भारत का समर्थन मिलने के बाद बलूचिस्तान की आजादी का आंदोलन और तेज हो गया है. अमेरिका, यूरोप, जरमनी और कनाडा में बलूचों के पाकिस्तान के विरुद्ध किए जाने वाले प्रदर्शनों की तादाद बढ़ गई है. पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित, बाल्टिस्तान में लोग सड़कों पर आ कर खुल कर स्वतंत्रता की मांग करने लगे हैं. भारत की स्वतंत्रता की 70वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से अपने भाषण में बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया था. बलूचिस्तान के आंदोलनकारी नेताओं द्वारा मोदी के बलूचिस्तान वाले भाषण का समर्थन करने पर पाकिस्तान द्वारा बलूच आंदोलन के अगुआ ब्रह्मदाग बुगती समेत कई नेताओं के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया. कहा जा रहा है कि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कूटनीतिक अभियान की शुरुआत कर दी है जिस से पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर घिर सकता है. दोनों देशों के बीच नए सिरे से तनातनी देखने को मिल रही है. बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में निश्चित ही राजनीतिक अधिकारों की मांग को नई ताकत मिली है. पाक अधिकृत कश्मीर में सैकड़ों युवा पाकिस्तान के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और पाकिस्तानी सेना से गिलगित को छोड़ने की मांग कर रहे हैं.
सवाल यह है कि इस से भारत को कूटनीतिक तौर पर क्या कुछ ठोस हासिल हो सकता है? जिस तरह कश्मीर और बलूचिस्तान इसलाम के 2 अलगअलग प्रतिस्पर्धी पंथों में बंटे हुए हैं, भारत की दखलंदाजी से क्या वह खुद ही नहीं घिर जाएगा?
बलूचिस्तान का इतिहास
अकबर के शासनकाल में बलूचिस्तान मुगल साम्राज्य के अधीन था. इस क्षेत्र का शासन 1638 तक मुगलों ने अपने अधीन रखा. प्रथम अफगान युद्ध (1839-42) के बाद अंगरेजों ने यहां अधिकार जमा लिया. 1869 में अंगरेजों ने कलात के खानों और बलूचिस्तान के सरदारों के बीच झगड़े की मध्यस्थता की. 1876 में रौबर्ट सैंडमैन को बलूचिस्तान का ब्रिटिश एजेंट नियुक्त किया गया. 1887 तक इस के ज्यादातर इलाके ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गए. बाद में अंगरेजों ने बलूचिस्तान को 4 रियासतों में बांट दिया था. कलात, मकरान, लसबेला और खारन. 20वीं सदी में बलूचों ने अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया. इस के लिए 1941 में राष्ट्रवादी संगठन अंजुमन ए इत्तेहाद ए बलूचिस्तान का गठन हुआ. नतीजतन, 1944 में जनरल मनी ने बलूचिस्तान की आजादी का विचार रखा.