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सुनिधि चौहान को नये साल पर मिला बेशकीमती तोहफा

अपनी गायकी से लोगों के दिलों पर राज करनेवाली बौलीवुड की पौपुलर सिंगर सुनिधि चौहान के लिए नया साल सौगात लेकर आया है. उन्होंने एक जनवरी यानी नये साल के मौके पर मुंबई के सूर्या अस्पताल में शाम 5.20 बजे एक बेटे को जन्म दिया है.

सुनिधि की गायनोकोलोजिस्ट रंजना धानू के मुताबिक, “बेबी और मां दोनों स्वस्थ हैं. बता दें, सुनिधि पिछले पांच महीनों से लाइमलाइट से दूर थीं. सुनिधि आखिरी बार डब्लिन स्क्वैयर में एक शो के दौरान नजर आई थीं, उस वक्त वे प्रेगनेंसी के दूसरे ट्राइमेस्टर में थीं. इस लाइव परफौरमेंस में सुनिधि को देख औडियंस इतने प्रभावित हुए थे कि सभी ने उन्हें स्टैंडिंग ओवेशन दिया था.

 

 

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बता दें कि दो साल तक एकदूसरे को डेट करने के बाद सुनिधि और म्‍यूजिक कंपोजर हीतेश सोनिक ने 24 अप्रैल 2012 को एक दूसरे से शादी कर ली थी. दोनों की शादी मुंबई में एक छोटे से इवेंट के दौरान हुई थी. 14 अगस्‍त 2017 को अपने 34वें बर्थडे के मौके पर सुनिधि ने अपने प्रेग्‍नेंसी की खुशखबरी दी थी.

बता दें कि सुनिधि चौहान की हीतेश से दूसरी शादी है. इससे पहले उन्‍होंने मात्र 18 साल की उम्र में उनकी शादी कोरियेाग्राफर और निर्देशक बौबी खान से की थी. बताया जाता है कि उनके घरवाले इस शादी के लिए बिल्कुल राजी नहीं थे इसलिए दोनों ने गुपचुप तरी‍के से शादी की थी और इस शादी में सिर्फ क्‍लोज फ्रेंड्स ही शामिल हुए थे. हालांकि, यह रिश्ता ज्यादा समय तक टिक न सका और 2003 में इन्होंने तलाक ले लिया. बौबी से तलाक लेने के 10 साल बाद उन्होंने दोबारा शादी की.

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सुनिधि ने अपने करियर की शुरुआत 4 साल की छोटी सी उम्र में की थी. उन्होंने कई सिंगिंग रियलिटी शोज में हिस्सा लिया, हालांकि उनके हुनर को टीवी एंकर तब्बसुम ने पहचाना. उन्होंने सुनिधि के माता-पिता को मुंबई आने के लिए कहा. इसके बाद सुनिधि ने दूरदर्शन के रियलिटी शो ‘मेरी आवाज सुनो’ में हिस्सा लिया जिसके बाद शो की विनर रहीं.

सुनिधि ने ‘रुकी रुकी’, ‘डांस पे चांस’, ‘कमली’, शीला की जवानी’, ‘इश्क सूफियाना’, ‘बीड़ी जलाइ ले’, ‘देसी गर्ल’, ‘भागे रे मन’ जैसे कई चर्चित गाने गाये हैं. हिंदी गानों के साथ-साथ मराठी, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, पंजाबी, बांग्ला, असमिया, नेपाली, उर्दू में भी गीत गा चुकी हैं. वह मशहूर पार्श्वगायिकाओं में शुमार हैं. सुनिधि जितना अच्छा गाती हैं, उतनी ही अच्छी दिखती हैं. वह फैशनिस्टा आइकौन भी हैं, उन्होंने साल 2013 में एशिया की ‘टौप 50 सेक्सिएस्ट लेडीज’ में भी अपनी जगह बनाई थी.

कौन सा होम लोन रहेगा आपके लिए बेहतर? यहां जानें

घर-जमीन की लगातार बढ़ती हुई कीमत की वजह से अब लोगों को घर या जमीन खरीदने के लिए होम लोन का सहारा लेना पड़ रहा है. अगर आपको भी घर खरीदने के लिए ऐसे ही किसी होम लोन की आवश्यकता है तो आपको अपने आर्थिक लक्ष्य के आधार पर एक सही लोन चुनना होगा. ग्राहकों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बैंको और फाइनेंस कंपनियों ने अलग-अलग तरह के लोन देना शुरू किया है. तो आइए आज हम बाजार में मौजूद तरह-तरह के होम लोन पर एक नजर डालते हैं.

पहले से मंजूर किए गए होम लोन

कुछ होम लोन, बैंक द्वारा पहले से ही मंजूर किए गए होते हैं. इस तरह के लोन आपके कर्ज चुकाने के इतिहास, आपकी आमदनी और आपके क्रेडिट स्कोर के आधार पर दिए जाते हैं. लेकिन इस तरह के लोन, एक निर्धारित समय में ही दिए जाते हैं. इस लोन की प्रक्रिया में आम तौर पर 48 घंटे लगते हैं. पहले से मंजूर किए गए लोन आमतौर पर कम ब्याज पर मिलते हैं, लेकिन इसका लाभ उठाने के लिए कुछ फीस देनी पड़ती है.

निश्चित ब्याज दर वाले होम लोन

इस तरह के होम लोन में बाजार में होने वाले उतार-चढ़ाव का कोई असर नहीं पड़ता और लोन चुकाने की सम्पूर्ण अवधि के दौरान ब्याज दर एक समान ही रहता है. इस पर हर महीने निश्चित परिमाण में लोन की ईएमआई चुकाने से बजट को ठीक रखने और आगे की प्लानिंग करने में मदद मिलती है. इस तरह के लोन से आर्थिक सुरक्षा भी मिलती है. लेकिन इसमें एक खराबी है, निश्चित ब्याज दर पर मिलने वाले होम लोन का ब्याज दर, अनिश्चित या अस्थायी ब्याज दर वाले होम लोन की तुलना में आम तौर पर काफी अधिक होता है.

अस्थायी ब्याज दर वाले होम लोन

अस्थायी ब्याज दर वाले होम लोन बाजार में होने वाले उतार-चढ़ाव के कारण बदलते ब्याज दरों के अधीन होते हैं. इसमें दो चीजें शामिल होती हैं, मूल ब्याज दर और अस्थायी घटक.  मूल दर में परिवर्तन होने पर अस्थायी दर में परिवर्तन होता है. यदि आप बढ़ते मुद्रास्फीति परिदृश्य में होम लोन लेना चाहते हैं तो आपको अस्थायी ब्याज दर वाले होम लोन से दूर ही रहना चाहिए क्योंकि ब्याज दरों की अनिश्चितता, आपकी अन्य आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में बाधा बन सकती है.

संयुक्त होम लोन

यह एक ऐसा लोन है जिसे एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा अर्थात परिवार के किसी सदस्य के साथ मिलकर लिया जा सकता है. संयुक्त होम लोन में पति/पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन आदि शामिल हो सकते हैं. लोन का भुगतान दोनों के अकाउंट से होता है और लोन चुकाने में देरी होने या चूक हो जाने पर इसके लिए दोनों जिम्मेदार होते हैं. संयुक्त होम लोन देते समय, बैंक दोनों सदस्यों की आमदनी पर विचार करते हैं और लोन का टैक्स लाभ, लोन लेने वाले दोनों सदस्यों को मिलता है.

होम इम्प्रूवमेंट लोन

पर्सनल लोन की तुलना में कम प्रोसेसिंग फीस और कम ब्याज दर पर मिलने के कारण, होम इम्प्रूवमेंट लोन, घर की मरम्मत और रखरखाव करने के लिए पैसों की तंगी होने पर काफी मददगार साबित हो सकता है. इसलिए यदि आपको घर की मरम्मत कराने या उसका नवीकरण करने के लिए पैसों की जरूरत है तो आप होम इम्प्रूवमेंट लोन ले सकते हैं. एक साल तक समय पर लोन चुकाने वाला कोई भी व्यक्ति इस तरह का लोन ले सकता है, लेकिन इस लोन की रकम का इस्तेमाल सिर्फ घर की मरम्मत या नवीकरण के लिए ही करना होता है.

स्मार्टफोन खरीदने के बाद करना ना भूले ये काम

क्या आपने ने अभी अभी नया स्मार्टफोन खरीदा है. लेकिन अपने उसकी सिक्योरिटी के लिए कोई ऐप या कोई नया फीचर नहीं अपनाया है, तो हमारी ये खबर आपके बड़े काम आ सकती है. हम आपको कुछ ऐसे उपाय बताने जा रहे हैं जिसे हर किसी को नया फोन खरीदने के बाद अपनाना  चाहिए. तो आइये जाने कि फोन खरीदने के बाद  आपको कौन सा जरूरी काम करना है.

डिस्प्ले की सुरक्षा

अक्सर ऐसा होता है कि प्रीमियम स्मार्टफोन तक का डिस्प्ले टूट जाता है. अपने स्मार्टफोन की सुरक्षा के लिए उस पर अच्छी क्वालिटी का टेम्पर्ड ग्लास लगवाएं. सामान्य स्क्रीन गार्ड फोन की स्क्रीन को सिर्फ स्क्रैच आदि से बचाता है, लेकिन फोन गिर जाए तो उसकी स्क्रीन को टूटने से टेम्पर्ड ग्लास ही बचाता है.

स्मार्टफोन का बीमा कराएं

स्मार्टफोन का भी बीमा कराया जा सकता है. आजकल कई कंपनियां यूजर्स को स्मार्टफोन का बीमा औफर कर रही हैं. इसमें फिजिकल डैमेज, लिक्विड डैमेज और किसी मकैनिकल खराबी के लिए बीमा शामिल है. अगर कभी समार्टफोन में इस तरह की दिक्कतें आ जाएं तो इससे काफी फायदा होता है.

ऐपलौक (AppLock) करें इंस्टौल

आप कभी भी नहीं चाहेंगे कि कोई आपके निजी मेसेज, फोटो और दूसरे डेटा को देखें. इसके लिए आप ऐपलौक का इस्तेमाल कर सकते हैं. इसे एंड्रौयड फोन के लिए गूगल प्लेस्टोर से डाउनलोड किया जा सकता है. मोबाइल में मौजूद जिस भी ऐप, फोटो गैलरी आदि को आप चाहेंगे, इस ऐप की मदद से लॉक कर सकेंगे.

एंटी-मालवेयर सौफ्टवेयर का इस्तेमाल

यह जरूरी है कि आप अपने स्मार्टफोन की स्क्रीन की सुरक्षा की तरह ही उसके डेटा की सुरक्षा भी करें. नया फोन लेते ही सबसे पहले उसमें एंटी वायरस और डेटा सिक्योरिटी सौफ्टवेयर इंस्टौल करें जिससे मोबाइल के महत्वपूर्ण डेटा और दूसरे सौफ्टवेयरों से सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके.

बैक कवर का यूज

मोबाइल की सुरक्षा को लेकर कभी समझौता न करें. अपने स्मार्टफोन की बौडी को स्क्रैच, निशान और डेंट आदि से बचाने के लिए अच्छी क्वालिटी का बैक कवर खरीदें. आजकल बाजार में फैशनेबल और बढ़िया दिखने वाले कवर आसानी से उपलब्ध हैं. जरूरत के हिसाब से बैक कवर या फ्लिप वाले कवर चुन सकते हैं.

फोन चोरी होने पर पता लगाएं

स्मार्टफोन के चोरी होने या खोने पर काफी दिक्कत होती है. इस दिक्कत से बचने के लिए सुनिश्चित करें कि आपके एंड्रायड स्मार्टफोन पर एंड्रायड डिवाइस मैनेजर एक्टिवेट हो. इससे आपको स्मार्टफोन की लोकेशन पता लगाने में मदद मिलेगी.

इसके लिए अपने स्मार्टफोन की गूगल सेटिंग्स (Google Settings) में जाएं. स्क्रौल डाउन करें और आपको सिक्योरिटी (Security) का विकल्प नजर आएगा. इसे टैप करें और एंड्रायड डिवाइस मैनेजर (Android Device Manager) पर जाएं. रिमोटली लोकेट दिश डिवाइस (Remotely locate this device) और अलाव रिमोट लौक एंड इरेज औन और औफ (Allow remote lock and erase on or off) को टिक कर दें. इसमें यह भी ध्यान रखें की बात है कि लोकेशन (Location) की सेटिंग में जाकर एक्सेस टू माई लोकेशन (Access to my location) को भी औन करके रखना है. इसके अलावा फोन में गूगल साइन इन होना चाहिए.

 

चुनावों पर हावी धर्म : क्या धर्मजनित पार्टी ही है देश की प्राथमिकता

गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव जीत कर भारतीय जनता पार्टी ने साबित कर दिया है कि नोटबंदी और जीएसटी की चोटों के बावजूद देश को धर्मजनित पार्टी की ही प्राथमिकता है. 2014 में भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदी ने भगवा झंडे पर लेकिन भगवा रंग के बगैर विकास व स्वच्छ सरकार बनाने के नाम पर जिताया था. पर 2017 के आतेआते इन दोनों वादों की कलई धुल गई और असल कट्टरवादी भाजपा सामने आ गई जिस में मंदिर, पूजापाठ, वर्णव्यवस्था, मुसलिम विरोध पहली जरूरतें हैं. जनता ने ऐसी ही पार्टी को सिर पर रखा हुआ है.

लोकतंत्र हो या राजतंत्र, आखिरकार शासकों को जनता की सहमति तो चाहिए ही होती है. जनता को नाराज कर के कोई भी शासक लंबे समय तक राज नहीं कर पाता. तानाशाह भी कुछ न कुछ ऐसा करते रहे हैं जिस से जनता को लगता रहे कि शासक असल में उसी का भला सोच रहा है.

गुजरात विधानसभा के चुनावों में राहुल गांधी ने जम कर नोटबंदी और जीएसटी पर तीर चलाए थे. अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल ने जातियों के साथ होने वाले भेदभाव व उन की आर्थिक दुर्दशा के सवाल उठाए थे. इन चारों को धर्म से लेनादेना न के बराबर था. पर इन की नहीं चली. भारतीय जनता पार्टी का धार्मिक तूफान सब को भगवाई रंग में भिगोता चला गया और वे चारों आज असहाय से खड़े हैं.

बस, आशा की किरण इस में है कि भगवाई भूकंप के गढ़ में 22 सालों बाद भारतीय जनता पार्टी को एक मजबूत टक्कर मिली है. इस से पहले कई विधानसभा और लोकसभा चुनावों में टोकनबाजी ही होती थी. कांग्रेस न के बराबर खड़ी होती थी, यह मान कर कि वह तो हारेगी ही. इस बार एकएक सीट के लिए भाजपा को लड़ना पड़ा है. जो 7 सीटों की बढ़त भाजपा को मिली है वह इतनी कम है कि चुनावी गिनती के समय कितनी ही सीटों पर ऐसा लगता था कि जनता ने कांग्रेस को ही वोट दिया है.

गुजरात का इलाका दशकों से कट्टर और कट्टर विरोधियों का गढ़ रहा है. एक तरफ यहां के ऊंची जातियों के लोग अपनेआप को धर्मश्रेष्ठ मनवाने की कोशिश करते हुए भक्ति रस में अपने को डुबोते रहे हैं तो दूसरी ओर वर्णव्यवस्था की बंदिशों को तोड़ने वाली कर्मठ जातियां धर्म के सहारे ही अपने वजूद को बचाने की कोशिश करती रही हैं. यहां के लोगों की अपनी जो भी समृद्धि है, उस के लिए वे कर्मठता को कम, पूजापाठ को ज्यादा श्रेय देते रहे हैं.

इसी को राजनीति में पहले रामधुन से भुनाया गया है और अब मंदिर वहीं बनाएंगे से. 2017 के चुनावों में राहुल गांधी समेत सभी नेताओं को राज्य के सभी मंदिरों में मत्थे टेकने पड़े. राज्य के बड़े कारखानों, व्यापारियों की मंडियों, बांधों, नहरों, बंदरगाहों की चर्चा कम रही. नरेंद्र मोदी ने खुद बुलेट ट्रेन की बात करनी बंद कर दी और राहुल गांधी कितने हिंदू हैं, इस पर चर्चा चलवा दी. यह गुजराती मानस के दिल को छूने वाली बात है जो दशकों से अपने से ऊंची जाति के पायदान पर खड़े होने के चक्कर में ज्यादा लगा रहता है बजाय सफल व्यापार को सरल बनवाने के.

यह व्यापारी वर्ग जम कर जीएसटी और नोटबंदी का विरोध कर रहा है पर वोट देते समय उसे फिर अपनी पहली प्राथमिकता नजर आ गई. नरेंद्र मोदी अपने राज्य में जीत गए, पर हां, 2012 के मुकाबले में 12 सीटों को हार कर, 2014 के लोकसभा चुनावों के आधार पर 65 विधानसभा क्षेत्रों में हार कर. पर जीत वे गए ही हैं और इसी के साथ जीएसटी व नोटबंदी भी जीत गई हैं.

इस जीतहार का अगले सालों पर असर पड़ेगा. राहुल गांधी अब टक्कर की पार्टी खड़ी कर सकेंगे. नरेंद्र मोदी को दूसरे राज्यों के चुनावों की खास तैयारी करनी होगी. अब विकास और स्वच्छ शासन की बातों का भरोसा कम रहेगा. चुनाव धर्म के नाम पर लड़े जाएंगे.

फर्क कथनी और करनी का : सुच्चामल का फर्जी ज्ञान का रायता

सुच्चामल हमारी कालोनी के दूसरे ब्लौक में रहते थे. हर रोज मौर्निंग वाक पर उन से मुलाकात होती थी. कई लोगों की मंडली बन गई थी. सुबह कई मुद्दों पर बातें होती थीं, लेकिन बातों के सरताज सुच्चामल ही होते थे. देशदुनिया का ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता था जिस पर वे बात न कर सकें. उस पर किसी दूसरे की सहमतिअसहमति के कोई माने नहीं होते थे, क्योंकि वे अपनी बात ले कर अड़ जाते थे. उन की खुशी के लिए बाकी चुप हो जाते थे. बड़ी बात यह थी कि वे, सेहत के मामले में हमेशा फिक्रमंद रहते थे. एकदम सादे खानपान की वकालत करते थे. मोटापे से बचने के कई उपाय बताते थे. दूसरों को डाइट चार्ट समझा देते थे. इतना ही नहीं, अगले दिन चार्ट लिखित में पकड़ा देते थे. फिर रोज पूछना शुरू करते थे कि चार्ट के अनुसार खानपान शुरू किया कि नहीं. हालांकि वे खुद भी थोड़ा थुलथुल थे लेकिन वे तर्क देते थे कि यह मोटापा खानपान से नहीं, बल्कि उन के शरीर की बनावट ही ऐसी है.

एक दिन सुबह मुझे काम से कहीं जाना पड़ा. वापस आया, तो रास्ते में सुच्चामल मिल गए. मैं ने स्कूटर रोक दिया. उन के हाथ में लहराती प्लास्टिक की पारदर्शी थैली को देख कर मैं चौंका, चौंकाने का दायरा तब और बढ़ गया जब उस में ब्रैड व बड़े साइज में मक्खन के पैकेट पर मेरी नजर गई. मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि सुच्चामल की बातें मुझे अच्छे से याद थीं. उन के मुताबिक वे खुद भी फैटी चीजों से हमेशा दूर रहते थे और अपने बच्चों को भी दूर रखते थे. इतना ही नहीं, पौलिथीन के प्रचलन पर कुछ रोज पहले ही उन की मेरे साथ हुई लंबीचौड़ी बहस भी मुझे याद थी.

वे पारखी इंसान थे. मेरे चेहरे के भावों को उन्होंने पलक झपकते ही जैसे परख लिया और हंसते हुए पिन्नी की तरफ इशारा कर के बोले, ‘‘क्या बताऊं भाईसाहब, बच्चे भी कभीकभी मेरी मानने से इनकार कर देते हैं. कई दिनों से पीछे पड़े हैं कि ब्रैडबटर ही खाना है. इसलिए आज ले जा रहा हूं. पिता हूं, बच्चों का मन रखना भी पड़ता है.’’

‘‘अच्छा किया आप ने, आखिर बच्चों का भी तो मन है,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

‘‘नहीं बृजमोहन, आप को पता है मैं खिलाफ हूं इस के. अधिक वसा वाला खानपान कभीकभी मेरे हिसाब से तो बहुत गलत है. आखिर बढ़ते मोटापे से बचना चाहिए. वह तो श्रीमतीजी भी मुझे ताना देने लगी थीं कि आखिर बच्चों को कभी तो यह सब खाने दीजिए, तब जा कर लाया हूं.’’ थोड़ा रुक कर वे फिर बोले, ‘‘एक और बात.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, तो वे नाखुशी वाले अंदाज में बोले, ‘‘मुझे तो चिकनाईयुक्त चीजें हाथ में ले कर भी लगता है कि जैसे फैट बढ़ रहा है, चिकनाई तो दिल की भी दुश्मन होती है भाईसाहब.’’

‘‘आइए आप को घर तक छोड़ दूं,’’ मैं ने उन्हें अपने स्कूटर पर बैठने का इशारा किया, तो उन्होंने सख्त लहजे में इनकार कर दिया, ‘‘नहीं जी, मैं पैदल चला जाऊंगा, इस से फैट घटेगा.’’

आगे कुछ कहना बेकार था क्योंकि मैं जानता था कि वे मानेंगे ही नहीं. लिहाजा, मैं अपने रास्ते चला गया.

2 दिन सुच्चामल मौर्निंग वौक पर नहीं आए. एक दिन उन के पड़ोसी का फोन आया. उस ने बताया कि सुच्चामल को हार्टअटैक आया है. एक दिन अस्पताल में रह कर घर आए हैं. अब मामला ऐसा था कि टैलीफोन पर बात करने से बात नहीं बनने वाली थी. घर जाने के लिए मुझे उन की अनुमति की जरूरत नहीं थी. यह बात इसलिए क्योंकि वे कभी भी किसी को घर पर नहीं बुलाते थे बल्कि हमारे घर आ कर मेरी पत्नी और बच्चों को भी सादे खानपान की नसीहतें दे जाते थे.

मैं दोपहर के वक्त उन के घर पहुंच गया. घंटी बजाई तो उन की पत्नी ने दरवाजा खोला. मैं ने अपना परिचय दिया तो वे तपाक से बोलीं, ‘‘अच्छाअच्छा, आइए भाईसाहब. आप का एक बार जिक्र किया था इन्होंने. पौलिथीन इस्तेमाल करने वाले बृजमोहन हैं न आप?’’

‘‘ज…ज…जी भाभीजी.’’ मैं थोड़ा झेंप सा गया और समझ भी गया कि अपने घर में उन्होंने खूब हवा बांध रखी है हमारी. सुच्चामल के बारे में पूछा, तो वे मुझे अंदर ले गईं. सुच्चामल ड्राइंगरूम के कोने में एक दीवान पर पसरे थे. मैं ने नमस्कार किया, तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आई. चेहरे के भावों से लगा कि उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था. हालचाल पूछा, ‘‘बहुत अफसोस हुआ सुन कर. आप तो इतना सादा खानपान रखते हैं, फिर भी यह सब कैसे हो गया?’’

‘‘चिकनाई की वजह से.’’ जवाब सुच्चामल के स्थान पर उन की पत्नी ने थोड़ा चिढ़ कर दिया, तो मुझे बिजली सा झटका लगा, ‘‘क्या?’’

‘‘कैसे रोकूं अब इन्हें भाईसाहब. ऐसा तो कोई दिन ही नहीं जाता जब चिकना न बनता हो. कड़ाही में रिफाइंड परमानैंट रहता है. कोई कमी न हो, इसलिए कनस्तर भी एडवांस में रखते हैं.’’ उन की बातों पर एकाएक मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘लेकिन भाभीजी, ये तो कहते हैं कि चिकने से दूर रहता हूं?’’

‘‘रहने दीजिए भाईसाहब. बस, हम ही जानते हैं. किचेन में दालों के अलावा आप को सब से ज्यादा डब्बे तलनेभूनने की चीजों से भरे मिलेंगे. बेसन का 10 किलो का पैकेट 15 दिन भी नहीं चलता. बच्चे खाएं या न खाएं, इन को जरूर चाहिए. बारिश की छोडि़ए, आसमान में थोड़े बादल देखते ही पकौड़े बनाने का फरमान देते हैं.’’

यह सब सुन कर मैं हैरान था. सुच्चामल का चेहरा देखने लायक था. मन तो किया कि उन की हर रोज होने वाली बड़ीबड़ी बातों की पोल खोल दूं, लेकिन मौका ऐसा नहीं था. सुच्चामल हमेशा के लिए नाराज भी हो सकते थे. यह राज भी समझ आया कि सुच्चामल अपने घर हमें शायद पोल खुलने के डर से क्यों नहीं बुलाना चाहते थे. इस बीच, डाक्टर चैकअप के लिए वहां आया. डाक्टर ने सुच्चामल से उन का खानपान पूछा, तो वह चुप रहे. लेकिन पत्नी ने जो डाइट चार्ट बताया वह कम नहीं था. सुच्चामल सुबह मौर्निंग वाक से आ कर दबा कर नाश्ता करते थे.

हर शाम चाय के साथ भी उन्हें समोसे चाहिए होते थे. समोसे लेने कोई जाता नहीं था, बल्कि दुकानदार ठीक साढ़े 5 बजे अपने लड़के से 4 समोसे पैक करा कर भिजवा देता था. सुच्चामल महीने में उस का हिसाब करते थे. रात में भरपूर खाना खाते थे. खाने के बाद मीठे में आइसक्रीम खाते थे. आइसक्रीम के कई फ्लेवर वे फ्रिजर में रखते थे. मैं चलने को हुआ, तो मैं ने नजदीक जा कर समझाया, ‘‘चलता हूं सुच्चामल, अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘चिकने से परहेज कर के सादा खानपान ही कीजिए.’’

‘‘मैं तो सादा ही…’’ उन्होंने सफाई देनी चाही, लेकिन मैं ने बीच में ही उन्हें टोक दिया, ‘‘रहने दीजिए, तारीफ सुन चुका हूं. डाक्टर साहब को भी भाभीजी ने आप की सेहत का सारा राज बता दिया है.’’ मेरी इस सलाह पर वे मुझे पुराने प्राइमरी स्कूल के उस बच्चे की तरह देख रहे थे जिस की मास्टरजी ने सब से ज्यादा धुनाई की हो. अगले दिन मौर्निंग वाक पर गया, तो हमारी मंडली के लोगों को मैं ने सुच्चामल की तबीयत के बारे में बताया, तो वे सब हैरान रह गए.

‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ एक ने पूछा, तो मैं ने बताया, ‘‘अजी खानपान की वजह से.’’

एक सज्जन चौंक कर बोले, ‘‘क्या…? इतना सादा खानपान करते थे, ऐसा तो नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अजी काहे का सादा.’’ मेरे अंदर का तूफान रुक न सका और सब को हकीकत बता दी. मेरी तरह वे भी सुन कर हैरान थे. सुच्चामल छिपे रुस्तम थे. कुछ दिनों बाद सुच्चामल मौर्निंग वाक पर आए, लेकिन उन्होंने खानपान को ले कर कोई बात नहीं की. 1-2 दिन वे बोझिल और शांत रहे. अचानक उन का आना बंद हो गया.

एक दिन पता चला कि वे दूसरे पार्क में टहल कर लोगों को अपनी सेहत का वही ज्ञान बांट रहे हैं जो कभी हमें दिया करते थे. हम समझ गए कि सुच्चामल जैसे लोग ज्ञान की गंगा बहाने के रास्ते बना ही लेते हैं. यह भी समझ आ गया कि कथनी और करनी में कितना फर्क होता है. सुच्चामल से कभीकभी मुलाकात हो जाती है, लेकिन वे अब सेहत के मामले पर नहीं बोलते.

खाल उधेड़ते प्राइवेट अस्पताल : लूट का अड्डा बनता चिकित्सा जगत

1972 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका के कैनेथ एरो ने 1963 में ही चेतावनी दे दी थी कि स्वास्थ्य सेवा को बाजार के हवाले कर देना आम लोगों के लिए घातक साबित होगा.

इस चेतावनी का दुनियाभर में जो भी असर हुआ हो लेकिन हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं का स्वास्थ्य उद्योग में तबदील हो जाना क्या और कैसेकैसे गुल खिला रहा है, इस की ताजी बानगी बड़े वीभत्स, शर्मनाक और अमानवीय तरीके से बीती 1 दिसंबर को सामने आई.

दिल्ली के शालीमार बाग इलाके में स्थित मैक्स सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल के डाक्टरों ने एक दंपती को उन के जुड़वा बच्चों को पोलिथीन में पैक कर यह कहते थमा दी थी कि ले जाइए, ये दोनों मर चुके हैं.

जानना और समझना जरूरी है कि मैक्स सुपर स्पैशलिटी अस्पताल के डाक्टरों ने किस तरह की लापरवाही और अमानवीयता दिखाई थी जिस ने पूरे देश को झिंझोड़ कर रख दिया था. हालांकि महंगे पांचसितारा प्राइवेट अस्पतालों में होती आएदिन की लूटखसोट का यह पहला या आखिरी मामला नहीं था जिस ने सहज ही कैनेथ एरो की चेतावनी याद दिला दी, बल्कि ऐसा हर समय देश में कहीं न कहीं हो रहा होता है. और डाक्टरों को लुटेरा व हत्यारा तक कहने में लोगों को कोई संकोच या ग्लानि महसूस नहीं होती.

जबकि जिंदा था बच्चा

 शिकायतकर्ता पति या पिता आशीष की मानें तो उस ने 6 महीने की गर्भवती पत्नी वर्षा को उक्त अस्पताल में भरती किया था. भरती करने के बाद मैक्स के डाक्टरों ने गर्भस्थ जुड़वा शिशुओं के जिंदा रहने यानी बचने की संभावना महज 10-15 फीसदी ही बताई थी. निम्न मध्यवर्गीय आशीष यह सुन कर मायूस और परेशान हो उठा.

डरा कर पैसे ऐंठने के भी विशेषज्ञ हो चले डाक्टरों का यह दांव खाली नहीं गया. उन्होंने पुचकारते हुए आशीष से कहा कि खतरा टल सकता है यदि वर्षा को 35-35 हजार रुपए की कीमत वाले 3 इंजैक्शन लगाए जाएं. लगभग 1 लाख रुपए की रकम आशीष के लिए मामूली और गैरमामूली दोनों नहीं थी. पत्नी और बच्चों की सलामती के लिए वह इस बाबत तैयार हो गया तो उक्त 3 इंजैक्शन वर्षा को लगा दिए गए.

ये इंजैक्शन लगने के बाद ही चमत्कारिक ढंग से बच्चों के बचने की संभावना डाक्टरों ने बताई तो आशीष को 1 लाख रुपए खर्च करने का कोई मलाल नहीं हुआ. पैसा हाथ का मैल है, आताजाता रहता है, यह प्रचलित बात आशीष को भी मालूम थी कि जान अगर एक दफा चली जाए तो फिर कुछ नहीं हो सकता.

मैक्स अस्पताल में जाने से पहले वर्षा का नियमित चैकअप पश्चिम विहार इलाके के अट्टम नर्सिंग होम में होता था. जब भी वर्षा यहां आई तब डाक्टरों ने जांच के बाद यही कहा था कि सबकुछ नौर्मल और ठीकठाक है.

इस पर आशीष और वर्षा खुशी से फूले नहीं समाते थे. पहली दफा मांबाप बनने जा रहे नवदंपतियों की तरह उन्होंने होने वाले बच्चों के लिए खिलौने खरीदने भी शुरू कर दिए थे और बैडरूम में बच्चों के हंसते, खिलखिलाते पोस्टर भी लगा लिए थे. वर्षा के मायके वाले भी खुशखबरी सुनने का इंतजार करते अपने रस्मोरिवाज निभाने की तैयारियों में जुटे थे. आशीष और वर्षा की शादी को अभी 3 साल ही हुए थे.

नवंबर के तीसरे हफ्ते में वर्षा फिर से अट्टम नर्सिंग होम गई तो वहां की लेडी डाक्टर स्मृति ने परिवारजनों को मैक्स अस्पताल ले जाने की सलाह दी. उन के मुताबिक, वर्षा के वाटर बेग से लीकेज होने लगी थी.

आशीष या उस के पिता इस चिकित्सकीय भाषा को नहीं समझते थे. उन्हें तो बस वर्षा और होने वाले बच्चों की सलामती से सरोकार था. लिहाजा, वे भागेभागे मैक्स अस्पताल गए और 1 लाख रुपए के इंजैक्शन फिर लगवा लिए. अब खतरा टल गया है, यह बात ये लोग मैक्स जैसे नामी अस्पताल के डाक्टरों के मुंह से सुन कर ही वापस जाना चाहते थे.

खतरा कितना था और था भी या नहीं, यह इन्हें नहीं मालूम था. अस्पताल प्रबंधन के लालच का अंदाजा भी उन्हें कतई नहीं था. पहली दफा महंगे स्टार अस्पताल में इलाज के लिए जाने वाले कम पैसे वालों के साथ ऐसा न हो, तो जरूर बात हैरत की होती.

पहले तो उषारानी नाम की डाक्टर ने इन्हें यह कहते डराया कि बच्चों को जन्म के बाद 12 हफ्तों तक उन्हें नर्सरी में रखना पड़ेगा. हैरानपरेशान आशीष और उस के पिता कैलाश मैक्स अस्पताल के चाइल्ड स्पैशलिस्ट डाक्टर ए सी मेहता से मिले तो उन्होंने उषारानी की बात की पुष्टि करते सधे और कारोबारी ढंग से बताया कि शुरू के 4 दिन बच्चों को नर्सरी में रखने के 1 लाख रुपए प्रतिदिन और बाद में 50 हजार रुपए प्रतिदिन लगेंगे.

इतनी बड़ी रकम इन लोगों के पास नहीं थी. फिर भी, उन्होंने सोचा कि कहीं न कहीं से इंतजाम कर लेंगे. 29 नवंबर को वर्षा की मैक्स में ही अल्ट्रासाउंड जांच हुई थी जिस में बच्चों के पूरी तरह स्वस्थ होने की बात कही गई थी. इस से आशीष और उस के परिवारजनों ने राहत की सांस ली थी.

30 नवंबर को सुबह 7.30 बजे वर्षा ने पहले एक बेटे और फिर 12 मिनट बाद एक बेटी को जन्म दिया. सुबह 8 बजे परिवारजनों को बच्चे देखने की अनुमति मिली पर यह बता दिया गया था कि बेटी मृत पैदा हुई है और बेटा जिंदा है.

इन लोगों ने यह सोचते तसल्ली कर ली कि चलो, एक तो बचा. लेकिन फिर साढ़े 12 बजे के लगभग अस्पताल प्रबंधन की तरफ से बेटे के भी मर जाने की बात कही गई. जल्द ही आशीष के हाथ में 2 पैकेट यह कहते थमा दिए गए कि ये रहे आप के बच्चे.

कल तक जो आशीष अपनी फैमिली कंप्लीट हो जाने की आस लगाए बैठा था, उस का दिल पार्सल बना कर दी गई बच्चों की लाशें देख हाहाकार कर रहा था. उस का तो सबकुछ एक झटके में लुट गया था पर इस वक्त तक उसे यह नहीं मालूम था कि यह बेरहम लुटेरा कोई न दिखने वाला भगवान नहीं, बल्कि वे डाक्टर हैं जिन्हें भगवान के बाद दूसरा दरजा हर कोई देता है.

पैकेटों में पैक अपने नवजात बच्चों की लाशें ले कर आशीष अपने ससुर प्रवीण के साथ टैक्सी में बैठ कर चंदर विहार श्मशान की तरफ चल पड़ा.

कैसे अपने सपनों को दफन किया जाता है, यह उस से बेहतर कोई भी नहीं बता सकता. बीच में रास्ते में मधुबन चौक के पास लाश वाला पैकेट हिला, तो प्रवीण ने कहा, ‘लगता है बच्चा जिंदा है.’

यह हैरतअंगेज बात इस लिहाज से थी कि जिस बच्चे को मैक्स के डाक्टर मरा बता चुके हों वह जिंदा कैसे हो सकता है. आशीष ने इसे वहम समझा और उसे लगा कि गाड़ी हिलने की वजह से पैकेट हिला होगा, इसलिए प्रवीण को ऐसा लगा.

लेकिन बात सच थी. प्रवीण के हाथों में रखा पैकेट वाकई हिल रहा था, लग ऐसा रहा था, मानो बच्चा पांव झटक रहा हो. दोनों ने वक्त न गंवाते पैकेट खोलना शुरू किया जिसे बांधने में कोई लापरवाही नहीं की गई थी. पैकेट 5 परतों में बांधा गया था जिसे खोलने में लगभग 3 मिनट लग गए.

बच्चा वाकई जिंदा था, उसे ले कर वे तुरंत नजदीक के पीतमपुरा स्थित अग्रवाल अस्पताल ले गए. वहां तुरंत बच्चे को भरती किया गया और तुरंत ही उस का इलाज भी शुरू हो गया. अग्रवाल अस्पताल में मौजूद डाक्टर संदीप अग्रवाल ने बच्चे के जिंदा होने की पुष्टि की, साथ ही, यह भी बताया कि इंफैक्शन के चलते उस के बचने की उम्मीद कम है.

6 दिन इलाज हुआ पर बेटा बचा नहीं. इस के बाद सामने आई मैक्स की लारवाही या हैवानियत, कुछ भी कह लें, एक ही बात है. संदीप उस के घर वाले और नातेरिश्तेदार धरनाप्रदर्शन करने लगे तो दिल्ली हिलने लगी. ये लोग इंसाफ के साथसाथ उन 2 डाक्टरों को सजा दिए जाने की मांग कर रहे थे जिन्होंने बच्चे को मृत बता कर उन्हें दफनाने के लिए दे दिया था. इस बाबत आशीष ने शालीमार बाग थाने में एफआईआर दर्ज कराई. पुलिस ने आईपीसी की धारा 308 के तहत मामला दर्ज किया.

मामले ने तूल पकड़ा तो दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने पत्रकारवार्त्ता बुला कर बताया कि इस मामले की गंभीरता से जांच की जाएगी. इस बाबत जांच कमेटी गठित कर दी गई है. उस की रिपोर्ट आते ही कार्यवाही हुई. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मैक्स अस्पताल का लाइसैंस रद्द कर दिया. इस पर दिल्ली मैडिकल एसोसिएशन यानी डीएमए ने एतराज जताते, बल्कि सरकार को धमकी देते, कहा कि अगर मैक्स का लाइसैंस रद्द करने का फैसला वापस नहीं लिया गया तो डीएमए कामकाज ठप कर देगा और डाक्टर्स काम नहीं करेंगे.

मैक्स के हक में डीएमए ने तर्क दिए जिन के माने सिर्फ इतने भर थे कि हम चोरी भी करेंगे और फिर सीनाजोरी भी. बच्चा प्रीमैच्योर था और सरकार ने एक हजार परिवारों की रोजीरोटी पर संकट खड़ा कर दिया है, जैसी बातें आशीष के इस बयान के सामने कुछ भी नहीं थीं कि उस के बच्चे को 3 घंटे इलाज नहीं मिला, उसे किसी सामान की तरह पैक कर दिया गया था जबकि वह जिंदा था.

कानूनन डाक्टरों को काफी छूटें मिली हुई हैं, पर इस मामले में उन की करतूत छिपाए नहीं छिप रही है. न तो चिकित्सकीय दृष्टि से वे खुद को सच साबित कर पा रहे हैं और न ही कानूनी लिहाज से कोई राहत उन्हें मिलने की संभावना दिख रही.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मैडिकल माफिया से एक आम परिवार के हक में सीधे टकराने की हिम्मत दिखाई. यह वाकई तारीफ की बात है जिस से देशभर के लोगों को उम्मीद बंधी कि अगर सभी राज्य सरकारें सख्त हो जाएं तो ऐसी नौबत ही क्यों आए. हालांकि, कुछ ही दिनों बाद मैक्स अस्पताल का लाइसैंस बहाल कर दिया गया.

इसी तरह गुरुग्राम स्थित फोर्टिस अस्पताल में डेंगू से बच्ची की मौत और इलाज के लिए 16 लाख रुपए का बिल वसूलने के आरोप में वहां के एक डाक्टर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई.

हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने कहा कि जांच पैनल की रिपोर्ट के आधार पर आपराधिक धाराएं जोड़ी जाएंगी.

उदाहरणों से भयावह आंकड़े

 ऐसी नौबत जबतब आती रहती है जिस में प्राइवेट अस्पतालों पर लूटखसोट करने का आरोप सच साबित होता है. मृत व्यक्ति को 7 दिन वैंटीलेटर पर रखा, जीवित को मृत बता दिया, जब तक बिल अदा नहीं किया तो शव नहीं दिया गया या फिर दिल्ली के नजदीक ही गुरुग्राम में डेंगू पीडि़त एक बच्ची के इलाज का बिल 15 लाख रुपए आया जैसी खबरें अब चौंकाती नहीं हैं बल्कि बताती हैं कि लोकतांत्रिक सरकारें राजशाही से ज्यादा खोखली हैं.

हालांकि यह मसला भी सोचनीय है कि जब हमें चिकित्सा सुविधा पास के सामान्य या सरकारी अस्पतालों में मिल जाती है तो फिर लोग उन मल्टी स्पेशिऐलिटी वाले अस्पताल का रुख करते ही क्यों हैं जहां के खर्चे व मैंटिनैंस चार्जेज इतने भारी होते हैं.

मैक्स सरीखे लग्जरी अस्पतालों में हर तरह की सर्जरी के अलावा बड़ेबड़े मर्ज का इलाज करने के लिए बहुमंजिला होटल जैसी सुविधाएं दी जाती हैं. लोग मामूली बुखार से ले कर बड़े मर्ज के इलाज के लिए यहां आ कर भीड़ बढ़ाते हैं जबकि 60 प्रतिशत बीमारियां तो आप के नजदीकी अस्पताल में कर्म खर्चे पर ही ठीक हो सकती हैं. या फिर ऐसे अस्पताल का रुख करें जहां सिर्फ उसी विशेष बीमारी का इलाज होता हो. इस से अतिरिक्त टैस्ट करवाने या पैसे ऐंठने के विकल्प ही खत्म हो जाएंगे और फिर ये अस्पताल भी अपनी मनमानी के बिल नहीं जोड़ेंगे.

लोग महंगे अस्पतालों में जा कर लुट रहे हैं तो कोई भी यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि आखिरकार लोग वहां इलाज के लिए जाते ही क्यों हैं. यह एक संवेदनशील बात है जो सच के करीब लगती है, लेकिन इस का सीधा संबंध सरकार से भी है जो शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जवाबदेह होती है.

लोग महंगे अस्पतालों में जाते ही क्यों हैं, इस की जगह अगर यह सवाल पूछा जाए कि अस्पताल इतने महंगे क्यों हैं, तो जवाब की तरफ बढ़ने में सहूलियत रहेगी.

पेंच इतना भर नहीं है कि बड़े अस्पतालों की लागत और खर्च भी ज्यादा होते हैं और वे सरकार को टैक्स भी ज्यादा देते हैं और तमाम बड़े नेता व अफसरों का लगभग मुफ्त के भाव इन में इलाज होता है. सच यह है कि सरकार के निकम्मेपन के चलते पिछले 20 सालों से ब्रैंडेड अस्पतालों की शृंखला खूब फलफूल रही है जिन में निचुड़ता आखिरकार आम आदमी ही है.

साल 2017 की शुरुआत में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ब्रैंडेड अस्पताल संचालकों के कान उन के नाम के साथ करतूतें गिनाते खींचे थे. वह भी एक मीटिंग में, तो उन की घुड़की से अस्पताल संचालक सहमे थे.

पर हर जगह ऐसा नहीं होता. वजह, स्वास्थ्य सेवाओं को मुनाफाखोरों के हवाले करने की जिम्मेदार सरकार  लूटखसोट पर अंकुश लगाने के लिए कोई पहल नहीं करती. अस्पतालों में दवाओं के दाम अलगअलग हैं, सेवाओं की फीस अलगअलग हैं, और इस के बाद भी कोई मरीज अगर लापरवाही के चलते मर जाए तो प्राइवेट अस्पतालों को आमतौर पर कोई सजा क्यों नहीं होती, इन सवालों के जवाब आंकड़ों से गिनाए जाएं तो समझ आता है कि सरकार की नीतियां भी कम दोषी या जिम्मेदार नहीं.

बात कम हैरत की नहीं कि देश में कुल 19,817 सरकारी अस्पताल हैं जबकि प्राइवेट अस्पतालों की तादाद 80,671 है. इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के मुताबिक, देशभर में रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टरों की संख्या 10,22,859  में से महज 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं यानी 90 फीसदी डाक्टर प्राइवेट सैक्टर में हैं.

देश की 75 फीसदी आबादी इस लिहाज से प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने को मजबूर कर दी गई है. यानी घोषित तौर पर स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हो चुका है जिस की चांदी कोई दर्जनभर ब्रैंडेड अस्पतालों की शृंखला, जिसे चेन कहा जाता है, काट रही है. सरकार स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति महीनेभर में 100 रुपए भी खर्च नहीं करती है.

जब बुनियादी सेवाएं बिकने लगती हैं तो वे पूरी तरह पूंजीपतियों की मुट्ठी में कैद हो कर रह जाती हैं. चूंकि कोई कुछ नहीं बोलता, उलटे, बतौर फैशन, यह कहा जाता है कि अगर जेब में पैसा है तो महंगे अस्पतालों में इलाज से हर्ज क्या.

हर्ज यह है कि फिर सरकार अपने बजट में कटौती करने लगती है. साल 2000 से ले कर 2017 तक स्वास्थ्य का सरकारी बजट 2,472 करोड़ से बढ़ कर 48,871 करोड़ रुपए हुआ लेकिन इन्हीं 17 सालों में प्राइवेट अस्पतालों का कारोबार साढ़े 6 लाख करोड़ का रिकौर्ड आंकड़ा छू रहा है जो साल 2000 में केवल 50 हजार करोड़ रुपए था.

यह पैसा कोई आसमान से नहीं बरस रहा, न ही प्राइवेट अस्पतालों के कारोबारी अपनी जेब से लगा रहे, बल्कि यह आशीष जैसे आम मेहनतकश लोगों की जेबकतरी का नतीजा है जिस पर कभीकभार कोई बड़ा हादसा होने पर ही हायहाय मचती है. मैक्स ग्रुप का सालाना टर्नओवर 17 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा है, कैसे है, यह भी आशीष जैसे पीडि़त नहीं समझ पाते कि सरकारी अस्पतालों पर जानबूझ कर पसराई गई बदहाली इस की बड़ी जिम्मेदार होती है जो यह कहती है कि अगर अपने जिंदा बच्चे को जिंदा चाहिए तो 50 लाख रुपए जमा करो.

हर कोई जानता है कि सरकारी अस्पताल में जाने पर डाक्टर के मिलने की गारंटी नहीं, लेकिन प्राइवेट अस्पताल में है जहां हर विजिट के 500 रुपए से ले कर 1,500 रुपए डाक्टर को देने पड़ते हैं. यह डाक्टर सरकारी अस्पताल के ही सुविधाभोगी चैंबर में बैठा या तो टीवी देखता रहता है या फिर वीडियो गेम खेल रहा होता है पर इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि चंद कदमों की दूरी नापने के 500 रुपए क्यों. इसी एक डाक्टर से अस्पताल उस की 20 विजिट पर 10 हजार रुपए रोज कमाता है. ऐसे 10 डाक्टर हों तो यह आंकड़ा एक लाख रुपए रोजाना का होता है.

लूटखसोट के इस कारोबार में हर कोई हाथ धो रहा है. हर छोटे शहर में कई नर्सिंगहोम होने लगे हैं जो कुछ दिन मरीज की जेब कुतरने के बाद इलाज पूरा न हो पाने पर उसे नजदीक के बड़े शहर में भेज देते हैं. बोलचाल की भाषा में इसे रैफर करना कहा जाता है. बडे़ जेबकतरे अपनी शानोशौकत, चमकदमक और हैसियत के मुताबिक जरूरतमंद मरीजों की बचीखुची रकम लूट लेते हैं. मरीज ठीक हो जाए तो ठीक, वरना कहने को परंपरागत भारतीय जुमला ‘हरि इच्छा’ तो है ही.

लैबों की लूट

 पैथोलौजी की दरें बंधी हैं. मामूली बुखार में भी कई तरह की जांचें प्राइवेट अस्पताल में गंगाडुबकी की तरह अनिवार्य होती हैं. कमीशनखोरी पैथौलाजी में भी खूब चलती है. तरहतरह के माफिया देशभर में सक्रिय हैं-किडनी माफिया, हार्ट माफिया, कैंसर माफिया और अब तो पेंक्रियाज माफिया तक होने लगे हैं.

देशभर में सरकारी बसें अब गांवदेहातों की तरफ ही चलती दिखती हैं क्योंकि घाटे के चलते वहां कोई प्राइवेट ट्रांसपोर्टर जाने को तैयार नहीं होता. ठीक यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का है. सरकार ने अस्पताल खोलना कम कर दिया है और अस्पतालों की बदहाली बढ़ा दी है ताकि मरीज घबरा कर प्राइवेट अस्पतालों की तरफ भागें.

कहने का मतलब यह नहीं कि प्राइवेट अस्पताल न हो, वे हों, पर लूटखसोट करने का हक उन से छीना जाना चाहिए.

अस्पतालों की लूटखसोट अब भी कम होगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. प्राइवेट स्कूलों की तरह उन्हें फीस कम करने के लिए सरकार मजबूर नहीं कर सकती और करेगी भी तो वे हजार नए रास्ते ढूंढ़ लेंगे. इन को ठिकाने लगाने का इकलौता रास्ता सरकार के पास यह है कि ये अस्पताल रोज का हिसाब सार्वजनिक करें जैसा कि जीएसटी लागू होने के बाद हर छोटेबड़े व्यापारी को करना पड़ रहा है, तभी इन की पूरी पोल खुलेगी.

मरीज भी अपने कानूनी अधिकारों को जानें

निजी अस्पतालों में जिस तरह से मरीजों को ठगा जाता है, उन से बचने के लिए हमारी न्यायिक प्रणाली में कुछ कानून भी हैं जिन का उपयोग कर के आप अपने मरीज के खर्चे और अस्पताल द्वारा उठाए जा रहे कदमों की जानकारी ले सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता ऋचा पांडे ने मरीज के हित में बनाए गए कानूनों की व्याख्या की.

एमआरटीपी एक्ट 1969 : इस के तहत कोई भी अस्पताल चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट, किसी भी खास जगह या दुकान से दवाइयां खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. इस कानून के तहत दवा विक्रेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए.

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 : हमारे देश में पेशेंट राइट नाम का कोई कानून नहीं है जबकि कई देशों में मरीजों के हित के लिए कानून बनाए गए हैं और सजा का भी प्रावधान है. लेकिन हम यहां स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता होने के नाते देश के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (1986) कानून के तहत अपने अधिकार की लड़ाई लड़ सकते हैं.

सूचना का अधिकार कानून 2005 : 2005 के बाद जो आम लोगों के हाथों में हथियार आया है वह है, सूचना का अधिकार. इस कानून के तहत सब से पहले हमें डाक्टर और अस्पताल से ये जानने का अधिकार है कि मरीज पर किस तरह का उपचार चल रहा है, जांच में क्या निकल कर आया और दवाइयों से कितना सुधार है. मरीज के परिजन और मरीज इस की जानकारी अस्पताल से मांग सकते हैं. सूचना के अधिकार का उपयोग कर के आप जो डाक्टर आप का इलाज कर रहा है उस की योग्यता, डिगरी की जानकारी की मांग भी कर सकते हैं.

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमैंट एक्ट 2010 : इस कानून को देश के सभी राज्यों ने लागू नहीं किया है. इस अधिनियम के तहत हर अस्पताल, क्लिनिक या फिर नर्सिंग होम को रजिस्टर करना अनिवार्य होता है. साथ ही, एक गाइडलाइन के तहत हर बीमारी के इलाज और टैस्ट की प्रक्रिया निर्धारित है. और ऐसा न करने पर इस एक्ट में जुर्माने का प्रावधान भी है.

प्रोफैशनल कंडक्ट ऐंड ऐथिक्स एक्ट : आईएमए ने भी डाक्टरों के लिए कुछ दिशानिर्देश जारी किए हैं जिस में अगर आप को इमरजैंसी में इलाज की जरूरत है तो कोई डाक्टर इस के लिए आप को मना नहीं कर सकता जब तक फर्स्ट एड दे कर मरीज की स्थिति खतरे से बाहर न कर लें.

इंडियन जर्नल औफ मैडिकल ऐथिक्स : कोई मरीज नहीं चाहता कि उस की बीमारी का पता परिवार वालों को चले तो डाक्टर कभी भी उस बीमारी की परिवारवालों से चर्चा नहीं करेंगे. साथ ही, अस्पताल में ऐडमिट मरीज अपनी बीमारी के बारे में सैकंड ओपिनियन या दूसरे डाक्टर की सलाह ले सकता है. ऐसा करने से कोई भी अस्पताल या डाक्टर रोक नहीं सकता. लेकिन अगर दूसरे डाक्टर की ओपेनियन पहले से अलग है तो किसी भी डाक्टर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

किसी भी मरीज की सर्जरी के पहले यह डाक्टर की जिम्मेदारी है कि वह औपरेशन, सर्जरी के पहले मरीज के परिजन को संभावित खतरों की पूरी सही जानकारी दे और एग्रीमैंट लैटर पर उन के साइन ले. मरीज को दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने या डाक्टर बदलने के लिए अस्पताल को समय से रहते इस की सूचना मरीज के परिवारवालों को देनी चाहिए. मरीज के केस से जुड़ी पूरी प्रक्रिया सभी खर्चे के ब्योरे सहित अस्पताल से मरीज व उस के परिजन ले सकते हैं.

– साथ में दीपनारायण तिवारी

बड़ा सवाल : स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा और सतर्कता भी जरूरी

7 साल का प्रद्युम्न ठाकुर गुड़गांव के ख्यातिप्राप्त रायन इंटरनैशनल स्कूल की कक्षा 2 का छात्र था. रोजाना की तरह गत 8 सितंबर को मां ने प्यार से तैयार कर उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा. पिता द्वारा प्रद्युम्न को स्कूल में पहुंचाने के आधे घंटे के अंदर घर पर फोन आ गया कि बच्चे के साथ हादसा हो गया है.

प्रद्युम्न को संदिग्ध परिस्थितियों में ग्राउंडफ्लोर पर मौजूद वाशरूम में खून से लथपथ मृत अवस्था में पाया गया. देखने से स्पष्ट था कि उस की हत्या की गई है. उस पर 2 बार चाकू से वार किए गए थे. अत्यधिक खून बहने से उस की मौत हो गई.

प्रारंभिक जांच में बस कंडक्टर को दोषी पाया गया मगर बाद की जांच में उसी स्कूल की 11वीं कक्षा के एक छात्र को हिरासत में लिया गया. आरोपी छात्र ने स्वीकार किया कि महज परीक्षा की तिथि और टीचर पेरैंट्स मीटिंग की तारीख आगे बढ़वाने के मकसद से उस ने, जानबूझ कर, इस घटना को अंजाम दिया.

वैसे, इस केस में स्कूल प्रशासन पर सुबूत छिपाने के इलजाम भी लगे और एक बार फिर स्कूलों में बच्चों की लचर सुरक्षा व्यवस्था की हकीकत सामने आ गई.

बच्चों की सुरक्षा पर सवाल खड़ा करता ऐसा ही मामला द्वारका, दिल्ली के एक स्कूल का है. यहां 4 साल की बच्ची के साथ यौनशोषण की घटना सामने आई. आरोप बच्ची की ही कक्षा में पढ़ने वाले 4 साल के बच्चे पर लगा.

छोटी सी बच्ची से बलात्कार का एक मामला 14 नवंबर को दिल्ली के अमन विहार इलाके में भी सामने आया. यह नाबालिग बच्ची अपने मातापिता के साथ किराए के मकान में रहती थी. आरोपी युवक उसी मकान में पहली मंजिल पर रहता था.

दिल्ली के एक स्कूल में 5 साल की बच्ची के साथ स्कूल के चपरासी द्वारा बलात्कार की घटना ने भी सभी को स्तब्ध कर दिया.

इन घटनाओं ने स्कूल परिसरों में बच्चों की सुरक्षा को ले कर कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं. स्कूल परिसरों में मासूम लड़कियां ही नहीं, लड़के भी यौनशोषण के शिकार हो रहे हैं.

इस संदर्भ में सभी राज्य सरकारों, स्कूल प्रशासनों और मातापिता को सतर्क होने की जरूरत है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं न घट सकें.

स्कूल की जिम्मेदारियां

कोई भी मातापिता जब अपने बच्चे के लिए किसी स्कूल का चुनाव करते हैं तो स्कूल की आधारभूत संरचना और वहां की पढ़ाई के स्तर को जांचने के साथ ही उन का विश्वास भी होता है जो उन्हें किसी विशेष स्कूल को अपने बच्चे के लिए चुनने हेतु प्रेरित करता है. ऐसे में स्कूल प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी बनती है कि वह न सिर्फ बेहतरीन शिक्षा उपलब्ध कराए, बल्कि मातापिता के विश्वास पर भी खरा उतरे.

माता पिता की जिम्मेदारियां

हर मातापिता का कर्तव्य है कि वे घरबाहर अपने बच्चों की सुरक्षा को ले कर सतर्क रहें. घर के बाद बच्चे सब से अधिक समय स्कूल में बिताते हैं. ऐसे में स्कूल परिसर में बच्चों की सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है.

–       मातापिता को चाहिए कि जिस स्कूल में वे बच्चे को दाखिल कराने जा रहे हैं, वहां की सुरक्षा व्यवस्था की वे विस्तृत जानकारी लें.

–       हमेशा टीचरपेरैंट्स मीटिंग में जाएं और बच्चों की सुरक्षा से संबंधित कोई कमी नजर आए तो टीचर से उस की चर्चा जरूर करें.

–       बच्चों से स्कूल में उन के अनुभवों के बारे में खुल कर चर्चा करें. अगर अचानक बच्चा स्कूल जाने से घबराने लगे या उस के नंबर कम आने लगें तो इन संकेतों को गंभीरता से लें और इन का कारण जानने का प्रयास करें.

–       बच्चों को अच्छे और बुरे टच के बारे में समझाएं ताकि यदि कोई उन्हें गलत मकसद से छुए तो वे शोर मचा दें.

– बच्चों को यह भी समझाएं कि यदि कोई बच्चा उन्हें डराधमका रहा है तो वे टीचर या मम्मीपापा को सारी बात बताएं.

– बच्चों को मोबाइल और दूसरी कीमती चीजें स्कूल न ले जाने दें.

– अगर आप के बच्चे का व्यवहार कुछ दिनों से बदलाबदला नजर आ रहा है, वह आक्रामक होने लगा है या ज्यादा चुप रहने लगा है तो इस की वजह जानने का प्रयास करें.

– रोज स्कूल से आने के बाद बच्चे का बैग चैक करें. उस के होमवर्क, क्लासवर्क और ग्रेड्स पर नजर रखें. उस के दोस्तों के बारे में भी सारी जानकारी रखें.

–       छोटे बच्चे को बस में चढ़नाउतरना सिखाएं.

–       बसस्टौप पर कम से कम 5 मिनट पहले पहुंचें.

–       आप अपने बच्चों को सिखाएं कि किसी आपातकालीन स्थिति में किस तरह के सुरक्षात्मक कदम उठाए जा सकते हैं. हो सके तो बच्चों को सैल्फडिफैंस के गुर, जैसे मार्शल आर्ट व कराटे वगैरा सिखाएं.

मनोवैज्ञानिक पहलू

तुलसी हैल्थ केयर, नई दिल्ली के मनोचिकित्सक डा. गौरव गुप्ता बताते हैं कि गुड़गांव के प्रद्युम्न केस की बात हो या 4 साल की बच्ची का यौनशोषण, इस तरह की घटनाएं बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति व गलत कामों के प्रति आकर्षण को चिह्नित करती हैं.

इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि आज लोगों के पास वक्त कम है. हर कोई भागदौड़भरी जिंदगी में व्यस्त है. संयुक्त परिवारों की प्रथा खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी है. नतीजा यह है कि बच्चों का लालनपालन एक मशीनी प्रक्रिया के तहत हो रहा है. परिवार वालों के साथ रह कर जीवन की वास्तविकताओं से अवगत होने और टीवी धारावाहिक व फिल्में देख कर जिंदगी को समझने में बहुत अंतर है.

एकाकीपन के माहौल में पल रहे बच्चों के मन की बातों और कुंठाओं को समझना जरूरी है. मांबाप द्वारा बच्चों के आगे झूठ बोलने, बेमतलब की कलह और विवादों में फंसने, छोटीछोटी बातों पर हिंसा करने पर उतारू हो जाने जैसी बातें ऐसी घटनाओं का सबब बनती हैं क्योंकि बच्चे बड़ों से ही सीखते हैं.

स्कूल भी पीछे कहां हैं? स्कूल आज शिक्षाग्रहण करने का स्थान कम, पैसा कमाने का जरिया अधिक बन गए हैं. स्कूल का जितना नाम, उतनी ही महंगी पढ़ाई. जरूरी है कि शिक्षा प्रणाली में बाल मनोविज्ञान का खास खयाल रखा जाए.

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. यदि हम सब आज भी अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझें और उसे सही ढंग से निभाएं तो अवश्य ही हम उन्हें बेहतर भविष्य दे सकते हैं.

साइबर बुलिंग

बुलिंग का अर्थ है तंग करना. इतना तंग करना कि पीडि़त का मानसिक संतुलन बिगड़ जाए. बुलिंग व्यक्ति को भावनात्मक और दिमागी दोनों ही तौर पर प्रभावित करती है. बुलिंग जब इंटरनैट के जरिए होती है तो इसे साइबर बुलिंग कहते हैं.

साइबर बुलिंग के कहर से भी स्कूली बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. हाल ही में 174 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 17 फीसदी बच्चे बुलिंग के शिकार हैं. स्टडी में पाया गया कि 15 फीसदी बच्चे शारीरिक तौर पर भी बुलिंग के शिकार हो रहे हैं. इस में मारपीट की धमकी प्रमुख है. लड़कियों की तुलना में लड़के इस के ज्यादा शिकार होते हैं.

अपराध के बढ़ते मामले चिंताजनक

एनसीआरबी द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2015 और 2016 के बीच बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या में 11 फीसदी बढ़ोतरी हुई है.

क्राइ यानी चाइल्ड राइट्स ऐंड यू द्वारा किए गए विश्लेषण दर्शाते हैं कि पिछले एक दशक में बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध तेजी से बढ़े हैं. 2006 में 18,967 से बढ़ कर 2016 में यह संख्या 1,06,958 हो गई. राज्यों के अनुसार बात करें तो 50 फीसदी से ज्यादा अपराध केवल 5 राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में दर्ज किए गए है. उत्तर प्रदेश 15 फीसदी अपराधों के साथ इस सूची में सब से ऊपर है. वहीं महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश क्रमश: 14 और 13 फीसदी अपराधों के साथ ज्यादा पीछे नहीं हैं.

अपराध की प्रवृत्ति और कैटिगरी की बात करें तो सूची में सब से ऊपर अपहरण रहा. 2016 में दर्ज किए गए कुल अपराधों में से लगभग आधे अपराध इसी प्रवृत्ति (48.9 फीसदी) के थे. इस के बाद अगली सब से बड़ी कैटिगरी बलात्कार की रही. बच्चों के खिलाफ दर्ज किए गए 18 फीसदी से ज्यादा अपराध इस श्रेणी में दर्ज किए गए.

चुनावी नतीजे : भाजपा बरकरार पर कांग्रेस भी जानदार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात विधानसभा के चुनाव प्रचार के आखिरी दिन प्रशासन द्वारा रोड शो रखने की अनुमति न मिलने पर अहमदाबाद में साबरमती नदी से अंबाजी के लिए घबराहट में सीप्लेन से उड़ान भरी थी, उन्हें गुजरात के भावी नतीजों का एहसास हो गया था कि इस रण में उन के लिए विजय आसान नहीं है. हालांकि, भाजपा गुजरात को बचाने में कामयाब रही पर 150 सीटें जीतने का दावा कर रही पार्टी 100 से नीचे पर ही सिमट गई.

दूसरे राज्य हिमाचल प्रदेश में वह कांग्रेस से सत्ता छीनने में सफल तो रही पर प्रदेश में पार्टी के सेनापति मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेमसिंह धूमल और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती दोनों ही परास्त हो गए. इसीलिए चुनाव नतीजों के बाद भाजपा मुख्यालय में प्रैस कौन्फ्रैंस में बैठे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के चेहरे पर अधिक खुशी नहीं थी. वे गुजरात नतीजों के बजाय हिमाचल पर अधिक फोकस कर रहे थे.

गुजरात में कांग्रेस भले ही जीत नहीं पाई पर उस ने 22 वर्षों पुराना भाजपा का आसन हिला दिया, भाजपाई दिग्गजों के पसीने छुड़ा दिए. हालांकि, अपने गढ़ को बचाने में भाजपा कामयाब रही है.

इन चुनावों पर सब की नजरें थीं. विकास के मुद्दे से शुरू हुआ चुनाव प्रचार अभियान चुनावों की तारीख आतेआते राजनीतिक नीचता की तमाम हदें लांघ गया. दोनों राज्यों में धर्म, जाति, सैक्स सीडी, मंदिर, पाकिस्तान, कीचड़युक्त जबान का घालमेल और गंदगी का माहौल दिखाईर् देने लगा था जिस में नैतिकता, जवाबदेही और तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ती दिखीं.

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कड़ी चुनावी टक्कर

पिछले 3 सालों में हुए विधानसभाओं के चुनावों में गुजरात चुनाव सब से रोचक, रोमांचक रहा. भाजपा इस बार कड़े संघर्ष में फंस गई थी. उसे पिछले 2012 की 115 सीटों के मुकाबले 99 सीटें ही मिल पाईं. चुनाव में सब से ज्यादा चर्चा हार्दिक पटेल फैक्टर की थी. हार्दिक पटेल की अगुआई में हुए पाटीदार आंदोलन के चलते माना जा रहा था कि भाजपा को बड़ा नुकसान हो सकता है. जिस तरह हार्दिक ने भाजपा का विरोध और कांग्रेस के समर्थन का ऐलान किया, उसे देखते हुए भाजपा को बड़े नुकसान की आशंका जताई जा रही थी पर नतीजों से साफ है कि सौराष्ट्र, कच्छ को छोड़ कर प्रदेश के बाकी सभी क्षेत्रों में पटेलों ने भाजपा का ही साथ दिया.

भाजपा ने गुजरात में पूरी ताकत झोंक दी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का गृहराज्य होने के कारण गुजरात चुनाव उन के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था.

कांग्रेस सत्तारूढ़ दल की तरह लड़ी. राहुल गांधी हार कर भी कामयाब हो गए. गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी में एक परिपक्व नेता के लक्षण पहली बार दिखाईर् दिए. वे लड़ाई को प्रतिद्वंद्वी खेमे में ले गए और उन्हें गंभीरता से लेने पर मजबूर कर दिया. वे नोटबंदी से ले कर जीएसटी और विकास के मामले में भाजपा को घेरने व उसे निरुत्तर करने में कामयाब रहे. उन्होंने इस बार आक्रामक और महत्त्वाकांक्षी नेता के तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.

अपने आक्रामक तेवरों के जरिए राहुल और कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उन के राजनीतिक सलाहकारों को गुजरात में पिछले 22 वर्षों के शासन की उपलब्धियों, गुजरात मौडल और विकास के मुद्दों पर कठघरे में ला खड़ा किया. राहुल गांधी ने नोटबंदी और जीएसटी को ले कर सवाल खड़े किए. इन सवालों पर भाजपा बचाव की मुद्रा में दिखने लगी. शक्तिशाली भाजपा ने अपना सारा वक्त ऐसे नेता पर हमला करने में लगाया जिस की पार्टी के पास लोकसभा में केवल 46 सीटें हैं और वह गुजरात में पिछले 22 वर्षों से बियाबान में है.

लेकिन जिस तरह से गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने अपनेआप को जनेऊधारी हिंदू के रूप में पेश करने की कोशिश की, उस की जरूरत नहीं थी.

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धार्मिक मुद्दों का सहारा

दूसरी ओर खुद को विकास का सब से बड़ा पैरोकार बताने वाले मोदी बाबर और खिलजी की चर्चा कर सांप्रदायिक मुद्दों का सहारा लेते दिखाईर् दिए. गुजरात में 22 वर्षों की उपलब्धियों की चर्चा नदारद रही. सभी जायज मुद्दे हाशिए पर चले गए और वोटों के ध्रुवीकरण के लिए नफरत की राजनीति हावी हो गई.

चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में मोदी ने पाकिस्तान का सनसनीखेज एंगल जोड़ दिया. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान गुजरात चुनाव में दखल दे रहा है. चुनाव के दौरान पूर्र्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने पाक उच्चायुक्त और पूर्र्व विदेश मंत्री के साथ बैठक  की. विदेश मंत्रालय की जानकारी के बिना मणिशंकर के घर पर बैठक 3 घंटे चली.

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इस बैठक के अगले ही दिन मणिशंकर अय्यर ने मोदी को कह दिया था कि वे नीच किस्म के हैं, इसलिए वे पटेल और अंबेडकर पर राजनीति करते हैं.

मोदी ने पाकिस्तान के पूर्व महानिदेशक अरशद रफीक द्वारा गुजरात में अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपील जारी करने का आरोप भी लगाया.

मणिशंकर अय्यर के इस बयान पर खूब हंगामा हुआ. बाद में राहुल गांधी को मणिशंकर अय्यर को पार्टी से निकालने का ऐलान करना पड़ा.

मणिशंकर अय्यर के बयान के थोड़ी देर बाद ही सूरत की एक रैली में मोदी बोले कि वे हमें नीच जाति का कह रहे हैं. यह गुजरात और यहां के लोगों का अपमान है.

29 नवंबर को राहुल गांधी ने सोमनाथ मंदिर में पूजा की थी. मंदिर के रजिस्टर में उन का नाम गैरहिंदू के तौर पर दर्ज हुआ तो भाजपा ने प्रैस कौन्फ्रैंस कर कहा कि राहुल गांधी ने खुद को गैरहिंदू बताया है. बाद में कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि राहुल जनेऊधारी हिंदू हैं और राहुल गांधी ने खुद को शिवभक्त बताया.

बाद में 5 दिसंबर को कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में कह दिया कि राममंदिर मामले की सुनवाई 2019 के चुनाव के बाद हो. इस पर मोदी और अन्य नेताओं को कहने का मौका मिल गया कि राहुल गांधी एक ओर मंदिरमंदिर घूम रहे हैं, दूसरी ओर उन के नेता कपिल सिब्बल राममंदिर की सुनवाई टलवा रहे हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी 5 मंदिरों में गए तो राहुल गांधी ने 27 मंदिरों की परिक्रमा कर डाली. मोदी ने मां आशापुरा के दर्शन से प्रचार अभियान शुरू किया था और अंबाजी के दर्शन से खत्म.

विकास पागल हो गया

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी और उन के विकास को कड़ी चुनौती मिली. 60 दिनों तक कांग्रेस ने राज्य में नोटबंदी, जीएसटी, विकास व आरक्षण के मुद्दे खूब उठाए. राहुल गांधी ने पूछा, विकास कहां है, विकास पागल हो गया है. मोदी ने कहा, मैं विकास हूं. आखिर के 11 दिनों में 60 दिनों के मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया. गुजरात में हार के बावजूद राहुल गांधी खुद को साबित करने में सफल रहे. प्रदेश में संगठन कमजोर होने के बावजूद राहुल ने चुनाव प्रचार की कमान संभाली. उन्होंने भाजपा का डट कर मुकाबला किया. उस के नेताओं के आरोपों का जम कर जवाब दिया. उन्होंने करीब 150 रैली व जनसभाएं कीं.

उधर, 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद मोदी ने उत्तर प्रदेश समेत 17 राज्यों में चुनावी रैलियां कीं पर उन्होंने गुजरात जितनी रैलियां किसी भी राज्य में नहीं कीं. मोदी ने गुजरात में आखिरी 11 दिनों में सब से अधिक रैलियां कीं. उन्होंने पूरा चुनावी माहौल बदल दिया. नोटबंदी, जीएसटी, महंगाई, बेरोजगारी, विकास जैसे मुद्दे गायब हो गए. हिंदुत्व, राममंदिर, गुजराती अस्मिता, पाकिस्तान और आतंकवाद बड़े मुद्दे बन गए.

हार्दिक, अल्पेश, जिग्नेश

कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में आंदोलनों से निकले हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी पर दांव खेला. पर पार्टी को एकतरफा पाटीदार, ओबीसी और दलित वोट नहीं मिल पाए और  सत्ताविरोधी लहर वोट में तबदील नहीं हो पाई.

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राज्य में 40 फीसदी ओबीसी वोट हैं. चुनावों के दौरान अल्पेश ठाकोर तो कांग्रेस में शामिल हो गए पर हार्दिक और जिग्नेश ने भाजपा को हराने व कांग्रेस का समर्थन करने की बात कही. इन्होंने कांग्रेस के लिए पूरा जोर लगाया. जिग्नेश मेवाणी  और अल्पेश दोनों जीत गए. मेवाणी निर्दलीय के तौर पर खड़े हुए. उन्होंने बनासकांठा जिले की वडगाम सीट पर 28,150 वोटों से जीत दर्ज की. वडगाम आरक्षित सीट है. मेवाणी का मुकाबला भाजपा के विजय चक्रवर्ती से था. मेवाणी उस समय चर्चित हुए जब ऊना में दलित युवाओं को गौरक्षकों ने बुरी तरह मारापीटा था. इस कांड को ले कर मेवाणी ने प्रदेश में आंदोलन शुरू किया.

उधर, अल्पेश ठाकोर ने पाटन के राधनपुर से चुनाव लड़ा. उन का मुकाबला भारतीय जनता पार्टी के लाविंगजी ठाकोर से था.

हालांकि पाटीदारों के गढ़ सौराष्ट्र में भाजपा को नुकसान हुआ पर उस की भरपाई उसे दूसरे क्षेत्रों से हो गई. सौराष्ट्र-कच्छ की 54 सीटों में भाजपा 24 सीटें ही जीत सकी जबकि कांग्रेस को 30 सीटें मिलीं. यह वही क्षेत्र है जहां हार्दिक पटेल का पाटीदार आंदोलन तेज हुआ था.

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टिकट वितरण में जातीयता

अहमदाबाद और उस के आसपास के मध्य गुजरात में भाजपा ने दबदबा कायम रखा. यहां की 61 में से 40 सीटें उस ने जीतीं. कांग्रेस को 19 सीटें मिलीं. जीएसटी से दक्षिण गुजरात में भाजपा को नुकसान की आशंका थी पर पार्टी ने यहां 35 सीटों में से 24 पर जीत दर्ज की है.

दोनों ही पार्टियों में जातीय आधार पर टिकट बांटे गए. कांग्रेस ने 41 पाटीदारों को टिकट दिए तो भाजपा ने 40 को दिए. कांग्रेस ने 60 ओबीसी मैदान में उतारे तो भाजपा ने 58. कांग्रेस ने 14 दलितों को टिकट दिए तो भाजपा ने 13 को दिए. मुसलिम बहुल 18 सीटों में से 9 पर भाजपा और 7 पर कांग्रेस जीती है. कांग्रेस ने 6 मुसलिमों को टिकट दिए थे उन में से 3 जीते हैं. भाजपा ने एक भी मुसलिम को टिकट नहीं दिया. इस तरह दोनों दलों की यह सोशल इंजीनियरिंग काम नहीं आई.

गुजरात में 66 विधानसभा सीटों में मुसलिम 10 से 60 प्रतिशत तक हैं. इन में भाजपा ने 52 प्रतिशत और कांग्रेस ने 45 प्रतिशत सीटें जीती हैं. एक सीट निर्दलीय को मिली है.

यहां दोनों पार्टियों ने 22 महिलाओं को टिकट दिया था. इन में से भाजपा ने 12 और कांग्रेस ने 10 को टिकट दिए थे. दोनों ओर से 12 महिलाएं जीत कर आई हैं. इन में 7 भाजपा और 5 कांग्रेस की हैं.

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नाराजगी मगर वोट भाजपा को

जीएसटी लागू होने के बाद यह पहला चुनाव था, इसलिए भाजपा को चिंता थी कि जीएसटी की वजह से उसे कहीं नुकसान न उठाना पड़े क्योंकि व्यापारी वर्ग नाराज लग रहा था. गुजरात में व्यापारी प्रभावशाली हैं और भाजपा का साथ देते आए हैं पर जिस तरह से सूरत में भाजपा की जीत हुई है वह साबित करता है कि जीएसटी से भाजपा को नुकसान नहीं हुआ. जीएसटी के खिलाफ सूरत से ही आवाज उठी थी. उसी क्षेत्र से भाजपा को 16 में से 15 सीटें मिली हैं. व्यापारी वर्ग, हालांकि, जीएसटी से नाराज है लेकिन फिर भी वोट उस ने भाजपा को ही दिया.

भाजपा मान रही है कि जिस तरह से उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत ने मोदी के नोटबंदी के फैसले पर मुहर लगाई, उसी प्रकार गुजरात की जीत ने जीएसटी पर सहमति जताई है.

यह सही है कि गुजरात चुनाव में कांग्रेस की सीटें बढ़ने का एक गणित यह है कि हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी के साथ आने से भाजपा विरोधीमत किसी हद तक एक हो गए.

चुनाव दर चुनाव

गुजरात में जहां तक भाजपा के उभार का सवाल है, 1995 में पार्टी को 121 और कांग्रेस को 45 सीटें मिली थीं. उसे बड़ा बहुमत मिला पर पार्टी के 2 बड़े नेता शंकरसिंह वाघेला और केशुभाई पटेल के मतभेदों के चलते सरकार नहीं चल पाई और 1998 में चुनाव हुए जिस में भाजपा को 117 सीटें मिलीं. कांग्रेस के हिस्से 53 सीटें आईं. 2001 में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बना दिया.

इस के बाद 2002 के चुनाव में भाजपा को 127 सीटें और कांग्रेस को 51 सीटें मिलीं. गुजरात दंगों के बाद यह चुनाव हुआ था. वह तब तक हुए चुनावों में भाजपा का सब से अच्छा प्रदर्शन था.  2007 में भाजपा को 117 और कांग्रेस को 59 सीटें प्राप्त हुई थीं. इस के बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 115 और कांग्रेस को 61 सीटें हासिल हुई थीं.

2 वर्षों बाद नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बन गए. उन के प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में पहली बार चुनाव हुए हैं. यहां भाजपा का बहुतकुछ दांव पर लगा था.

2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इन चुनावों में भाजपा के वोट कम हुए हैं. गुजरात में  लोकसभा चुनाव में भाजपा को 60 प्रतिशत मत मिले थे पर इस बार वह 49.1 प्रतिशत रह गया. कांग्रेस को 41.4 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं.

प्रदेश में 2012 के चुनाव में भाजपा को 47. 9 प्रतिशत मत मिले थे, इस बार 49.1 प्रतिशत मिले हैं. कांग्रेस को 2012 में 38.9 प्रतिशत और इस बार 42.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं.

कांग्रेस ने 2012 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार 19 सीटें  अधिक जीती हैं. भाजपा की 16 सीटें कम हो गईं. केवल यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार उसे 66 सीटों पर नुकसान हुआ है. कांग्रेस को 63 सीटों पर फायदा मिला है.

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हिमाचल रण

 इसी तरह हिमाचल प्रदेश में भाजपा को विधानसभा में 18 सीटें तो बढ़ गईं पर लोकसभा चुनाव के मुकाबले उसे 15 सीटों पर नुकसान हुआ है. कांग्रेस की विधानसभा में 15 सीटें कम हुईं पर लोकसभा के मुकाबले 12 सीटों पर फायदा हुआ है.

68 सीटों वाली हिमाचल विधानसभा में भाजपा ने 44 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया. पार्टी ने 5 वर्षों बाद वहां वापसी कर ली. प्रदेश में बारीबारी से 5-5 साल दोनों पार्टियों का मिलबांट कर खाने का सिलसिला इस बार भी कायम रहा. हिमाचल में 9 नवंबर को मतदान हुए थे. कांग्रेस को यहां 21 सीटें ही मिल पाईं.

कांग्रेस खत्म नहीं

2012 में कांग्रेस के पास 36 सीटें थीं जबकि भाजपा को 26 सीटें मिली थीं. 6 सीटें अन्य के हिस्से थीं. उस चुनाव में भाजपा को 38.5 प्रतिशत वोट मिले थे और कांग्रेस को 42.8 प्रतिशत. इस बार भाजपा का वोट बढ़ कर 48.8 प्रतिशत जबकि कांग्रेस का 41. 8 प्रतिशत है.

भाजपा अब 14 राज्यों में अपने बूते सरकार चला रही है और 5 राज्यों में गठबंधन सरकारों में सहयोगी है. फिर भी, कांग्रेस अभी खत्म नहीं हुई है.

लोकसभा चुनावों के बाद 18 राज्यों में चुनाव हो चुके हैं जिन में से 11 में भाजपा जीती है. कांगे्रस 2 राज्यों में सरकार बनाने में सफल हुई है.

कांग्रेस पिछले 3 वर्षों में, जहां भी विधानसभा चुनाव हुए वहां, सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. हालांकि पंजाब और पुड्डुचेरी में वह दूसरी पार्टियों से सत्ता छीनने में जरूर कामयाब रही है. कांग्रेस की अब 29 में से केवल 4 राज्यों कर्नाटक, पंजाब, मिजोरम और मेघालय में सरकारें बची हैं.

लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश और उस से अलग हुए तेलंगाना में चुनाव हुए थे पर दोनों में से किसी भी राज्य में कांग्रेस को सत्ता वापस नहीं मिली. अरुणाचल प्रदेश में उसे जीत जरूर मिली पर बाद में पार्टी टूट गई और दूसरा धड़ा भाजपा के साथ जा मिला.

इस के बाद जम्मूकश्मीर, हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए. यहां हरियाणा को छोड़ कर कांग्रेस सत्ता में भागीदार थी. हरियाणा में वह अपने बूते सरकार चला रही थी. 2005 में दिल्ली और बिहार में चुनाव हुए. बिहार, में कांग्रेस जनता दल-यू के साथ गठबंधन की सहयोगी थी. नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी तो कांग्रेस भी उस में शामिल हुई पर डेढ़ साल बाद जनता दल-यू ने भाजपा का दामन थाम लिया और कांग्रेस को विपक्ष में जाना पड़ा.

2016 में कांग्रेस ने केरल और असम गंवा दिया. केरल में कम्युनिस्ट तो असम में भाजपा जीती.

नेतृत्व बनाम नेतृत्व

 कांग्रेस पिछले दौर में निष्क्रिय सी रही. सोनिया गांधी का स्वास्थ्य साथ नहीं देने से वे पूरी तरह चुनावों में ध्यान नहीं दे पाईं. लेकिन इस बार सोनिया गांधी ने चुनाव की बागडोर पूरी तरह से राहुल गांधी को सौंप दी. राहुल गांधी ने खूब संघर्ष किया. पार्टी को सक्रिय बनाए रखा. तमाम नेताओं को जिम्मेदारियां सौंपीं. फीडबैक लेते रहे.

कांग्रेस जबजब सक्रिय दिखाईर् दी, उसे सफलता मिली, जैसे पिछला पंजाब विधानसभा चुनाव जहां पार्टी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह का नाम नेता के तौर पर पहले से ही तय कर दिया था. उत्तर प्रदेश में वह खास सक्रिय नहीं रही तो भाजपा, बसपा और सपा को राज मिलता रहा. बिहार में वह बियाबान में है.

गुजरात और हिमाचल दोनों राज्यों में भाजपा की जीत से यह साबित हुआ है कि पार्टी केवल मोदी के भरोसे है. मोदी की छवि हावी है. भाजपा देश की सब से बड़ी पार्टी जरूर बनी है और उस ने कांग्रेस की जगह ले ली है पर श्रमिक, किसान परेशान हैं. दलित आंदोलन की राह पर हैं. शिक्षण संस्थाएं, विश्वविद्यालय, शिक्षा प्रणाली और आर्थिक नीतियां गहरे तक प्रभावित हुई हैं.

कट्टर विचारधारा की जकड़न

 देश में आज जनता को गोलबंद कर उन्हें लोकतंत्र को खत्म करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. हिंदूराष्ट्रवादी विचारधारा ने देश को जकड़ लिया है. इसे सरकार का समर्थन प्राप्त है. इस एजेंडे को लागू करने में आम लोगों की भागीदारी बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. इस से स्पष्ट है कि देश खतरनाक स्थिति की ओर जाएगा. समाज में विभाजन बढ़ेगा.

हिंदूराष्ट्रवादी विचारधारा का वर्चस्व तेजी से बढ़ा है. राममंदिर, गौरक्षा, लव जिहाद जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों का समाज में बोलबाला हो गया है. गौरक्षा के नाम पर देश में मुसलमानों की हत्याएं हुईं. मवेशियों के व्यापार से जुड़े लोगों ने अपनी जानें गंवाईं. दलितों की पिटाईर् हुई. कश्मीर में अतिराष्ट्रवादी नीतियों के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें गईं और घायल हुए.

2018 में कर्नाटक (कांगे्रस), मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ (भाजपा) राज्यों में चुनाव होने हैं. अब भाजपा के लिए इन राज्यों में भी राह आसान नहीं है. गुजरात की जीत भाजपा के लिए चेतावनी है. अब, 2019 की राह भी उस के लिए कांटोंभरी होगी. भाजपा को इस जीत पर जश्न मनाने की नहीं, मंथन करने की ज्यादा जरूरत है.

राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान

47 वर्षीय राहुल गांधी निर्विरोध रूप से कांग्रेस के नए अध्यक्ष चुन लिए गए. वे 132 साल पुरानी कांग्रेस का नेतृत्व करेंगे. राहुल गांधी को यह पद संघर्ष से नहीं मिला. अब तक के उन के पार्टी उपाध्यक्ष और सांसद के तौर पर किए गए कार्यों को उल्लेखनीय नहीं माना गया. उन की अंगरेजीदां अभिजात्य छवि बनी रही है. राहुल गांधी हाल में पार्टी की हिंदूवादी छवि पेश करते दिखाई दिए हैं.

गुजरात विधानसभा के चुनाव में वे मंदिरों की परिक्रमा करते दिखाई दिए. स्वयं को जनेऊधारी हिंदू प्रचारित करते रहे. ऐसा कर के वे समूचे देश के नेता के तौर पर नहीं, खुद को महज हिंदुओं का नेता साबित कर रहे थे. उधर, भाजपा हिंदुत्व को अपनी मिल्कीयत समझती रही है. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कह चुके हैं कि कांग्रेस के पास तो हिंदुत्व का क्लोन है. यानी असली माल उन के पास है. भाजपा एक तरह से कह रही है कि हिंदुत्व पर उस का कौपीराइट है, कांग्रेस तो नक्काल है. इस से लगता है कि कांग्रेस आज हिंदुत्व की पिछलग्गू दिखाई देती है. इस तरह तो कांग्रेस हिंदुत्व की बी नहीं, ए टीम दिखाई दी है.

यह सच है कि कांग्रेस आजादी के समय हिंदूवादी पार्टी थी. मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहते थे. तब के बड़े नेता तनमन से हिंदूवादी थे. कुछ तो वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय देन मानने वाले थे. जवाहरलाल नेहरू थोड़े उदारवादी थे पर वे पार्टी के तिलक, जनेऊधारियों की सलाह के खिलाफ जाने का साहस नहीं दिखा पाते थे. वे हिंदुत्व के विपरीत न तो जगजीवन राम जैसे दलित नेता और न ही सरदार पटेल जैसे पिछड़े वर्ग के नेता की सलाह मानने की हिम्मत करते थे.

राहुल गांधी पिछले कुछ समय से काफी सक्रिय दिखाई दिए हैं. उन्होंने गुजरात विधानसभा के चुनाव में जो तेवर दिखाए, उन तेवरों ने 22 वर्षों से गुजरात में एकछत्र शासन कर रही भाजपा को हिला दिया. यह तो ठीक है. उन्होंने जीएसटी पर व्यापारी वर्ग का समर्थन पाने के लिए सभाओं में मोदी सरकार को कोसा, ऐसा उन्होंने व्यापारियों को लुभाने के लिए किया. मंदिरों की परिक्रमा कर के वे ब्राह्मणों का समर्थन पा सकते हैं पर उन के पास देश की बड़ी युवा जनसंख्या के लिए कोई एजेंडा दिखाई नहीं दिया. पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और औरतों के लिए उन के पास किसी तरह का नया दृष्टिकोण नहीं है.

हालांकि, वे कुछ समय तक दलितों के घरों में जाते रहे. रात को उन के घर में रुकते और उन के घर में खाना खाते. इस से दलितों में किसी तरह का कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया.

राहुल गांधी के पूर्वजों की बात करें तो नेहरू समाजवाद लाने की बात करते रहे. इंदिरा गांधी गरीबी हटाने का नारा ले कर आईं. राजीव गांधी गरीबों, गांवों तक एक रुपए में से 15 पैसे पहुंचने की बात कर के उन्हें लुभाते रहे. पर हकीकत में इस देश के गरीबों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के लिए सिवा वादों के कुछ नहीं हुआ. 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह सोनिया गांधी की छत्रछाया में कौर्पोरेट और भ्रष्ट नेताओं के कल्याण में खड़े नजर आए. कांग्रेस पार्टी में अभी जो युवा नेता हैं उन में से ज्यादातर पिता या परिवार की राजनीतिक विरासत से आए हुए हैं. उन की सोच जानीपहचानी है. जमीन से जुड़ाव वाले नेताओं की कांग्रेस में कमी हो रही है. जो हैं वे लकीर के फकीर दिखाई पड़ते हैं.

सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस को हिंदूवादी छवि से मुक्त हो कर सही माने में लोकतांत्रिक समाजवादी नीतियां स्थापित करनी होंगी. सामाजिक क्षेत्र के लिए उन के पास कोई दृष्टिकोण नहीं दिखता. कांग्रेस में किसी भी युवा या पुराने नेता में आज के भारत को नई दिशा देने के लिए ऐसा नजरिया नहीं है, जो देश की समुचित तरक्की के लिए आवश्यक है.

मंदिरों, तीर्थों और विपक्ष की खामियां उजागर करने मात्र से देश किसी नेता का मुरीद नहीं बन सकता. राहुल गांधी को सामाजिक, राजनीतिक बदलाव का कोई नया कारगर क्रांतिकारी एजेंडा पेश करना होगा, पर लगता नहीं, वे देश में सुधार का कोई नया नजरिया पेश कर पाएंगे. आज देश कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है. ऐसे में कोई नेता युवा हो पर नीतियां 100 साल पुरानी हों, तो कैसे कोई देश तरक्की कर सकता है.

साल 2018 में बायोपिक फिल्मों का होगा बोलबाला

2017 में बायोपिक फिल्मों की सफलता व असफलता का प्रतिशत भले ही मिश्रित रहा हो, मगर भेड़चाल के शिकार बौलीवुड में 2018 बायोपिक फिल्मों का ही बोलबाला रहेगा.

कुछ बायोपिक फिल्में इस प्रकार होंगीः

  1. ‘पैडमैन’ – अक्षय कुमार बने हैं अरूणाचलम
  2. ‘संजय दत्त की बोयापिक’ – रणबीर कपूर बने हैं संजय दत्त
  3. ‘मणिकर्णिकाःद क्वीन आफ झांसी’ – कंगना रानौट बनी हैं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
  4. सायना मिर्जा की बायोपिक ‘सायना’
  5. बाला साहेब ठाकरे पर बायोपिक ‘ठाकरे’ – नवाजुद्दीन सिद्दिकी बन रहे हैं बाला साहेब ठाकरे
  6. 6. हौकी खिलाड़ी संदीप सिंह की पर बायोपिक ‘सूरमा’ – जिसमें संदीप सिंह की भूमिका में दिलजीत दोसांज और उनके भाई विक्रम की भूमिका में अंगद बेदी हैं. तथा संदीप सिंह की पत्नी की भूमिका में तापसी पन्नू हैं.
  7. गुलशन कुमार पर ‘मुगल’
  8. मनमोहन सिंह पर ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ – मनमोहन सिंह की भूमिका में अनुपम खेर
  9. आनंद कुमार पर ‘सुपर 30’ – रितिक रोशन होंगे आनंद कुमार
  10. कैलाश सत्यार्थी पर ‘झलकी’ – बोमन ईरानी नजर आंएगे कैलाश सत्यार्थी के किरदार में
  11. केरल की आदिवासी कार्यकर्ता दया बाई पर ‘दया बाई’ – बिदिता बाग होंगी दया बाई
  12. अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा – शाहरुख खान बन सकते हैं राकेश शर्मा
  13. अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला
  14. गीतकार साहिर लुधियानवी
  15. पैराओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट मुरलीकांत पेटकर
  16. दीपा मलिक
  17. पी टी उषा
  18. गुल मकाइ
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साल 2018 में ये सितारे होंगे बौलीवुड के नए चेहरे

हर साल की तरह इस साल भी बौलीवुड इंडस्ट्री में आपको कुछ नए चेहरे दिखाई देंगे, जिन्हें सिल्वर स्क्रीन पर देखने के लिए अभी से उनके फैन्स बेताब हैं. इन स्टार किड्स ने ना सिर्फ लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है, बल्कि उन्हें अपना बनाने के लिए आज से ही मेहनत शुरू कर दी है. लेकिन इसी के साथ लोगों की इन्हें लेकर उम्मीदें बढ़ गई हैं. आइये जानते हैं बौलीवुड के इन नए सितारों के बारे में.

ईशान खट्टर : नीलिमा अज़ीम और राजेश खट्टर का बेटा ईशान जल्द ही अपना बौलीवुड डेब्यू करने जा रहा है. शाहिद कपूर जैसे बड़े भाई के होते हुए माना जा सकता है कि ईशान के अंदर कला कूट-कूट कर भरी हो सकती है. ईशान ने अभी से ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है. हालांकि कई न्यूकमर्स इस साल हमें बौलीवुड में फिल्में करते हुए दिखाई देंगे, लेकिन ईशान को साथ मिला है फिल्म मेकर माजिद मजीदी का.

बेटे को लेकर राजेश का कहना है कि वह ईशान की डेब्यू को लेकर नर्वस भी नहीं हैं और ओवर कॉन्फिडेंट भी नहीं हैं, उनके मुताबिक ईशान को लोगों का दिल जीतना होगा. अगर पब्लिक ने उन्हें अपना लिया तो उन्हें स्टार बनते देर नहीं लगेगी. इसके अलावा उनकी पहली बौलीवुड डेब्यू करण जौहर की ‘धड़क’ जो ‘सैराट’ का रीमेक है इस पर लोगों की नजरें अभी से टिकी हुई है. बता दे कि ईशान ने अपना फिल्मी करियर 2005 में फिल्म ‘वाह लाइफ हो तो ऐसी’ से बतौर चाइल्ड एक्टर शुरू किया था.

जान्हवी कपूर : बौलीवुड अदाकारा श्रीदेवी और फिल्म प्रोड्यूसर बोनी कपूर की बेटी जान्हवी जल्द ही बौलीवुड में कदम रखने जा रही हैं. सोशल मीडिया पर बड़ी फैन फॉलोइंग के साथ जान्हवी एक स्टाइलिश स्टार किड हैं. उनके एयरपोर्ट लुक्स और रेड कार्पेट पर उनकी तस्वीरें इंटरनेट पर कुछ मिनटों में वायरल हो जाती हैं. इस सबके साथ वे पहले से ही एक स्टार की कैटेगरी में आ चुकी हैं. लेकिन कहते हैं ना जहां फेम है वहां आपको लोगों की एक्सपेक्टेशंस भी पूरी करनी होती हैं.

स्टार परिवार से ताल्लुक रखने की वजह से उनकी तुलना पहले से ही की जा रही है. अब जब रिंकू राजगुरु के निभाए रोल में उन्हें लोग देखेंगे, तो उनकी नेचुरल परफॉर्मेंस किस तरह उठ कर आती है, ये अपने आप में देखने लायक होगा. उन्हें अभी से ही रणवीर सिंह के साथ रोहित शेट्टी की फिल्म सिंबा में फीमेल लीड के तौर पर देखा जा रहा है.

सारा अली खान : अमृता सिंह और सैफ अली खान की बड़ी बेटी सारा अली खान भी स्टार परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया है और इसीलिए उन्हें दुनिया में कहीं भी जॉब मिल सकती हैं. पपराजी की फेवरेट सारा अली खान अपने फैशन के चुनाव को लेकर और अपनी जिंदगी को लेकर हमेशा खबरों में बनी रहती हैं.

आत्मविश्वासी होने के साथ-साथ वह अपने पिता और उनकी पत्नी करीना की ही तरह लोगों के बीच चर्चिति हैं. उनकी बुआ सोहा ने उन्हें लेकर बात करते हुए बताया था कि वह कई डिफरेंट लैंग्वेज में बात कर सकती हैं, उन्हें डांस करना बेहद पसंद है और पढ़ाई के मामले में भी वह हमेशा आगे रही हैं. उनकी पहली फिल्म ‘केदारनाथ’ जिसमें वे सुशांत सिंह राजपूत के साथ दिखाई देने वाली हैं, इससे लोगों को बहुत आशा है. हालांकि उनके प्रोडयूसर का मानना है कि वह पहले ही लोगों का दिल जीत चुकी हैं और अपनी शूटिंग के पहले दिन से ही वह कैमरा के सामने नेचुरल और आत्मविश्वासी रही हैं.

आयुष शर्मा : अर्पिता खान के पति और सलमान खान के बहनोई आयुष शर्मा के लिए भी अगला साल महत्वपूर्ण है. उन्होंने सलमान की फिल्म सुल्तान में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम किया है. खानदान से ताल्लुक की वजह से और मंत्री अनिल शर्मा के बेटे होने के कारण उन्हें लेकर पहले ही लोगों में बज़ है.

हाल ही में उनकी कुछ तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी जिसमें वे डांस क्लास में मेहनत करते हुए दिखाई दिए थे. पावर फुल फैमिली से जुड़े होने के बाद भी वे एक न्यू कमर की ही तरह मेहनत कर रहे हैं.

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