हिंदू धर्म महिलाओं को सुखसमृद्धि की पूरी गारंटी देता है. यह सब पाने के लिए धर्म की अलगअलग पुस्तकों के अनेक उपाय बताए गए हैं. पुस्तकों के अलावा धर्मगुरु, कथावाचक, पंडेपुरोहित भी खुशहाल जीवन के टोटके बताते हैं. इन के अनुसार, पूजापाठ, व्रत, मंत्र साधना, कथा सुनना, हवन, अनुष्ठान मात्र से ही स्त्रियां जीवन की तमाम सुखसुविधाएं प्राप्त कर सकती हैं. कथाकिस्सों वाली धार्मिक पुस्तकों से बाजार भरे पड़े हैं. औरतों की हर मुराद पूरी करने के नुस्खे बताने वाली एक पुस्तक है श्रीदुर्गासप्तशती, जो महिलाओं को सुखसौभाग्य, संपत्ति, मोक्ष, सुरक्षा आदि प्रदान करने की पूरी गारंटी देती है. शायद इसी गारंटी से प्रेरित हो कर लोग इस से अपने भविष्य को आजमाना चाहते होंगे. श्रीदुर्गासप्तशती में एक देवी के पराक्रम की गाथा बताई गई है. यह तो हर धार्मिक पुस्तक की कहानी है कि उस के मुख्यपात्र यानी भगवान अपने गुणों का बखान खुद ही करते नजर आते हैं. इसलिए हर भगवान खुद को बढ़चढ़ कर बताता है. ऐसे में भक्त यदि विश्वास करे भी तो किस पर? गीतासार में कृष्ण कहते हैं, ‘‘सबकुछ मैं ही हूं.’’ उसी तरह इस श्रीदुर्गासप्तशती में दुर्गा कहती हैं कि मैं ही श्रेष्ठ हूं.
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्.
अर्थात ‘‘मैं ही संपूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञ, होम आदि में मुख्य हूं.’’
इस तरह से हिंदू धर्म के सभी देवता खुद को श्रेष्ठतम साबित करने पर तुले हैं. तो फिर यह देवी कैसे पीछे रह जाती. पुस्तक में दी गई गारंटी के पूरा होने की स्वार्थसिद्धि और भय के चलते स्त्रियां इसे पढ़ने और सुनने को मजबूर हैं, स्त्रियां अंधविश्वास से बाहर नहीं निकल पातीं. देवी का तो गारंटी देना बनता है, वरना वह पीछे रह जाएगी. इसलिए श्रीदुर्गासप्तशती फलदायक अध्यायों से भरी पड़ी है. आइए देखें इस के अध्याय–
सुरक्षा फुल गारंटी के साथ
(देव्या: कवचम्)
जिस प्रकार एक नेता अपनी पार्टी में आने वाले को सभी प्रकार की सुरक्षा, संरक्षण और अपने धाम तक ले जाने या मोक्ष प्राप्त कराने की गारंटी देता है, उसी प्रकार यह देवी भी ऐसा ही करती है-
एभि: स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते य समाहित:.
तस्याहं सकलां बाधं नाश यिष्याम्यसंशयम्..
न तेषां दुष्कृतं किश्विद् दुष्कृतोति न चापद:.
भविष्यति न दारिद्रयं न चैवेष्टावियोजनम्.
यह मंत्र द्वादश अध्याय में है जिस का अर्थ है ‘‘जो एकाग्रचित हो कर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा स्तवन करेगा, उस की सारी बाधा मैं निश्चय ही दूर कर दूंगी, उन पर पापजनित अपात्तियां नहीं आएंगी. उन के घर में दरिद्रता नहीं होगी तथा उन को शत्रु से, लुटेरों से, राजा से, शास्त्र से, अग्नि से तथा जल की राशि से कभी भय नहीं होगा.’’
और तो और, अथ देव्या: कवचम तो पूरी तरह से मनुष्य की संपूर्ण सुरक्षा की गारंटी देता है.
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जित:.
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे लूताविस्फोटकादय:.
इस के पाठ से विभिन्न बीमारियों जैसे चेचक, कोढ़, मकरी आदि भी नष्ट हो जाते हैं. साथ ही, इस कवच में सभी अंगों और जीवन की सुरक्षा की गारंटी भी दे दी गई है.
इस से तो यही लगता है कि यह
मंत्र साधना आजकल फैली विभिन्न महाबीमारियों जैसे स्वाइन फ्लू, डायबिटीज, कैंसर, एड्स आदि के लिए भी अचूक इलाज हो सकती है. फिर तो भारत सरकार को कहीं से कोई दवा या वैक्सीन आयात करने की जरूरत ही क्या है. सरकार को यह आदेश दे देना चाहिए कि अस्पतालों में दवाओं के स्थान पर दुर्गासप्तशती के पाठ की व्यवस्था की जाए.
संपत्ति और यश की गारंटी (अर्गलास्तोत्रम्)
इदं स्तोत्र पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नर:.
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्..
अर्थात ‘‘जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ कर के सप्तशतीरूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जपसंख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है. साथ ही, वह प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है. इसी अध्याय में रूप, यश और जय की बात भी की गई है.’’
यदि इस स्तोत्र के जप से ही व्यक्ति संपत्तिवान हो सकता है तो उसे मेहनत आदि करने की क्या जरूरत है. और वैसे, यह सही भी है क्योंकि जो इसे पढ़ने का संकल्प लेगा उसे तो सारे कामों को त्यागना ही पड़ेगा. तभी दुर्गासप्तशती का पाठ पूरा किया जा सकता है. क्योंकि इस में एकएक अध्याय और एकएक स्तोत्रमंत्र को बारबार, किसी को 21 तो किसी को हजार बार, अध्ययन करने से ही संपूर्ण फल की प्राप्ति होगी. तो जिस के पास कोई काम न हो या जो निकम्मा हो, उस के लिए दुर्गासप्तशती पाठ एक खुला विकल्प है संपत्ति अर्जित करने का. पुरुष समाज स्त्री को ही इतना निठल्ला समझता है. इसलिए इन फालतू कामों के लिए हमेशा स्त्रियों को ही निशाना बनाया गया है, जिस से औरत इन में उलझ कर अपने विकास की ओर ध्यान ही न दे सके.
सिद्धि प्राप्ति और शत्रुनाश की गारंटी (कीलकम्)
हर पाठ की तरह इस पाठ में भी भय, मुक्ति, सिद्धि, प्राप्ति आदि की गारंटी दी गई है. इस का उच्च स्वर से पाठ करने पर तो पूर्ण फल की प्राप्ति की बात है. इस से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, शत्रुनाश आदि सिद्धियां प्राप्त होती हैं. इस का मतलब है कि देश में जितने भी सुरक्षाबल हैं उन को शत्रुओं और आतंकवाद पर विजय पाने के लिए हथियारों के इस्तेमाल के बजाय कीलकम् पाठ का अध्ययन करना चाहिए. इस से वहां घुसपैठ कर रहे शत्रु स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे और उन्हें अपनी कुरबानी देने की कोई जरूरत नहीं होगी.
बिना पढ़े विद्या प्राप्ति की गारंटी (रात्रिसूक्तम् में)
निरू स्वसारमस्कृतोषसं देव्याति, अपेदु हासते तम:
अर्थात ‘‘रात्रि देवी आ कर अपनी बहन ब्रह्मविद्यामयी उषा देवी को प्रकट करती हैं, जिस से अविद्यामय अंधकार स्वत: नष्ट हो जाता है.’’
इस का अर्थ तो यह है कि किसी
को भी शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत
नहीं है, सिर्फ इस मंत्र के जाप से अविद्यामय अंधकार दूर हो कर व्यक्तिविशेष ज्ञानवान और बुद्धिशील हो जाता है. इसी अंधविश्वास का नतीजा है कि महिलाएं इस अंधविश्वास में आ कर शिक्षा प्राप्त नहीं करती थीं.
पापों का नाश करना (श्रीदेव्यथर्बशीर्षम्)
इस पाठ में देवी अपने रूप और गुण का बखान इस तरह करती है कि सबकुछ वही है. इस में बताया गया है कि इस का 10 बार पाठ करने वाला व्यक्ति दुष्कर संकटों को भी पार कर जाता है.
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति.
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति.
सायं प्राप: प्रयुञ्जानो अपापो भवति.
अर्थात ‘‘इस का सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन में किए हुए पापों का नाश करता है. प्रात:काल अध्ययन करने वाला रात्रि में किए हुए पापों का नाश करता है. और दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है.’’
इस तरह के उवाचों से क्या यह नहीं लगता कि यदि मनुष्य इस का अनुसरण करें, तो पापों और अपराधों को बढ़ावा मिलेगा. लोग दिन और रात पाप और अपराध कर के इस का पाठ करेंगे तो दोषमुक्त हो जाएंगे. फिर कानून और व्यवस्था की जरूरत ही क्या रह जाएगी और सजा का तो सवाल ही नहीं उठता.
अंग शुद्धि की गारंटी (अथ नर्वाणविधि:)
इस में शरीर के विभिन्न अंगों को शुद्ध करने की विधि बताई गई है. इसी तरह दुर्गासप्तशती के विभिन्न अध्यायों में भी कुछ न कुछ ऐसी बातें हैं जो गले से नीचे नहीं उतरतीं.
प्रमाणिकता की कमी (प्रथम अध्याय)
इस अध्याय में कहीं देवी को अजन्मा बताया है, तो कहीं उत्पन्न हुई कहलाती है. इसी में विष्णु द्वारा मधु और कैटभ का संहार बताया गया है. जबकि मधुकैटभ का संहार देवी द्वारा किया बताया जाता रहा है. इसलिए जब कोई बात स्पष्ट और प्रमाणिक रूप से सिद्ध ही नहीं है तो उस का बखान करने की जरूरत ही क्या है? लोग इन बातों का अनुसरण क्यों करें? क्यों इस का पाठन करें? क्यों इस झूठे प्रपंच में फंसें? इस का अर्थ ही क्या है जब इस के पीछे कोई वैज्ञानिक सिद्धांत ही नहीं है. साथ ही, माया के फंदे में सब को फंसा दिखाया गया है. आज के संदर्भ में माया का मतलब धन है तो फिर भगवान और इंसान में अंतर कहां रह जाता है? तो क्यों इंसान उन भगवानों के अंधविश्वास में पड़ कर उन की अर्चना में लगा रहे?
सृष्टि संरचना के नियम से खिलवाड़ (द्वितीय अध्याय)
इस अध्याय में देवी की संरचना को दर्शाया गया है.
अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्..
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा..
अर्थात ‘‘संपूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी. एकत्रित होने पर वह तेज एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा.’’
ताज्जुब की बात है कि देवताओं (पुरुषों) के शरीर की गरमी से किसी बालिका का जन्म हो जाए? बिना स्त्री व पुरुष के मिलन के किसी जीव की उत्पत्ति हो जाए और वह भी सीधे यौवनावस्था में? इसे तो सीधे तौर पर सृष्टि संरचना के नियम से खिलवाड़ ही कहा जा सकता है. और फिर जिस देवी को मनुष्यों की भांति युद्ध करना पड़े तो वह तो सामान्य नारी हुई. फिर उस का गुणगान क्यों किया जाए? फिर यह देवी किसी आदमी के शत्रुओं का नाश अपने नाम स्मरण कराने भर से कैसे कर सकती है? जब देवी को अपने शत्रु का नाश करने के लिए सहस्रों वर्षों तक युद्ध करना पड़ा तो इस से अच्छे मनुष्य ही हैं कि उन्हें अपने शत्रु को मारने के लिए सालोंसाल व्यर्थ नहीं करने पड़ते. अरे भई, इस युद्ध के अलावा भी और कई काम हैं आम इंसान के पास.
इतने असुरों का नाश भी देवी ने सिर्फ इसलिए किया क्योंकि असुरों ने उन की पार्टी के देवताओं से उन का राज्य छीन लिया था. आज के नेतागण भी तो यही सब करते हैं, तो नेताओं को गाली क्यों और देवी के लिए 9 दिन भुखमरी क्यों? इस तरह सभी अध्यायों में देवी द्वारा असुरों का संहार या देवी के अनोखे रूप का वर्णन या विभिन्न देवताओं द्वारा देवी की अर्चना की गई है. जब देवी एक मनुष्य की तरह लड़ती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भी तो शत्रुओं से युद्ध किया था और जिस का प्रमाण भी पाया जाता है लेकिन लक्ष्मीबाई के नाम का कोई व्रत, कोई पूजा नहीं बनी. क्यों?
चौथे अध्याय में स्त्री को संपत्ति बता कर उस की वृद्धि की बात गले से नीचे नहीं उतरती. क्या स्त्री कोई धन है जो उसे घटाया या बढ़ाया जाए? साथ ही, नारी की संरचना में उस का खुद का कोई वजूद ही नहीं दर्शाकर स्त्री वर्ग को अपमानित किया गया है. और जिस का वजूद ही नहीं, तब उस की पूजा क्यों की जाए?
स्त्री के सहारे (पंचम व अष्टम अध्याय)
तत: परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभि:.
हन्यन्तामसुरा: शीघ्रं मम प्रीत्याह चण्डिकाम्..
अर्थात ‘‘महादेव ने चण्डिका से कहा, मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो.’’ क्या स्त्री सिर्फ पुरुषों को खुश करने भर की चीज है जिस के लिए उसे असुरों के सामने परोस दिया जाए तो फिर एक आम स्त्री और उस देवी में अंतर ही क्या रह गया जो इन पुरुषों को खुश करने के लिए हजार दुख व पीड़ा सहने से भी पीछे नहीं हटती. बड़ेबड़े देवताओं द्वारा स्त्री को ढाल बना कर शत्रुओं के सामने पेश करना हमेशा से स्त्रियों के साथ होने वाले अन्याय का द्योतक है. यही कारण है कि महिलाएं इन्हें पढ़पढ़ कर कभी अपने पर हो रहे अत्याचार को समझ नहीं पाईं. इस से तो वर्तमान नारी गुणगान के काबिल है जो कम से कम अपनी समझबूझ का परिचय तो दे रही है.
पंडितों के भोज की गारंटी (द्वादशोध्याय:)
विप्राणां भोजनैर्होमै: प्रोक्षणीयैरहर्निशम्.
अनयैश्च विविधैर्भोगै: प्रदानैर्वत्सरेण या..
अर्थात ‘‘ब्राह्मणों को भोजन कराने से, होम करने से, प्रतिदिन हवन, दान आदि करने से मुझे प्रसन्नता होती है.’’
बस, इन धार्मिक पुस्तकों की सब से बड़ी खासीयत जो हर पुस्तक में दिखाई देती है वह है ब्राह्मण भोज. सिर्फ इसलिए न कि इन का गुणगान कराने में ये पोंगापंडित ही सहायक होते हैं. इन्हीं से होम आदि कराओ और फिर जितना खर्च पूरा कर्मकांड में न किया गया हो, उस से ज्यादा की दक्षिणा दे कर इन की जेबें भर दो ताकि इन का पेट भर सके. और लोग भी इस पाखंड का चोला पहन कर इन की बात मानने को तैयार हैं. अरे, लोगों को तो इसी बात से समझ लेना चाहिए कि ये सब धार्मिक कर्मकांड इन्हीं पंडों के दिमाग की उपज हैं, न कि कोई पुरातन साहित्य. ये तो इन का बनाया हुआ धंधा मात्र है, जिस से स्वत: ही इन का पालनपोषण होता रहे और इन्हें लोगों को अंधविश्वास में ढकेलने के अलावा कुछ न करना पड़े. किसी गरीब को भोज कराने की बात तो इस पुस्तक में नहीं कही गई. कहते भी कैसे, ये धर्मगुरु भूखे न रह जाते.
बलि से देवी के खुश होने की गारंटी
जानताजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्.
प्रतीच्छिष्याम्हं प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम्..
अर्थात ‘‘ऐसा करने पर मनुष्य विधि को जान कर या बिना जाने भी मेरे लिए बलि, पूजा या होम आदि करेगा, उसे मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ ग्रहण करूंगी.’’
मांस, मदिरा, रक्त से दैविक पूजन की बात (वैकृतिकं रहस्यम्)
रूधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप.
बलिमांसादिपूजेय विप्रवर्ज्या मयेरिया..
अर्थात ‘‘अर्घ्य आदि से, आभूषणों से, गंध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थों से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिंचित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है. (बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोड़ कर बताई गई है. उन के लिए मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है.)’’
नवरात्र के दौरान जब मांस आदि के सेवन की मनाही है तो 10वें दिन सैकड़ों बकरों की बलि की बात क्यों की जाती है? इन नवरात्र के दौरान प्याजलहसुन खाने से देवी रुष्ट होती है क्योंकि ये तामसी भोजन की श्रेणी में आते हैं. और उसी देवी की महापूजा में बकरों की बलि दे कर मांसाहार को बढ़ावा दिया जाता है. क्यों? इस पुस्तक में मांसाहार का चढ़ावा उन्हीं लोगों को करने को कहा है जो मांसाहारी हैं, लेकिन पंडितों को पशुहत्या करने पर सख्त मनाही है. क्यों? क्योंकि पंडित नहीं चाहते कि उन पर पशुहत्या का आरोप लगे.
मोक्ष की गारंटी (त्रयोदशोअध्याय:)
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा.
अर्थात ‘‘आराधना करने पर वह (देवी) ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती है.’’
इस दुर्गासप्तशती के अनुसार ही जब असुरों ने स्वर्ग के देवता इंद्र को बारबार पराजित व अपमानित कर स्वर्ग से निष्कासित कर दिया, तो उस के साथ उस के अनुयायी अर्थात स्वर्ग में रहने वाले भी तो निष्कासित हुए ही होंगे. ऐसे में मनुष्य मोक्ष पा कर ऐसे स्वर्ग की कामना क्यों करे, जहां से उसे बारबार अपमानित हो कर बाहर निकलना पड़े.
त्याग के बाद वरदान की गारंटी
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ.
ददस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्.
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनो:.
अर्थात ‘‘वे (सुरथ और समाधि नामक व्यक्ति) दोनों आराधना करने लगे. उन्होंने पहले तो आहार को धीरेधीरे कम किया, फिर बिलकुल निराहार रह कर देवी में ही मन लगाए एकाग्रतापूर्वक उन का चिंतन आरंभ किया. वे दोनों अपने शरीर के रक्त से प्रोक्षित बलि देते हुए लगातार 3 वर्ष तक संयमपूर्वक आराधना करते रहे. इस पर प्रसन्न हो कर चण्डिका देवी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए.’’
अब जब वे जीवित ही नहीं रहे तो देवी के प्रसन्न होने से क्या होगा. यह अंधविश्वास का कुआं ही तो हुआ जिस में गिराने के लिए स्त्री को ही निशाना बनाया गया. खुद भूखेप्यासे रह कर देवी को प्रसन्न करने से क्या होगा? आहार त्याग कर, अपने खून की बलि दे कर शरीर में बचेगा ही क्या?
वैकृतिकं रहस्यम् में तो उस असुर (महिषासुर) तक के पूजन की बात कही गई है. अरे, देवी जी, जब पूजन ही कराना था तो बेचारे को मौत के घाट क्यों उतार दिया? और हां, सिर्फ इसी दैत्य पर इतनी कृपादृष्टि क्यों? आप ने और भी तो दैत्यों का संहार किया है.
इतने श्लोकों, मंत्रों और उच्चारणों के बाद भी देवी से क्षमाप्रार्थना व फिर से शरीर के अंगों की शुद्धि कराई गई है तो इस का अर्थ तो यही लगाया जा सकता है कि पूजन के बाद भी मनुष्य अशुद्ध ही रह गया जो फिर से उसे अपने सामान्य जीवन से जुड़ने के लिए शुद्धि करानी पड़ी. यदि ऐसा नहीं है तो पाठ के
शुरू और अंत दोनों में इस शुद्धि का क्या मतलब?
इस पुस्तक का भी अंतिम सत्य वही है जो अन्य धार्मिक पुस्तकों का होता है कि पंडोंपुरोहितों ने अपनी सहूलियत के अनुसार इन धर्मों को सहारा दिया हुआ है. जो सिर्फ स्त्री को धर्म से बांध कर रखने की कला मात्र है. वरना तो इन के पीछे कोई तर्क, कोई प्रमाण, कोई अर्थ नजर नहीं आता. इन पोंगापंडितों द्वारा स्त्रियों को धर्म का भय दिखा कर इन व्रतों और उपवासों के नाम पर क्याक्या नहीं कराया जाता?
अब इन नवदुर्गा व्रतों को ही लीजिए. इस में लहसुन, प्याज, सरसों का तेल, बाजारू नमक, मांस, मदिरा, बाल कटाना आदि सब बंद कर दिया जाता है. अरे, इन सब के खाने से देवी को क्या परहेज होगा? बाजारू (आयोडाइज्ड) नमक, लहसुन, प्याज जैसी रोगरोधक क्षमता वाले पदार्थों को त्याग कर सेंधा नमक खाओ. रोगों को दावत देने में, देवी की रोग से सुरक्षा वाली गारंटी का क्या होगा? बात आती है बाल न कटवाने की, तो बाल कटवाने पर देवी को क्यों आपत्ति है? बस, एक भय है जो पंडितों ने स्त्रियों के मन में पैदा कर रखा है. इस के चलते ही ऐसे अंधविश्वासों का बाजार फलताफूलता है और दुर्गासप्तशती जैसी पुस्तकें बिकती हैं. नहीं तो, इसे पूछने वाला है ही कौन?