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केंद्रीय बजट : सड़े सेब पर सुनहरा लेप

हैडलाइनें जो देश के प्रमुख समाचारपत्रों के मुख्य पृष्ठों पर 2 फरवरी को प्रकाशित हुईं या 1 फरवरी को टीवी न्यूज चैनलों ने हल्ले में कहीं, बार बार कहीं और विशेषज्ञों के माध्यम से कहलवाईं, उन में जो कहा गया और बजट प्रस्तावों की सत्यता में कितना मेल है, जरा देखें और समझें :

टाइम्स औफ इंडिया : ‘वूविंग हैव-नौट्स’, हिटिंग हैव-नोट्स, यानी बजट ने उन्हें खुश किया जिन के पास कुछ नहीं है और उन पर प्रहार किया जिन के पास नोटों के भंडार हैं.

इंडियन ऐक्सप्रैस : ‘नो-नौनसैंस बजट’. यानी बिना खराबी वाला बजट.

इकोनौमिक टाइम्स : ‘नो फायरवर्क्स, एफएम शूट्स स्ट्रेट’. यानी आतिशबाजी नहीं, सीधा निशाना.

दैनिक जागरण : ‘सियासत में कालेधन पर चाबुक’, यानी नेताओं के कालेधन पर लगाम कसी और उन्हें पकड़ कर उन पर चाबुक चलेगा.

हिंदुस्तान टाइम्स :  ‘सेफ बजट, हाइक्स रूरल, इन्फ्रा स्पैंड’. यानी पूरी तरह से जनहित का सुरक्षित बजट.

नवभारत टाइम्स : ‘जेटली ने साधा टैक्स चोरों पर निशाना’, और ‘मितरो’… यानी अरुण जेटली इस बजट के जरिए टैक्सचोरों को निशाने पर ले रहे हैं और मितरो का मतलब तो हर कोई जानता है ही.

अमर उजाला : ‘जेब में आई उम्मीदें.’ यानी इस बजट से आम जनता की जेबें भर जाएंगी.

जी न्यूज : ‘युवाओं पर फोकस’. यानी रोजगार का खजाना निकलेगा और युवाओं के लिए रोजगार संबंधी ढेरों फायदे.

इंडिया टीवी और न्यूज 24 : ‘नया नोट नया बजट’. यानी इस बार बजट में जनता के लिए काफी कुछ नया है.

आज तक : ‘किसानों के लिए सरकार ने खोला पिटारा’. यानी बजट से अब किसानों की खस्ता हालत में सुधार होगा.

हिंदुस्तान : ‘जेटली का बजट दांव,  करोड़ों मतदाताओं पर करम’. यानी बजट के नाम पर आम जनता और राज्यों के चुनावों के करदाताओं पर कोई एहसान किया गया है.

हैडलाइन और खबर में फर्क

इन शीर्ष खबरों और बजट प्रस्तावों में क्या कोई तालमेल है? बिलकुल नहीं. कैसे? आइए जानते हैं. उदाहरण के तौर पर ‘वूविंग हैव-नौट्स’, हिटिंग हैव-नोट्स वाली हैडलाइन से लगता है कि उन्हें खुश किया जा रहा है जिन के पास पैसे नहीं हैं. यहां गरीबों की बात की जा रही है.

सवाल है कि इन के लिए बजट में ऐसी कौन सी घोषणा कर दी गई है जो आने वाले बजट साल यानी 2017-18 में इन लोगों को खुश कर देगी, जिन के पास पैसे नहीं हैं. यह एक तरह का फरेब है. वजह, इस अखबार ने जिस दिन यह खबर प्रकाशित की थी, उसी दिन घरेलू गैस यानी एलपीजी के 67 रुपए महंगी होने की खबर भी छपी थी. क्या इसी महंगाई से, जिन के पास कुछ नहीं है, उन्हें राहत मिल जाएगी?

बजट समाचार कुछ और ही सब्जबाग दिखा रहा है लेकिन बजट प्रस्तावना में गरीबों के लिए कोई खास तोहफा नहीं है. बजट भाषण या प्रस्तावों में वही बातें दोहराई गई हैं जो अरुण जेटली से पहले प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह, मोरारजी देसाई से ले कर पी चिदंबरम आदि कमबढ़ती दोहराते रहे हैं, जब वे देश के वित्त मंत्री थे.

अरुण जेटली ने 5 लाख रुपए सालाना तक की आय वाले करदाताओं के लिए कर की दर को मौजूदा 10 प्रतिशत से घटा कर 5 प्रतिशत कर दिया. यानी अब साढ़े 3 लाख रुपए के टैक्सयोग्य इनकम वाले व्यक्ति को सिर्फ 2,575 रुपए टैक्स देना होगा, जो पहले 5,150 रुपए देने पड़ते थे. यह तो ऊंट के मुंह में जीरा है.

एक तरफ एलपीजी महंगी कर दी गई और दूसरी तरफ केंद्र सरकार कहती है कि अगले वित्तवर्ष से राशन की दुकानों से बिकने वाली चीनी के लिए वह राज्यों को 18.50 रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से सब्सिडी नहीं देगी. इस से जाहिर है कि चीनी के दाम बढ़ सकते हैं. यानी देश में राशन, पानी और गैस से ले कर हर सामान महंगा और टैक्स का बोझ डाल कर बेचा जाएगा. फिर भी बजट में जिन के पास नोट नहीं हैं, उन को खुश करने के झूठे दावे किए जा रहे हैं.

वित्त मंत्री इस गलतफहमी में हैं कि कैशलैस इकोनौमी से टैक्स की वसूली बढ़ेगी, लेकिन आखिर में यह भार आम जनता पर ही बढ़ेगा क्योंकि पहले आम लोग राशन की दुकानों से नकद माल खरीद कर जिस थोड़े से टैक्स से बचते थे अब उन्हें उस पर भी कई तरह के सर्विस व वैटनुमा टैक्स देने होंगे. इस से आम लोगों की जेब, जो पहले से ही खाली है, और खाली होगी. क्या सिर्फ टैक्स में 2,575 रुपए की राहत मिलने भर से इसे महान बजट बता कर इस का महिमामंडन करना जायज है?

यह बजट ‘नो-नौनसैंस’ कैसे हो सकता है? बजट में जिन योजनाओं व घोषणाओं को सौगात बता कर वित्त मंत्री और अखबार पेश कर रहे हैं, वे सौगातें क्या बजट साल 2017-18 के बीच जनता को मिल जाएंगी? बिलकुल नहीं. इस शीर्षक का मतलब निकालें,  तो आम बजट बहुत ही व्यावहारिक, अर्थपूर्ण व सटीक है. बजट की घोषणा के पहले दिन ही बिना किसी योजना के कार्यान्वयन के ढांचे या बजट में किए गए वादों की समयसीमा जाने बिना अखबार ने इसे रामायण की तर्ज पर संपूर्ण बजट होने के भरम की तरह रचा है.

शीर्षक ‘नौकरीपेशा की लौटरी’ और ‘युवाओं पर फोकस’ का ढोल बजा कर भ्रम फैलाया जा रहा है कि बजट की टैक्स नीतियों से रोजगार और नौकरियों के अवसर बढ़ेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होने वाला. नरेंद्र मोदी सरकार की 2 दर्जन से अधिक योजनाएं रोजगार व आमदनी बढ़ाने में विफल रही हैं. हमारी अर्थव्यवस्था सिर्फ खपत के इंजन पर चल रही है, जिस में नई नौकरियां पैदा नहीं हो रहीं. देश में एकतिहाई लोग बेरोजगार हैं, जबकि वर्ष 2015 में सिर्फ 1.35 लाख नौकरियों का ही सृजन हुआ. मिलीं कितनों को, यह बाद की बात है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, आटोमेशन (स्वचालन) की बदौलत भारत में 69 फीसदी नौकरियों पर तलवार लटक रही है. ऐसे में यह बजट देश के युवाओं को पर्याप्त रोजगार कैसे देगा?

एक करोड़ लोगों को रोजगार के हवाई सपने दिखा रहे इस बजट से क्या अगले साल तक इतने रोजगार मिलना संभव हैं? कहां से पैदा होंगी इतनी नौकरियां? वह भी तब जब भारतीय आईटी कंपनियों की 60 फीसदी आमदनी अमेरिका से होती है, जो नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेतुकी नीतियों की वजह से खतरे में हैं.

डिजिटल इकोनौमी से भारत में बेरोजगारी बढ़ने के साथ अमेरिकी इंटरनैट कंपनियों को अनुचित फायदा हो रहा है,  जिस के लिए बजट में समुचित प्रावधान नहीं किए गए. ऊपर से डोनाल्ड ट्रंप भारत में काम कर रही मल्टीनैशनल कंपनियों, जो माल यहां से बना कर अमेरिका भेजती हैं, पर भी चाबुक चलाने की फिराक में हैं. ऐसे में रोजगार के हालात बदतर ही होंगे. लेकिन बजट में सब हरा ही हरा बताया व दिखाया जा रहा है.

दावों की लौलीपौप

बजट प्रस्तावना में किसानों के लिए सिंचाई से ले कर तरहतरह के कर्ज और सुविधाओं के दावे हैं. ‘किसानों के लिए सरकार ने खोला पिटारा,’ ‘किसानों के लिए 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज’, ‘पूर्वोत्तर और जम्मूकश्मीर के किसानों को प्रमुखता’, ‘मनरेगा के लिए 48 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान’, ‘गांवों में 10 लाख तालाब’, ‘कोऔपरेटिव बैंकों में सेवाओं को डिजिटल बनाने के लिए 3 साल में 1,900 करोड़ रुपए का प्रस्ताव’ जैसी बड़ीबड़ी बातें कही गई हैं. इस के अलावा ‘नाबार्ड के अंतर्गत डेयरी प्रोसैसिंग इन्फ्रा फंड के तहत 8,000 करोड़ रुपए का प्रावधान’ और ‘फसल बीमा योजना की रकम 5,500 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 13 हजार करोड़ रुपए’ जैसे लुभावने वादे हैं. ऐसे वादे हर साल किए जाते हैं. हकीकत से उन का कोई लेनादेना नहीं है.

किसानों के लिए बजट का भला क्या महत्त्व है. 5 वर्षों में उन की आय दोगुनी होने के बजाय आधी रह जाएगी. उन की समस्या है उत्पादन का उचित दाम न मिलना, बिचौलियों के चलते उन की मेहनत किसी और की जेबों में चली जाती है.

‘गुजरात व झारखंड में 2 नए एम्स’ खोलने की घोषणा ऐसे की गई है मानो दोनों अस्पताल अगले ही साल बन कर जनता के इलाज के लिए खोल दिए जाएंगे. ‘लंबी सड़कों का निर्माण होगा’, ‘स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होगा’, ‘रोजगार के मौके आएंगे’, ‘देश का हर गांव बिजली से संपन्न होगा’, और ‘शिक्षा का स्तर सुधरेगा’ जैसे तमाम अच्छे दिनों की तर्ज पर गढ़े गए जुमले मोदी सरकार ने बजट की फर्जी दूरदर्शिता वाली स्कीम में फिट कर दिए हैं, जिन को मीडिया ने हाइलाइट किया है. लंबी सड़कें कब बनेंगी? कौन इन्हें नापने जाएगा कि कितनी सड़कें बनी हैं?

सरकार देशभर में पहले से मौजूद सरकारी अस्पतालों की हालत तो दुरुस्त कर नहीं सकी और बातें नए एम्स बनाने की कर रही है. देश की प्रगति के लिए व स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए नए बड़े अस्पताल बनाना ठीक है, पर ऐसा होने में सालों लग जाएंगे. इस से अच्छी पहल तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ‘मोहल्ला क्लिनिक’ बनाने की है, जो घोषणा करने के बाद न सिर्फ तुरंत बन गए, बल्कि राजधानी के तकरीबन हर मोहल्ले में सफलतापूर्वक चल भी रहे हैं. वहां मुफ्त इलाज और जांचें हो रही हैं. मरीज का हाथोंहाथ औनलाइन रिकौर्ड भी बन रहा है, ताकि अगली बार आने पर उस को ब्योरा दोबारा न देना पड़े और इलाज सुचारु रूप से चल सके.

सीधा निशाना किस पर?

‘नो फायर वर्क्स, एफएम शूट्स स्ट्रेट’ शीर्षक के हिसाब से जो सीधा निशाना साधा गया है, वह किस पर साधा गया है, पता नहीं. नोटबंदी के नाम पर कालेधन वालों को निशाना बताया गया लेकिन शिकार हो गया गरीब. जो चंद नोटों को बदलवाने के लिए हफ्तों बैंकों की लाइनों में धक्के खाता रहा. क्या ऐसा ही सीधा निशाना फिर से बजट के माध्यम से साधा गया है? अगर ऐसा है तो यह आम जनता के लिए चिंता की बात है. इस में टैक्स देने वाले लोग भी पिसे हैं.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने टैक्स देने वालों के आंकड़े पेश करते हुए बताया कि साल 2015-16 में कुल 3 करोड़, 70 लाख लोगों ने इनकम टैक्स रिटर्न फाइल किया. इन में से 99 लाख करदाताओं ने सालाना आय टैक्स छूट की लिमिट ढाई लाख रुपए से कम बताई. वहीं, 1 करोड़, 95 लाख लोगों ने अपनी इनकम ढाई लाख से 5 लाख रुपए सालाना घोषित की. 52 लाख करदाताओं ने 5 लाख से 10 लाख रुपए तक अपनी सालाना आमदनी बताई, जबकि महज 24 लाख लोगों ने अपनी सालाना आमदनी 10 लाख रुपए से ज्यादा घोषित की.

जब भी बजट पेश किया जाता है, तो टैक्स देने वालों से ज्यादा टैक्सचोरों की बात की जाती है कि वे किस तरह अपनी आमदनी कम दिखा कर सरकार को वाजिब टैक्स देने से बच जाते हैं. क्या सरकार ऐसे ‘टैक्स चोरों’ पर निशाना साधती है. लोगों की आमदनी, उपयोग और उन के टैक्स चुकाने में बड़ा अंतर है.

सवाल उठता है कि देश में ऐसे हालात ही क्यों बने हैं कि लोगों को टैक्स चोरी करनी पड़े? इस की सब से बड़ी वजह यह है कि खुद को मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं की अनदेखी के चलते देश की आजादी के इतने साल बाद भी लोग टैक्स देने से बचते हैं या उन्हें अपनी मेहनत की आमदनी पर टैक्स वसूला जाना सरकार का डाका डालना लगता है.

उदाहरण के तौर पर एक खबर लेते हैं. देश की राजधानी दिल्ली से तकरीबन

50 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश राज्य में एक छोटा सा गांव मोतीपुर है. गांव में ‘मोती’ जैसा उजला शब्द जुड़ा होने के बावजूद इस गांव के लोग बिजली की राह देख रहे हैं. यकीन नहीं होता, लेकिन यहां के बाशिंदों का दावा है कि उन्होंने अपने गांव में पिछले तकरीबन 35 सालों से बिजली के दर्शन नहीं किए हैं. इतना ही नहीं, इस गांव में न कोई डिस्पैंसरी है, न स्कूल है और कई जगह तो रास्ता भी धूलभरा है.

मोतीपुर गांव के लिए बिजली की दिल्ली अभी दूर है, लेकिन भारत के दिल दिल्ली में कौन से हालात सुधर गए हैं. शर्म की बात है कि यहां की जितनी ट्रैफिक लाइटें हैं, वे सही माने में कभी भी दुरुस्त नहीं रहती हैं.

दिल्ली के भारी ट्रैफिक में ये लाइटें लोगों की जान और उन की गाडि़यों का ईंधन बचाने का काम करती हैं, पर हालात वही ढाक के तीन पात हैं. भारत की तमाम सरकारें जब बुनियादी सुविधाएं ही देने में नाकाम रही हैं, तो वे किस हक से लोगों से टैक्स की वसूली करना चाहती हैं?

‘अरुण जेटली का बजट दांव, करोड़ों मतदाताओं पर करम’ से साफ है कि अखबार ने बजट में पेश की गई राजनीति को सूंघ कर खबर लिखी कि वित्त मंत्री ने 21.47 लाख करोड़ रुपए का बजट पेश किया. यह रकम पिछले बजट से 1.69 लाख करोड़ रुपए ज्यादा है.

क्या कोई वक्त लिए बिना बता सकता है कि 21.47 लाख करोड़ रुपए में कितने जीरो होते हैं? सब से बड़ा एतराज तो इस बात का है कि इस बजट ने करोड़ों मतदाताओं पर करम कैसे कर दिया? करम तो कर्महीन पर किया जाता है. क्या सरकार बजट के नाम पर देने वाली सुविधाओं को जनता में खैरात के तौर पर बांटती है? बजट तोहफा है या टौर्चर, यह तो जनता को आने वाले समय में मालूम हो जाएगा. अखबारों द्वारा इसे तोहफा बताने की जल्दबाजी हजम नहीं होती.

नोटबंदी भी फेल

‘करदाताओं को नोटबंदी का तोहफा’ कहने वाले भूल गए हैं कि नोटबंदी के दौरान पेटीएम जैसी कंपनियां कमाई करती रहीं और आम आदमी डिजिटाइजेशन के नाम पर ठगा गया.

मीडिया अफोर्डेबल हाउसिंग सोसाइटी, रियल एस्टेट प्रोजैक्ट और लोगों को आशियाना मिलने में आसानी जैसे जुमले दोहराते हैं और यह भी बताते हैं कि प्रधानमंत्री आवास योजना की बजट राशि 15 हजार करोड़ रुपए से बढ़ा कर 23 हजार करोड़ रुपए कर दी गई है, लेकिन इन तथ्यों का कहीं जिक्र नहीं है कि विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के अनुसार, तकरीबन सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में 91 करोड़ (73 फीसदी) लोग गरीबी के चंगुल में हैं, जिन में से 23 करोड़ लोग घोर गरीब हैं. सरकारी योजनाएं गरीबों को दो वक्त का खाना मुहैया कराने में विफल रही हैं, फिर 1 करोड़ मकानों का सपना कैसे साकार होगा? क्या आम जनता ने अपने सिर पर जो छतें बनाई हैं, उन में कभी भी सरकार का योगदान रहा है? ये लोगों की कड़ी मेहनत और पाई पाई के जोड़ से बनी हैं.

मनरेगा की बजट राशि में बढ़ोतरी कर अपनी पीठ थपथपाने वाली सरकार पिछले बजट की मनरेगा पर खर्च की गई राशि का हिसाब देने में तो बगलें झांकती है, ऐसे में इस बढ़ाई गई राशि की क्या परिणीति होगी, बताने की आवश्यकता नहीं है. मनरेगा के लिए पिछले बजट में 38,500 करोड़ रुपए का प्रावधान था, जबकि वास्तविक खर्च 58,000 करोड़ रुपए हुआ. ऐसे में बजट राशि, जो कि जनता की जेब काट कर वसूली जाएगी, बढ़ाने से अच्छा पुरानी राशि को पारदर्शिता से खर्चने पर काम किया गया होता, तो बेहतर होता. वैसे भी बजट में मनरेगा हेतु सिर्फ जिस राशि का आवंटन किया गया है, वह ग्रामीण भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए नाकाफी है.

‘सेफ्टी अमेनिटीज टू पुट रेलवेज बैक औन द ट्रैक’ का राग आलाप रहे मीडिया को भारतीय रेलवे से जुड़े न तो दयनीय आंकड़े याद आते हैं और न ही रेल की खस्ताहाल व्यवस्था. आए दिन रेल के हादसे, ट्रेनों की लेटलतीफी और यात्रियों को मिलता सड़ागला खाना जैसी दिक्कतें जस की तस कायम हैं.

बजट को ‘प्रो पुअर’ यानी गरीबों के हित का भला कैसे बताया जा सकता है? आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, साल 2001 से 2011 के दौरान 10 वर्षों में 8 करोड़ मजदूर गांवों से पलायन कर शहर आ गए हैं. देश में गरीबीरेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या करीब साढ़े 5 करोड़ है. जबकि 23 करोड़ लोग घोर गरीबी का जीवन जी रहे हैं. उन वंचित वर्गों के अच्छे जीवन के लिए ढांचागत विकास हेतु बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं किए गए हैं.

कालेधन की गंगा

‘सियासत के कालेधन पर चाबुक’ कहने से कालेधन पर लगाम नहीं लगेगी. यह बात किसी से नहीं छिपी है कि कालेधन की गंगा निकलती कहां से है. अगर पिछले 70 वर्षों से राजनीतिक दलों की फंडिंग को पारदर्शी नहीं रखा गया, तो क्या इस में आम जनता की गलती है?

3 लाख रुपए से ज्यादा के लेनदेन पर नजर रखने का दावा करने से पहले यह किसी ने नहीं सोचा कि देश में ऐसे लेनदेन पर नजर रखना नामुमकिन है.

अगर कोई किसान किसी से ट्रैक्टर खरीदता है और सोना बेच कर लिए गए पैसे उस ट्रैक्टर मालिक को दे कर बिना कागजात ट्रांसफर किए उस गांव में उसे चलाता है तो भला इस लेनदेन की भनक सरकार को कैसे लगेगी? ऐसे कई लेनदेन सरकार की नाक के नीचे होते रहे हैं और होते रहेंगे.

कालेधन पर जो ‘डिजिटल नकेल’ कसने की बात की जा रही है, वह भी हवाहवाई लग रही है, क्योंकि डिजिटल तकनीक में साइबर क्राइम का खतरा बढ़ जाता है. ऐसा नहीं है कि कंप्यूटर इमरजैंसी रिस्पौंस टीम बनाने का प्रस्ताव पास नहीं हो सकता है, पर किसी भी सरकार ने अभी तक तो इस बारे में कोई गंभीर पहल नहीं की है.

सब से बड़ा सवाल तो यह है कि राजनीतिक दलों के पास पैसा कहां से आ रहा है, यह सवाल पूछने कौन जाएगा? आम आदमी तो सरकारी दफ्तर में घुसने तक से घबराता है कि कहीं किसी बात पर उस से घूस न मांग ली जाए. ऐसे में फिर कालेधन को चंदे के रूप में चबाने वाले राजनीतिक मगरमच्छों के तालाब में कौन उतरना चाहेगा?

मीडिया का दायित्व

बजट पेश करना सरकार का काम है. यह तो हर साल होता है. यह होता तो एक साल का है, पर सरकार की चतुराई और मीडिया के भरम से ऐसा दिखाया जाता है कि  आज से पहले ऐसा बजट मानो पहले कभी पेश ही नहीं किया गया, जबकि आम जनता तो महज इतना चाहती है कि उस की बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी होंगी. इस के लिए ज्यादातर लोग तो सरकार का मुंह भी नहीं देखते हैं. लेकिन जब मीडिया बजट को संजीवनी बूटी की तरह पेश करता है तो देशवासी बजट को ही सबकुछ मान लेते हैं. क्या यही है मीडिया का दायित्व?

अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थौमस जेफरसन ने तो सरकार और अखबार में से अखबार चुनने की बात कही थी. मतलब सरकार का अस्तित्व भले ही न रहे, पर अखबार हमेशा जिंदा रहने चाहिए.

आमतौर पर इतने महत्त्वपूर्ण मीडिया को सरकार नियंत्रित नहीं करती, लेकिन क्या आज मीडिया सरकार और कौर्पोरेट जगत के स्वार्थ के लिए काम करता है? आखिर आम आदमी, खासकर ग्रामीण इलाकों के कमजोर तबकों के लोगों की आजीविका से जुड़े मुद्दे मीडिया में महत्त्वपूर्ण खबर क्यों नहीं बन पाते हैं? बजट को ले कर भी यह बात कही जा सकती है. मीडिया, आखिर, अपने नैतिक मूल्यों की जिम्मेदारियों से तो नहीं बच सकता. लेकिन आज वह इन सब की अवहेलना करता दिखता है, जो स्वस्थ समाज के लिए सही नहीं है.

क्या हुआ सस्ता

सोलर पैनल

इस्तेमाल होने वाले ग्लास

रेलवे ई टिकट

समूह बीमा

रक्षाकर्मियों के लिए

पीओएस मशीनें

आरओ

बायोमीट्रिक मशीन

क्या हुआ महंगा

एलईडी लैंप

मोबाइल

भारत में बने स्मार्टफोन

चांदी के सिक्के

सिगरेट

तलेभुने काजू

पानमसाला

हसीन सपने

शिक्षा : शिक्षा बजट बढ़ाने, औनलाइन कोर्स व डीटीएच चैनलों में जोड़ने मात्र से सालों से खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी.

सस्ते मकान : अफोर्डेबल हाउसिंग स्कीम सालों से चल रही है लेकिन घर आज भी लोगों को खुद ही बनाने पड़ रहे हैं.

रेल सेफ्टी : सड़ागला खाना, बढ़ती रेल दुर्घटनाओं व लेटलतीफ ट्रेनों से कब मिलेगी राहत.

नकद चंदा : लेनदेन पर पारदर्शिता के लिए कोई कारगर प्रणाली नहीं है सरकार के पास.

कैश लेनदेन 3 लाख रुपए तक : खरीदफरोख्त पर सोनाचांदी के बदले अन्य सामानों के लेनदेन का गैरकागजी ब्योरा सरकार तक कैसे पहुंचेगा?

खस्ताहाल अस्पताल :  पहले बीमार सरकारी अस्पतालों को दुरुस्त करें. फिर नए एम्स की बात करते, तो समझ आता.

– सुनील शर्मा, राजेश कुमार

लोकतंत्र या वोटतंत्र

दुनियाभर में लोकतंत्र नहीं, वोटतंत्र फेल हो रहा है. वोटों से चुन कर आने वाले शासक देश, समाज, विश्व व जनता के लिए भले का काम करें, अब यह अनिवार्य नहीं रह गया है. एक समय पहले लोकतंत्र की पहली शर्त निष्पक्ष चुनाव थे जिस में हर व्यक्ति को अपनी इच्छा से वोट देने का हक हो. जिन देशों में यह हक जितना ज्यादा मजबूत था, उन्हें उतना ज्यादा लोकतांत्रिक, उदार, स्वतंत्र व भेदभाव रहित माना जाता था. अब ऐसा नहीं. अब कई देशों में लोकतंत्र से ऐसे नेता उभर रहे हैं जो न केवल अन्य देशों के लिए बल्कि अपने समर्थक वोटरों के लिए भी खतरा बन रहे हैं. अमेरिका का उदाहरण तो भयावह है जहां चुनावी प्रक्रिया जटिल है और शासकनेता को एक नहीं, कईकई चुनावी परेशानियों से गुजरना पड़ता है. वहां डोनाल्ड ट्रंप ने न केवल अपनी बकबक के बावजूद बाधाएं सफलता से पार कर लीं बल्कि चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बनने के एक सप्ताह में ही अमेरिका की राजनीति, विदेश नीति, घरेलू नीति, स्वास्थ्य नीति, जौब नीति को भी उथलपुथल कर दिया. आने वाले समय में क्याक्या होगा, नहीं मालूम.

अमेरिकी संविधान में एक चुने राष्ट्रपति को हटाना आसान नहीं है और न ही उस की मनमानी को रोकना. इंगलैंड में वोट के सहारे हुए जनमत में ब्रिटेन की जनता ने यूरोपीय संघ से निकलने का आत्मघाती फैसला ले लिया है. फ्रांस में मेरीन लेपे की नैशनल फ्रंट नामक अतिवादी पार्टी उभर रही है. रूस में ब्लादिमीर पुतिन वोटों के सहारे ही सत्ता में आए थे, उन्हें थोपा नहीं गया था. भारत में नरेंद्र मोदी को स्वच्छ सरकार, अच्छे दिन, कालाधनमुक्त भारत के लिए भारी बहुमत से चुना गया पर नरेंद्र मोदी ने केवल नोटबंदी जैसा गलत फैसला ही नहीं लिया, उन्होंने रिजर्व बैंक पर कब्जा भी कर लिया, लोकसभा को निरर्थक बना दिया, मंत्रिमंडल को नकार दिया. अपनी बात को मनवाने के लिए उन्होंने दूसरे दलों में तोड़फोड़ करवा दी. ऐसे में भारत में लोकतंत्र की चूलें हिलने लगी हैं. भारत में ऐसा पहले इंदिरा गांधी के जमाने में हुआ था. जब तक जयललिता तमिलनाडु में थीं, वे अपने को पुजवाती थीं. देश में नेताओं के जूते साफ करने वाले अफसरों की भी कमी नहीं है.

कुछ ऐसे देश हैं जो लोकतंत्र का मखौल बनाते हुए नकली चुनाव करा कर शासनसुख भोगते हैं. यहां बात उन की नहीं हो रही. यहां उन देशों के लोकतंत्रों की बात हो रही है जहां चुनावी लोकतंत्र गहरी जड़ें जमा चुका है पर अब उन जड़ों का खोखलापन दिखने लगा है. लोकतंत्र का अर्थ स्वतंत्र व्यापार, स्वतंत्र मीडिया, स्वतंत्र न्यायपालिका और स्वतंत्र चुनावी प्रक्रिया है. पर इन सब को अब खरीदा जा रहा है. दुनिया की संपत्ति यानी शक्ति कुछ हाथों में संकुचित हो रही है और वे ही चुनावी फैसले करने लगे हैं, अपने देश में ही नहीं, हर उस देश में भी जहां उन्हें काम करना होता है. एक नए तरह का विश्वव्यापी साम्राज्य उत्पादनों और सेवाओं के नाम से शुरू हो गया है और माइक्रोसौफ्ट, आईबीएम, मौंट्रैनो, फेसबुक, गूगल, यूनीलीवर जैसे नामों की चीजों को इस्तेमाल करने वाले निरंतर अपने को खुद अलोकतंत्र के गड्ढे में धकेल रहे हैं. डोनाल्ड ट्रंप उन्हीं की देन हैं.

लोकतंत्र का अर्थ पूरे समाज के लिए बराबरी के अवसर मिलना, बराबरी के हक मिलना, बराबरी की चिकित्सा सुविधाएं मिलना, बराबरी का न्याय मिलना, बराबरी की शिक्षा मिलना है. उन्हें चुनावों के महंगे प्रचार, महंगी पार्टियों, पार्टियों में परिवारों के दखल,  शासन पर कौर्पोरेटों के कब्जों ने अब समाप्त कर दिया है. लोकतंत्र की भावना अब मरणासन्न स्थिति में है. लोकतंत्र  हमारे बीच में है पर एक पत्थर की मूर्ति की तरह जिस की पूजा की जाती है, जिस पर सिर नवाया जाता है लेकिन वह हमारे लिए कुछ नहीं कर सकता.

गब्बर आ जाएगा

जो उतर जाए या खत्म हो जाए वह कम से कम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का तो गुस्सा हो ही नहीं सकता जो नोटबंदी के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से खार खाए बैठी हैं. पश्चिम बंगाल विधानसभा में अपने क्रोधप्रदर्शन का नवीनीकरण कराती ममता ने फिर मोदी की तुलना ऐतिहासिक फिल्मी किरदार ‘शोले’ फिल्म के खलनायक डाकू गब्बर सिंह से कर डाली कि वे उस की तरह डराने के काम आते हैं.

हिटलर मुसोलिनी और स्टालिन जैसे नामों के मुकाबले गब्बर आम जनमानस के ज्यादा नजदीक है, इसलिए लोगों को ममता की मंशा जल्द समझ आती है. सियासी रामगढ़ यानी दिल्ली जा कर क्या अखिलेश यादव और राहुल गांधी ममता के लिए जय और वीरू की तरह ठांयठांय कर पाएंगे, इस बाबत 11 मार्च का दिन अहम साबित  होगा.

सैल्फी विद डिंपल

अपने नेता में आस्था और निष्ठा जताने का सर्वोत्तम भारतीय तरीका उस के चरणस्पर्श करना है. चुनाव के दिनों में तो कार्यकर्ताओं की लाइन ठीक वैसे ही लगी नजर आती है जैसे नवरात्रि के समय में देवी के मंदिरों के सामने भक्त खड़े नजर आते हैं. जिन नेताओं की सभा को कामयाब बनाने के लिए कार्यकर्ता हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं, अखिलेश यादव की सुंदर सांसद पत्नी डिंपल यादव उन में से एक हैं. इधर फर्क यह देखा गया कि नेता से नजदीकियां बतानेजताने का तरीका पैर पड़ना कम, उस के साथ सैल्फी लेना ज्यादा हो चला है.

स्वभाव से अंतर्मुखी डिंपल ने हाइटैक हो चली राजनीति व कार्यकर्ताओं की सैल्फी खींचने वाली मानसिकता को खूब प्रोत्साहन दिया. नतीजतन, उन की सभाओं में सपा कार्यकर्ता हाथ में झंडे कम, मोबाइल लिए ज्यादा दिखे. अब ये सैल्फियां अखिलेश अगर सत्ता में फिर से आए तो ड्राइंगरूम की दीवारों पर बड़ीबड़ी तसवीरों की शक्ल में नजर आएंगी और नहीं आ पाए तो डिलीट विकल्प की शिकार हो जाएंगी.

बहका मन

फागुन में मन कितना बहके

फागुन में मन कितना दहके

होंठों पे होंठों का चुंबन

कैसे हो बांहों का आलिंगन

देखो मन कितना तरसे

फागुन में तन कितना दहके

– रेनू श्रीवास्तव

टौमी

आज 8 सालों के अपने संरक्षक टौमी की यादें दिल को मसोस रही हैं. आंसू थम नहीं रहे हैं. इन 8 सालों में टौमी मेरा सबकुछ बन गया था. एक ऐसा साथी जिस पर मैं पूरी तरह निर्भर रहने लगी थी. टौमी ने तो अपना पूरा जीवन मुझ पर न्योछावर कर दिया था. सालभर का भी तो नहीं था, जब वह मेरे पास आया था मेरा वाचडौग बन कर. और तब से वह वाचडौग ही नहीं, मेरे संरक्षक, विश्वासपात्र साथी के रूप में हर क्षण मेरे साथ रहा.

20 साल पहले की घटना आज भी जरा से खटके से ताजी हो जाती है, हालांकि उस समय यह आवाज खटके की आवाज से कहीं भारी लगी थी. और लगती भी क्यों न, बम विस्फोट की आवाज न होते हुए भी गोली की आवाज उस समय बम विस्फोट जैसी ही लगी थी.

रीटा के शरीर में उस आवाज की याद से झुरझुरी सी दौड़ गई. वसंत का बड़ा अच्छा दिन था. सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ नईनईर् पत्तियों से सज गए थे. क्रैब ऐप्पल्स के पेड़ों पर फूलों की बहार अपनी छटा दिखा रही थी. शीत ऋतु में जमी बर्फ के पहाड़ देख जहां शरीर में झुरझुरी पैदा हो जाती थी वहीं उस दिन वसंत की कुनकुनी धूप शरीर के अंगों को सहती बड़ी सुखदायक लग रही थी.

इस सुहावने मौसम में रीटा के होंठ एक बहुत पुराना गीत गुनगुना उठे थे. हालांकि गीत कुनकुनी धूप का नहीं, सावन की फुहार का था. और हो भी क्यों न, सावन की फुहार…रीटा 18 वर्ष की ही तो थी. उस अवस्था में इसी रस की फुहार के सपने ही तो सभी लड़कियां देखती हैं. गीत गुनगुना उठी, ‘ओ सजन, बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई…,’ शायद यह उम्र का तकाजा था कि मन कहीं से कहीं भटक रहा था.

जहां गीत को याद कर रीटा मुसकरा उठी वहीं उस दिन की याद कर उस का बदन सिहर उठा. वह कालेज के दूसरे साल में पढ़ रही थी. छुट्टियों में उस ने एक दुकान पर पार्टटाइम नौकरी कर ली. दुकान में उस समय वह अकेली थी. कोई ग्राहक नहीं था, सो वह गुनगुनाती हुई शैल्फ पर सामान लगा रही थी कि अचानक हलके से खटके से उस का ध्यान भंग हुआ. सोचा कि कोई ग्राहक आया है, वह उठ कर कैश काउंटर के पास गई. रीटा ने पूछने के लिए मुंह ऊपर उठा कर खोला ही था कि क्या चाहिए? उस ने देखा ग्राहक का मास्क से ढका चेहरा और उस की अपनी ओर तनी पिस्तौल की नली. इस आकस्मिक दृश्य व व्यवहार से बौखला गई वह. फिर शीघ्र ही संभल गई. पिस्तौलधारी के आदेश पर उस ने उसे कैश काउंटर से सारे डौलर तो दे दिए पर साथ ही, उस की आंख बचा पुलिस के लिए अलार्म बजाने का प्रयत्न भी किया. अपने अनाड़ीपन में उस का यह प्रयत्न पिस्तौलधारी की नजर से अनदेखा न रह पाया और उस ने गोली दाग दी.

जब उसे होश आया, दुकान का मालिक रोरो कर कह रहा था, ‘‘रीटा, मैं ने कहा था कि यदि कभी भी ऐसी परिस्थिति आए तो चुपचाप पैसा दे देना. अपने को किसी खतरे में मत डालना. पैसा जीवन से बढ़ कर नहीं है. यह तुम ने क्या कर लिया?’’ रीटा ने सांत्वना देने के लिए उठ कर बैठने का प्रयत्न किया पर यह क्या, रीटा अचंभे में पड़ गई क्योंकि वह उठ नहीं पा रही थी. रीटा अतीत में खोई हुई थी. उसे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने में कई महीने लगे थे. अब तक रीटा ने इस तथ्य को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था कि अब पूरा जीवन इसी विकलांगता के साथ ही उसे जीना है, चाहे निरर्थक जिए या अब इस जीवन को कोई सार्थकता प्रदान करे. और फिर वह अपने पुराने सपने को पूरा करने में लग गई. हालांकि डेढ़दोसाल जब वह अपने मातापिता के साथ रही, वह उन पर तथा भाईबहन पर पूरी तरह निर्भर रही. पर उस के बाद सोच में पड़ गई कि कब तक वह सब पर निर्भर रहेगी. इस विकलांगता में भी उसे आत्मनिर्भर बनना है. इसी दिशा में उस ने टोरंटो यूनिवर्सिटी में अपने पहले के कोर्स खत्म कर के अपनी ग्रेजुएशन पूरी की. फिर उस ने एरिजोना जाने की ठान ली क्योंकि वहां का मौसम पूरे साल अच्छा रहता है. उस के स्वास्थ्य के लिए एरिजोना का मौसम उपयुक्त था.

रीटा के लिए एक विशेष कारवैन बना दी गई थी जिस में वह सफर कर सके, फिर भी उसे किसी ऐसे की जरूरत तो थी ही जो उसे ड्राइव कर सके. घर से बाहर क्या, घर के अंदर भी वह अकेले समय नहीं बिता पा रही थी. वह सोच में पड़ गई थी कि मातापिता तो नहीं, पर क्या भाईबहन में कभी न कभी आगे चल कर उस के प्रति रोष की भावना नहीं उभरेगी. रीटा इस स्थिति से बचना चाहती थी. इसलिए उस ने एरिजोना जा कर स्वतंत्ररूप से अपनी पढ़ाई पूरी करने का निर्णय लिया था.

तकरीबन 3 साल बाद जब वह टोरंटो लौटी तब तक वह काफी आत्मनिर्भर हो चुकी थी. परिवार का प्यार तो उस के साथ हरदम रहा. मातापिता उम्र के इस दौर में स्वयं ही धीरेधीरे अक्षम हो रहे थे. सो, उन्हें यह देख कर खुशी ही हुई कि रीटा ने अपने जीवन को एक नए ढर्रे पर अच्छी तरह चलाने का गुर सीख लिया है. उस ने पत्रकारिता तथा मैनेजमैंट में डिगरी हासिल कर ली और टोरंटो के एक अखबार में नौकरी भी कर ली है. अब वह आर्थिक रूप से भी किसी पर निर्भर नहीं रही.

टोरंटो में रीटा ने सैंट लौरेंस में फ्लैट किराए पर ले लिया क्योंकि यह उस के काम करने के स्थान से बिलकुल पास था. वह अपनी इलैक्ट्रिक व्हीलचेयर में आसानी से कुछ ही मिनटों में वहां पहुंच सकती थी. साथ ही, यह स्थान ऐसा था कि उसे यहां हर तरह की सुविधा थी. यह मार्केट नैशनल ज्योग्राफिक में दुनिया की सब से अच्छी मार्केट बताई गई है. साथ ही यहां से मैसी मौल, एयर कनाडा सैंटर, थिएटर, पार्क आदि मनोरंजन की जगहें भी पासपास थीं. सो, यह स्थान हर तरह से सुविधाजनक था.

हालांकि सबकुछ ठीकठाक ही चलने लगा था, यहां मैं बहुत चीजें कर सकती थी लेकिन वास्तव में, कम से कम स्वयं खुद से, मैं कुछ भी नहीं कर रही थी.पर जब से टौमी आया, सबकुछ बदल सा गया. लंबे समय तक, इस दुर्घटना के बाद मैं अपनी हरेक बात को शूटिंग से पहले और शूटिंग के बाद के कठघरे में रखती थी पर टौमी के आने बाद अब हरेक बात टौमी से पहले और टौमी के आने के बाद के संदर्भ में होने लगी.टौमी के आने से पहले मैं कभी भी शौपिंग, या किसी भी काम के लिए, यहां तक कि अपनी व्हीलचेयर पर जरा सा घूमने के लिए भी, अकेले नहीं जाती थी. मेरी बिल्ंिडग में ही पूरे हफ्ते चौबीसों घंटे खुलने वाला ग्रोसरी स्टोर है, वहां भी मैं कभी अकेले नहीं गई. घर में अकेले ही पड़ी रहती थी. हां, मेरे पास एक अफ्रीकन ग्रे तोता रौकी जरूर था जिसे अपने जैसे किसी और पक्षी का साथ न होने की वजह से इंसानी साथ की बहुत जरूरत थी. हालांकि रौकी बहुत प्यारा था पर मेरी अवस्था के मुताबिक, अच्छा पालतू पक्षी नहीं था. वह मेरी देखभाल करने वाली नर्सों को काट लिया करता था, सो वे उस से भयभीत रहती थीं. स्वास्थ्य समस्याओं के कारण उसे काफी देखभाल की जरूरत थी और मैं उस की देखभाल अच्छी तरह नहीं कर सकती थी. आखिरकार वह एक दिन स्वयं ही अपने कंधे पर किए गए घाव की सर्जरी के दौरान चल बसा. उस की अकाल मृत्यु के दुख ने मुझे, लोगों के कहने पर भी किसी और पक्षी को रखने का मन नहीं बनाने दिया.

6 महीने बाद एक दिन एक मित्र ने कहा कि क्यों नहीं मैं एक सर्विस डौग के बारे में सोचती. हालांकि कुछ समय पहले भी मैं ने इस दिशा में सोचा था और कैलिफोर्निया की एक संस्था, जो कुत्तों को प्रशिक्षित करती है, से बात भी की थी, पर उन के विचार से मेरी पक्षाघात, लकवा की स्थिति इतनी गंभीर है कि कुत्ता मुझ से जुड़ नहीं पाएगा क्योंकि मुझ में उसे खिलानेपिलाने या सहलाने तक की क्षमता नहीं है. सो, मैं ने इस दिशा में सोचना ही छोड़ दिया था.

मित्र के सुझाव पर फिर यह विचार पनपने लगा क्योंकि उस के साथसाथ मैं ने भी महसूस किया कि सचमुच मुझे कुत्ते की आवश्यकता है. मैं स्वयं को अकेला, असुरक्षित सा महसूस करने लगी थी. स्टोर का या थोड़ा सा बाहर घूमने जाने का काम, जो मैं अकेले कर सकती थी, उस के लिए भी मैं अपनी परिचारिका को साथ घसीटे रहती थी यह जानते हुए भी कि मुझे उस की जरूरत नहीं. कोईर् भी व्यक्ति मेरी दशा देख कर अपनेआप ही मेरे लिए दरवाजा खोल देता या दुकान वाले मेरी पसंद की चीज मुझे अपनेआप काउंटर से उठा कर दे देते व मेरे पर्स से यथोचित पैसे निकाल लेते. मैं मन ही मन सोचती कि ऐसी कई बातों के लिए मुझे किसी भी परिचारिका की जरूरत नहीं है. मैं स्वयं ही यह सब कर सकती हूं, फिर भी नहीं कर रही हूं.

एक दिन तो बाजार से आते हुए फुटपाथ पर कठपुतली का नाच देखने के लिए रुक तो गई, मजा भी आया पर फिर पता नहीं क्यों, बस घर जाने का ही मन करता रहा और वहां रुक न सकी. हालांकि मैं परिचारिका की छुट्टी कर स्वयं घर जाने में सक्षम थी. रुकने का मन भी था और घर में ऐसा कुछ नहीं था जिस के लिए मुझे वहां जल्दी पहुंचने की विवशता हो.

कई बार मित्रों के साथ फुटबौल देखने जाने का आमंत्रण या अन्य कार्यक्रमों के आमंत्रण भी स्थगित करती रही. पता नहीं क्यों, असुरक्षा की भावना से ग्रसित रही.

एक दिन गरमी की छुट्टियों में अपनी कौटेज में थी तब फिर पालतू कुत्ता रखने की भावना ने जोर पकड़ा. हुआ यों कि दोपहर के समय मेरे भाईबहन के बच्चे पास के बाजार में घूमने के लिए चले गए और मेरी परिचारिका मेरे साथ बैठेबैठे झपकी लेने लगी. मैं ने उसे अंदर जा कर सोने के लिए कहा. बाद में मैं बोर होने लगी और बिना किसी को बताए घूमने के लिए चल दी.

ड्राइववे के आगे थोड़ी सी ढलान थी. चेयर को संभाल न सकी और मैं घुटनों के बल गिर गई. चिल्लाने की कोशिश की, यह जानते हुए भी कि वहां सुनने वाला कोई नहीं है. तब सोचा, काश, मेरे पास कुत्ता होता. परिचारिका की नींद खुलने पर मुझे अपनी जगह न पा वह मेरा नाम पुकारतेपुकारते ढूंढ़ने निकली. मेरी दर्दभरी आवाज सुन वह मुझ तक पहुंची.

मैं ने अब मेरे जैसे लोगों की सहायता करने वाले ‘वर्किंग डौग’ की सक्रिय रूप से खोज करनी शुरू की. नैशनल सर्विस डौग्स संस्था के माध्यम से मैं ने टौमी को चुना. या यों कहें कि टौमी ने मुझे चुना. वहां के कार्यकर्ता टौमी के साथ मुझे जोड़ने से पहले यह देखना चाहते थे कि वह मेरी व्हीलचेयर के साथ कैसा बरताव करता है, मेरी चेयर के प्रति उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी. मुझे टौमी के बारे में कुछ भी बताए बिना उन्होंने मुझे टोटांटो स्पोर्ट्स सैंटर में आमंत्रित किया जहां 6 कुत्तों से मेरा परिचय कराया. टौमी मेरी चेयर के पास ही सारा समय लेटा रहा.

बेला, जिस ने टौमी को पालापोसा था, ने बताया था, ‘टौमी शुरू से ही अलग किस्म का था. छोटा सा पिल्ला बड़ेबड़े कुत्तों की तरह गंभीर था. इस की कार्यप्रणाली अपनी उम्र से कहीं ज्यादा परिपक्व थी. लगता था कि उसे पता था कि वह इस संसार में किसी महत्त्वपूर्ण काम के लिए आया है.

टौमी को स्वचालित दरवाजों के बटन दबा कर खोलना, रस्सी को खींच कर कार्य करना, फेंकी हुई चीज को उठा कर लाना या बताने पर कोई वस्तु लाना, जिपर खोलना, कोट पकड़ कर खींचना, बत्ती का बटन दबा कर जलाना या बुझाना, बोलने के लिए कहने पर भूंकना आदि काम सिखाए गए थे. टौमी हरदम काम को बड़े करीने से करता था.’

‘पर, हां, वह शैतान भी कम नहीं था. एक दिन बचपन में उस ने 7 किलो का अपने खाने का टिन खोल डाला और उस में से इतना खाया कि उस का पेट फुटबौल की तरह फूल गया था. और फिर उस के बाद इतनी उलटी की कि बच्चू को दिन में भी तारे नजर आने लगे. लेकिन फिर कभी उस ने ऐसा नहीं किया.

‘टौमी को मेरे फ्लैट और पड़ोस में प्रशिक्षित किया गया. रोज प्रशिक्षित करते समय उसे बैगनी रंग की जैकेट पहनाई जाती. जैकेट जैसे उस का काम पर जाते हुए व्यक्ति का बिजनैस सूट था. उस की जैकेट उस के लिए व बाकी लोगों के लिए इस बात का संकेत थी कि वह इस समय काम पर तैनात है. लोगों के लिए यह इस बात का भी संकेत था कि वे ‘वर्किंग डौग’ के काम में उसे थपथपा कर, पुचकार कर उस के काम में वे बाधा न डालें.’

शुरू में मुझे यह अच्छा लगा कि टौमी फर्श पर अपने बिस्तरे में सोए. पहली

2 रातें तो यह व्यवस्था ठीकठाक चली. तीसरी सुबह टौमी ने मेरे बिस्तरे के पास आ कर मेरे चेहरे के पास अपना मुंह रख दिया. मैं भी उस का विरोध न कर पाई और उसे अपने बिस्तरे पर आमंत्रित कर बैठी. उस ने एक सैकंड की भी देरी नहीं की और मेरे बिस्तरे पर आ गया. जब मुझे बिस्तर से मेरी व्हीलचेयर पर बैठाया गया तो वह मेरे शरीर द्वारा बिस्तर पर बनाए गए निशान पर लोटने लगा. मुझे कुत्तों के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था, फिर भी मेरे विचार से वह मेरे शरीर की खुशबू में स्वयं को लपेट रहा था. उस दिन से वह हर समय मेरे साथ ही सोने लगा था, फिर कभी वह फर्श पर नहीं सोया.

टौमी ने जल्दी ही सीख लिया था कि मेरी व्हीलचेयर कैसे काम करती है. पहले हफ्ते गलती से व्हीलचेयर के नीचे उस का पंजा आतेआते बचा था. उस के बाद से वह कभी भी मेरी व्हीलचेयर के नीचे नहीं आया. चेयर की क्लिक की आवाज पर वह तुरंत उस से नियत फासले पर काम की तैनाती मुद्रा में खड़ा हो जाता. आरंभ से ही लोगों ने मेरे प्रति उस की प्रतिक्रिया की तारीफ करनी शुरू कर दी थी. वह शुरू से अपनी प्यारीप्यारी आंखों द्वारा मेरे चेहरे को देखते हुए मेरे आदेश, निर्देश व आज्ञा की कुछ इस तरह प्रतीक्षा करता था कि मेरा मन स्वयं ही उस पर पिघल जाता था.

अधिकतर लोग कुत्तों को प्यार करते हैं और टौमी को देख तो वैसे ही प्यार उमड़ पड़ता था. पहले महीने जब मैं एक सरकारी रिसैप्शन में गई तो मुख्यमंत्री ने मुझ से हाथ मिलाने के बाद पूछा, ‘क्या मैं इसे सहला सकता हूं?’ मैं ने कहा कि अभी यह काम पर तैनात है. मुझ से बात करने के बाद जब वे अगले व्यक्ति से बात करने लगे तो टौमी जल्दी से उन की टांगों पर अपना भार डाल उन के पैरों पर बैठ गया. मुख्यमंत्री हंस कर बोले, ‘अरे, मुझे इसे सहलानेदुलारने का मौका मिल ही गया.’

गोल्डन रिट्रीवर और लैब्राडोर अच्छी नस्ल के और अपने खुशनुमा स्वभाव के कारण सब से अच्छे वर्किंग डौग होते हैं. काम इन के लिए सचमुच आनंददायी होता है. टौमी तो हरदम ऐसा पूछता हुआ लगता कि बताओ, अब मैं और क्या करूं? ये खाने के भी शौकीन होते हैं. मैं काम करते समय अपने उस स्टैंड के पास, जिस पर मेरी ‘माउथस्टिक’ होती थी, जिस से मैं काम करने के लिए बटन दबाया करती थी, उस के लिए बिस्कुट रखती थी और उसे उस के हर अच्छे काम पर इनामस्वरूप बिस्कुट नीचे गिरा देती थी. कुछ ही दिनों में टौमी इतना कुशल हो गया था कि वह उन्हें बीच रास्ते में हवा में ही पकड़ लेता था.

अब सोचती हूं कि जिस से मैं ने सालों पहले कैलिफोर्निया में कुत्ता रखने के बारे में बात की थी, उसे नहीं पता कि वह क्या कह रही थी. उस ने मुझे साफ मना कर दिया था. उस के विचार से कुत्ता मुझ से किसी भी हालत में जुड़ नहीं सकता क्योंकि मैं उस की देखभाल नहीं कर सकती. मैं तो उसे खाना तक नहीं दे सकती हूं. ऐसी हालत में कुत्ता मुझ से बिलकुल नहीं जुड़ेगा. पर वह गलत थी क्योंकि टौमी को तो मुझ से जुड़ने में जरा भी समय नहीं लगा.

टौमी के लिए यह कोई मसला ही नहीं था कि कौन उस के लिए खाना रखता है. जब तक मैं न कह दूं, वह खाने को छूता तक नहीं था. मेरी कुरसी के बायीं ओर उस का एक छोटा व लचीला पट्टा बंधा होता था. वह जानता था कि छोटा पट्टा काम का पट्टा है और लचीला, छोटाबड़ा होने वाला आराम से घूमने वाला पट्टा है. वह मेरे स्वामी होने के एहसास को अच्छी तरह जानता था. उसे पता था कि घर का मालिक कौन है, चाहे उसे खाना कोईर् भी परोसे.

टौमी मेरी असमर्थताओं को भी जान गया था. उस ने समाधान निकाल लिया था कि मैं कैसे उसे सहला सकती हूं, उसे कैसे अपना प्यारदुलार दे सकती हूं. अपनी परिचारिका की सहायता से सुबहसुबह मैं थोड़ाथोड़ा अपनी बाहों को फैलाने की चेष्टा करती थी. हमारे रिश्ते की शुरुआत में ही टौमी, जब मेरी बाहें अधर में, हवा में होतीं, मेरे सीने पर आ जाता और मेरी गरदन चाटने लगता और फिर अपने शरीर को मेरे हाथों के नीचे स्थापित कर लेता. उस का यह प्रयास हर रोज सुबह के नाश्ते से पहले उस के आखिरी दम तक बना रहा.

मेरे लिए उस से जुड़ने के वास्ते यह बहुत जरूरी था कि मैं उसे उस की जरूरत की सब चीजें प्रदान करूं, विशेषरूप से पहले साल. मैं उसे रोज घुमाने ले जाती चाहे कितनी भी गरमी या सर्दी हो. पर दूसरे साल से इस में ढील पड़ गई. सर्दी में दूसरों को मैं ने यह काम सौंप दिया. हां, अधिक सर्दी के दिन छोड़ कर, मैं ही उसे घुमाने ले जाती थी. या यों कहूं कि मैं उस के साथ घूमती थी.

पहलेपहल अकेले जाने में बड़ी समस्या आई. बाहर से अंदर आते समय तो वाचमैन मेरे लिए दरवाजा खोल देता था और लिफ्ट का बटन दबा देता था. मैं अपनी फ्लोर पर जा कर अपने घर का मुख्यद्वार अपने सिर में लगे कंट्रोल से खोल लेती थी. पर अकेले बाहर जाने की समस्या विकट थी कि कैसे एलिवेटर का बटन दबाया जाए. दीवार पर क्या चिपकाया जाए जिस की मदद से टौमी एलिवेटर का बटन दबा सके. इस में समय लग रहा था कि एक दिन मैं ने अपनी माउथस्टिक से बटन दबाने की सोची. स्टिक की लंबाई पूरी पड़ गई और समस्या हल हो गई.

अब मैं आसपड़ोस के लोगों से भी मिलने लगी, डौग पार्क में भी मेरी कइयों से दोस्ती हो गई. साथ ही, मैं अपने कई काम खुद ही करने लगी. अब मैं अकेले टौमी के साथ बाहर जाने के लिए प्रोत्साहित होने लगी. मेरी बाहर अकेले जाने की घबराहट कब खत्म हो गई, पता ही न चला. लोग मेरे से पहले टौमी को देख लेते थे और उस की वजह से ही मेरी व्हीलचेयर अजनबियों को कम भयग्रस्त करती थी.

जब मैं टौमी से पहले की अपनी जिंदगी देखती हूं कि किस तरह मैं ने खुद को अपने फ्लैट तक सीमित कर लिया था, कैद कर लिया था तो स्वयं को पहचान भी नहीं पाती हूं. मैं टौमी की बदौलत बहुत ही आत्मनिर्भर, आरामदेह, शांतिप्रद, सुखी हो गई थी. मैं इतने साल कैसे एक कौकून की तरह बंद कर के रही, आश्चर्य करती हूं. टौमी मुझे उस स्थिति के नजदीक ले आया जो दुर्घटना के पहले थी. ऐसी स्थिति जो इन परिस्थितियों में मेरे लिए खुशहाली लाई. टौमी ने मेरे लिए उस संसार के द्वार खोल दिए थे जो मैं ने अपने लिए अनावश्यक रूप से स्वयं ही बंद कर लिए थे.

हमारी झोली में कई साहसिक और कुछ भयग्रस्त करने वाले किस्से भी हैं. आज भी उन्हें याद कर सिहर जाती हूं. पार्क में एक रात अकेले होने पर पिट बुल द्वारा अटैक अभी भी बदन को सिहरा जाता है. एक बार वह मुश्किल से एलिवेटरद्वार बंद होने से पहले अंदर घुस पाया था. एक बार तो वह कार से टकरातेटकराते बचा था. मैं ने अपनी व्हीलचेयर का पहिया कार की ओर मोड़ दिया था जिस से कि मेरे पैरों पर भले ही आघात हो पर कम से कम टौमी बच जाए. लेकिन हम दोनों ही बच गए.

हालांकि आखिर में टौमी खाने के प्रति थोड़ा लालची होने लगा था लेकिन फिर भी वह जैकेट पहन कर काम में जरा भी शिथिलता नहीं आने देता था. हां, कौटेज में जाने पर वह मस्तमौला हो जाता था. वहां वह ज्यादा से ज्यादा ड्राइववे तक मेरे साथ जाता. उस के बाद मैं कितना ही उसे पुचकारती, बढ़ावा देती, वह मेरे साथ आगे न बढ़ता. हां, किसी और के साथ मजे में वह सब जगह घूमता. मैं सोचती कि क्या यह इस स्थान के प्रति मेरी भावनाओं को समझ रहा है. मैं सालों बाद भी, उस स्थान से जहां मैं गिरी थी, स्वयं को उबार नहीं पा रही थी. मेरे अंतर्मन के किसी कोने में उस स्थान के प्रति हलकी सी भयग्रस्त भावना समाई हुई थी. शायद इसीलिए, यह वहां नहीं जाना चाहता था.

एक सुबह मैं ने अपनी उस असुरक्षा की भावना को जड़ से उखाड़ फेंकने का निश्चय किया और संपूर्ण साहस बटोर, परिचारिका को बिना बताए उस पथ पर चल दी. ड्राइववे पर टौमी कुछ दूर तक मेरे साथसाथ चला पर आधे रास्ते जा, स्वभावगत वह वहीं रुक गया. मैं धीरेधीरे आगे बढ़ती रही, टौमी को पुकारती रही पर वह टस से मस न हुआ. बस, खड़ा देखता रहा. मैं ने भी अपना प्रण न छोड़ा, बढ़ती गई. ड्राइववे के अंतिम छोर पर मैं रुकी. पलट कर मैं ने उसे कई बार पुकारा, हर आवाज में- कड़ी, उत्साहित, डांटने वाली, आदेश वाली, मानमनौवल वाली, भयभीत आवाज की नकल करते हुए भी पुकारा, यहां तक कि भावनात्मक ब्लैकमेल भी किया पर वह वहीं चुपचाप खड़ा रहा. फिर झल्ला कर मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं अकेले ही आगे जा रही हूं. मैं ने सोचा कि देखूं कि वह मुझे आंखों से ओझल हो, देख क्या करता है. जैसे ही मैं पलटी, पाया कि गाड़ी के पहिए रेत में धंस अपनी ही जगह पर घूम रहे हैं. मेरी पीठ टौमी व कौटेज की तरफ थी. मैं करीबकरीब उसी जगह पर फंसी थी जहां सालों पहले गिरी थी.

मुझे याद नहीं, कि वास्तव में मेरे मुंह से पूरी तरह से टौमी का नाम निकला भी था या नहीं, कि मैं ने उसे अपनी ओर दौड़ता हुआ आता महसूस किया. फिर मुझे याद नहीं कि मैं ने इतने सालों के साथ में कभी भी उस की ऐसी शारीरिक मुद्रा देखी हो. उस की मौन भाषा, उस की शारीरिक मुद्रा बारबार मुझ से पूछ रही थी कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूं.

मैं ने कहा, ‘टौमी, बोलो.’ अधिकतर जब भी मैं टौमी को ऐसा आदेश देती थी, वह एक बार भूंकता था या कभीकभी जब ज्यादा उत्साहित होता तो 2 बार. पर इस समय वह मेरे आदेश देने पर कई बार भूंका, जैसे वह समय की नजाकत पहचान रहा हो.

मैं टौमी की शारीरिक भाषा से पार नहीं पा रही थी. उस की उस समय की दयनीय आंखें, उस की मुखमुद्रा जीवनभर मेरे साथ रहेंगी. मैं उस की प्रशंसा करती रही और उसे बोलने को उत्साहित करती रही. तकरीबन 10-15 मिनट लगे होंगे जब मैं ने पदचापों को अपनी ओर आते सुना. यदि टौमी न होता तो न जाने मैं कब तक और किस हाल में वहां पड़ी होती.

यादें, न जाने कितनी यादें, अब तो बस टौमी की यादों का पिटारा ही साथ रह गया है.    

ऐसे मनी होली

प्रिय से मिल कर

शर्म से लाल हो ली

ऐसे मनी होली

गलियोंचौबारों में

नैनों की पिचकारी चली

लाज शर्म धो ली

ऐसे मनी होली

प्यार की बौछार से

तनमन भीगा

भीगी चोली

ऐसे मनी होली

गुलाल की करामात से

बिगड़ी सूरत भोली

ऐसे मनी होली

नाचनाच कर पायल टूटी

आशिकों में चल गई गोली

ऐसे मनी होली

उतरा जब नशा

पिया की बांहों में सो ली

ऐसे मनी होली.

– डा. अनिता राठौर ‘मंजरी’

रंग दे…मोहे रंग दे…

ससुराल में नेहा की पहली होली थी, इस कारण घर में खूब रौनक थी. छत पर डीजे लगा था और उस के मायके से उस की बहनों को बुलाया गया था. मस्ती का माहौल होने के चलते सब खूब मस्ती कर रहे थे. नेहा की बहनें अपने जीजू, उन के भैया वगैरा के साथ रंग व पानी से खूब होली खेल रही थीं.

सब को होली खेलते देख नेहा भी खुद को न रोक पाई और मौका मिलते ही अपनी सास व जेठ को रंग लगाते हुए बोली, ‘होली है भई, होली है, बुरा न मानो होली है.’ नेहा की इस शरारत के बाद सब होली के रंग में ऐसे रंगे कि कब दिन के 2 बज गए, पता ही न चला, फिर सब ने मिलबैठ कर लंच किया और पुराने किस्सों को याद कर खूब ठहाके लगाए.

बदलते समय के साथ महिलाएं भी होली की मस्ती का पूरा लुत्फ उठाती हैं और यह कहती हुई कि रंग दे मोहे रंग दे…रंग लगाती हैं और लगवाती भी हैं.

कुछ वर्षों पहले तक रंगों से पुते हुए पुरुष ही दिखते थे लेकिन अब महिलाएं भी दिखने लगी हैं. ‘महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है,’ ऐसी बातों को धता बता कर वे अब होली के रंगों में पूरी तरह खुद को डुबो डालती हैं, ताकि वे पीछे न रहें किसी भी चीज में.

हर किसी संग मस्ती : पहले घरों में अगर महिलाएं होली खेलती भी थीं तो सिर्फ घर की चारदीवारी के भीतर और उस में भी देवरभाभी? के बीच ही. अपनों से बड़ों को रंग लगाना या फिर उन्हें छूना घर की परंपरा के खिलाफ होता था. लेकिन अब नहीं. अब वे जिस तरह से पढ़लिख कर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं उसी तरह से उन्होंने अपने परिवार, अपने समाज की सोच बदली है.

यही कारण है कि अब वे होली हर किसी संग यानी देवर के अलावा अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पड़ोसियों के साथ भी खेलती हैं. जिस से पुरुषों के साथसाथ अब महिलाएं भी इस दिन को ले कर काफी उत्साहित रहती हैं.

स्टाइलिश दिखने की होड़ : महिलाओं का मेकअप से चोलीदामन का रिश्ता होता है. तभी तो वे कोई मौका नहीं छोड़तीं खुद को स्टाइलिश दिखने का. यहां तक कि तब जब कि उन्हें पता होता है कि होली के रंगों में उन की ड्रैस, मेकअप सब खराब हो जाएगा तब भी वे इस मौके पर खुद को किसी से कम नहीं दिखाना चाहतीं. उन्हें लगता है कि इस दिन भी उन की ऐंट्री इतनी धमाकेदार हो कि लोग देखते ही रह जाएं.

इस के लिए वे चाहे थीम ड्रैस सफेद ही क्यों न हो लेकिन फिर भी उस का चयन कुछ हट कर करना चाहती हैं ताकि वे सफेद रंग में भी यूनीक दिख सकें. साथ ही, मैचिंग ऐक्सैसरीज व हेयरस्टाइल भी ड्रैस को सूट करता हुआ होता है. वे अपनी स्टाइल से महफिल की शान बनना चाहती हैं.

एंजौय के लिए डांस : हम किसी से कम नहीं फिर चाहे बात हो डीजे की धुन पर थिरकने की या फिर ढोल पर नाचने की. वे नहीं चाहतीं कि जब होली पार्टी में डांस की बात आए तो उन्हें मुंह छिपा कर भागना पड़े या फिर एक कोने में खड़े होने के लिए मजबूर होना पड़े. ऐसे में वे खुद को इस दिन के लिए तैयार करने के लिए डांस प्रैक्टिस भी करती हैं. वे चाहती हैं कि जब पार्टी हो तो वे पार्टी के किसी भी पल को एंजौय करने से वंचित न रहें.

अब वे होली पार्टी में पुरुषों के साथ मिल कर थिरकती हैं, कई बार तो वे अपने डांस से पुरुषों को पीछे छोड़ देती हैं, जिस से होली का जश्न और दमदार हो जाता है.

किटी गैंग के साथ प्लानिंग : महिलाओं का किटी गैंग खूब धमाल मचाने वाला होता है. जहां यह गैंग इकट्ठा होता है वहां शरारतें, धमाके जरूर होते हैं. अगर उन्हें सोसायटी की तरफ से होली सैलिब्रेशन का आमंत्रण आ गया होता है या फिर उन का किटी गैंग ही खुशीखुशी 2 ग्रुपों में बंट कर होली सैलिब्रेट करने के मूड में होता है तो वे या तो अपने पूरे गैंग के साथ या फिर अपने ग्रुप के साथ प्लानिंग करती हैं कि कैसे होली पर सामने वाले को किस बहाने से बुला कर सब से पहले रंगना है, किस गाने पर नाच कर धमाल मचाना है, क्या पहनना है, कैसे ऐंट्री मारनी है वगैरावगैरा.

इस के लिए वे एक महीना पहले से तैयारियों में लग जाती हैं और इस की किसी को भनक नहीं लगने देतीं. बस, इंतजार करती हैं उस दिन का जब उन का किटी गैंग होली की पार्टी में धमाल मचाएगा.

फोटो में कलर मैजिक : मोबाइल फोन के ऐडवांस होने से अब महिलाएं फोटो क्लिक करवाने के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहतीं. तभी तो वे अब हर घंटे फोटो बदलने में विश्वास करने लगी हैं. ऐसे में सैल्फीके्रजी महिलाएं होली जैसे इतने कलरफुल फैस्टिवल को बिना फोेटो सैशन के कैसे जाने देंगी. वे चाहे होली पर फ्रैंड्स के साथ कोल्डड्रिंक चियर्स करती फोटोज हों या फिर रंगों से पुते चेहरे, हर तरह के फोटो लेती हैं. फिर इस मौके पर ली गई हर तसवीर को कभी व्हाट्सऐप डीपी बनाती हैं तो कभी फेसबुक प्रोफाइल पिक. इस से वे यह भी दिखाने की कोशिश करती हैं कि उन्होंने होली के अवसर पर कितनी मस्ती की है.

रंगों से दोस्ती : त्वचा के प्रति काफी जागरूक महिलाएं जहां पहले होली पर घर से बाहर निकलना भी पसंद नहीं  करती थीं कि कहीं उन का चेहरा खराब न हो जाए, कहीं बालों की शाइनिंग कम न हो जाए लेकिन अब समय के साथ उन की यह सोच भी बदली है.

उन्हें लगता है कि अगर हम पहले से थोड़ी सावधानी बरत लें, जैसे बालों और चेहरे पर तेल लगा लें, नेल्स पर नेलपेंट लगा लें तो इस से ज्यादा असर नहीं पड़ता. अगर रंगों की वजह से हलकी ड्राईनैस आई भी तो उसे घरेलू नुसखों से वैसे ही दूर कर लेंगे जैसे मौसम बदलने पर आईर् ड्राईनैस को दूर करते हैं.

वैसे, महिलाएं नैचुरल तरीके से होली खेलने की ज्यादा हिमायती होती हैं और इस के लिए वे औरों को भी प्रोत्साहित करती हैं, जिस से रंगों का भी पूरा आनंद मिल जाता है और किसी को नुकसान भी नहीं पहुंचता.

इसी संबंध में दिल्ली के विकासपुरी में  रहने वाली पूजा, जो काफी समय से इसी कारण से रंगों से दूरी बनाए रखती थीं लेकिन जब उन्होंने टीवी पर देखा कि कैसे फूलों से घर पर ही रंग तैयार किए जा सकते हैं, जिस का कोई नुकसान नहीं होता, अब होली के जश्न में शामिल होने लगीं हैं.

घरेलू जायके को नहीं भूलतीं : भले ही घर में बच्चे फास्टफूड खाने के शौकीन हों, लेकिन फिर भी वे

होली के मौके पर परंपरागत व्यंजन, जैसे दहीभल्ले, पापड़ी, गुझिया, पूरीभाजी वगैरा बनाना नहीं भूलतीं. क्योंकि वे त्योहारों के बहाने इस की खुशबू अपनों तक पहुंचाना चाहती हैं ताकि बच्चों को समझ आए कि आज त्योहार है तभी इस तरह के व्यंजन घर में बनाए गए हैं.

बच्चे भी मां की मेहनत को बेकार नहीं जाने देते और बड़े प्यार से खाते हैं, यहां तक कि इस दिन बनाई हर चीज को वे आनेजाने वालों के सामने भी परासेती हैं ताकि अपने घर की परंपरा से औरों को भी रूबरू करवा सकें.

इस का मकसद यह भी होता है कि बच्चे उन्हें देखदेख कर सीखें और जब वे उन से कभी दूर भी रहें तब भी घर पर खुद इन्हें बना कर अपने दोस्तों को भी खिलाएं ताकि उन के घर के इस जायके का स्वाद दूरदूर तक पहुंचे.

मस्ती में भी स्वास्थ्य : जब उन्हें पता होता है कि होली की मौजमस्ती में 1-2 दिन जम कर खाया जाएगा और ऐसे में खुद को रोक पाना या फिर किसी के सामने बहाना बनाना भी मुश्किल होता है, इसलिए वे कईर् दिनों पहले से लो कैलोरी डाइट लेनी शुरू कर देती हैं, ऐक्सरसाइज भी बढ़ा लेती हैं ताकि 1-2 दिन ज्यादा खानेपीने का कोई खास असर न हो. दरअसल, आज महिलाएं हमेशा फिट रहना चाहती हैं, मोटी नहीं. इस के लिए चाहे त्योहार हो या फिर शादीपार्टी, वे हैल्थ को इग्नोर नहीं करतीं. इस तरह अब यह कहना गलत नहीं होगा कि होली और महिलाओं का चोलीदामन का साथ है.  

ऐसा गांव जहां सिर्फ महिलाएं मनाती हैं होली

उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के कुंडारा गांव में पिछले 30 वर्षों से सिर्फ महिलाएं होली खेलती हैं, पुरुष घर में बंद रहते हें. ऐसा करने के पीछे कारण यह है कि 30 वर्षों पहले जब इस गांव के लोग होली मना रहे थे तो इनामी डकैत मेग्बर सिंह ने एक व्यक्ति की हत्या कर ग्रामीणों को काफी प्रताडि़त किया था. तब से वहां के पुरूषों ने होली न मनाने की कसम खाई.

पुरुषों की यह बात महिलाओं को रास नहीं आई और उन्होंने सब को समझाया भी. जब उन की बात का असर नहीं दिखा तो उन्होंने निर्णय लिया कि अब से वे पुरुषों के बिना होली मनाएंगी और तब से यह परंपरा चली आ रही है.

वहीं, राजस्थान के कल्याणीपुरा गांव में महिलाएं एकदूसरे को रंग लगा कर खूब मस्ती करती हैं जबकि पुरुष उन की सुरक्षा में गांव के बाहर पहरा देते हैं.

 

यह भी खूब रही

हमारी बालकनी में पुराने सामान पड़े होने की वजह से कबूतरों ने डेरा डाल लिया था. आएदिन कबूतरी अंडे देती रहती. हम ने सारा सामान हटवा कर अच्छी तरह से साफसफाई कर दी. अब कबूतर आते भी तो तुरंत भाग जाते थे या हम में से भी कोई उन्हें भगा दिया करता था. एक दिन मेरी छोटी ननद आई हुई थी. इधरउधर की बातें होने के बाद उस ने पूछा, ‘‘भाभी, अभी भी कबूतर बालकनी में अंडे देते हैं क्या?’’ मैं कुछ कहती, इस से पहले ही मेरा बड़ा बेटा अंशुल तपाक से बोल उठा, ‘‘नहीं बूआजी, अब कबूतर अंडे नहीं देते. अब तो आते हैं, बस, मीटिंग कर के तुरंत चले जाते हैं.’’ उस का ऐसा उत्तर सुन कर मेरी ननद के साथ हम सब भी हंसने लगे.

अंजु सिंगड़ोदिया

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मेरी आंटी अपनेआप को बहुत होशियार समझती हैं. बातचीत में वे अंगरेजी के शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करती हैं भले ही उन शब्दों की जरूरत भी न हो. अंकलजी के मित्र का हार्टफेल होने से मृत्यु का समाचार पाते ही अंकलआंटी उन के वहां दुख प्रकट करने गए. पहले तो आंटी ने मृतक की पत्नी को सांत्वना दी, फिर पूछा, ‘‘भाईसाहब का हार्ट पहली बार फेल हुआ है या इस से पहले भी कभी हुआ था?’’ अंकलजी ने आंखे तरेर कर उन्हें चुप रहने का संकेत किया. उस दुख के माहौल में उन की बात सुन कर लोग? इधरउधर मुंह छिपा कर अपनी हंसी रोकने का प्रयास कर रहे थे.

प्रोमिला भाटिया

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मेरे मौसाजी शाम को औफिस से घर लौटे. मौसीजी किचन में थीं तो वे सीधे वहीं गए. हैलमैट एक तरफ रख कर उन्होंने मौसीजी से पकौड़े बनाने को कहा. मौसीजी ने बताया कि बेसन खत्म हो गया है. पहले जा कर बेसन ले आएं. इस बात पर मौसाजी गुस्सा हो गए, ‘‘अभीअभी थकाहारा लौट कर आया हूं. बेसन लेने नहीं जाऊंगा.’’ तब मौसीजी ने भी कह दिया, ‘‘आप की मरजी.’’ मौसाजी बड़बड़ाते हुए बाहर गए और 2 मिनट बाद वापस लौट आए. उन के एक हाथ में फ्राइंगपैन था. दरअसल, वे हैलमैट के बजाय फ्राइंगपैन उठा कर चल दिए थे. यह देख कर मौसीजी हंसी से लोटपोट होती हुई बोलीं, ‘‘चलो, हैलमैट न पहनने पर जब पुलिस डंडे चलाती, तो यह आप का सिर बचाने के काम आता.’’ मौसाजी भी हंस पड़े कि यह भी खूब रही.

आरती चौरसिया

इन्हें भी आजमाइए

– बालों को रंग से बचाने के लिए नारियल या सरसों के तेल से बालों की अच्छी तरह से मालिश करें. इस से बालों पर रंग नहीं चढ़ेगा. रंग यदि लग भी गया तो आसानी से निकल जाएगा.

– होली का रंग हाथ से तो हट जाता है लेकिन नाखूनों पर काफी दिनों तक लगा रहता है. इसलिए नाखूनों पर पारदर्शी रंग का नेलपेंट लगा लें, साथ ही, जैतून के तेल की मालिश करें.

– ईकोफ्रैंडली होली मनाने के लिए रंग घर पर बनाएं. मेहंदी के पत्तों को सुखा कर पाउडर बना, हरा रंग बनाएं. लाल चंदन का पाउडर लाल रंग के लिए इस्तेमाल करें.

– होली पर पहने सफेद कपड़ों से रंगों के दाग छुड़ाने के लिए कपड़ों को ब्लीच या नीबू के रस से साफ करें.

– अगर घर के फर्श पर रंग के निशान पड़ जाएं तो बेकिंग सोडा और पानी की मदद से उसे साफ करें. सोडे और पानी के गाढ़े पेस्ट को धब्बे पर कुछ देर तक लगा कर छोड़ दें. जब पेस्ट सूख जाए तो उस सूखे कपड़े से पोंछ कर साफ कर लें.

– कुछ लोगों के चेहरे से रंग तो उतर जाता है पर चेहरा काला पड़ जाता है. ऐसे में कुछ दिन हलदी और बेसन का फेसपैक बना कर लगाएं. यदि तैलीय त्वचा है तो दही में नीबू और बेसन मिला कर फेसपैक लगाएं.

– घर के बजाय किसी मैदान या गार्डन में होली खेलें. घर पर होली खेलने पर फर्श आदि पर रंग को हटाने में काफी समय व पानी बरबाद होता है.        

– आंख में रंग चला जाए तो हाथ से रगड़ें नहीं, बल्कि तुरंत पानी से उन्हें साफ करें और गुलाब जल की 2-4 बूंदें आंखों में डालें.

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