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झूमते शेयर बाजार में डूबती सूचीबद्ध कंपनियां

वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूती के साथ खड़ी रही, इस का पूरी दुनिया ने लोहा माना लेकिन सामान्य आदमी के लिए अर्थव्यवस्था का पैमाना शेयर सूचकांक बना रहा. सूचकांक उस दौर में मजबूती के साथ बढ़ता रहा और लोगों को धैर्य देता रहा कि देश आर्थिक स्तर पर मजबूत है जबकि शेयर सूचकांक का देश की अर्थव्यवस्था से कोई लेनादेना नहीं होता है. इस अवधि में 8 हजार अंक के आसपास रहने वाला सूचकांक अब 28,000 अंक के पार पहुंच चुका है.

बाजार में कई कंपनियों के शेयर आसमान छू रहे हैं लेकिन बाजार में सूचीबद्ध कई कंपनियों के शेयर 2-3 रुपए में भी चल रहे हैं जबकि इन के शेयर कम से कम 10 रुपए की दर पर बेचे गए थे. टाटा टी, आलोक इंडस्ट्रीज, जेपी पावर जैसी कई कंपनियों के शेयर मूल दर से बहुत कम दर पर चल रहे हैं और शेयरधारक निराश हैं. वहीं, कुछ कंपनियों के शेयर झूम रहे हैं और उन के शेयरधारक मजे लूट रहे हैं. बौंबे स्टौक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों की हकीकत यह है कि बाजार में सूचीबद्ध करीब 5,550कंपनियों में 3,250 के शेयर एक साल से 50 फीसदी से ज्यादा का कारोबार कर रहे हैं जबकि 856 कंपनियों के शेयर  फेस वैल्यू यानी कि 10 रुपए से कम की दर पर चल रहे हैं. बाजार में सूचीबद्ध करीब साढ़े 5 हजार कंपनियों में से शेयर बाजार की194 कंपनियों को सूची से हटा दिया गया है. उन सभी कंपनियों को पिछले 13 साल से कारोबार से बाहर रखा गया था.

बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी ने कुछ और कड़े नियम बनाए हैं जिन के कारण करीब एक हजार कंपनियों के शेयरों की लंबे समय से खरीदफरोख्त नहीं हो पा रही थी लेकिन ये कंपनियां जल्द ही बाजार में शेयरों का कारोबार कर सकेंगी. आसमान छूते शेयर बाजारों में छोटे निवेशक ज्यादा परेशान हैं. कम पूंजी की वजह से छोटे शेयरों में पैसा लगा कर वे घर बैठ गए हैं.

बाजार ने किया नए गवर्नर का स्वागत

बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई ने रिजर्व बैंक के नए गवर्नर उर्जित पटेल का जोशो खरोश के साथ स्वागत किया. बाजार में उस दौरान निवेशकों ने जम कर निवेश किया जिस के कारण सूचकांक 2,9000 अंक के पार चला गया. इस अवधि में बाजार में जबरदस्त रौनक रही. सूचकांक 52 सप्ताह के शीर्ष पर पहुंच गया. विशेषज्ञों ने बाजार की तेजी की वजह अंतर्राष्ट्रीय माहौल को बताया. घरेलू स्तर पर आर्थिक मजबूती के लिए उठाए गए कदमों और सेवा क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन का भी बाजार पर सकारात्मक असर देखा गया.

इस बीच, उत्तर कोरिया के 5वें परमाणु बम धमाके से दहली दुनिया के साथ ही इस का असर दुनियाभर के शेयर बाजारों में भी देखने को मिला और इस का नकारात्मक प्रभाव पड़ा. इस के बावजूद सूचकांक मजबूती पर रहा और 9 सितंबर को 17 माह के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ. रुपए में अच्छा उछाल रहा और सूचकांक 6 सितंबर को 17 माह के शीर्ष स्तर पर पहुंच गया. बाजार का माहौल अच्छा है और आने वाले दिनों में सूचकांक के मजबूत रहने के संकेत हैं.

इन्हें भी आजमाइए

– बरतनों पर लगे ब्रैंड लेबल उतारने के लिए बरतन को लेबल के उलटी तरफ से गैस पर थोड़ा गरम करें. इस से लेबल अपनी जगह छोड़ने लगता है, फिर चाकू के हलके प्रयोग से लेबल उतार दें.

– अगर आप परवल खाते हैं तो इस बात का ध्यान रखें कि आप इसे बीजों के साथ खाएं क्योंकि इस से आप को ब्लडशुगर और कोलैस्ट्रौल को कंट्रोल करने में मदद मिलती है.

– खाना खाने के बाद चाय पीना सेहत के लिए अच्छा नहीं, क्योंकि चाय की पत्ती के अम्लीय गुण भोजन के प्रोटीन से मिलते हैं, प्रोटीन सख्त हो जाता है.

– पेट में गैस से राहत के लिए अदरक का एक छोटा सा टुकड़ा दांतों से अच्छे से चबाएं या अदरक को उबाल कर उस का पानी पी सकते हैं.

– अगर आप कच्ची सब्जी को सलाद के तौर पर परोसना चाहती हैं तो सब्जी को पोटैशियम परमैंगनैट के घोल में धो लें.

– ड्राईफ्रूट का सेवन करें क्योंकि इन के फायदे न केवल शारीरिक हैं अपितु मानसिक भी हैं.

– भूख नहीं लग रही है तो अनार के रस के साथ जीरा पाउडर का प्रयोग करें.   

सिंगूर: जनतंत्र में जनता सर्वोपरि

आपातकाल ने इंदिरा गांधी को कुख्यात बना दिया, नक्सल दमन ने सिद्धार्थ शंकर राय को. अब सिंगूर ने बुद्धदेव भट्टाचार्य को खलनायक बना दिया. बुद्धदेव भट्टाचार्य की करनी का खमियाजा पूरे वाममोरचा को उठाना पड़ रहा है. सिंगूर मामले ने माकपा को ही नहीं, बल्कि पूरे वाममोरचा को नेस्तनाबूद कर दिया. वाममोरचा ने जहां 34 सालों तक शासन किया, वहीं अब ‘सिंगूरनंदीग्राम का पाप’ धो कर सत्ता में लौटने में उसे जाने कितने वर्ष लग जाएंगे. सिद्धार्थ शंकर राय का ‘पाप’ प्रदेश कांग्रेस आज तक भोग रही है. 1972 के बाद चुनाव दर चुनाव बीत गए, उन के पाप ने कांग्रेस को उठने नहीं दिया. और सिंगूर-नंदीग्राम जमीन अधिग्रहण ही है जिस ने बंगाल समेत पूरे देश में माकपा और इस के अन्य घटकों को अपने अस्तित्व बचाने की जद्दोजेहद में लगे रहने को मजबूर कर दिया है. ममता बनर्जी ने न्यायालय के फैसले के बाद

सिंगूर जमीन अधिग्रहण को माकपा की ऐतिहासिक भूल नहीं, ऐतिहासिक आत्महत्या कहा. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से ममता बनर्जी का कद थोड़ा और ऊंचा हो गया. गौरतलब है कि 2006 में सिंगूर आंदोलन से ही ममता बनर्जी मां-माटी-मानुष का नारा ले कर नए सिरे से राजनीति में उतरी थीं. वाममोरचा सरकार द्वारा टाटा के लिए जबरन जमीन अधिग्रहण के विरोध में ममता बनर्जी 26 दिनों तक अनशन पर बैठी थीं. यही सिंगूर आंदोलन राज्य में परिवर्तन की बयार ले कर आया. आज ममता न केवल बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, बल्कि कोलकाता नगर निगम, विधाननगर नगर निगम सहित राज्य की ज्यादातर नगरपालिकाओं और पंचायतों में उन्हीं की पार्टी का कब्जा है.

सिंगूर पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने में 10 साल लग गए. इन 10 सालों में बंगाल की राजनीति का नक्शा पूरी तरह से बदल गया है. सुर्ख लाल रंग की राजनीति हरे रंग की हरियाली में तबदील हो गई.

न्यायालय का निर्देश

वाममोरचा सरकार द्वारा टाटा नैनो के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध और असंवैधानिक करार देते हुए किसानों को उन की जमीन लौटाने का निर्देश दिया. न्यायालय ने जमीन लौटाने में आने वाली जटिलताओं का भी ध्यान रखा है. चूंकि अधिग्रहण के बाद जमीन की प्रकृति बदल दी गई इसलिए जमीन कैसे लौटाई जाए, इस पर भी न्यायालय ने साफतौर पर निर्देश दिया है. निर्देश में कहा गया है कि फैसले की प्रति प्राप्त होने के बाद राज्य सरकार को 10 सप्ताह में भूमि समीक्षा और बंदोबस्त विभाग को लैंड लेआउट प्लान, संबंधित दस्तावेज और सिंगूर के विस्तृत मानचित्र की मदद से अधिग्रहित जमीन के मौजे की पहचान करनी होगी, ताकि जमीन के मालिकों और किसानों को उन की जमीन जहां और जितनी परिमाण मेंथी, लौटाई जा सके. जहां तक जमीन लौटाने का सवाल है, तो यह सब काम पूरा करते हुए फैसले की प्रति प्राप्त होने के 12 दिनों के भीतर जमीन लौटा देना होगा.

निर्णायक दिन

31 अगस्त, 2016. सिंगूरवासियों के लिए बड़ा अहम दिन था. लगभग एक दशक से सिंगूर में अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे थे. रोजीरोटी के लिए किसान दूसरे कामधंधे में लग गए थे. फिर भी दोवक्त की रोटी जुटाना कठिन हो गया. बच्चों की पढ़ाई बंद हो गई. जाहिर है यह दिन उन के लिए आरपार का था. सुबह से लोग टीवी पर आंख गड़ाए और रेडियो पर कान लगाए हुए थे, फिर वह इच्छुक किसान हो या अनिच्छुक, हर तरफ बेचैनी का माहौल था. दोपहर बाद सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आते ही सिंगूरवासियों के मन का सारा मलाल धुल गया. टाटा को जमीन देने के इच्छुक किसानों से ले कर अनिच्छुक किसानों तक–लगभग पूरा सिंगूर सड़क पर निकल आया. हरे रंग का गुलाल उड़ा और खूब उड़ा. इच्छुकअनिच्छुक का भेद मिट गया. सब हरे रंग में रंग गए. ममता बनर्जी की जयजयकार से माहौल गूंज गया.  गौरतलब है कि सिंगूर के ज्यादातर लोग किसानी ही किया करते थे. इसीलिए पायल सिंगूर में उद्योग के बजाय किसानी के ही पक्ष में है. पायल के साथ श्यामली दास भी खुश है. उस का डेढ़ बीघा बहुफसली खेत टाटा के हाथ चला गया, जिस पर पतिपत्नी मिल कर खेती करते थे. आज पायल के पिता बढ़ई का काम करते हैं, वहीं श्यामली का पति कास्ंिटग फैक्टरी में काम करता है. श्यामली खुद स्थानीय लोगों के घर पर काम करती है. आर्थिक तंगी के कारण उस के बेटे की पढ़ाई छूट गई. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद श्यामली परिवार को ‘अच्छे दिन’ लौटने की उम्मीद जगी है.

निवेश को लगा झटका

दोराय नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत किया है सिंगूर समेत बंगाल की जनता ने. लेकिन सवाल यह है कि इस से क्या बंगाल में निवेश को धक्का लगेगा? सिंगूर को उस की जमीन वापस मिल गई, पर क्या बंगाल ने एक बड़े उद्योग का मौका खो दिया? क्या इस फैसले के बाद उद्योगपति बंगाल से तौबा कर लेंगे? सिंगूर में किराना की छोटी सी दुकान चलाने वाले सुमित मलिक का कहना है कि अगर टाटा का नैनो कारखाना लग गया होता तो आज सिंगूर का चेहरा ही बदल गया होता. पर अब सिंगूर छोड़ कर टाटा को पूरी तरह से चले जाना होगा. उस के बाद बंगाल के औद्योगिक मानचित्र में लगा धब्बा कभी नहीं मिटने वाला. टाटा के साथ मिल कर वाममोरचा ने विकास का जो सपना दिखाया था, वह पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है. अब कोई औद्योगिक घराना बंगाल में कदम रखने का साहस नहीं दिखाएगा. वैसे भी राज्य में तृणमूल कांग्रेस की दूसरी पारी है. इस बीच कितने ही इंडस्ट्रियल समिट हुए, पर बंगाल में नया उद्योग नहीं आया. बंद व हड़ताल के लिए बदनाम बंगाल की वाममोरचा सरकार ने एक कोशिश की थी, जिसे बड़ा झटका लगा.

वहीं, सिंगूर में टाटा फैक्टरी के समर्थक बिनू हलदार का कहना है कि सिंगूरवासी आज अदालत का फैसला सुन कर भले ही खुशियां मना रहे हैं लेकिन जल्द ही वे अपनी भूल समझ जाएंगे. इन का तर्क यह है कि दुनिया का कोई भी देश उद्योग के बगैर विकसित नहीं हुआ है. उद्योग विकास का दूसरा नाम है. जाहिर है सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन से ले कर आज तक बंगाल में उद्योग बनाम किसानी पर कभी न खत्म होने वाली बहस बदस्तूर जारी है. न्यायालय के फैसले के बाद एक बार फिर बहस शुरू हो गई.

समस्याएं और चुनौतियां

सिंगूर में एक बार फिर से साल में कईकई बार फसलें उगाई जाएंगी. गौरतलब है कि ममता बनर्जी ने सिंगूर की जमीन को खेती लायक बना कर किसानों को सौंपने की घोषणा की है. माना कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का हूबहू पालन करने का वादा ममता बनर्जी ने किया है पर इस में समस्या और चुनौतियां कम नहीं हैं. सब से बड़ी समस्या किसानों की जमीन की हद को ले कर पेश आनी है, क्योंकि खेत में बाड़ का अब नामोनिशान नहीं रहा. अब हरेक किसान की जमीन की सीमा की पहचान नए सिरे से करनी होगी. एडवोकेट शिवप्रसाद मुखर्जी का यह भी कहना है कि जमीन अधिग्रहण के साथ जमीन की प्रकृति को बदल दिया गया. कृषि जमीन को बदल कर वास्तु जमीन कर दिया गया. जमीन को ऊंचा करने के लिए फ्लाईऐश के साथ मिट्टीबालू डाली गई. इस के अलावा फैक्टरी से ले कर दूरदूर तक कई किलोमीटर पक्की सड़क का निर्माण किया गया. साथ में, 47 एकड़ जमीन पर बिजली के 2 सबस्टेशन भी हैं. ऐसे में इस तरह की जमीन को फिर से खेतीलायक बनाना वाकई चुनौती भरा होगा. सिंगूर जमीन रक्षा समिति का कहनाहै कि टाटा नैनो के लिए अधिग्रहित 997 एकड़ जमीन में से लगभग 500 एकड़ जमीन अभी भी खेतीयोग्य है. बाकी 497 एकड़ जमीन में नैनो फैक्टरी का मूल शेड, बिजली के लिए सबस्टेशन, फैक्टरी के लिए रास्ता, फैक्टरी वेस्ट के लिए नाली आदि निकाले गए थे. इन सब को हटा कर खेतीयोग्य जमीन बनाने में कुछ समस्याएं पेश आएंगी और इस में थोड़ा समय लगेगा.

इस जमीन को खेतीलायक बनाने में जो खर्च आएगा वह रकम दिवालिया ममता सरकार कहां से निकालेगी? इस सवाल पर राज्य सचिवालय के एक अधिकारी ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहा कि राज्य के खजाने पर ज्यादा बोझ न पड़े, इसलिए प्रशासनिक बैठक में यह काम सौ दिन के रोजगार की केंद्र की परियोजना से पूरा किया जाना तय हुआ है. गौरतलब है कि इस परियोजना के लिए रकम केंद्र सरकार से मिलती है. वहीं, जिला प्रशासन की ओर से कहा गया है कि कंक्रीट का ढांचा और उस के ऊपर खड़े किए गए शेड को ढहाने के लिए कुशल निजी कंपनियों को लगाया जाएगा. अधिकारी का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में फैक्टरी के शेड के लिए कुछ विशेष नहीं कहा गया है. अभी यह भी हो सकता है कि टाटा फैसले की समीक्षा के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाए. प्रशासन इसीलिए शेड में अभी हाथ लगाने से बचना चाहता है. नैनो के स्पेयर पार्ट्स बनाने की कुछ और फैक्टरियां मूल फैक्टरी के आसपास खड़ी की गई थीं, प्रशासन सब से पहले इन छोटी फैक्टरियों और बिजली के सबस्टेशन को तोड़ने का काम करेगा. जाहिर है ममता सरकार फूंकफूंक कर कदम रख रही है.

अब जहां तक हर्जाना देने का सवाल है तो इस रकम का जुगाड़ करना क्या ममता बनर्जी की सरकार के लिए समस्या है यानी राज्य सरकार किसानों को हर्जाना की रकम कहां से देगी? इस सवाल के जवाब में भूमि राजस्व विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि ज्यादातर किसानों ने पहले ही हर्जाना ले लिया है. जिन्होंने नहीं लिया है उन के हर्जाने की रकम पहले ही अदालत में जमा है. सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार हर्जाने की रकम देने के लिए सरकार को अपने खजाने को खाली नहीं करना पड़ेगा. इस बात में दोराय नहीं कि इस पूरे मामले को निबटाना और सिंगूर की जमीन को खेतीलायक बना कर सिंगूर के किसानों को सौंपने का काम राज्य सरकार के लिए चुनौती भरा होगा. वैसे, ममता बनर्जी ने इन सब काम को कुशलतापूर्वक निबटाने की जिम्मेदारी सिंगूर आंदोलन के ही 2 नेता और अब तृणमूल से विधायक रवींद्रनाथ भट्टाचार्य (सिंगूर से विधायक) और बेचाराम मान्नान को सौंपी है.

जनतंत्र में जनता ही महत्त्वपूर्ण

सिंगूर पर जो आखिरी फैसला आया उस से सिंगूरवासी खुश हैं. तृणमूल कांग्रेस इसे अपनी जीत के रूप में इसलिए देख रही है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जोकुछ कहा, तृणमूल कांग्रेस यही बात आंदोलन के पहले ही दिन से कहती आ रही थी. यही कारण है कि बड़ी संख्या में बंगाल की जनता ममता बनर्जी के साथ हो ली. इस का लाभ तृणमूल को मिला. तभी 34 साल के बाद बंगाल की सत्ता में राजनीतिक परिवर्तन आया. 10 साल तक चले सिंगूर के इस पूरे प्रकरण से साफ हो गया है कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है, क्योंकि लोकतंत्र जनता द्वारा और जनता के लिए जनता का शासन होता है. सत्ता हासिल कर लेने के बाद राजनीतिक दल कभीकभी लोकतंत्र के इस शाश्वत सच को भूल जाते है. देश के तमाम राजनीतिक दलों को सिंगूर से सबक लेना चाहिए.

न्याय का आधार

–       सिंगूर मामले का ऐतिहासिक फैसला आने में 10 साल का समय लगा. न्यायाधीश गोपाल गौड़ और अरुण मिश्र की खंडपीठ ने फैसला सुनाया. हालांकि सुनवाई के दौरान खंडपीठ का मतभेद भी सामने आया. न्यायाधीश गौड़ और अरुण मिश्र के बीच मतभेद इस बात को ले कर था कि जमीन का अधिग्रहण जनहित में हुआ या किसी निजी कंपनी के हित को ध्यान में रखते हुए किया गया. न्यायाधीश गौड़ का मानना था कि जमीन का अधिग्रहण जनहित में नहीं किया गया, जबकि न्यायाधीश अरुण मिश्र की नजर में यह अधिग्रहण जनहित में किया गया था. जमीन अधिग्रहण अवैध और असंवैधानिक है, इस बिंदु पर दोनों न्यायाधीश सहमत रहे. आइए, देखते हैं फैसले का आधार-

–       सिंगूर जमीन अधिग्रहण के दौरान देश में 1894 साल का जमीन अधिग्रहण कानून लागू था. लेकिन बुद्धदेव सरकार ने जमीन अधिग्रहण प्रक्रिया में इस कानून की अनदेखी की.

–       सिंगूर का जमीन अधिग्रहण जनहित में नहीं किया गया, बल्कि निजी कंपनी के हित को ध्यान में रख कर किया गया था.

–       अधिग्रहण से पहले जमीन की प्रकृति और कौन-सी जमीन का चयन करना है. इस को ले कर एक समीक्षा की जानी चाहिए थी, जो नहीं की गई थी.

–       बहुत सारे किसान जमीन देने को तैयार नहीं थे. अनिच्छुक किसानों की मरजी को महत्त्व न दे कर उन से जबरन जमीन ली गई, जबकि जमीन अधिग्रहण कानून 1894 के तहत हरेक जमीन के मालिक की इच्छा-अनिच्छा को महत्त्व दिया जाना जरूरी था.

–       जमीन अधिग्रहण के बाद जमीन के मालिक किसानों को जितना हर्जाना दिया गया था, वह तत्कालीन बाजार दर से बहुत कम था. केवल बाजार दर नहीं, किसानों की जमीन लेते समय उनके होने वाले और भी कई तरह के नुकसान व उन के भविष्य को ध्यान में रख कर हर्जाने की रकम को निर्धारित किया जाना था, जो तत्कालीन सरकार ने नहीं किया.

सिंगूर जमीन अधिग्रहण : घटनाक्रम

–       मार्च 2006 को सरकार ने 997.11 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया.

–       18 मई, 2006 को सिंगूर में टाटा समूह ने नैनो कारखाना लगाने की घोषणा की. जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया इसी साल शुरू हुई और सिंगूर के किसान इस के विरोध में उठ खड़े हुए. इसी साल दिसंबर में ममता बनर्जी ने आमरण अनशन शुरू किया, जो लगातार 26 दिनों तक चला था.

–       वाममोरचा सरकार ने जमीन अधिग्रहण जारी रखा. 997 एकड़ जमीन अधिग्रहित की गई. 9 मार्च, 2007 को राज्य सरकार ने टाटा मोटर्स को नैनो के लिए कारखाना लगाने के लिए जमीन सुपुर्द कर दी.

–       18 जून, 2008 को हाईकोर्ट ने अधिग्रहण का अनुमोदन किया. इधर, तृणमूल कांग्रेस का जबरन जमीन अधिग्रहण को ले कर आंदोलन जारी रहा.

1 सितंबर को कारखाने के सामने तृणमूल ने धरना शुरू किया, जो 9 दिनों तक चला. आंदोलन जोर पकड़ता गया. महाश्वेता देवी, मेधा पाटकर, अरुंधती राय, अनुराधा तलवार जैसे नाम जमीन अधिग्रहण आंदोलन से जुड़ते चले गए. बंगाल केबुद्धिजीवियों का वर्ग 2 खेमों में बंट गया.  

–       7 सिंतबर, 2008 को राजभवन में तत्कालीन राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के सामने राज्य सरकार और तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि के बीच एक समझौता हुआ. समझौते के तहत लगभग 300 एकड़ जमीन राज्य सरकार को लौटानी थी.

–       3 अक्तूबर को टाटा मोटर्स ने सिंगूर से अपनी फैक्टरी हटाने की घोषणा की. वह अपनी नैनो फैक्टरी गुजरात ले गया. इस के बाद सिंगूर में यथास्थिति बनी रही. गौरतलब है कि सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन ने 2011 में ममता बनर्जी को ऐतिहासिक जीत दिलाई थी. इस के बाद 2011 से ले कर 2016 तक सिंगूर मामला बारबार बड़ेबड़े उतारचढ़ाव से गुजरा.

–       सत्ता पर काबिज होते ही सब से पहले 13 जून, 2011 को ममता बनर्जी ने विधानसभा में जमीन पुनर्वास और विकास कानून को पारित करवाया. यह कानून सिंगूर कानून के नाम से जाना जाता है, जिस का मकसद सिंगूर के अनिच्छुक किसानों को उन की जमीन लौटानी थी.

–       इस पर अमल होता, इस से पहले 22 जून, 2011 को टाटा समूह ने कलकत्ता हाईकोर्ट में इस के खिलाफ एक याचिका दायर की.

–       28 सितंबर, 2011 को कलकत्ता हाईकोर्ट की एकल पीठ ने सिंगूर कानून को वैध और संवैधानिक करार दिया.

–       23 जून, 2012 को हाईकोर्ट की खंडपीठ ने एकल पीठ के फैसले को खारिज कर सिंगूर कानून को अवैध घोषित कर दिया. इसी महीने हाईकोर्ट की खंडपीठ के इस फैसले के खिलाफ ममता बनर्जी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था.

–       29 जून, 2012 में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को जमीन लौटाने की प्रक्रिया को स्थगित रखने का निर्देश दिया था.

सिंगूर : न्याय के मुख्य बिंदु

–       वाममोरचा सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण अवैध ही नहीं, असंवैधानिक था. सरकार ने अवैध तरीके से टाटा के लिए किसानों की जमीन का अधिग्रहण किया था.

–       अधिग्रहण के लिए अपनाई गई प्रक्रिया यथोचित नहीं थी, इसीलिए इसे खारिज कर दिया गया.

–       टाटा को जमीन देने को इच्छुक किसानों में से जिन किसानों को हर्जाना दे दिया गया था, उन से रकम वापस नहीं ली जाएगी. केवल उन की जमीन वापस करनी होगी.

–       जमीन अधिग्रहण के खिलाफ रहे जिन अनिच्छुक किसानों ने हर्जाने की रकम को स्वीकार नहीं किया था, वे लोग, चूंकि इन 10 सालों में अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं कर पाए यानी अपनी जमीन के मालिकाना से वंचित रहे, इसीलिए उन्हें मौजूदा बाजार दर से हर्जाना के साथ उन की जमीन वापस की जाए.

–       सर्वोच्च न्यायालय ने 2 सप्ताह का समय जमीन की समीक्षा के लिए और 10 -12 सप्ताह का समय जमीन को लौटाने के लिए दिया है. लेकिन इस से पहले जमीन समीक्षा की रिपोर्ट को सर्वोच्च न्यायालय को सौंपना है.

–       राज्य सरकार के पास मौजूद तथ्यों और दस्तावेजों के मुताबिक, जिन की जितनी जमीन है, उन्हें उतनी जमीन वापस की जाएगी. जमीन का अधिग्रहण करने से पहले जिन किसानों के पास जितनी जमीन थी, दस्तावेजों के आधार पर उन के मालिकाना हक को बहाल रखा जाए.

बलूचिस्तान का समर्थन: भारत की कूटनीति में कांटे

भारत का समर्थन मिलने के बाद बलूचिस्तान की आजादी का आंदोलन और तेज हो गया है. अमेरिका, यूरोप, जरमनी और कनाडा में बलूचों के पाकिस्तान के विरुद्ध किए जाने वाले प्रदर्शनों की तादाद बढ़ गई है. पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित, बाल्टिस्तान में लोग सड़कों पर आ कर खुल कर स्वतंत्रता की मांग करने लगे हैं. भारत की स्वतंत्रता की 70वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से अपने भाषण में बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया था. बलूचिस्तान के आंदोलनकारी नेताओं द्वारा मोदी के बलूचिस्तान वाले भाषण का समर्थन करने पर पाकिस्तान द्वारा बलूच आंदोलन के अगुआ ब्रह्मदाग बुगती समेत कई नेताओं के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया. कहा जा रहा है कि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कूटनीतिक अभियान की शुरुआत कर दी है जिस से पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर घिर सकता है. दोनों देशों के बीच नए सिरे से तनातनी देखने को मिल रही है. बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में निश्चित ही राजनीतिक अधिकारों की मांग को नई ताकत मिली है. पाक अधिकृत कश्मीर में सैकड़ों युवा पाकिस्तान के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और पाकिस्तानी सेना से गिलगित को छोड़ने की मांग कर रहे हैं.

सवाल यह है कि इस से भारत को कूटनीतिक तौर पर क्या कुछ ठोस हासिल हो सकता है? जिस तरह कश्मीर और बलूचिस्तान इसलाम के 2 अलगअलग प्रतिस्पर्धी पंथों में बंटे हुए हैं, भारत की दखलंदाजी से क्या वह खुद ही नहीं घिर जाएगा?

बलूचिस्तान का इतिहास

अकबर के शासनकाल में बलूचिस्तान मुगल साम्राज्य के अधीन था. इस क्षेत्र का शासन 1638 तक मुगलों ने अपने अधीन रखा. प्रथम अफगान युद्ध (1839-42) के बाद अंगरेजों ने यहां अधिकार जमा लिया. 1869 में अंगरेजों ने कलात के खानों और बलूचिस्तान के सरदारों के बीच झगड़े की मध्यस्थता की. 1876 में रौबर्ट सैंडमैन को बलूचिस्तान का ब्रिटिश एजेंट नियुक्त किया गया. 1887 तक इस के ज्यादातर इलाके ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गए. बाद में अंगरेजों ने बलूचिस्तान को 4 रियासतों में बांट दिया था. कलात, मकरान, लसबेला और खारन. 20वीं सदी में बलूचों ने अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया. इस के लिए 1941 में राष्ट्रवादी संगठन अंजुमन ए इत्तेहाद ए बलूचिस्तान का गठन हुआ. नतीजतन, 1944 में जनरल मनी ने बलूचिस्तान की आजादी का विचार रखा.

इस से पहले 1939 में अंगरेजों की राजनीति के तहत बलूचों की मुसलिम लीग पार्टी बनी जो भारत की मुसलिम लीग से मिल गई. इस के अलावा एक और नई पार्टी अंजुमन ए वतन का गठन हुआ जो भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के साथ जुड़ गई. मुसलिम लीग को मुहम्मद अली जिन्ना का समर्थन हासिल था जबकि अंजुमन ए वतन के साथ कांगे्रस का जुड़ाव था. दरअसल, बलूच क्षेत्र के सरदार मीर अहमद यार और पाकिस्तान संघ के बीच एक समझौते पर दस्तखत हुए थे कि कलात राज्य स्वतंत्र है जिस का अस्तित्व हिंदुस्तान के अन्य राज्यों से अलग है पर इस करार में एक जगह यह भी लिखा था कि पाकिस्तान और अंगरेजों के बीच 1839 से 1947 तक हुए सभी करारों के प्रति पाकिस्तान अंगरेजी राज्य का कानूनी, संवैधानिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी होगा. कहा जाता है कि इसी अनुच्छेद की बात का फायदा उठा कर पाकिस्तान ने कलात के खान को झूठी, दिखावटी आजादी दे कर कुछ ही समय में यह समझौता तोड़ दिया और 27 मार्च, 1948 को उस पर कब्जा कर लिया. बाद में पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के बचे 3 और राज्यों को भी जबरन अपने क्षेत्र में मिला लिया. इस से पहले 1947 में अंगरेजों और भारतीय नेताओं के साथ सत्ता हस्तांतरण के वक्त बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय करने के लिए किसी भी तरह का कोई करार नहीं हुआ था. हालांकि इसलाम के नाम पर बलूचिस्तान को पाकिस्तान में विलय करने के लिए कहा गया था पर बलूचों ने कहा कि अफगानिस्तान और ईरान भी इसलामी देश हैं तो उन के साथ विलय होना चाहिए क्योंकि बलूचों की भाषा, संस्कृति व पहनावा पाकिस्तान से अलग है.

तब से ले कर यानी लगभग 70 साल से बलूचिस्तान की आजादी को ले कर संघर्ष चल रहा है. आजादी के लिए कई संगठन व सेनाएं बनी हुई हैं. बलूच राष्ट्रवादियों का कहना है कि मार्च 1948 को उन की मातृभूमि पर अवैध ढंग से कब्जा कर लिया गया था जबकि 11 अगस्त, 1947 को बलूचिस्तान अधिकृत रूप से एक स्वतंत्र देश बन चुका था. पाकिस्तान में बलूच राष्ट्रवादियों के कई लंबे संघर्ष चले हैं. पहली लड़ाई बंटवारे के तुरंत बाद 1948 में छिड़ गई थी. उस के बाद 1958-59, 1962-63 और 1973-77 के दौरान संघर्ष तेज रहा. मौजूदा हिंसक दौर 2003 से शुरू हुआ. इस में प्रमुख संगठन बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी को माना जाता है जो पाकिस्तान और ब्रिटेन में प्रतिबंधित है. इस के अलावा और कई छोटे संगठन सक्रिय हैं. इन में लश्कर ए बलूचिस्तान और बलूच लिबरेशन यूनाइटेड फ्रंट प्रमुख हैं. 2006 में बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई के प्रमुख नेता नवाब अकबर खान बुगती को पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने मार डाला था. इस के बाद संघर्ष और बढ़ गया. पाकिस्तान की बर्बर कार्यवाही के चलते बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी ने पाकिस्तान सरकार के प्रमुख ठिकानों पर हमले शुरू किए. राजधानी क्वेटा के फौजी ठिकानों, सरकारी भवनों और फौजियों तथा सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाया जाने लगा.

पाकिस्तान की सैनिक कार्यवाही में सैकड़ों लोगों की जानें गईं और हजारों लोग लापता हो गए. इन में 2 हजार से ज्यादा महिलाएं और सैकड़ों बच्चे हैं. हजारों विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया. जवान लड़कियों के अपहरण और बलात्कार की खबरें आती रही हैं. ये आरोप पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर लगते रहे हैं. मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक, वहां फर्जी मुठभेड़ों में लगातार मौतों और लापता लोगों की तादाद बढ़ रही है. कहा जा रहा है कि रोज 15-20 युवा लापता हो रहे हैं या गोलियों से छलनी शव सड़कों पर मिलते रहे हैं. दरअसल पाकिस्तानी सेना और बलूचों का संघर्ष भौगोलिक व राजनीतिक लड़ाई से अधिक धार्मिक, पंथिक युद्ध है. यह एक ही धर्म के 2 अलगअलग पंथों के बीच नफरत का नतीजा है. असल में पाकिस्तान सुन्नी राष्ट्र है जबकि बलूचिस्तान ईरान से सटा होने के कारण शिया बहुल राष्ट्र है. ईरान शिया बहुल देश है. बलूची लोग भाषा, संस्कृति में ईरानियों से ज्यादा करीब हैं.

बलूचिस्तान पाकिस्तान के पश्चिम में, ईरान के दक्षिणपश्चिम तथा अफगानिस्तान के उत्तरपश्चिम में स्थित है. यहां शियाओं के इमामबाड़ों पर सुन्नियों के लगातार हमले हो रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान के भेदभाव, अत्याचार से त्रस्त हो कर 30 प्रतिशत शिया दूसरे देशों में चले गए. सुन्नी इन्हें मुसलमान नहीं मानते, फिर भी उन के ऊपर फतवों की बौछारें होती रहती हैं. शियाओं पर पाकिस्तानी फौज ही नहीं, वहां के तालिबान और कट्टर सुन्नी गुट लश्कर ए जांघवी व जमात ए इसलामी भी हमले कर रहे हैं. इन हमलों से करीब 3 लाख लोग विस्थापित हो कर भारत और सिंध में शरणार्थी जीवन बिता रहे हैं. इतना ही नहीं, पाकिस्तान बलूचिस्तान में चीन से मिल कर आर्थिक कौरिडोर बना रहा है. पाकिस्तान ने ग्वादर पोर्ट डैवलपमैंट के नाम से बलूच लोगों की जमीनें ले कर भारी मुनाफे में चीनियों को बेच दी हैं. क्षेत्र की भरपूर खनिज संपदा पर अधिकार कर लिया गया है.

जुल्मों के खिलाफ आवाज

बलूच लोगों को न तो पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल है, न ही उन का सामाजिक, आर्थिक विकास हो रहा है. ऐसे जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाने वाले बलूच नेताओं के खिलाफ हिंसा और राष्ट्रद्रोह के मामले दर्ज करना आम बात है. कई नेता निर्वासित जीवन बिता रहे हैं. इन में प्रमुख ब्रह्मदाग बुगती, हिरबयार मर्री और करीमा बलोच हैं. ब्रह्मदाग वर्तमान में बलूचिस्तान रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष हैं और जेनेवा में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं. पहली बार किसी भारतीय प्रधामनंत्री ने बलूचिस्तान की आजादी व मानवाधिकार की आवाज उठा कर यह संकेत दिया है कि वे पाकिस्तान पर दबाव डालने के लिए इस मुद्दे को जोरशोर से उठाएंगे. भारत बलूचिस्तान का समर्थन कश्मीर का जवाब देने के लिए कर रहा है या फिर वह सचमुच बलूचिस्तान को ले कर सहानुभूति रखता है और उस के अधिकारों की लड़ाई में शामिल होना चाहता है. पर एक बात साफ है कि भारत को बलूचिस्तान के मुद्दे पर हस्तक्षेप से कुछ मिलने वाला नहीं है. उलटे, अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी भारत पर ही सवाल उठाना शुरू कर देगी. यह इसलिए क्योंकि भारत द्वारा बलूचिस्तान के समर्थन का मतलब है वह शियाओं का समर्थन कर रहा है पर यही समर्थन जब पाकिस्तान कश्मीर में अपने धर्म के सुन्नियों के लिए कर सकता है तो अनुचित कैसे है?

भारत को इस तरह के मामलों में पहले मुंह की खानी पड़ी थी. श्रीलंका में तमिलसिंहली संघर्ष में शांतिसेना भेजना भारत की गलती रही. इस से उसे कुछ नहीं मिला. न दुनिया की शाबाशी, न अपने ही देश के तमिलों की वाहवाही. उलटा तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर श्रीलंका के सैनिक ने गार्ड औफ औनर देते वक्त हमला कर दिया था और फिर श्रीपेरुम्बुदूर में तमिल मानव बम के हमले में उन्हें जान गंवानी पड़ी. 1971 में इंदिरा गांधी द्वारा पाकिस्तान के विभाजन के रूप में बने बंगलादेश से क्या मिला. बंगलादेश भारत के लिए समस्या ही बना रहा. आज भी हमारा देश लाखों बंगलादेशियों की शरणगाह बना हुआ है, उन की गरीबी, भुखमरी, पिछड़ापन, धार्मिक नफरत और हिंसा व अपराध झेलने पर मजबूर है. जो स्थिति परवेज मशर्रफ, नवाज शरीफ की बलूचिस्तान और कश्मीर को ले कर है वही स्थिति नरेंद्र मोदी की है. मुशर्रफ कश्मीर की आजादी और मानवाधिकार की बात तो करते थे पर बलूचिस्तान के मुद्दे पर उन्हें बगलें झांकते देखा गया.

धर्म के आधार पर कोई देश नहीं बनता. देश भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आधारों के संयोजन से बनता है. पिछले कुछ समय से दुनिया में धार्मिक राष्ट्रवाद की भावनाएं प्रबल हो रही हैं. राष्ट्रवाद का मतलब उस देश में सिर्फ एक ही धर्म, एक ही संस्कृति और उसी धर्म की मान्यताएं मानने वाले लोग. इस में दूसरे न हों. बलूच समस्या भी इसी राष्ट्रवाद यानी धार्मिक राष्ट्रवाद से जुड़ी हुई है. लिहाजा, मोदी का बलूच को समर्थन देना बहुत नुकसान करेगा. दुनिया के देश पहले से ही धर्मों, पंथों, वर्गों में बंटे हुए हैं. इस का मतलब है पाकिस्तान सुन्निस्तान और बलूचिस्तान शियास्तान नहीं है? भारत के खुद के राष्ट्रवाद ने लोगों की अपनी भारतीयता के बजाय हिंदू, मुसलमान, पिछड़ा, दलित पहचान के प्रति जागरूक बनाया है. इसी राष्ट्रवाद के कारण ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हुआ है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक इसी वजह से विदेशियों और अश्वेतों के खिलाफ बोल रहे हैं.

19वीं सदी में इस के कारण यूरोपीय देशों ने एशिया व अफ्रीका जैसे देशों को गुलाम बनाया. 20वीं सदी में 2 विश्वयुद्ध हुए. हिटलर का यहूदियों के प्रति नफरत भरा कू्रर व्यवहार सब से हिंसक मिसाल है. यह निम्न और श्रेष्ठता का धर्मों का मुगालता देश, समाज का निर्माण नहीं कर सकता, बरबाद जरूर कर सकता है. 80 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई, पिछले 70 सालों से बलूचिस्तान, कश्मीर में हजारों लोग मारे गए, इसी धर्म के बंटे हिंसक रूपों की वजह से. भारत अगर विश्वगुरु बनना चाहता है तो उसे शिया, सुन्नी, अहमदिया, सिंधी, हिंदू, दलित के समर्थन या असमर्थन से दूर रह कर एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समावेशी अवधारणा स्थापित करनी होगी. बलूचिस्तान सिर्फ जमीन पर कब्जे की लड़ाई नहीं है. अगर वह बंगलादेश की तरह अलग भी कर दिया गया तो क्या मोदी गारंटी ले सकते हैं कि वहां सुन्नियों वाला पाकिस्तान कभी हमला नहीं करेगा.

हिंदी लेखक बदहाल, अंगरेजी लेखक मालामाल

लेखन की दुनिया में खुशवंत सिंह एक बहुत बड़े लेखक थे. वे इसलिए भी बड़े लेखक थे क्योंकि वे अंगरेजी भाषा में लिखते थे. अंगरेजी में लिखना और पढ़ना हमेशा से ही एक प्रकार से स्टेटस सिंबल तो रहा ही है. अंगरेजी में लिखने वाले लेखकों को हिंदी में लिखने वाले लेखकों के मुकाबले पैसे भी बहुत ज्यादा मिलते हैं. अंगरेजी में लिखने वाले खुशवंत सिंह से एक बार सवाल किया गया था कि उन को सिर्फ अंगरेजी में ही लिखना क्यों पसंद था तो उन्होंने बड़े साफ शब्दों में कहा था कि पैसों के लिए. उन का कहना था कि हिंदी में किसी लेख के लिखने पर उन को जितने पैसे मिलेंगे, अंगरेजी में लिखने पर उस से दस गुना ज्यादा मिलेंगे. खुशवंत सिंह की बात में जो सचाई थी वह आज भी अपनी जगह पर कायम है, जबकि प्रकाशन की दुनिया में बहुतकुछ बदल चुका है. जब हिंदी के उपन्यासों का जमाना था उस समय देश के लगभग सभी छोड़ेबड़े प्रकाशक खूब उपन्यास छापते थे. उपन्यास केवल छपते ही नहीं, बड़ी संख्या में बिकते भी थे. हिंदी में पढ़ने वाले पाठकों की तादाद भी बहुत बड़ी थी. उपन्यास छापने के मामले में मेरठ जैसा शहर मानो दिल्ली से भी आगे निकल गया. हिंदी के प्रकाशकों ने जम कर उपन्यास छापे और खूब पैसे भी कमाए.

उस दौर में जबकि उपन्यास खूब छपते और बिकते थे और प्रकाशकों की खूब चांदी थी तब भी चंद लेखकों को छोड़ कर बाकी लेखक मुफलिसी के शिकार थे. बहुत लिख कर भी उन का गुजारा बड़ी मुश्किल से चलता था. किंतु प्रकाशकों ने मोटी कमाई की. वक्त बदला. टीवी, सैटेलाइट चैनलों और केबल्स प्रसारणों का युग आया. इस के साथ ही सिनेमाघरों के साथसाथ लेखकों के भी जैसे बुरे दिन शुरू हो गए. हिंदी के पाठकों की रुचि उपन्यासों में कम होने लगी. हिंदी के पाठकों की उपन्यासों में रुचि कम हुई तो उपन्यासों की बिक्री भी घटने लगी. लाखों में बिकने वाले हिंदी के मशहूर लेखकों के उपन्यासों की प्रतियां कुछ हजार में ही सिमटने लगीं. बुकस्टौलों से हिंदी के उपन्यास एकएक गायब होने लगे. हमेशा कमाई करने वाले प्रकाशक घाटे का सौदा क्यों करते? उपन्यासों की बिक्री घटी तो प्रकाशकों ने उपन्यास छापने कम कर दिए. इस समय हिंदी के प्रकाशक 2-3 बैस्टसैलर लेखकों को ही छाप रहे हैं, मगर बैस्टसैलर माने जाने वाले इन लेखकों की किताबों की बिक्री अब लाखों में नहीं, हजारों में ही रह गई है.

हिंदी के लेखकों का जमाना भले ही लद गया हो किंतु अंगरेजी में लिखने वाले लेखक आज पहले से भी अधिक मालामाल हो रहे हैं. जब हिंदी लेखकों का जमाना था, तब भी अंगरेजी में लिखने वाले उन से ज्यादा कमाई करते थे. आज जबकि लोगों को इंटरनैट की मायावी दुनिया से ही फुरसत नहीं और सैकड़ों पृष्ठों वाले भारीभरकम उपन्यासों को पढ़ने का साहस करने वाले पाठकों की संख्या गिनती की ही रह गई है, अंगेरजी में लिखने वाले लेखक पहले से भी कहीं अधिक मोटी कमाई कर रहे हैं. किसी बड़े से बड़े बैस्टसैलर कहे जाने वाले हिंदी लेखक ने शायद करोड़ों कमाने का ख्वाब भी न देखा हो, मगर अंगरेजी लेखक बड़ी शान और आराम से करोड़ों कमा रहे हैं. उन की कमाई का सीधा अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पौराणिक पात्रों पर आधारित 3 उपन्यास लिख कर बैस्टसैलर बने एक अंगरेजी में लिखने वाले लेखक को एक प्रकाशन संस्थान ने उस के अगामी उपन्यासों को छापने के लिए 5 करोड़ रुपए एडवांस में ही दे दिए. मजे की बात यह भी थी कि जिन उपन्यासों के लिए इतनी भारीभरकम रकम एडवांस में दे दी गई थी, उन्होंने अभी अपना आकार भी नहीं लिया था.

अंगरेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक अच्छा लिखते हैं, इस में शक की गुंजाइश नहीं. मगर उन का लिखा हुआ सबकुछ इसलिए भी अच्छा समझा जाता है क्योंकि उन्होंने अंगरेजी में लिखा है. अंगरेजी आज भी हम भारतीयों की दृष्टि में उच्चता और स्टेटस की प्रतीक है. अमीष त्रिपाठी इस दौर के सब से सफल और चर्चित लेखक हैं. उन्होंने शिव पर 3 उपन्यास (ट्राइलौजी) लिखे हैं जिन की अब तक 22 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं. अब वे राम को ले कर उपन्यास लिख रहे हैं जिस के लिए प्रकाशक ने उन को एक भारीभरकम रकम (संभवतया करोड़ों में) एडवांस में दे दी है. अमीष त्रिपाठी अंगरेजी में लिखते हैं, इसलिए उन का लिखा खास महत्त्व रखता है. बुकस्टौल पर सजे उन के उपन्यासों को खरीद कर अपने घर के ड्राइंगरूम में सजाने में लोग शान और फख्र महसूस करते हैं. ऐसा नहीं है कि हिंदी लेखकों ने पौराणिक पात्रों पर अच्छे उपन्यास नहीं लिखे, मगर उन को इस के लिए न तो उपयुक्त सम्मान मिला और न ज्यादा पैसा ही.

हिंदी में लिखे गए उपन्यासों को बुक स्टौल से उठाने में उन लोगों ने परहेज किया जो सोसायटी में दूसरों से कुछ खास और अलग दिखना चाहते हैं. पौराणिक पात्रों पर लिखे गए हिंदी उपन्यास को अपने ड्राइंगरूम के बुकशैल्फ में सजाना उन के स्टेटस के खिलाफ है. राष्ट्रभाषा होने के बाद भी हिंदी को आज भी छोटे लोगों की भाषा ही समझा जाता है. शायद इसीलिए ही तो हर दौर में 1-2 लेखकों को छोड़ कर बाकी लेखक बदहाली के शिकार रहे. कुछ लोग यह दलील भी देते हैं कि अंगरेजी में लिखने वाले लेखक इसलिए मालामाल हैं क्योंकि अंगरेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है और इसलिए अंगरेजी में लिखी किताबें विदेशों में भी कमाई कर लेती हैं. ऐसी दलीलें गले नहीं उतरतीं. जापानी, फ्रांसीसी, रूसी और जरमनी लेखकों के मामले में तो ऐसी कोई दलील नहीं दी जाती. उन को अपनी भाषा में लिखने में पूरा सम्मान और पैसा मिलता है. वे अपनी भाषा में ही लिख कर पहले नाम और पैसा कमाते हैं और बाद में अपनी रचनाओं के अनुवाद के जरिए अंगरेजी की तरफ रुख करते हैं. अंगरेजी में छपना उन के लिए कोई स्टेटस सिंबल नहीं, बल्कि बाकी दुनिया से जुड़ने का माध्यम है.

हिंदी लेखकों का तिरस्कार इस देश में तब तक होता रहेगा जब तक अंगरेजी के लिए गुलामों वाली हमारी मानसिकता कायम है. अंगरेजी में बात करना, अंगरेजों वाली ड्रैस पहनना, अंगरेजों के खानपान को अपनाना स्टेटस सिंबल था ही, अंगरेजी में पढ़ना भी अब स्टेटस सिंबल बन चुका है. अंगरेजी में लिखने वाले मालामाल लेखकों के सामने हिंदी लेखकों की बेचारगी पर अफसोस ही किया जा सकता है.

अंधविश्वास और पाखंड का महिमामंडन करती श्रीदुर्गासप्तशती

हिंदू धर्म महिलाओं को सुखसमृद्धि की पूरी गारंटी देता है. यह सब पाने के लिए धर्म की अलगअलग पुस्तकों के अनेक उपाय बताए गए हैं. पुस्तकों के अलावा धर्मगुरु, कथावाचक, पंडेपुरोहित भी खुशहाल जीवन के टोटके बताते हैं. इन के अनुसार, पूजापाठ, व्रत, मंत्र साधना, कथा सुनना, हवन, अनुष्ठान मात्र से ही स्त्रियां जीवन की तमाम सुखसुविधाएं प्राप्त कर सकती हैं. कथाकिस्सों वाली धार्मिक पुस्तकों से बाजार भरे पड़े हैं. औरतों की हर मुराद पूरी करने के नुस्खे बताने वाली एक पुस्तक है श्रीदुर्गासप्तशती, जो महिलाओं को सुखसौभाग्य, संपत्ति, मोक्ष, सुरक्षा आदि प्रदान करने की पूरी गारंटी देती है. शायद इसी गारंटी से प्रेरित हो कर लोग इस से अपने भविष्य को आजमाना चाहते होंगे. श्रीदुर्गासप्तशती में एक देवी के पराक्रम की गाथा बताई गई है. यह तो हर धार्मिक पुस्तक की कहानी है कि उस के मुख्यपात्र यानी भगवान अपने गुणों का बखान खुद ही करते नजर आते हैं. इसलिए हर भगवान खुद को बढ़चढ़ कर बताता है. ऐसे में भक्त यदि विश्वास करे भी तो किस पर? गीतासार में कृष्ण कहते हैं, ‘‘सबकुछ मैं ही हूं.’’ उसी तरह इस श्रीदुर्गासप्तशती में दुर्गा कहती हैं कि मैं ही श्रेष्ठ हूं.

अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्.

अर्थात ‘‘मैं ही संपूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञ, होम आदि में मुख्य हूं.’’

इस तरह से हिंदू धर्म के सभी देवता खुद को श्रेष्ठतम साबित करने पर तुले हैं. तो फिर यह देवी कैसे पीछे रह जाती. पुस्तक में दी गई गारंटी के पूरा होने की स्वार्थसिद्धि और भय के चलते स्त्रियां इसे पढ़ने और सुनने को मजबूर हैं, स्त्रियां अंधविश्वास से बाहर नहीं निकल पातीं. देवी का तो गारंटी देना बनता है, वरना वह पीछे रह जाएगी. इसलिए श्रीदुर्गासप्तशती फलदायक अध्यायों से भरी पड़ी है. आइए देखें इस के अध्याय–

सुरक्षा फुल गारंटी के साथ

(देव्या: कवचम्)

जिस प्रकार एक नेता अपनी पार्टी में आने वाले को सभी प्रकार की सुरक्षा, संरक्षण और अपने धाम तक ले जाने या मोक्ष प्राप्त कराने की गारंटी देता है, उसी प्रकार यह देवी भी ऐसा ही करती है-

एभि: स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते य समाहित:.

तस्याहं सकलां बाधं नाश यिष्याम्यसंशयम्..

न तेषां दुष्कृतं किश्विद् दुष्कृतोति न चापद:.

भविष्यति न दारिद्रयं न चैवेष्टावियोजनम्.

यह मंत्र द्वादश अध्याय में है जिस का अर्थ है ‘‘जो एकाग्रचित हो कर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा स्तवन करेगा, उस की सारी बाधा मैं निश्चय ही दूर कर दूंगी, उन पर पापजनित अपात्तियां नहीं आएंगी. उन के घर में दरिद्रता नहीं होगी तथा उन को शत्रु से, लुटेरों से, राजा से, शास्त्र से, अग्नि से तथा जल की राशि से कभी भय नहीं होगा.’’

और तो और, अथ देव्या: कवचम तो पूरी तरह से मनुष्य की संपूर्ण सुरक्षा की गारंटी देता है.

जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जित:.

नश्यन्ति व्याधय: सर्वे लूताविस्फोटकादय:.

इस के पाठ से विभिन्न बीमारियों जैसे चेचक, कोढ़, मकरी आदि भी नष्ट हो जाते हैं. साथ ही, इस कवच में सभी अंगों और जीवन की सुरक्षा की गारंटी भी दे दी गई है.

इस से तो यही लगता है कि यह

मंत्र साधना आजकल फैली विभिन्न महाबीमारियों जैसे स्वाइन फ्लू, डायबिटीज, कैंसर, एड्स आदि के लिए भी अचूक इलाज हो सकती है. फिर तो भारत सरकार को कहीं से कोई दवा या वैक्सीन आयात करने की जरूरत ही क्या है. सरकार को यह आदेश दे देना चाहिए कि अस्पतालों में दवाओं के स्थान पर दुर्गासप्तशती के पाठ की व्यवस्था की जाए.

संपत्ति और यश की गारंटी (अर्गलास्तोत्रम्)

इदं स्तोत्र पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नर:.

स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्..

अर्थात ‘‘जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ कर के सप्तशतीरूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जपसंख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है. साथ ही, वह प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है. इसी अध्याय में रूप, यश और जय की बात भी की गई है.’’

यदि इस स्तोत्र के जप से ही व्यक्ति संपत्तिवान हो सकता है तो उसे मेहनत आदि करने की क्या जरूरत है. और वैसे, यह सही भी है क्योंकि जो इसे पढ़ने का संकल्प लेगा उसे तो सारे कामों को त्यागना ही पड़ेगा. तभी दुर्गासप्तशती का पाठ पूरा किया जा सकता है. क्योंकि इस में एकएक अध्याय और एकएक स्तोत्रमंत्र को बारबार, किसी को 21 तो किसी को हजार बार, अध्ययन करने से ही संपूर्ण फल की प्राप्ति होगी. तो जिस के पास कोई काम न हो या जो निकम्मा हो, उस के लिए दुर्गासप्तशती पाठ एक खुला विकल्प है संपत्ति अर्जित करने का. पुरुष समाज स्त्री को ही इतना निठल्ला समझता है. इसलिए इन फालतू कामों के लिए हमेशा स्त्रियों को ही निशाना बनाया गया है, जिस से औरत इन में उलझ कर अपने विकास की ओर ध्यान ही न दे सके.

सिद्धि प्राप्ति और शत्रुनाश की गारंटी (कीलकम्)

हर पाठ की तरह इस पाठ में भी भय, मुक्ति, सिद्धि, प्राप्ति आदि की गारंटी दी गई है. इस का उच्च स्वर से पाठ करने पर तो पूर्ण फल की प्राप्ति की बात है. इस से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, शत्रुनाश आदि सिद्धियां प्राप्त होती हैं. इस का मतलब है कि देश में जितने भी सुरक्षाबल हैं उन को शत्रुओं और आतंकवाद पर विजय पाने के लिए हथियारों के इस्तेमाल के बजाय कीलकम् पाठ का अध्ययन करना चाहिए. इस से वहां घुसपैठ कर रहे शत्रु स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे और उन्हें अपनी कुरबानी देने की कोई जरूरत नहीं होगी.

बिना पढ़े विद्या प्राप्ति की गारंटी (रात्रिसूक्तम् में)

निरू स्वसारमस्कृतोषसं देव्याति, अपेदु हासते तम:

अर्थात ‘‘रात्रि देवी आ कर अपनी बहन ब्रह्मविद्यामयी उषा देवी को प्रकट करती हैं, जिस से अविद्यामय अंधकार स्वत: नष्ट हो जाता है.’’

इस का अर्थ तो यह है कि किसी

को भी शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत

नहीं है, सिर्फ इस मंत्र के जाप से अविद्यामय अंधकार दूर हो कर व्यक्तिविशेष ज्ञानवान और बुद्धिशील हो जाता है. इसी अंधविश्वास का नतीजा है कि महिलाएं इस अंधविश्वास में आ कर शिक्षा प्राप्त नहीं करती थीं.

पापों का नाश करना (श्रीदेव्यथर्बशीर्षम्)

इस पाठ में देवी अपने रूप और गुण का बखान इस तरह करती है कि सबकुछ वही है. इस में बताया गया है कि इस का 10 बार पाठ करने वाला व्यक्ति दुष्कर संकटों को भी पार कर जाता है.

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति.

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति.

सायं प्राप: प्रयुञ्जानो अपापो भवति.

अर्थात ‘‘इस का सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन में किए हुए पापों का नाश करता है. प्रात:काल अध्ययन करने वाला रात्रि में किए हुए पापों का नाश करता है. और दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है.’’

इस तरह के उवाचों से क्या यह नहीं लगता कि यदि मनुष्य इस का अनुसरण करें, तो पापों और अपराधों को बढ़ावा मिलेगा. लोग दिन और रात पाप और अपराध कर के इस का पाठ करेंगे तो दोषमुक्त हो जाएंगे. फिर कानून और व्यवस्था की जरूरत ही क्या रह जाएगी और सजा का तो सवाल ही नहीं उठता.

अंग शुद्धि की गारंटी (अथ नर्वाणविधि:)

इस में शरीर के विभिन्न अंगों को शुद्ध करने की विधि बताई गई है. इसी तरह दुर्गासप्तशती के विभिन्न अध्यायों में भी कुछ न कुछ ऐसी बातें हैं जो गले से नीचे नहीं उतरतीं.

प्रमाणिकता की कमी (प्रथम अध्याय)

इस अध्याय में कहीं देवी को अजन्मा बताया है, तो कहीं उत्पन्न हुई कहलाती है. इसी में विष्णु द्वारा मधु और कैटभ का संहार बताया गया है. जबकि मधुकैटभ का संहार देवी द्वारा किया बताया जाता रहा है. इसलिए जब कोई बात स्पष्ट और प्रमाणिक रूप से सिद्ध ही नहीं है तो उस का बखान करने की जरूरत ही क्या है? लोग इन बातों का अनुसरण क्यों करें? क्यों इस का पाठन करें? क्यों इस झूठे प्रपंच में फंसें? इस का अर्थ ही क्या है जब इस के पीछे कोई वैज्ञानिक सिद्धांत ही नहीं है. साथ ही, माया के फंदे में सब को फंसा दिखाया गया है. आज के संदर्भ में माया का मतलब धन है तो फिर भगवान और इंसान में अंतर कहां रह जाता है? तो क्यों इंसान उन भगवानों के अंधविश्वास में पड़ कर उन की अर्चना में लगा रहे?

सृष्टि संरचना के नियम से खिलवाड़ (द्वितीय अध्याय)

इस अध्याय में देवी की संरचना को दर्शाया गया है.

अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्..

एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा..

अर्थात ‘‘संपूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी. एकत्रित होने पर वह तेज एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा.’’

ताज्जुब की बात है कि देवताओं (पुरुषों) के शरीर की गरमी से किसी बालिका का जन्म हो जाए? बिना स्त्री व पुरुष के मिलन के किसी जीव की उत्पत्ति हो जाए और वह भी सीधे यौवनावस्था में? इसे तो सीधे तौर पर सृष्टि संरचना के नियम से खिलवाड़ ही कहा जा सकता है. और फिर जिस देवी को मनुष्यों की भांति युद्ध करना पड़े तो वह तो सामान्य नारी हुई. फिर उस का गुणगान क्यों किया जाए? फिर यह देवी किसी आदमी के शत्रुओं का नाश अपने नाम स्मरण कराने भर से कैसे कर सकती है? जब देवी को अपने शत्रु का नाश करने के लिए सहस्रों वर्षों तक युद्ध करना पड़ा तो इस से अच्छे मनुष्य ही हैं कि उन्हें अपने शत्रु को मारने के लिए सालोंसाल व्यर्थ नहीं करने पड़ते. अरे भई, इस युद्ध के अलावा भी और कई काम हैं आम इंसान के पास.

इतने असुरों का नाश भी देवी ने सिर्फ इसलिए किया क्योंकि असुरों ने उन की पार्टी के देवताओं से उन का राज्य छीन लिया था. आज के नेतागण भी तो यही सब करते हैं, तो नेताओं को गाली क्यों और देवी के लिए 9 दिन भुखमरी क्यों? इस तरह सभी अध्यायों में देवी द्वारा असुरों का संहार या देवी के अनोखे रूप का वर्णन या विभिन्न देवताओं द्वारा देवी की अर्चना की गई है. जब देवी एक मनुष्य की तरह लड़ती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भी तो शत्रुओं से युद्ध किया था और जिस का प्रमाण भी पाया जाता है लेकिन लक्ष्मीबाई के नाम का कोई व्रत, कोई पूजा नहीं बनी. क्यों?

चौथे अध्याय में स्त्री को संपत्ति बता कर उस की वृद्धि की बात गले से नीचे नहीं उतरती. क्या स्त्री कोई धन है जो उसे घटाया या बढ़ाया जाए? साथ ही, नारी की संरचना में उस का खुद का कोई वजूद ही नहीं दर्शाकर स्त्री वर्ग को अपमानित किया गया है. और जिस का वजूद ही नहीं, तब उस की पूजा क्यों की जाए?

स्त्री के सहारे (पंचम व अष्टम अध्याय)

तत: परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभि:.

हन्यन्तामसुरा: शीघ्रं मम प्रीत्याह चण्डिकाम्..

अर्थात ‘‘महादेव ने चण्डिका से कहा, मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो.’’ क्या स्त्री सिर्फ पुरुषों को खुश करने भर की चीज है जिस के लिए उसे असुरों के सामने परोस दिया जाए तो फिर एक आम स्त्री और उस देवी में अंतर ही क्या रह गया जो इन पुरुषों को खुश करने के लिए हजार दुख व पीड़ा सहने से भी पीछे नहीं हटती. बड़ेबड़े देवताओं द्वारा स्त्री को ढाल बना कर शत्रुओं के सामने पेश करना हमेशा से स्त्रियों के साथ होने वाले अन्याय का द्योतक है. यही कारण है कि महिलाएं इन्हें पढ़पढ़ कर कभी अपने पर हो रहे अत्याचार को समझ नहीं पाईं. इस से तो वर्तमान नारी गुणगान के काबिल है जो कम से कम अपनी समझबूझ का परिचय तो दे रही है.

पंडितों के भोज की गारंटी (द्वादशोध्याय:)

विप्राणां भोजनैर्होमै: प्रोक्षणीयैरहर्निशम्.

अनयैश्च विविधैर्भोगै: प्रदानैर्वत्सरेण या..

अर्थात ‘‘ब्राह्मणों को भोजन कराने से, होम करने से, प्रतिदिन हवन, दान आदि करने से मुझे प्रसन्नता होती है.’’

बस, इन धार्मिक पुस्तकों की सब से बड़ी खासीयत जो हर पुस्तक में दिखाई देती है वह है ब्राह्मण भोज. सिर्फ इसलिए न कि इन का गुणगान कराने में ये पोंगापंडित ही सहायक होते हैं. इन्हीं से होम आदि कराओ और फिर जितना खर्च पूरा कर्मकांड में न किया गया हो, उस से ज्यादा की दक्षिणा दे कर इन की जेबें भर दो ताकि इन का पेट भर सके. और लोग भी इस पाखंड का चोला पहन कर इन की बात मानने को तैयार हैं. अरे, लोगों को तो इसी बात से समझ लेना चाहिए कि ये सब धार्मिक कर्मकांड इन्हीं पंडों के दिमाग की उपज हैं, न कि कोई पुरातन साहित्य. ये तो इन का बनाया हुआ धंधा मात्र है, जिस से स्वत: ही इन का पालनपोषण होता रहे और इन्हें लोगों को अंधविश्वास में ढकेलने के अलावा कुछ न करना पड़े. किसी गरीब को भोज कराने की बात तो इस पुस्तक में नहीं कही गई. कहते भी कैसे, ये धर्मगुरु भूखे न रह जाते.

बलि से देवी के खुश होने की गारंटी

जानताजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्.

प्रतीच्छिष्याम्हं प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम्..

अर्थात ‘‘ऐसा करने पर मनुष्य विधि को जान कर या बिना जाने भी मेरे लिए बलि, पूजा या होम आदि करेगा, उसे मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ ग्रहण करूंगी.’’

मांस, मदिरा, रक्त से दैविक पूजन की बात (वैकृतिकं रहस्यम्)

रूधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप.

बलिमांसादिपूजेय विप्रवर्ज्या मयेरिया..

अर्थात ‘‘अर्घ्य आदि से, आभूषणों से, गंध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थों से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिंचित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है. (बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोड़ कर बताई गई है. उन के लिए मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है.)’’

नवरात्र के दौरान जब मांस आदि के सेवन की मनाही है तो 10वें दिन सैकड़ों बकरों की बलि की बात क्यों की जाती है? इन नवरात्र के दौरान प्याजलहसुन खाने से देवी रुष्ट होती है क्योंकि ये तामसी भोजन की श्रेणी में आते हैं. और उसी देवी की महापूजा में बकरों की बलि दे कर मांसाहार को बढ़ावा दिया जाता है. क्यों? इस पुस्तक में मांसाहार का चढ़ावा उन्हीं लोगों को करने को कहा है जो मांसाहारी हैं, लेकिन पंडितों को पशुहत्या करने पर सख्त मनाही है. क्यों? क्योंकि पंडित नहीं चाहते कि उन पर पशुहत्या का आरोप लगे.

मोक्ष की गारंटी (त्रयोदशोअध्याय:)

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा.

अर्थात ‘‘आराधना करने पर वह (देवी) ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती है.’’

इस दुर्गासप्तशती के अनुसार ही जब असुरों ने स्वर्ग के देवता इंद्र को बारबार पराजित व अपमानित कर स्वर्ग से निष्कासित कर दिया, तो उस के साथ उस के अनुयायी अर्थात स्वर्ग में रहने वाले भी तो निष्कासित हुए ही होंगे. ऐसे में मनुष्य मोक्ष पा कर ऐसे स्वर्ग की कामना क्यों करे, जहां से उसे बारबार अपमानित हो कर बाहर निकलना पड़े.

त्याग के बाद वरदान की गारंटी

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ.

ददस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्.

एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनो:.

अर्थात ‘‘वे (सुरथ और समाधि नामक व्यक्ति) दोनों आराधना करने लगे. उन्होंने पहले तो आहार को धीरेधीरे कम किया, फिर बिलकुल निराहार रह कर देवी में ही मन लगाए एकाग्रतापूर्वक उन का चिंतन आरंभ किया. वे दोनों अपने शरीर के रक्त से प्रोक्षित बलि देते हुए लगातार 3 वर्ष तक संयमपूर्वक आराधना करते रहे. इस पर प्रसन्न हो कर चण्डिका देवी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए.’’

अब जब वे जीवित ही नहीं रहे तो देवी के प्रसन्न होने से क्या होगा. यह अंधविश्वास का कुआं ही तो हुआ जिस में गिराने के लिए स्त्री को ही निशाना बनाया गया. खुद भूखेप्यासे रह कर देवी को प्रसन्न करने से क्या होगा? आहार त्याग कर, अपने खून की बलि दे कर शरीर में बचेगा ही क्या?

वैकृतिकं रहस्यम् में तो उस असुर (महिषासुर) तक के पूजन की बात कही गई है. अरे, देवी जी, जब पूजन ही कराना था तो बेचारे को मौत के घाट क्यों उतार दिया? और हां, सिर्फ इसी दैत्य पर इतनी कृपादृष्टि क्यों? आप ने और भी तो दैत्यों का संहार किया है.

इतने श्लोकों, मंत्रों और उच्चारणों के बाद भी देवी से क्षमाप्रार्थना व फिर से शरीर के अंगों की शुद्धि कराई गई है तो इस का अर्थ तो यही लगाया जा सकता है कि पूजन के बाद भी मनुष्य अशुद्ध ही रह गया जो फिर से उसे अपने सामान्य जीवन से जुड़ने के लिए शुद्धि करानी पड़ी. यदि ऐसा नहीं है तो पाठ के

शुरू और अंत दोनों में इस शुद्धि का क्या मतलब?

इस पुस्तक का भी अंतिम सत्य वही है जो अन्य धार्मिक पुस्तकों का होता है कि पंडोंपुरोहितों ने अपनी सहूलियत के अनुसार इन धर्मों को सहारा दिया हुआ है. जो सिर्फ स्त्री को धर्म से बांध कर रखने की कला मात्र है. वरना तो इन के पीछे कोई तर्क, कोई प्रमाण, कोई अर्थ नजर नहीं आता. इन पोंगापंडितों द्वारा स्त्रियों को धर्म का भय दिखा कर इन व्रतों और उपवासों के नाम पर क्याक्या नहीं कराया जाता?

अब इन नवदुर्गा व्रतों को ही लीजिए. इस में लहसुन, प्याज, सरसों का तेल, बाजारू नमक, मांस, मदिरा, बाल कटाना आदि सब बंद कर दिया जाता है. अरे, इन सब के खाने से देवी को क्या परहेज होगा? बाजारू (आयोडाइज्ड) नमक, लहसुन, प्याज जैसी रोगरोधक क्षमता वाले पदार्थों को त्याग कर सेंधा नमक खाओ. रोगों को दावत देने में, देवी की रोग से सुरक्षा वाली गारंटी का क्या होगा? बात आती है बाल न कटवाने की, तो बाल कटवाने पर देवी को क्यों आपत्ति है? बस, एक भय है जो पंडितों ने स्त्रियों के मन में पैदा कर रखा है. इस के चलते ही ऐसे अंधविश्वासों का बाजार फलताफूलता है और दुर्गासप्तशती जैसी पुस्तकें बिकती हैं. नहीं तो, इसे पूछने वाला है ही कौन?                    

बच्चों के मुख से

मेरी 5 वर्षीया नातिन आध्या बहुत ही स्मार्ट व हाजिरजवाब है. एक दिन हम सब बैठे थे. आध्या बोली, ‘‘नानी, एक बात बताओ, हम लड़कों की तरह जींस, टीशर्ट पहनते हैं तो लड़के हमारी तरह फ्रौक, स्कर्ट क्यों नहीं पहनते?’’ उस की यह बात सुन कर हम कुछ जवाब ही नहीं दे पाए.

– मीना गर्ग, आनंद (गुज.)

*

मेरा 2 साल का भांजा अपनी मां के साथ घर आया हुआ था. हम परिवार के साथ फिल्म देखने गए. जैसे ही फिल्म शुरू हुई, भांजा जोरजोर से बोलने लगा, ‘‘यहां अंधेरा कर के इतने बड़े रूम में इतने सारे लोग एकसाथ टीवी क्यों देख रहे हैं? ये इतना बड़ा टीवी अंदर लाए कैसे? यहां का दरवाजा तो छोटा सा है?’’ अगलबगल, आसपास जो दर्शक बैठे थे, हंसते जा रहे थे.

उस ने फिर कहा, ‘‘मैं पापा को बोलूंगा, मुझे भी इतना बड़ा टीवी ला कर दें. मैं अपने रूम में लगवाऊंगा. लेकिन मामाजी, घर के अंदर ले कर कैसे जाऊंगा, हमारा भी दरवाजा छोटा है.’’

मैं ने अपनी बहन से पूछा, ‘‘तुम लोग कभी इस को ले कर सिनेमाघर फिल्म देखने नहीं जाते क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘हमारे घर (ससुराल) में फिल्म देखने कोई जाता ही नहीं.’’

फिल्म जब खत्म हो गई तो उस की नई जिद शुरू हुई, ‘‘मामाजी, यह टीवी खरीद के मुझे दो. मैं अपने घर ले कर जाऊंगा.’’ मैं उस के बालहठ पर अवाक था. और उस की बातों से हंसतेहंसते परेशान भी. मेरे पिताजी, जो साथ ही थे, उसे बहुत समझाबुझा कर घर लाए.

– रघुनंदन बाहेती, तिनसुकिया (असम)

*

मेरी छोटी बेटी श्रेया को एक दिन मैं समझाते हुए बता रहा था कि जब देखो, तुम या तो कंप्यूटर से लगी रहती हो या फिर टीवी से चिपकी रहती हो. अरे बाहर जाओ, घूमोफिरो. सुबह जल्दी उठ कर दौड़ लगाया करो. इस से तुम्हारी सेहत ठीक रहेगी और उम्र भी लंबी होगी. मेरी बातें वह बड़े ध्यानपूर्वक सुनती रही पर न जाने एकाएक उसे क्या सूझी, वह बड़े भोलेपन से मुझ से बोल पड़ी, ‘‘पर पापा, घर में पाला गया खरगोश तो दिनभर उछलकूद करता रहता है. लेकिन 8-10 साल की उम्र में मर जाता है. और एक तरफ कछुआ को देखो, वह बेहद आलसी होता है. चार कदम चलने में 1 घंटा लगा देता है. वह 150 साल तक जीता है.’’ श्रेया की ये बातें सुन कर मैं चुप रह गया.

– शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी, फिरोजाबाद (उ.प्र.)

यह भी खूब रही

मेरी एक सहेली को जन्मदिन पर नया स्मार्ट फोन मिला. उस में व्हाट्सऐप इंस्टौल कर वह सब को तरहतरह के मैसेज भेजती रहती. वह यह नहीं जानती थी कि मैसेज के साथ सामने वाले की स्क्रीन पर नाम भी दिखाई देता है. एक बार मेरे पास एक मैसेज आया. उस में लिखा था, ‘नमस्कार, सैंट यू अ मैसेज.’ मुझे लगा कोई बेकार का मैसेज होगा, इसलिए मैं ने उसे बिना देखे ही छोड़ दिया.

दूसरे दिन फिर एक मैसेज आया जिस पर लिखा हुआ था ‘वैलकम, सैंट यू अ मैसेज.’ मैं ने उसे भी नहीं देखा बल्कि सोच में पड़ गई कि कौन है जो मुझे इस तरह के मैसेज भेज रहा है. रोज बदलबदल कर अलगअलग नाम से मुझे मैसेज मिलते रहे. एक दिन मैं ने उस मैसेज बौक्स को खोला तो हैरान रह गई. वह मेरी सहेली का था. मैं ने उसे फोन लगाया और पूछा कि तुम रोज अपना नाम बदलबदल कर मैसेज क्यों कर रही हो? उसे स्वयं हैरानी हुई, ‘‘बोली, मैं तो नाम नहीं बदल रही.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे मैसेज तो रोज अलगअलग नाम से आ रहे हैं?’’ मैं बोली.

मैं ने उसे जब सारा किस्सा बताया तो वह बहुत शर्मिंदा हुई. बोली, ‘‘दरअसल, मेरी ही गलती है. मैं कुछ नया करने के चक्कर में कुछकुछ लिख कर अपनी वाल पर लगा देती हूं. मुझे नहीं मालूम था कि यह मेरे नाम की जगह पर दिखाई दे रहा होगा सब को.’’

– अनीता सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

*

मै एक सीनियर सैकंडरी स्कूल में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत था. वार्षिक परीक्षा में कसबे के एक राजनेता व विद्यालय विकास समिति के सदस्य का लड़का कक्षा 11वीं में फेल हो गया. लड़के के पिता मेरे औफिस में आए और बोले, ‘‘प्रिंसिपल साहब, मेरा लड़का कैसे फेल हो गया. आप के स्कूल के कमरों के निर्माण में मैं ने कितना योगदान दिया. आप परीक्षा इंचार्ज को बुला कर पूछिए, वह कैसे फेल हुआ?’’

मैं ने परीक्षा प्रभारी को बुलाया और लड़के के बारे में जानकारी चाही. परीक्षा प्रभारी अंकतालिका का रजिस्टर लाया और बोला, ‘‘रमेश के ‘एग्रीगेट’ में नंबर कम पड़ रहे हैं.’’

इस पर रमेश के पिता ने कहा, ‘‘आप एग्रीगेट विषय के शिक्षक को बुला कर थोड़े अंक बढ़वा दीजिए ताकि मेरा पुत्र रमेश उत्तीर्ण हो जाए.’’

राजनेता की बात सुन कर हम सब मुसकरा उठे. जब उन्हें ‘एग्रीगेट’ का अर्थ समझाया तो वे लज्जित हुए लेकिन मुसकराने भी लगे.

– डा. श्याम मनोहर व्यास, उदयपुर (राज.) 

याद नहीं आता

तेरे माथे की बिंदिया से

कुछ याद नहीं आता

चमकती चूंडि़यों की खनक

माथे में सुर्ख सिंदूर

सुहागन का सा सौंदर्य

देख कर भी

कुछ याद नहीं आता

वो हसीन पल

जो हमारे अपने थे

दफन हैं किसी तहखाने के भीतर

इसीलिए शायद

कुछ याद नहीं आता

न करो कोशिश अब

कुछ याद दिलाने की मुझे

कुछ याद नहीं आता

बंद कमरे में चीख लूंगा

जी भर कर रो लूंगा

स्मृतियों को आंसुओं से ढक लूंगा

तब भी यही कहूंगा

कुछ याद नहीं आता.

       

– सम्राट विद्रोही

 

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