल

हो जाएगा. कांग्रेससपा भले ही अभी साथसाथ न दिख रही हों पर लोकसभा चुनाव में वे भाजपा को रोकने के लिए आपसी समझ बना चुकी हैं. समय आने पर यह सामने दिखेगा.

नैटेरिया हुआ…

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अंतर्राष्ट्रीय सर्वे में एक गंभीर बीमारी का पता चला, जो अब विश्वव्यापी है. जल्दी ही अगर इस दिशा में कदम नहीं उठाए गए तो हालात बद से बदतर हो सकते हैं.

इस के वर्गीकरण, लक्षण, कारण व बचाव पर विस्तृत चर्चा के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं…

– औन्ली मेल नो मिलाप

• लक्षण :  इस रोग से ग्रस्त रोगी को न तो मेल पसंद होता है और न ही फीमेल. उन्हें सिर्फ ईमेल पसंद होता है. बातबात पर ईमेल करते हैं, चाहे उस की आवश्यकता हो या न हो.

• कारण :  इस रोग के रोगी मेलमिलाप में बहुत यकीन रखते हैं उन की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन जाता है, ईमेल करना. इन का मानना है कि ईमेल नहीं होता फेल.

• बचाव :  अभी तक आई रिपोर्टों के अनुसार, ये रोग उतना गंभीर नहीं होता है जितना यह महसूस होता है. इस कारण अभी तक इस के लिए कोई वैक्सीन या दवा ईजाद नहीं हुई है. जरा सी सावधानी से ही इस रोग से बचा जा सकता है.

– सैल्फीमेनिया

• लक्षण :  इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति किसी भी स्थान पर अजीबअजीब मुखमुद्राओं और भावभंगिमाओं में पाया जा सकता है. कभी बाल खोल कर, कभी सन ग्लासैस चढ़ा कर, कभी किसी टीले या पेड़ पर चढ़ कर, कभी दरवाजे पर लटक कर तो कभी खिड़की से झांक कर रोगी को सैल्फी लेते हुए पाया जा सकता है.

• कारण :  इस रोग से ग्रस्त रोगी को स्वयं को भिन्नभिन्न मुद्राओं व भावभंगिमाओं में देखना और दिखाना बहुत पसंद आता है. इस पर जमाने को दिखाना है की कहावत चरितार्थ होती है.

• बचाव :  इस रोग से बचाव के लिए अभी शोध चल रहा है, निकट भविष्य में वैक्सीन और दवाएं बनने की संभावनाएं हैं.

– गेम में गुम

• लक्षण :   इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति कभी भी खाली नहीं दिखाई पड़ते हैं. हर वक्त इन की उंगलियां मोबाइल पर नाचती दिखती हैं. गेम जीतने पर इन के चेहरे पर किला फतह करने जैसे भाव साफ दिखाई देते हैं. इन्हें ‘आज मैं आगे, जमाना है पीछे…’ वाले भाव से हर वक्त लबरेज देखा जा सकता है.

• कारण :  इन के पास समय बहुतायत में होता है और करने के लिए बहुतकुछ नहीं होता है. इस कारण ‘डू नथिंग बट लुक बिजी’ नामक ग्रंथि से ये ग्रस्त हो जाते हैं. यही वजह है कि यह रोग इन्हें आसानी से अपनी चपेट में ले लेता है.

• बचाव :  इस रोग से बचाव के लिए जो वैक्सीन बनाई गई है, उस का नाम है बिजी ओ सिन. इस वैक्सीन के प्रभाव से यह रोग धीरेधीरे कम हो कर समाप्त हो जाता है.

– एसएमएस का ओआरएस

• लक्षण :  घर में, औफिस में, रास्ते में, बस में, पार्टी में या एकांत में मोबाइल पर उंगलियां चलाते हुए देख सकते हैं इस रोग से ग्रस्त व्यक्तियों को. इन का स्लोगन है ‘उंगली पर है सारा जमाना.’

• कारण :  अपनी छोटीछोटी चीजों के लिए फोन पर बातें करना इन्हें पसंद नहीं होता और मैसेज के सहारे वे अपना हालेदिल बयान करते हैं.

• बचाव :  ‘टौकोसिन’ नामक वैक्सीन इस रोग के लिए  असरकारी व प्रभावकारी साबित हो सकती है.

– चैटिंग चैंप

• लक्षण :  इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति का किसी भी कार्य में मन नहीं लगता. वह बाहरी दुनिया व समाज से कटाकटा रहता है. इस के लिए चैटिंग बिना ‘जग सूनासूना लागे…’ वाली स्थिति रहती है.

• कारण :  इस रोग के रोगी थोड़े शर्मीले होते हैं जो बोल कर नहीं, बल्कि अपने मनोभावों को चैटिंग के जरिए ही बयान कर सकते हैं, जो धीरेधीरे लत बन जाती है और यह लत कब आदत बन कर इस महारोग में तबदील हो जाती है, इस का पता ही नहीं लग पाता है.

• बचाव :  इस रोग से बचाव के लिए भी ‘टौकोसिन’ नामक वैक्सीन असरकारी साबित हो सकती है.

हमारे कई शोधकर्ता अभी भी इस दिशा में नएनए शोध कर रहे हैं जिन का खुलासा निकट भविष्य में होने की पूरीपूरी संभावनाएं हैं. जय इंटरनैट, जय इंटरनैट…

पत्नी के 7 मूलभूत अधिकार

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शादी के मंडप पर वरवधू सात फेरे और सात वचन लेते हैं जिस का लब्बोलुआब यह रहता है कि वे एकदूसरे के प्रति ताउम्र निष्ठा रखेंगे, एकदूसरे का ध्यान रखेंगे, सात जन्मों तक साथसाथ रहेंगे. यह अलग बात है कि शादी के 7 माह बाद ही उन में खटपट होने लगती है. दिलचस्प यह है कि इस खटपट को कानून ने ध्यान में रखा है. यदि पहले 7 वर्षों में किसी ब्याहता की मौत किसी भी कारण से होती है तो उस की जांच इस एंगल के आधार पर अवश्य की जाती है कि कहीं उस की मौत का कारण पति या उस की ससुराल वाले तो नहीं हैं. कानून कित्ता दूरदर्शी होता है.

लोग केवल सात फेरों, सात वचनों व सात जन्मों के साथ की ही बात करते हैं, वे असल बात भूल जाते हैं कि पत्नी के पहले ही दिन से सात अधिकार और हो जाते हैं. मूलभूत अधिकार केवल संविधान ने न?ागरिकों को ही नहीं दिए हैं, हमारा समाज संविधान से भी ज्यादा दूरदर्शी व ताकतवर है. उस ने पत्नी को प्रथम दिवस ही 7 मूलभूत अधिकार दे दिए हैं. इन्हें ब्याह के बाद के डैरिवेटिव अधिकार भी कह सकते हैं. ये पत्नी होने पर पदेन उस के बटुए में आए अधिकार हैं और कुलमिला कर इन 7 अधिकारों का आउटकम यह होता है कि पति अधिक अधिकार में हो जाता है केवल पत्नी के.

पहला अधिकार :  पति अपना दिमाग आले में ताले में रख दें, अब हर छोटीबड़ी बात में दिमाग पत्नी का चलेगा. पति के दिमाग का अब कोई उपयोग नहीं है. हां, यह जड़ न हो जाए, इसलिए 6 माह में एक बार निकाल कर उस का उपयोग करने की अनुमति होगी और यह भी उस की हां में हां मिलाने में. वैसे, अब वह जड़ ही रहे तो ज्यादा बेहतर होगा. हां, आजकल डिजिटल लौकर आ रहे हैं तो पति अपने दिमाग को डिजिटाइज कर के यहां भी रखवा सकता है. मतलब यह है कि आप अपने को बुद्धिमान समझने की गलतफहमी दिमाग से निकाल दें भले ही आप उच्चकोटि के वैज्ञानिक हों या कोई आला अधिकारी. घर में तो अब एक ही महान बुद्धिमान रहेगा.

दूसरा अधिकार :  पत्नी के रिश्तेदार पति से ज्यादा अहम हैं. ब्याह के बाद पति के रिश्तेदारों से ज्यादा बड़े व अहम पत्नी के रिश्तेदार होते हैं, इस पर कोई अन्यथा वहम मन में न पाले. यह अधिकार पत्नी से कोई छीन नहीं सकता है. यदि पति का भाई या पिता घर आएं तो वह काम से छुट्टी न ले वरना उस की छुट्टी हो सकती है? लेकिन उस की छुट्टी यहां भी हो सकती है यदि उस ने यह घुट्टी न पी हो कि साले या उस के ससुरजी के आने पर उसे दफ्तर या अपने कामकाज को तुरंत तिलांजलि दे देनी है वरना उस की इज्जत का फालूदा बन उस की श्रद्धांजलि सभा हो जाएगी. यह पत्नी के मूलभूत अधिकार के तहत पति को निभाना ही है.

तीसरा अधिकार :  अब आप का बातबात पर अपनी खिंचाई करवाने का अधिकार रहेगा. बात कुछ भी हो सकती है, दफ्तर से आधे घंटे ही सही बिना काम के देर कैसे हुई, सब्जी, फलफूल लाना कैसे भूल गए, दवा कैसे भूल गए. वह बातबात में आप को गरिया भी सकती है और आप को इस का प्रतिकार नहीं करना है. यदि वह गलत है तो भी आप को चुप रहना है और यदि आप सही हैं तो भी आप को चुप ही रहना है. यही दांपत्य जीवन की सफलता का राज है.

चौथा अधिकार :  पत्नी के पांव पांव और पति के पैर, मूड तो पत्नी का ही माने रखेगा. पति को अब इश्क, जब पत्नी का मूड हो, तब करना होगा. उस के मूड का ध्यान रखना होगा. यदि वह बोलेगी कि बैठ जाओ तो बैठ जाना चाहिए, यदि वह बोले कि खड़े हो जाओ तो खड़े हो जाना होगा. मूडीज देशों की अर्थव्यवस्था का मूड बताती है लेकिन पत्नी का मूड इश्क के मूड के बारे में बताता है.

5वां अधिकार :  सालभर के अंदर आप का कोई ऐसा दोस्त नहीं रहेगा जिसे कि आप जिगरी दोस्त कह सकें. यदि दोस्ती करनी हो तो पत्नी से ही करनी होगी. वही सब से अच्छी दोस्त होगी. बचपन की दोस्ती भूल जाएं, जवानी की भूल जाए, सब भूल जाएं. दोस्तों को एकएक कर के दूध से मक्खी की तरह निकाल दें, इसी में भलाई है. पत्नी तशरीफ लाई हैं तो दोस्त अब जीवन की छांछ हैं और पत्नी मलाई.

छठा अधिकार :  अब आप गलतियों के पिटारे रहोगे. बातबात में आप की गलतियां ढूंढ़ी जाएंगी और आप को सिर झुका कर सब चुपचाप सहन करना है, जैसे कि गधा सदियों से करता आया है. आप का काम सिर नीचा करना है और उस का अधिकार है कि सिर ऊंचा कर के आप की नुक्ताचीनी कर आप को गधे से भी नीचे ले आए.

7वां अधिकार : अपनी हौबी को गोली मार दें. यदि आप की कोई ऐसी हौबी है जोकि पत्नी की नहीं है तो आप को पत्नी से पहले कंसल्ट करना पड़ेगा. यदि वह आज्ञा देगी तभी आप उसे जारी रख पाएंगे वरना तो घरगृहस्थी के कारण उसे आप को बायबाय करना होगा, चाहे यह लेख लिखना हो, खेल हो या कुछ भी हो यह उस की हौबी होगी कि वह आप की हौबी के लिए अनुमति देती है कि नहीं. जब सिद्धू राजनीति के लिए कौमेडी शो छोड़ सकता है तो आप खुद की पत्नीजी के लिए अपनी एक सड़ी सी हौबी के लिए काहे को अड़ी का विचार मन में रखते हो, हबी जी.

अब आप ने पत्नी के मूल अधिकार तो सुन ही लिए, तो मैं यह कह सकता हूं कि ये 7 अधिकार, वैसे, आप की कुलमिला कर भलाई के लिए ही हैं. सो, भरसक इन अधिकारों के एबसोल्यूट उपयोग में पत्नी की मदद करें, आप की जिंदगी एक अदद जिंदगी बन कर रह जाएगी. वैसे मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि आप पूरा कोऔपरेट कर रहे हैं तभी तो साथ बने हुए हैं. और आप दफ्तर में भी टोटल सबऔर्डिनेशन के ही कारण अच्छे मातहत माने जाते हैं तभी तो समय पर पदोन्नति मिलती है तो पत्नी का भी मातहत ही तो बनने की बात गंगू कर रहा है. इसी में तो दांपत्य जीवन के नित सुकून, सुख, आनंद रूपी पदोन्नति के अवसर छिपे हैं.

परिवारवाद और लोकतंत्र

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राहुल गांधी ने कांग्रेस पर खासी पकड़ बना ली है. गुजरात के चुनावों में जीत तो नहीं मिली पर हार अपमानजनक न थी. राजस्थान के उपचुनावों में कांग्रेस को मिली भारी सफलता ने राहुल में विश्वास की गोली का काम किया है.

जब राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने थे तो आम जनता या कांग्रेसियों को आपत्तियां होतीं, तो बात कुछ गंभीर होती पर यहां तो सारी आपत्तियां भारतीय जनता पार्टी को थीं जो कुछ अजीब लग रहा है. यह तो ठीक है कि हिंदू धर्म की खराब परंपराओं को निभाने में दक्ष भाजपा हर दूसरे के निजी मामले में टांग अड़ाने का मौलिक हक रखती है पर चोरचोर मौसेरे भाई होते हैं और एकदूसरे को तो बख्शते ही हैं.

भाजपा आज देश की बड़ी नहीं, बल्कि बहुत बड़ी पार्टी है, उसे कांग्रेस जैसी छोटी पार्टी से डर नहीं लगना चाहिए और उसे अपने हिसाब से जीने का हक देना चाहिए पर आदत से मजबूर महान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर झुमरीतलैया की कच्ची बस्ती के मंदिर के पुजारी तक राहुल पर कमैंट करते रहे हैं व लोकतंत्र की हत्या होने का बेजा राग अलापते रहे हैं.

कांग्रेस जेबी पार्टी है, इस में शक नहीं है पर यह फिर भी लोगों को उसी तरह मान्य है जैसे 15वीं शताब्दी के मामलों को सिर पर उठाए चल रही भारतीय जनता पार्टी मान्य है. जब आप के चेहरे पर खुद कालिख पुती हो तो दूसरे के चेहरे के निशान दिखाना बड़प्पन नहीं, खीझ जाहिर करता है.

राहुल गांधी से भाजपा भयभीत रही है, यह सच है. वर्ष 2014 से पहले भाजपाइयों का आक्रमण सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह पर इतना नहीं था जितना राहुल गांधी पर था. शायद उन की रणनीति थी कि यदि राहुल गांधी को लगातार निशाने पर रखा जाएगा तो वे घबरा कर मैदान छोड़ देंगे. अफसोस यह है कि हिंदू समाज सुधारकों की तरह राहुल गांधी भी कट्टरपंथियों का मुकाबला करते रहे.

पार्टियों में लोकतंत्र एक आदर्श व्यवस्था है पर दुनियाभर में इस के नुकसान भी हुए हैं. आज अमेरिका में इस आंतरिक लोकतंत्र के कारण न डैमोक्रेटिक पार्टी में, न रिपब्लिकन पार्टी में सही नेतृत्व है. इंगलैंड की कंजर्वेटिव पार्टी व लेबर पार्टी दोनों, नेताओं के अभाव से ग्रस्त हैं. फ्रांस के नएनवेले राष्ट्रपति को अपनी नईनवेली पार्टी से काम चलाना पड़ रहा है. जरमनी की चांसलर एंजेला मर्केल की धाक यूरोप व अमेरिका की राजधानियों में तो है पर वोटरों के दिलों में नहीं.

परिवारवाद आदर्श नहीं है पर इस के पर्याय शायद कम हैं. राजनीतिक माहौल में पले युवा सफल नेता बन जाते हैं क्योंकि उन के सैकड़ों से संबंध होते हैं. भारतीय जनता पार्टी में दूसरीतीसरी पीढ़ी के दसियों नेता ऐसे हैं जिन के पुरखे राजनीति में थे और राजनीति ही उन का मुख्य व्यवसाय है. लोकतंत्र परिवारों के सही लोगों को मान्यता देता है और उन पर आपत्ति करना निरर्थक सा है क्योंकि जब भी परिवार नहीं होता, ‘टीना’ फैक्टर यानी ‘देयर इज नो अल्टरनेटिव’ दिखने लगता है.

भारतीय जनता पार्टी की परेशानी यह है कि उस के पास आज नरेंद्र मोदी का पर्याय नहीं है जबकि कांग्रेस के पास राहुल गांधी जैसा पर्याय है.

सैक्स वन वे नहीं, जानिए कैसे उबरें इस उलझन से

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शारीरिक संबंधों में अनावश्यक सहना या अपनेआप समय गुजरने के साथ उन में तबदीली हो जाने की गुंजाइश मान कर चलना भ्रम है. यह इन संबंधों के सहज आनंद को कम करता है. कुछ महिलाओं ने बताया कि उन्हें पति की आक्रामकता पसंद नहीं आती थी. लेकिन लज्जा या संकोचवश कुछ कहना अच्छा नहीं लगता था. कुछ महिलाओं का कहना है कि पति को खुद भी समझना चाहिए कि पत्नी को क्या पसंद आ रहा है, क्या नहीं. मगर इस पसंदनापसंद के निश्चित मानदंड तो हैं नहीं, जिन से कोई अपनेआप ही समझ जाए और आनंद के क्षण जल्दी और ज्यादा मिल जाएं.

एक महिला ने बताया कि उस का पति सुहागरात वाले दिन से ही अश्लील वीडियो देख कर उस के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाता था. यह सिलसिला शादी के कई साल बाद तक चलता रहा. अगर वह इस का विरोध करती तो पति उसे धमकियां देता. शर्म के कारण वह अपने मातापिता को इस बारे में बता नहीं पाती थी. इस दौरान उसे शारीरिक तौर पर परेशानी भी शुरू होने लगी. उस के मुताबिक, अप्राकृतिक संबंध से होने वाली परेशानी के बारे में पति को बताने पर भी वह नहीं माना. वह लगातार ऐसा करता रहा. शिकायत करने पर वह मारता भी. उस महिला के मुताबिक बाकी समय तो उस का पति सामान्य रहता था, लेकिन सहवास के समय वह हैवान बन जाता और लगभग रोज ऐसा करता. मजबूर हो कर उसे पुलिस स्टेशन में शिकायत करनी पड़ी.

भावना कहती है, ‘‘मैं कुछ समय पति की आक्रामकता बरदाश्त करती रही. हनीमून के बाद कहने की सोची पर हिम्मत नहीं जुटा पाई. मगर जब यह आक्रामकता थोड़ी और बढ़ने लगी तो कुछ महीनों बाद मुझे बात करनी ही पड़ी. उन्हें मेरा बात करना अच्छा नहीं लगा. हमारे संबंध कुछ समय के लिए प्रभावित हुए. पति बारबार ताना मारते. यह सच है कि यदि मैं ने समय पर उन से अपनी बात कह दी होती तो ऐसी नौबत नहीं आती.’’

रमा कहती है, ‘‘मैं ने तो पहली रात में ही पति से कह दिया कि यह अननैचुरल वाली आदत मुझे पसंद नहीं. इस पर पति का कहना था कि धीरेधीरे पड़ जाएगी. मगर मैं ने स्पष्ट कह दिया कि हम इंसान हैं, जानवर नहीं. फिर क्या था. 4-5 दिनों में सब ठीक हो गया. मैं जानती हूं इस प्रकार की आक्रामकता को बरदाश्त करना कितना कठिन होता है. इस से सैक्स बोझिल हो जाता है. खुल कर बोलने से न केवल अप्रिय स्थितियां सुधरती हैं, बल्कि अच्छी स्थितियों के लिए भी माहौल तैयार होता है.’’

सैक्स को ले कर जितने आतुर मर्द रहते हैं उतनी महिलाएं भी होती हैं. हां यह बात अलग है कि वे इस का जिक्र कभी किसी से नहीं करती हैं. बात अगर स्पैशल रात की हो तो मर्दों से ज्यादा महिलाओं में ऐक्साइटमैंट होता है. यह कहानी सिर्फ हीरो का इंतजार करती हीरोइन की नहीं, बल्कि हर उस लड़की की है जो बेसब्री से इंतजार करती है.

कोई रिश्ता परफैक्ट नहीं

सच्चाई यह है कि कोई भी रिश्ता परफैक्ट नहीं होता. यदि आप यह सोचती हैं कि रिश्ते में सब कुछ आप की मरजी के अनुसार या किसी फिल्मी कहानी की तरह होना चाहिए, तो चोट लगनी लाजिम है. हर रिश्ता अलग होता है. यही नहीं हर रिश्ते को आप के प्यार, समर्पण, श्रम और साथ के खादपानी की जरूरत होती है. कई बार रिश्ता टूटने की वजह बेमानी ही होती है.

वह हमेशा सही बातें करेगा

ऐसा नहीं होगा और न ही आप उस से ऐसी उम्मीद रखें. वह परफैक्ट नहीं है और न ही वह किसी रोमानी फिल्म का हीरो है, जो हमेशा सही और अच्छी बातें ही करेगा. वह भी इंसान है और आम इंसानों की तरह वह भी गलतियां करेगा. वह ऐसी बातें कर सकता है, जो उसे नहीं करनी चाहिए.

और्गैज्म

पति हो या पत्नी, दोनों में से किसी भी एक का तरीका यदि आक्रामक व नैगेटिव हो तो उस के भावों पर ध्यान देना चाहिए. बहुत सी पत्नियां अपने पति से कहतीं कि तुम स्वार्थी हो, तुम्हें सिर्फ अपने आनंद की पड़ी होती है, तुम्हें मेरी परवाह नहीं. इस का सीधा मतलब है अभी उस का और्गैज्म पर पहुंचना बाकी है या आप उस के और्गैज्म पर पहुंचने की परवाह नहीं करते. जल्दीजल्दी और बारबार कही गई बात चिढ़ाने और सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली हो सकती है.

इसलिए जब भी जितना कुछ कहा जाए वह किया भी जाए. तभी वह सार्थक और असरदार बदलाव लाने वाला होता है. निजी संबंधों को कहनेसुनने की कुशलता सिर्फ बैडरूम तक ही सीमित नहीं रहती. वह जीवन में घरबाहर भी सार्थक बातचीत का सिस्टम पैदा करती है और उसे बढ़ावा देती है.

सैक्स कोरी क्रिया नहीं, एक खूबसूरत कला है. इसे सदियों से काम कला का स्थान प्राप्त है. इस में हर बार कुछ नया, कुछ अनोखा किए जाने का स्कोप रहता है. पतिपत्नी के रिश्ते में प्यार और सैक्स दांपत्य की इमारत को खड़ा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मजबूत पिलर हैं.

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